अभी हाल ही में नोटबंदी की वर्षगांठ की 6वीं काला दिवस देश ने मनाया है. केन्द्र की मोदी सरकार की सनक से तैयार नोटबंदी ने देश की अर्थव्यवस्था पर सबसे बड़ा और घातक प्रहार किया है, जिसकी मार से देश की अर्थव्यवस्था आजतक उबर नहीं सका है. जानकारों का मानना है कि नोटबंदी विश्व इतिहास का सबसे बड़ा घोटाला है, जिसमें लाखों करोड़ का घपला हुआ है. चूंकि इस नोटबंदी के कारण 150 से अधिक लोगों की मौत लाइन में लगकर हो गई है, इसलिए यह आर्थिक अपराध के साथ साथ लोगों के मौत से भी जुड़ गया है.
वर्तमान में गुजरात में होने वाली चुनाव में आम आदमी पार्टी की धमाकेदार इंट्री ने भाजपा खेमे में खलबली मचा दिया है. इसके कारण मोदी सरकार को 2024 के लोकसभा चुनाव में सत्ता हिलती नजर आ रही है, इसीलिए केन्द्र की मोदी सरकार अपने पापों का ठिकरा सुप्रीम कोर्ट पर फोड़ने की तैयारी कर रहा है ताकि बाद में जब वह सत्ता में न रहे तब किसी प्रकार के आपराधिक मामलों को अन्य सरकारों के निगरानी में चलाया न जा सके.
जैसा कि सभी को पता है कि आज सुप्रीम कोर्ट मोदी सरकार के पैरों की जूती है. वह मोदी सरकार के इशारे पर उठती, बैठती और नाचती है. इस सुनहले मौके का इस्तेमाल मोदी सरकार अपने तमाम अपराधों और पापों से मुक्ति के लिए कर रही है. राफेल घोटाला से लेकर गुजरात दंगों तक के पापों से मुक्ति पा रही है. इसी कड़ी में नोटबंदी घोटाला भी है, जिसके दंश से वह मुक्ति पाने के लिए कठपुतली सुप्रीम का इस्तेमाल कर रही है.
पत्रकार गिरीश मालवीय लिखते हैं – क्या आप जानते हैं कि कानूनन किसी खास मूल्य वर्ग के करंसी नोट रद्द करने का अधिकार सरकार के पास था ही नहीं. लेकिन उसके बावजूद भी कानून के विपरीत जाकर 8 नवम्बर, 2016 को मोदी सरकार ने ऐसा किया. दरअसल भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम की धारा 26 (2) किसी विशेष मूल्यवर्ग के करेंसी नोटों को पूरी तरह से रद्द करने के लिए सरकार को अधिकृत नहीं करती है. धारा 26 (2) सिर्फ केंद्र को एक खास सीरीज के करेंसी नोटों को रद्द करने का अधिकार देती है, न कि संपूर्ण करेंसी नोटों को. यानी पूरी तरह से मनमानी की गई है.
जब नोटबंदी हुई तो देश भर में ऐसे ही प्रश्नों को लेकर 58 याचिकाएं सरकार के खिलाफ दायर की गई. 16 दिसंबर 2016 को सुप्रीम कोर्ट ने इस मामले को 5 जजों की संविधान पीठ के पास भेज दिया था, तब कोर्ट ने सरकार के इस फैसले पर कोई भी अंतरिम आदेश देने से इनकार कर दिया था. यहां तक कि कोर्ट ने तब नोटबंदी के मामले पर अलग-अलग हाईकोर्ट में दायर याचिकाओं पर सुनवाई से भी रोक लगा दी थी.
लेकिन अब अब सुप्रीम कोर्ट अब इन 58 याचिकाओं पर एक साथ सुनवाई कर रहा है और इसके लिए संविधान पीठ का गठन किया गया है. इसमें जस्टिस एस अब्दुल नजीर, बी.आर. गवई, ए.एस. बोपन्ना, वी. रामसुब्रमण्यम और बी.वी. नागरत्ना शामिल हैं.
दो दिन पहले इस मामले में मोदी सरकार ने एक हलफनामा पेश कर सुप्रीम कोर्ट में इस फैसले का बचाव करते हुए कहा कि 500 और 1,000 रुपये के नोटों को चलन से बाहर करने और नोटबंदी का निर्णय भारतीय रिजर्व बैंक के साथ गहन विचार-विमर्श के बाद लिया गया था. यही नहीं, नोटबंदी से पहले इसकी सारी तैयारियां कर ली गई थी.
