मीरा दत्त, संपादक, तलाश पत्रिका
इन दिनों राष्ट्रवाद और देशभक्ति का भाजपा शासक द्वारा बहुत शोर मचाया जा रहा है. इसे इतिहासकारों ने अतिराष्ट्रवाद की संज्ञा दी है. हाल में दिल्ली में राजपथ का नाम बदलकर पीएम मोदी ने कर्तव्य पथ कर दिया. इसे मोदीजी ने मानसिक गुलामी की दास्तां से मुक्ति बताया क्योंकि राजा का पथ अंग्रेजी शासन के गुलामी का प्रतीक था. लेकिन क्या मात्र नाम बदलने से मानसिक गुलामी खत्म हो जाती है ? कथनी और करनी में बड़ा अंतर है. इसी दौरान 8 सितम्बर 2022 को युनाइटेड किंगडम की महारानी एलिजाबेथ 2 का देहांत हो जाता है. तुरंत इनके शोक मनाने के लिए पीएम मोदीजी ने राष्ट्रध्वज को आधा झुकाने का आदेश दे दिया. ये वही अंग्रेजी शासन की महारानी हैं जिनके अर्न्तगत हमारा देश करीब दो सौ साल गुलाम रहा, जिसकी गुलामी से मुक्ति पाने के लिए हमारे देश के क्रांतिकारियों ने आत्म बलिदान किया. क्या देश का झंडा झुकाने से उनके आत्म बलिदान का अपमान नहीं हुआ ? क्या ये गुलाम मानसिकता का प्रतीक नहीं है ?
लेकिन सिर्फ राज पथ ही क्यों पूरा संविधान, भारतीय दंड संहिता, अपराधिक दंड संहिता और सीपीसी अंग्रेजी शासन की देन है. संविधान ज्ञाताओं का मानना है कि इस देश पर शासन करने के लिए अंग्रेज होम रूल एक्ट 1935 लेकर आये थे, उसी में मामूली फेर-बदल कर उसे भारतीय संविधान बना दिया गया. इसमें मात्र पदावली आईसीएस को बदल कर आईएएस कर दिया गया. इसमें डॉ. अम्बेडकर कुछ बदलाव कर महिलाओं को बराबरी का अधिकार करना चाहते थे तो उनको हिन्दुओं का वर्चस्व वाली संविधान सभा से इजाजत नहीं मिली. डॉ. अम्बेडकर स्वयं बाद में इस संविधान के खिलाफ थे. इसके बाद उन्होंने प्रथम कानून मंत्री के पद से इस्तीफा तक दिया.
कानूनी प्रक्रिया लम्बी, जटिल एवं महंगी है इसलिए देश में लंबित वादों की संख्या करोड़ों में है. पूरी कानूनी प्रक्रिया पेंचिदगियों में उलझ कर रह जाती है. इस कारण अब अधिकांशतः पीड़ित न्यायालय की शरण नहीं लेना चाहते हैं.
यदि आर्थिक नीतियों की पृष्ठभूमि देखें तो देश जैसे ही आजाद हुआ, इसे ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने राष्ट्रमंडल देशों का सदस्य बनवाया ताकि भारत जैसे बड़े देश की आर्थिक नीतियों को वे दिशा निर्देशित कर सके. अर्थात अपने व्यापार में लाभ के अनुसार भारत की आर्थिक नीतियां का नियंत्रण कर सके और अकूत मुनाफा कमा सके जैसा कि वे अपने शासन काल में कर रहे थे. इस कार्य में मदद की हमारे देश की नौकरशाही ने, जो औपनिवेशिक काल में भी अंग्रेजी शासन व्यवस्था के साथ देते थे न कि भारतीयों की जो आजादी की लडाई लड़ रहे थे. आजादी के बाद भी शासन व्यवस्था, नौकरशाही अंग्रेजी शासन वाली रही, जिनकी वफादारी ब्रिट्रिश शासन के साथ थी, आजादी के बाद भी शासक वर्ग का बड़ा हिस्सा अपने पुराने मालिक के प्रति वफादार रहा.
