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मार्क्सवाद की आड़ में शिखंडीवाद

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मार्क्सवाद की आड़ में शिखंडीवाद
मार्क्सवाद की आड़ में शिखंडीवाद

कुछ लोग सच में इतने बड़े ‘धूर्त मासूम’ होते हैं कि अपने दुराग्रहों के लिए अपने को ‘महान तर्कवेत्ता’ साबित करने के लिए कालजयी विद्वानों के पिछवाड़े छिपकर रायता फैलाते रहने को ‘किरांती’ कहने लगते हैं. यह हर हाल में बुरा दौर है. आप चौकन्ने नहीं हैं तो आपके द्वारा भंडारण किया गया ‘भविष्य निर्माण लौह अयस्कों’ पर सेंधमारी की जा सकती है. निर्माण लौह अयस्कों की मजबूत पहरेदारी विचारों के उच्छृंकल शास्त्रार्थ में नहीं है बल्कि विचारों में से उसके प्रतिगामी अवयवों को लगातार छांटते रहने में है.

इस बात को जानना बेहद जरूरी है कि दुनिया में किसी भी विद्वान का कोई भी विचार उसका अपना मौलिक विचार नहीं है. सभी विचारक, परिस्थितियों व पूर्ववर्ती विचारकों से उत्प्रेरित होते हैं, विचारक केवल शाब्दिक एकत्रीकरण का काम करता है इसलिए हम कह सकते हैं कि कोई भी विचार पूर्ववर्ती विचारकों का संकुचित या विस्तारित स्वरूप मात्र ही होता है, जिसे मान्यता देने के लिए पर्याप्त परिस्थितियों का होना अनिवार्य है.

एक ही विचार कई कालखंडों में अलग-अलग स्वरूप लिए होता है. जैसे उदाहरण के तौर पर हम कहें कि ‘आजादी हर एक प्राणी का जन्म सिद्ध अधिकार है.’ लेकिन कालांतर में इसे ‘आजादी हर एक मनुष्य का जन्म सिद्ध अधिकार है’ कर दिया गया. यानी प्राणी को हटाकर मनुष्य कर दिया गया और इस कथन को आज के दौर में सभ्य मानवता की पहली निशानी के तौर पर जाहिर किया जाता है.

लेकिन कथनों प्रकथनों के इस वाकसंग्राम से प्रकृति के नियम नहीं बदल जाते हैं. जिन प्राणियों की प्रकृति आजादी में रहने की है, वो निश्चित तौर पर आजादी में ही रहते हैं लेकिन यह मानव सभ्यता पर प्रश्न है कि वह प्रकृति में अन्य प्राणियों की आजादी को लेकर लापरवाह व ढीठ क्यों होता है. हालांकि इस सवाल का जवाब मानवतावाद व उपभोगवाद के बीच फंसा हुआ है, जिस पर हम किसी अन्यत्र पोस्ट पर बात करेंगे, फिलहाल हम यहां पर विचारों की जरूरत पर बात कर रहे हैं.

जैसे एक कथन ये भी आता है कि ‘जीवन-मृत्यु से प्रकृति की गति में कोई फर्क नहीं पड़ता है.’ यह एक आधा या सतही सच है. इस कथनानुसार प्रकृति संवेदनहीन प्रतीत होती है जबकि जीव, वनस्पति दोनों ही संवेदनायुक्त हैं. संवेदनाओं की व्यापकता के मद्देनजर वनस्पति विज्ञानियों ने पाया कि एक ही तरह के पौधों के बीच से कुछ पौधे उखाड़ दिए जाते हैं तो अन्य पौधों में भी इसकी प्रतिक्रिया झलकती है.

