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क्रांतिकारी कवि विनोद शंकर की दो कविताएं

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सिलगेर
Two poems of revolutionary poet Vinod Shankar
विनोद शंकर

सिलगेर

सत्ता की आंखों में आंखें डाल कर खड़ा है सिलगेर
संविधान को अपने सीने पर रख कर खड़ा है सिलगेर
तथाकथित विकास के चूहे को
अपने पैरों तले रौंद कर खड़ा है सिलगेर
यह है हमारा सिलगेर
यह है तुम्हारा सिलगेर

यह हम सब के लिए
पूरे देश और पूरी दुनिया के लिए
खड़ा है सिलगेर
सब से कुछ कहने, कुछ सुनने
क्रांति का परचम थामे खड़ा है सिलगेर

चारु का प्यार है सिलगेर
भारत का येनान है सिलगेर
लोकतंत्र की जान है सिलगेर

सिलगेर खड़ा है क्रांति के लिए
सिलगेर खड़ा है शान्ति के लिए
सिलगेर खड़ा है विकास के लिए
सिलगेर खड़ा है शोषकों के विनाश के लिए

सिलगेर अब एक गांव नहीं, आन्दोलन का नाम है
जिसकी जड़ें वटवृक्ष की तरह गहरी
और भुजाएं इसकी तने की तरह फैली हैं

सिलगेर ने रोक दिया है विनाश के घोड़े को
जो विकास के नाम पर पूरी धरती को
रौंदता चला जा रहा है
पकड़ लिया है उसकी लगाम को
जिसे छुड़ाने के लिए राजा ने फौज उतार दिया है

सिलगेर ने प्रश्नचिन्ह लगा दिया है
उस सड़क पर जिसे विकास का पर्याय बना दिया गया है
सवाल उठा दिया है उस सेना पर
जिसे देश की सुरक्षा का आधार समझा जाता है
जो जनता के जीवन में दखल देने के सिवा
और क्या कर रहा है ?
सिलगेर खड़ा है विकल्प के साथ
जिसे वहां जनताना सरकार कहा जा रहा है

आओ हम सिलगेर के लिए बोलें, लिखें
उसके साथ कदम मिला कर चलें
सिलगेर की जीत में हम सब की जीत
और हार में हम सब की हार है
वहां जो सूर्योदय हो रहा है
वही हम सब के भविष्य का आधार है !

गनतंत्र

गणतंत्र तो हमने देखा नही
गनतंत्र जरूर देखा है
सुना है इसकी गोलियों की आवाज
जब भी कोई उठाता है सवाल
शोषण, गरीबी और अन्याय के खिलाफ
तो उनका सीना कर दिया जाता है छलनी
यह कह की गणतंत्र विरोधी था
यह व्यक्ति महाराज !

सवाल कर रहा था
हमारे महान लोकतंत्र और देश से
इसे नहीं था हमारे नियम-कानून पर विश्वास
यह अपना नियम-कानून लागू करना चाहता था
जिसे हम कभी नहीं करेंगे बरदाश्त
जो कानून बन गया वो बन गया
उसे बदलने वाले कौन होते हैं ये दो-चार !

यहां सब अपने पूर्वजन्म का फल भोग रहे है
इसे बदलने का किसी को नही है अधिकार
मनु का विधान ही हमारा विधान है
क्या भारतीय संविधान से बना है कोई बात ?
ये देश जैसा था पहले वैसा ही रहेगा
मालिकों और गुलामों वाली व्यवस्था नहीं बदलेगा
हम अपना सीना ठोक कर कह रहे हैं आज !

कुछ इसी तरह की आवाज मैं रोज सुनता हूं
26 जनवरी और 15 अगस्त तो
खास दिन है इनके लिए आज
ये अपनी बात इतनी जोर-शोर से
प्रचारित कर रहे है कि दब गया है
इस लोकतंत्र में लोक की ही आवाज
जो शोषित है वंचित है
उनके लिए आवाज उठाने वाला
रोज ही किया जा रहा है गिरफ्तार
गणतंत्र के नाम पर गनतंत्र का शासन ही
इस देश में चल रहा है आज !

जिसकी छाया में मुरझा जा रहा है
जनवाद का पौधा
सुख जा रहा है प्रगतिशीलता का फूल
इसकी नैतिकता के आगे
टुट जा रहा है आधुनिकता
यह परम्परा का बरगद
आज बन गया है जनता के लिए शूल !

बिना इसको जड़ से उखाड़े
जनता की कोई बात नहीं बनेगा
हमारे घर-आंगन में
प्रगतिशीलता का फूल नहीं खिलेगा
आधुनिकता की रौशनी से
हमारा घर-आंगन नहीं चमकेगा
जिसकी शुरुआत हमें खुद से करनी होगी
तभी देश और समाज बदलेगा
और जब देश और समाज बदलेगा
तभी हमें शोषण से मुक्ति मिलेगा
इसके अलावा और कोई रास्ता नहीं है
आज हमारे पास !

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