अपने हलफनामे में बही घिसी पिटी बाते दोहराते हुए केंद्र सरकार ने कहा, ‘नोटबंदी करना जाली करेंसी, आतंक के वित्तपोषण, काले धन और कर चोरी की समस्याओं से निपटने की एक बड़ी रणनीति का हिस्सा और एक प्रभावी उपाय था. लेकिन यह केवल इतने तक सीमित नहीं था. परिवर्तनकारी आर्थिक नीतिगत कदमों की श्रृंखला में यह अहम कदमों में से एक था.’
इससे पहले भी केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल सदन के सामने कह चुके है कि नोटबंदी का फैसला आरबीआई और इसके बोर्ड ने लिया. सरकार ने इस सलाह पर निर्णय लिया. 2016 में आरबीआई के अनुसार भारत में सिर्फ 500 करोड़ रुपये की जाली करेंसी थी, क्या सिर्फ इतनी सी करंसी के लिए पूरी करंसी को रद्द करना जायज था ?
अगर आपने आरबीआई के साथ मिलकर नोट बंदी करना तय किया था तो ये भी बताए कि आरबीआई ने कब तय किया कि नोटबंदी भारत के हित में है ? आखिर हमें ये जानने का हक है कि नहीं कि रातों-रात 500 और 1000 के नोट बंद करने के पीछे आरबीआई ने कौन से तर्क गिनाए थे ?
क्या हमें ये पता नहीं होना चाहिए कि नोटबंदी के निर्णय वाले दिन यानी 8 नवम्बर को होने वाली आपातकालीन बैठक के लिए आरबीआई बोर्ड सदस्यों को कब नोटिस भेजा गया था ? उनमें कौन-कौन इस बैठक में आया और कितनी देर यह बैठक चली ? इस बैठक के मिनट्स कहां हैं ?
नोट बंदी के फैसले के बाद किस कानून और शक्तियों के तहत लोगों पर अपनी ही नकदी निकालने की सीमा तय की गई ? नोट बंदी के तुरंत बाद नोट निकासी के लिए लोगों पर स्याही लगाने का विचार दिया ? शादी से जुड़ी निकासी वाली अधिसूचना किसने तैयार की ?सुप्रीम कोर्ट की संविधान पीठ ने भी कहा कि वह आरबीआई के बोर्ड मीटिंग के दस्तावेज देखना चाहेगी जो नोटबंदी से पहले हुआ था.
एक दिलचस्प बात यह भी है कि आरटीआई के जवाब में आरबीआई ने बताया था कि 2000 रुपये के नये नोट को छापने की प्रक्रिया शुरू करने का फैसला जून, 2016 में ही ले लिया गया था लेकिन नोटों पर उस वक्त के गवर्नर रघुराम राजन के हस्ताक्षर नहीं है और 4 सितंबर तक तो उर्जित पटेल ने रिजर्व बैंक का पदभार भी ग्रहण नहीं किया था, फिर भी सारे 2000 के नोटों पर उर्जित पटेल के ही हस्ताक्षर है.
आम तौर पर नये नोटों के छपाई की प्रक्रिया केंद्रीय बैंक की ओर से आदेश जारी होने के बाद ही शुरू कर दिया जाता है, और यह आदेश 7 जून को दे दिया गया लेकिन 2000 रुपये के नये नोट की छपाई की प्रक्रिया रिजर्व बैंक की ओर से दिये गये आदेश के करीब ढाई महीने बाद 22 अगस्त, 2016 को ही शुरू कर दी गयी थी, यह बात खुद उर्जित पटेल ने संसदीय समिति को बताई है.
अपनी किताब में रघुराम राजन ने लिखा है कि उनके कार्यकाल के दौरान कभी भी आरबीआई ने नोटबंदी पर फैसला नहीं लिया था, तो फिर कैसे 2000 के नोट छप गए ? यानी बहुत से ऐसे तथ्य सामने है जिसमें सरकार बुरी तरह से फंस सकती हैं अब गेंद संविधान पीठ के पाले में है यदि वो चाहे तो वो बता सकती हैं कि इस देश में विधि के अनुसार शासन का असली अर्थ क्या होता है, पर ऐसा होना मुश्किल ही लग रहा है.
गिरीश मालवीय का लेख यहां समाप्त हो जाता है. लेकिन वह यह बताने के लिए पर्याप्त है कि सुप्रीम कोर्ट मोदी सरकार को नोटबंदी के इस महाघोटाला से बचाने के लिए किस हद तक तमाम कानूनी दांवपेंच अपना रही है कि बाद की कोई भी सरकार इस मुद्दों को दुबारा सुप्रीम में न उठा सके. जब सुप्रीम कोर्ट में ही नहीं उठेगा तब केवल जनता की अदालत ही बचता है, जहां भाजपा के तमाम पापों का हिसाब हो सकता है और उसको उसका दण्ड भी मिल सकता है.
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