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EWS आरक्षण का विरोध करें – सीपीआई (माओवादी)

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EWS आरक्षण का विरोध करें - सीपीआई (माओवादी)
EWS आरक्षण का विरोध करें – सीपीआई (माओवादी)

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) को कुछ लोग जंगलवासी मानते हैं और यह समझते हैं माओवादी जंगलों में रहने और वहां से सशस्त्र संघर्ष का संचालन करने के कारण बाहरी दुनिया में क्या चल रहा है उसे पता नहीं चलता होगा. लेकिन उन लोगों की यह समझदारी बिल्कुल गलत है. उसकी भारत ही नहीं, समूची दुनिया के बारे में चल रही गतिविधियों की न केवल बेहतरीन जानकारी ही हैं, बल्कि वह त्वरित प्रतिक्रिया भी देते हैं.

अब, ईडब्ल्यूएस पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय के ही बारे में बात कर लें तो जिस दिन 7 नवम्बर को सुप्रीम कोर्ट ने ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर अपना निर्णय दिया, उसके चंद दिन के बाद ही 14 नवम्बर को दिन सीपीआई (माओवादी) का प्रेस बयान आ गया और उसकी प्रतिक्रिया भी कि ‘सर्वोच्च न्यायालय का ब्राह्मणवादी निर्णय EWS आरक्षण का विरोध करे !’ सीपीआई (माओवादी) की इतनी त्वरित प्रतिक्रिया यह दर्शाती है वह कितने तीक्ष्णता से भारत में चल रही तमाम राजनीतिक गतिविधियों पर निगाह रख रही है.

ऐसा नहीं है कि भारत की मोदी सरकार मंद बुद्धि है और उसे देश में घट रही घटनाओं की कोई जानकारी नहीं है. मोदी सरकार की प्रतिक्रिया तो इससे भी भयानक है. भले ही दिल्ली बॉर्डर पर साल भर चले किसान आन्दोलन और उनके शहीद 700 से अधिक किसानों के बारे में उसे जानकारी न हो लेकिन दिल्ली से डेढ़ हजार किलोमीटर दूर बिहार के भागलपुर में थाना के ठीक सटे बम बलास्ट पर उसमें मरे संघी गुंडों पर शोक व्यक्त करने में चंद घंटा भी नहीं लगा.

बहरहाल, ईडब्ल्यूएस आरक्षण पर सुप्रीम कोर्ट के निर्णय पर सीपीआई (माओवादी) के केन्द्रीय कमिटी के प्रवक्ता अभय ने प्रेस बयान जारी करते हुए बताया कि –

ब्राह्मणवादी हिन्दुत्व फासीवाद का आरक्षण पर आक्रामक प्रयोजन जो अनुसुचित जाति, अन्य पिछड़ा जाति और आदिवासी के प्रतिकुल हैं, उसका विरोध करे. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की केंद्रीय कमेटी दृढ़तापूर्वक सर्वोच्च न्यायालय के पांच सदस्यीय संविधान पीठ का ईडब्लयूएस (आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग) आरक्षण निर्णय और 2019 के 103वें संविधान संशोधान को संवैधानिक पदवी देने के निर्णय का विरोध करती है.

7 नवम्बर 2022 को उच्चतम न्यायालय के पांच संविधान पीठ के ईडब्लयूएस आरक्षण के संदर्भ में, समाजिक न्याय आरक्षण कानुन जो अनुसुचित जाति, आदिवासी और अन्य पिछड़ी जाति के हित में हैं, उसको समाप्त करने का एक मार्ग हैं. आर्थिक रूप से कमजोर वर्गो को सशक्त करने के लिए अन्य मार्ग ना देकर भारतीय जनता पार्टी का उद्देश्य 10 प्रतिशत आरक्षण का मकसद साफ हैं – अनुसुचित जाति, आदिवासी और अन्य पिछड़ी जाति को समाजिक समानता और बराबरी से वंचित करना हैं. यह आरएसएस-बीजेपी का नया भारत (हिन्दु राष्ट्र) के निर्माण का एक मंसूबा हैं.

7 नवम्बर 2022, को उच्चतम न्यायालय के पांच संविधानिक पीठ को जो प्रधान न्यायाधीश यूयू ललित की अगुवाई में केन्द्र सरकार द्धारा 2019 में लागु किए गए 103वें संविधान संशोधन की वैधता को चुनौती देने वाली 40 याचिकाओं पर फैसला सुनाया. सुप्रीम कोर्ट ने 3-2 के बहुमत से आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के लिए आरक्षण के पक्ष में निर्णय दिया और 103वें संशोधन को संवैधानिक बताते हुए अपने निर्णय में कहा है कि 10 प्रतिशत आरक्षण आर्थिक कमजोर वर्ग को प्रदान करने में संविधान की बुनियादी ढांचे का उल्लंघन नहीं करता है.