आजादी के बाद भी सत्ता पर सामंत वर्ग का कब्जा हुआ. इसका दुष्परिणाम यह हुआ कि एक मात्र आधुनिक तकनीक के नाम पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद ने हमारे देश के विदेशी व्यापार भुगतान संतुलन, विदेशी कर्ज, विदेशी कर्ज-सेवा अर्थात सूद को नियंत्रित करते रहे. जैसे ही भारत आजाद हुआ ब्रिटेन ने भारत के सामने आधुनिक तकनीक के नाम पर देश को रेलवे डीजल इंजन देने का प्रस्ताव दिया, जिसे यहां के दफ्तरशाही ने शासक वर्ग से पारित करवा दिया. आजादी के पहले भारत ब्रिटेन का लेनदार देश था. 31 मार्च 1948 तक ब्रिटेन भारत का 1612 करोड़ रूपये का कर्जदार था लेकिन डीजल इंजन तकनीक लेने की वजह से भारत 1950 में 49.8 करोड़ रूपये का कर्जदार बन गया.
ब्रिटेन ने पहले विदेशी सहायता, कम सूद पर विदेशी कर्ज दिये जिससे कि कर्ज को प्रोत्साहन मिला. इसके बाद तो अन्य क्षेत्र जैसे, उर्वरक, बिजली उत्पादन के क्षेत्र में भी आधुनिक तकनीकी के नाम पर पेट्रालियम आधरित तकनीकी लागु किया गया. निरंतर एक के बाद एक तकनीकीे और विदेशी कर्ज लेते रहने की कीमत धड़ल्ले से बढ़ता हुआ विदेशी व्यापार घाटा, विदेश कर्ज, कर्ज-सेवा सूद के रूप में चुकाना पड़ा. ये उपादान संसाधन के रूप में विदेश जाता रहा.
शुरूआती दौर में यह विदेशी व्यापार घाटा, विदेशी कर्ज, सूद व मुनाफा की राशि कम थी लेकिन साल 1980 से ही व्यापार में उदारीकरण की पक्रिया चलाई जा रही थी – रुपये का अवमूल्यन किया गया, जिससे विदेश व्यापार घाटा जो साल 1979-80 के 2725 करोड़ से तेजी से बढ़कर 1980-81 में दोगुना के करीब 5838 करोड़ रूपये हो गया. अर्थशास्त्रियों ने आगाह भी किया. फिर भी, नब्बे दशक के मध्य में आधुनिकीकरण के नाम पर विदेश व्यापार कोे और उदार बनाया गया, जिससे आयात, निर्यात की तुलना में तेजी से बढ़ा. इस वजह से साल 1985-86 विदेशी व्यापार घाटा और कर्ज सेवा बढ़कर क्रमशः 8763 करोड़ व 4730 करोड़ हो गया. जो अंततः 1990 में यह एक बड़े संकट के रूप में देश के सामने आया.
बढ़ते व्यापार घाटा, कर्ज सेवा को विदेशी मुद्रा में देश को चुकाना था. इसे चुकाने के लिए देश में जमा विदेशी मुद्रा कम पड़ गया. तब विदेश में और किसी देश ने भारत को विदेशी मुद्रा की सहायता नहीं की. बस इसी दिन का इंतजार साम्राज्यवाद कई सालों से कर रहा था. मौका मिलते ही विदेशी मुद्रा कर्ज के रूप में देने के लिए साम्राज्यवादी देशों, अमेरिका, इंग्लैड की एजेंट संस्था अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक ने भारत सरकार के सामने शर्मनाक शर्तें रखी. एवज में देश का 46 टन सोना बैंक ऑफ इंग्लैंड में गिरवी रखना पड़ा. जाहिर है देश की साख पर अमेरिका एवं इंग्लैंड जैसे साम्राज्यवादी देशों के एजेंट अन्तर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष एवं विश्व बैंक ने भरोसा नहीं किया. तब इस संकट का लोगों को पता चला.
इस विदेशी मुद्रा कर्ज का कुप्रभाव यह हुआ कि विदेशी कर्ज बढ़कर 31 मार्च 1991 में 99485 करोड़ हो गया. कर्ज-सेवा या सूद और विदेशी व्यापार घाटा क्रमशः बढ़कर 9630 एवं 10644 करोड़ रूपये तक पहुंच गया. वर्ष 1991 में प्रतिकूल शर्तों के साथ नई आर्थिक नीति को लागु करना पड़ा. हालांकि उस समय सरकार ने नई आर्थिक नीति को बड़े धमाके के साथ लागु किया था. हमेशा की तरह नौकरशाह की मजबूत भूमिका रही. इसे उदारीकरण, आर्थिक-सुधार की नीतियां भी कहा गया. इस नीति के अन्तर्गत आयात शुल्क को घटाया जाना, विदेशी निवेश को छूट, निजीकरण को बढ़ावा, लोक उपक्रमों का विनिवेश, आदि शामिल हैं.
