‘हर जोर ज़ुल्म के टक्कर में हड़ताल हमारा नारा है’ जैसे मजदूरों के हक़ की लड़ाई के गीत लिखने वाले गीतकार शैलेन्द्र ने अपने गीतों में मानवीयता, समर्पण, प्रेम, विरह और भावनात्मकता को प्रमुखता दिया. 30 अगस्त 1923 में रावलपिंडी में जन्मे शैलेन्द्र का पूरा नाम ‘शंकरदास केसरीलाल शैलेन्द्र’ था.
कॉलेज के दिनों में शैलेंद्र शासन विरोधी लेखों के कारण कई बार प्रताड़ित किये गये थे. इसी दौरान एक नवोदित कवि के रूप में उनकी कविता हंस, धर्मयुग और हिंदुस्तान जैसी प्रसिद्ध पत्रिकाओं छपने लगी थी. इसके बाद अगस्त आंदोलन के दौरान उन्हें जेल भी जाना पड़ा और उनके लेखनी की दिशा बदल गयी. इसके बाद उन्होंने अपने कविता में मजदूरों के हक़, प्रजातंत्र की असफलता, शासन की दमनपूर्ण एवं गलत नीतियों और भूख के विरुद्ध वर्ग संघर्ष की लड़ाई को प्रमुखता देने लगे.
जेल जाने के बाद घर से उन्हें नौकरी के लिए दबाव पड़ने लगा और उन्होंने इस दबाव को देखते हुए रेलवे इंजीनियर की नौकरी कर लिया लेकिन उन्होंने कविता लिखना नहीं छोड़ा. और इसी दौर में आयी उनकी ‘न्यौता और चुनौती’ नामक कविता संग्रह, जो उनकी लेखनी की सशक्त उदाहरण हैं. आज़ादी के समय उन्होंने ‘जलता है पंजाब’ नामक कविता लिखा जो 1947 की तत्कालीन राजनीति पर लिखी गयी थी.
एक नाट्क के मंचन के दौरान शैलेन्द्र को वो कविता पढ़ते हुए राजकपूर ने सुना और वो शैलेन्द्र से अपनी फिल्म के लिए गीत लिखने की बात किये लेकिन शैलेन्द्र ने ‘मैं पैसों के लिए नहीं लिखता’ कहकर मना कर दिया. उस समय राजकपूर की उम्र 23 साल के आस-पास थी.
लेकिन आर्थिक तंगी के कारण शैलेंद्र को सिनेमा की तरफ जाना पड़ा और उन्हें राजकपूर साहब ने अपनी फ़िल्म ‘बरसात’ के लिये लिखने का मौका दिया. इसके बाद शुरू हुआ सफर ऐसा सफर रहा जिसके बिना हिंदी फ़िल्मी गीतों का इतिहास अधूरा रह जाये. शैलेन्द्र, मुकेश, शंकर-जयकिशन और राजकपूर की जोड़ी ने हिंदी सिनेमा को अतुलनीय गाने दिए. इस ‘बरसात’ फिल्म से ही शंकर जयकिशन की जोड़ी ने भी फिल्मों में पदार्पण किया.
‘आवारा हूं, तू प्यार का सागर है, मेरा जूता है जापानी, दिल का हाल सुने दिलवाला, होठों पर सच्चाई रहती है, पूछों ना कैसे रैन बिताई, कोई लौटा दे मेरे बीते हुए दिन, रुला के गया सपना मेरा, रमैय्या वस्तावैया, सजनवा बैरी भये हमार, मुड़-मुड़ के न देख मुड़-मुड़ के, प्यार हुआ इकरार हुआ, सूर ना सजे क्या गाउं, ये रात भींगी भींगी, अबकी बरस भेज भईया को बाबुल, भैया मेरे राखी के बंधन को, नन्हे मुन्ने बच्चे तेरी मुट्ठी में, दिन ढल जाए, बरसात में हम तुमसे मिले सजन, ओ बसंती पवन, दिन ढल जाए हाय रात न जाए, जैसे गानों ने अपने समय में सभी को अपने रस से रसज्ञ किया.
मासूम दिल के शैलेन्द्र साहब ने अपनी जीवन की सारी पूंजी बतौर निर्माता ‘तीसरी कसम’ फ़िल्म में लगा दी थी. फ़िल्म बहुत अच्छी बनी थी. फ़िल्म को आज भी हिंदी सिनेमा के क्लासिकल फिल्मों में सबसे ऊपर रखा जाता है लेकिन फ़िल्म बॉक्स ऑफिस पर असफल हो गयी.