हालांकि मुख्यधारा की मीडिया न्यायालय कै इस निर्णय को एक विभाजित निर्णय बता रही हैं, परन्तु तथ्य कुछ और बात बताता है. सारे 5 न्यायाधीश को मिली सहानभूति 103वें संविधान संशोधन के पक्ष में ही हैं. दो न्यायाधीश जिसमें, सीजेआई यूयू ललित और न्यायमूर्ति एस. रविन्द्र भट ने अपनी पुरी सहमति इसलिए नहीं देते हैं कि उसमें अनुसूचित जाति, आदिवासी, पिछड़ी जाति इससे वंचित हैं. 1992 के इंद्रा साहनी के उच्चतम न्यायालक निर्णय जो एक बड़े संविधानिक न्यायमूर्तियों के पीठ के निर्णय में 10 प्रतिशत आरक्षण आर्थिक पिछड़ा वर्ग को देने के निर्णय को असंविधानिक घोषित करती हैं. यह भी कहा है कि आरक्षण 50 प्रतिशत नहीं कर सकती हैं.

7 नवम्बर के सुप्रीम कोर्ट द्धारा दिये गए निर्णय से अनुसूचित जाति, आदिवासी और अन्य पिछड़ी जाति के लोगों के लिए आरक्षण निष्फल और धुंधला रह जाएगा. वर्तमान की आरक्षण नीतियां जो पिछड़ी समाज के लोगों के लिए हैं, वह भी उन के लोगों के लिए उनके आबादी के दृष्टिकोण से देखा जाए तो वर्तमानिक आरक्षण नीति पर्याप्त साबित नहीं होती है. अनुसूचित जाति में 4.6, अनुसूचित आदिवासी में 1.5 और अन्य पिछडी जाति मे 53 से 54 प्रतिशत का प्रतिनिधित्व है. इस निर्णय द्धारा आरक्षण नीति जो समाजिक पिछडापन को हटाने में जुड़ा है, उसको खतरे में डाल चुका हैं.

समाजिक पिछडापन, जो भारत देश में कई सदियों से भेदभाव के रीति-रिवाज को चलाते आ रहा है, आरक्षण उसके खिलाफ महत्वपुर्ण जरिया है. सुप्रीम कोर्ट का निर्णय आरक्षण के प्रति मौजुदा दृष्टिकोण को उलट दिया है. समाजिक पिछ़डापन जाति के आधार पर वंशगत रहता हैं, मगर आर्थिक रुप से कमजोर वर्ग जरूरी नहीं है कि वंशगत रहे.

सुप्रीम कोर्ट का निर्णय और 103वें संशोधन अनुसुचित जाति, अनुसुचित आदिवासी और अन्य पिछड़ी जाति के लोगों को आर्टिकल 15,(4), 15(5), 16 (4) के जरिए 10 प्रतिशत ईड़ब्ल्युएस आरक्षण से वंचित करती हैं. ईडब्ल्यूएस आरक्षण नीति के तहत सरकारी नौकरी में और शिक्षण संस्थानों में नियुक्ति के संदर्भ में अनुसुचित जाति, अनुसुचित आदिवासी और अन्य पिछड़ी जाति के लोगों की नियुक्ति में भारी गिरावट देखने को मिलेगा.

आरक्षण नीति अपने शुरूआती समय से लेकर आजतक कभी सम्पूर्ण रूप से लागु नहीं किया गया है. सुप्रीम कोर्ट का निर्णय अम्बेडकर के विचार के खिलाफ जाता है. भाजपा सरकार अपने शासन काल में जन विरोधी कानुन लाकर देश को एक श्मशान घाट मे परिवर्तित कर रखा है. भाजपा सरकार के नीतियों के कारण देश में गरीबी तेजी से बढ रहा है.

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की केंद्रीय कमेटी आरक्षण नीतियों को ब्राह्मणवादी करने की प्रक्रिया का विरोध करती है. भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) की केंद्रीय कमेटी सारे प्रगतिशील, लोकतांत्रिक, आदिवासी, जनसंगठन, दलित संगठन, बिसी संगठन, अम्बेदकरवादी संगठनों को इस दलित विरोधी, अम्बेडकरविरोधी, बीसी विरोधी और आदिवासी विरोधी, फासीवाद सरकार के निर्णय के खिलाफ जन आंदोलन करने के लिए आहवान करती हैं.

तो, देखा आपने ? कितनी बारीकी से भारत की राजनीतिक परिस्थिति और उसमें घट रही तमाम घटनाओं पर भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) निगाह रखती है. ऐसे निगाहबान जागरूक लोगों के समूह को भारत सरकार सोचती है कि वह सैन्य हमलों, झूठी अफवाह और चंद प्रायोजित आत्मसमर्पण का नाटक रचकर खत्म कर देंगे ? बहरहाल, देश की जनता को तय करना है कि उसे भारत सरकार का फासीवादी श्मशान चाहिए या सीपीआई (माओवादी) का स्वर्णिम समाजवादी राज्य ?

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भारत की कम्युनिस्ट पार्टी का इतिहास, 1925-1967

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