इस नई आर्थिक नीति का कांग्रेस सरकार ने ही केवल समर्थन नहीं किया, बल्कि मई 1991 में भारत सरकार के बजट पर वोटिंग के दौरान विपक्ष भाजपा ने भी सदन से बाहर जाकर अप्रत्यक्ष रूप से समर्थन ही किया. उसी दिन से स्वदेशी, राष्ट्रवाद आदि भाजपा का नारा जनता को दिखाने लिए था और आज भी है. क्योंकि अब भी भाजपा की सरकार छद्म राष्ट्रवाद की आड़ में नई आर्थिक नीतियों को ही प्रचंड रूप में लागू कर रही है. तथ्यों से यही प्रतीत होता है. जैसे-जैसे विदेशी व्यापार घाटा बढ़ता गया रुपये की कीमत भी गिरती (अवमूल्यनद्) गई. विदेश व्यापार घाटा और विदेशी कर्ज का सूद जो साल 2014 में क्रमशः 2682214 करोड़ और 158250.626 करोड़ रुपये था वह बढ़कर मार्च 2022 में क्रमशः 4903530 और 251755.92 करोड़ रुपये हो गया.
रुपये का अवमूल्यन इधर इतनी तेज गति से हुई कि अमेरिकन डॉलर की कीमत 82.70 रुपये तक हो गई जो 27 मई 2014 को 58.92 रुपया था. जब पत्रकारों ने इस पर वित्त मंत्री से प्रश्न किया तो उन्होंने ऐसा जताया जैसे कि यह कोई आर्थिक संकट है ही नहीं. वित्त मंत्री का जवाब था कि रुपया नहीं गिर रहा है, डॉलर मजबूत हो रहा है. क्योंकि आम जनता जागरूक नहीं है. अधिकांश पढ़े-लिखे लोग भी जाहिल हैं जबकि, इंग्लैंड में पोैंड के अवमूल्यन व आर्थिक संकट के कारण 45 दिन के अंदर नवगठित सरकार गिर गई.
लेकिन दुनिया में संकट है और देश श्रीलंका जैसी आर्थिक संकट से उत्पन्न विनाश की स्थिति में न पहुंचे, देश को संकट से उबारने के लिए सरकार कोे कुछ कड़े निर्णय लेने होंगे. हालांकि यह बहुत कठिन है लेकिन जब नोटबंदी या कोरोना काल के तालाबंदी को जनता स्वीकार कर सकती है तो आज देश को आर्थिक गुलामी से मुक्ति दिलाने के लिए जनता सहर्ष इस मुहिम में शामिल हो जायेगी. अब पहले से गहन विदेशी मुद्रा संकट बना हुआ है. हमारा तत्काल कदम यह होना चाहिए कि तत्काल प्रभाव से हम विदेशी मुद्रा भुगतान कुछ वर्षों तक स्थगित कर दें. इससे हमारे आयात में भारी कमी आयेगी, खासकर पेट्रोल, पेट्रोलियम उत्पाद, पूंजीगत पदार्थ का निर्यात भी कुछ कम होगा.
फलस्वरूप, व्यवस्थित क्षेत्र में कुछ छंटनी भी होगी. आन्तरिक उत्पादन में कुछ कमी भी आयेगी लेकिन गुलामी से देश को बचाने के उत्साह के बीच इन कठिनाइयों को सह लेना मध्यमवर्ग के लिए बहुत दुष्कर नहीं होगा. साथ ही अगर सच्चे मायने में विकेन्द्रीकृत विकास, स्थानीय स्वाययत्तता देश के खनन पर आधारित तकनीक के पूणर्निर्माण में कार्यरत हो जाय तो आर्थिक व्यवस्था पर नौेकरशाही की पकड़ भी ढ़ीली पड़ेगी और रोजगार तथा उत्पादन में भी तेजी से इजाफा होगी. हमारी प्रगति आत्मनिर्भरता की ओर बढ़ेगी. इतना ही नहीं, अगर हम इन रास्ते को अपना लें तो अर्न्तराष्ट्रीय मुद्रा कोष भी बिना शर्त ही विदेशी मुद्रा भुगतान के लिए कर्ज देगी. फिर भी हमें आयात को कम करना ही होगा.
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