शैलेन्द्र गहरे आर्थिक संकटों मे फंस गए, उनके फ़िल्म में काम करने वाले उनके करीबी लोगों ने भी अपने फीस में कुछ कमी नहीं की और ना ही किसी प्रकार से उनके सहायता के लिए आगे आये थें. और नाज़ुक मिज़ाज़ गीतकार जीवन की इस सच्चाई से टूट गया, बिखर गया और 14 दिसम्बर 1966 को संकटों के भंवर में उलझकर जीवन से हार गया.
शैलेंद्र मृत्यु जिस दिन हुई उसी दिन राजकपूर का जन्मदिन भी था. शैलेन्द्र की मृत्यु की ख़बर सुनकर उन्होंने कहा था कि ‘मेरे दोस्त ने जाने के लिए कौन सा दिन चुना, किसी का जन्म, किसी का मरण. कवि था ना, इस बात को ख़ूब समझता था.’
लेकिन यहां यह कहना कि ‘तीसरी कसम’ की असफलता के कारण शैलेन्द्र की मृत्यु हुई, बेईमानी होगी, क्योंकि वह इस फिल्म की असफलता के कारण नहीं बल्कि अपनों के द्वारा ठगने के कारण टूट गए थे. ‘तीसरी कसम’ फिल्म को बाद में राष्ट्रपति द्वारा पुरस्कृत भी किया गया तथा प्रसिद्ध निर्देशक ख्वाज़ा अब्बास ने इस फिल्म को ‘सेलुलाइड पर लिखी कविता’ कहा था.
शैलेन्द्र के जिंदगी में वो समय भी आया जब संगीतकार शंकर जयकिशन से मनमुटाव हो गया और शंकर जयकिशन ने किसी अन्य गीतकार को अगली फिल्म के लिए चुन लिया. इस पर शैलेन्द्र ने उनके पास एक चिठ्ठी भेजी. चिठ्ठी में लिखा था –
‘छोटी सी ये दुनिया, पहचाने रास्ते,
तुम कभी तो मिलोगे, कहीं तो मिलोगे, तो पूछेंगे हाल’
बस इतना पढ़ते ही सब मनमुटाव खत्म हो गया.
शैलेन्द्र किस स्तर के गीतकार थे इसका अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि ‘सन 1963 में साहिर लुधियानवी ने साल का फ़िल्म फेयर अवार्ड यह कह कर लेने से मना कर दिया था कि उनसे बेहतर गाना तो शैलेंद्र का लिखा बंदिनी का गीत – ‘मत रो माता लाल तेरे बहुतेरे’ है.’
इसके अलावा जनकवि बाबा नागार्जुन ने शैलेन्द्र जी के सम्मान में लिखा था –
‘गीतों के जादूगर का मैं छंदों से तर्पण करता हूं’
सच बतलाऊं तुम प्रतिभा के ज्योतिपुत्र थे, छाया क्या थी,
भली-भांति देखा था मैंने, दिल ही दिल थे, काया क्या थी.’
शैलेन्द्र जी सर्वश्रेष्ठ गीतकार का फ़िल्म फेयर पुरस्कार पाने वाले पहले गीतकार हैं. उन्हें 3 बार यह पुरस्कार मिला है. यह पुरस्कार उन्हें ‘यह मेरा दीवानापन’ (यहूदी 1959), ‘सब कुछ सीखा हमने’ (1960 अनाड़ी)’ और ‘मैं गाऊं तुम’ (ब्रह्मचारी 1969) गाने के लिए मिला.
श्वेत-श्याम पटल पर जीवन की रंगीन सच्चाई को उकेरने वाले महान गीतकार एवं जनकवि को उनकी पुण्यतिथि पर सादर नमन् !
‘सजन रे झूठ मत बोलो, खुदा के पास जाना है
ना हाथी है, ना घोड़ा है, वहा पैदल ही जाना है
तुम्हारे महल चौबारे, यहीं रह जायेंगे सारे
अकड़ किस बात की प्यारे, ये सर फिर भी झुकाना है
भला कीजे भला होगा, बुरा कीजे बुरा होगा
बही लिख लिख के क्या होगा, यहीं सबकुछ चुकाना है’
- कुलदीप कुमार ‘निष्पक्ष’
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