इसलिए हम कह सकते हैं कि प्रकृति में जीवन मृत्यु का असर नहीं पड़ता है लेकिन प्रकृति की गोद में हर चेतन्य चीज में संवेदना एक प्राकृतिक गुण है. बाढ़, भूकम्प त्रासदियां, आपदायें प्रकृति द्वारा संवेदनाओं को रि-स्टोर या अपडेट करने का अपना तरीका है. प्राकृतिक घटनाओं में संवेदनहीनता जैसी दिखने वाली चीजों में संवेदनशील तत्त्वों का बड़े जोर-शोर से पल्लवन की अनुगूंज होती है.

विचारों का पल्लवन या विभंजन (नष्ट) करने के नेपथ्य में समाज या व्यक्तियों के अपने हित सधे होते हैं. इसलिए एक ही विचार को तोड़ मरोड़कर अलग-अलग व्यवस्थाओं द्वारा अलग-अलग कालखंडों में इस्तेमाल किया जाता रहा है. लेकिन हम यहां पर अपनी वितृष्णाओं व वितंडताओं भरे दुराग्रहों के लिए सहमति जुटाने हेतु विद्वानों द्वारा कहे गए स्थापित कथनों या विचारों की आड़ लेने की वजह पर बात कर रहे हैं. जब वजहों को टटोलते हैं तो इसमें दो मुख्य वजहें नजर आती हैं –

  1. आप अपने परिवेश पर आधारित किसी चलन पर आत्मविभोर हैं लेकिन आपको इसे सार्वभौमिक सत्य सिद्ध करना है.
  2. अपनी बात को साबित करने के लिए मौजूदा परिस्थितियों में आपके पास पर्याप्त आधार नहीं है.

जैसा कि हम पिछले पैरा में कह चुके हैं विचार किसी व्यक्ति का नहीं होता है बल्कि विचार तो परिस्थितियां देती हैं. आदमी तो केवल उसका सलीके से शाब्दिक भंडारण मात्र करने वाला होता है, तदनुसार प्रगतिशील धारा में दार्शनिकता व वैज्ञानिकता के बीच घालमेल करने से परहेज़ करना चाहिए. अगर किसी दार्शनिक ने कहा हो कि ‘सदा सत्य बोलो, सत्य ही मनुष्यता की पहचान है.’ तो इसे दार्शनिकता के तौर पर ही लेना चाहिए क्योंकि यह वैज्ञानिक सत्य नहीं है. झूठ बोलने वाले भी मनुष्य ही होते हैं.

वैज्ञानिक आधार पर झूठ बोलने वालों को अलग वर्ग का प्राणी नहीं माना जा सकता है. दार्शनिकता और वैज्ञानिकता के बीच मान्यताओं व प्रमाणों के संघर्षों को वैज्ञानिक समाजवाद के जनक कार्ल मार्क्स ने शिद्दत से महसूस किया और समूचे जीवन भर मार्क्स व एंगेल्स इसी पर काम करते रहे, और दोनों ने दर्शन व विज्ञान को एक करके ही दम लिया जिसे कालांतर में हम मार्क्सवाद के नाम से जानते हैं.

मार्क्सवाद के तहत ‘हर विचार और वक्तव्य को वैज्ञानिक कसौटी पर तौला जाना चाहिए जब तक वह जनसाधारण के लिए जनव्यापी संसाधन जुटाने का औजार नहीं बन जाता उस विचार पर संदेह करना जारी रखना चाहिए.’

जो लोग भविष्य में राजनीतिक परिवर्तन के लिए आशान्वित हैं, उन्हें एक स्वस्थ बदलाव के लिए मार्क्सवाद को जरूर संज्ञान में लेना चाहिए लेकिन अपनी वितंडताओं और घामड़ बौद्धिकता की मान्यता के लिए युगदृष्टा दार्शनिकों के कथनों की आड़ लेना आपके उन्नतशील मानवतावादी संघर्षों की तरफ पीठ फेरे रहना तो है ही, इस बात पर भी गहरी स्याही की मुहर है कि आप वैचारिक उथलेपन व उदण्डतापूर्ण धारणाओं के शिकार में महज अपनी भद्द पिटवा रहे हैं.

  • ए. के. ब्राईट

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