Home गेस्ट ब्लॉग वेद-वेदांत के जरिए इस देश की रग-रग में शोषण और विभाजन भरा हुआ है

वेद-वेदांत के जरिए इस देश की रग-रग में शोषण और विभाजन भरा हुआ है

6 second read
0
0
391

अरबिंदो घोष ने अपनी महत्वपूर्ण किताब ‘द फाउंडेशन ऑफ़ इंडियन कल्चर’ सहित अपनी व्यक्तिगत चर्चाओं में बहुत जोर देकर लिखा/कहा है कि ‘आदि-शंकराचार्य के बाद इस देश ने बौद्धिक, वैज्ञानिक और दार्शनिक रूप से कुछ भी नया नहीं दिया है.’

विवेकानंद सहित शिवानन्द भी इसी गम को लेकर रोते रहे और मरे हैं. लेकिन दुर्भाग्य की बात ये है कि इन जैसे लोगों से भी जिस समझदारी की उम्मीद थी वो इन्होंने नहीं दिखाई. शायद ये सेलेक्टिव समझदारी ही इनका असली रोग और कमजोरी है.

ये आधुनिक महानायक भी भारी पक्षपाती रहे हैं. ये सब महानुभाव गोरखनाथ, अभिनवगुप्त, कबीर, रैदास और नानक को भूल गए. ये कभी उनकी महान क्रांतिकारी दार्शनिक और सामाजिक समता की प्रस्तावनाओं की बात नहीं करते.

अरबिंदो घोष नानक और सूफियों के बारे में कुछ टिप्पणियां करके रह जाते हैं. जिस ‘वैज्ञानिक’ दृष्टि से वे वेदान्त की प्रशंसा करते हैं वह भी उन्होंने लोकायतों और यूरोपीय दार्शनिकों/वैज्ञानिकों से उधार ली है.

सिक्ख धर्म को एक लड़ाका धर्म साबित करके नानक और गोविन्द सिंह की सारी जिन्दगी की कमाई को मिट्टी में मिला देते हैं, कबीर को एक मस्तमौला फ़कीर बताकर उन्हें भी हलके में उड़ा देते हैं और सारी बहस को वेद वेदान्त की तरफ घुमा देते हैं. जिस जहरीले कुंए ने पूरे देश को बावला बना रखा है, उसी की तरफ बार बार धक्का दिए जाते हैं.

अरबिंदो घोष शंकराचार्य के बाद नए और मौलिक विचार के पैदा न होने का दावा करते रहे, लेकिन स्वयं फ्रेडरिक नीत्शे के ‘सुपरमेन’ और डार्विन के ‘एवोलुशन’ के कांसेप्ट को कापी करके ले आये और अपनी ‘सुप्रामेंटल’ की थ्योरी रच डाली. इस पूरी रचना में उन्होंने वेद वेदान्त और अवतारवाद की भारी प्रशंसा की है. दार्शनिक आधार तक तो ठीक है, भाषा भी उन्होंने हीगल की अपनाई है, अति-अलन्क्रत और दुरूह.

यह एक सीधी-सीधी दार्शनिक चोरी है, यह भारत का एतिहासिक ट्रेडमार्क है. उस समय उनके एक मराठी गुरु लेले ने उन्हें ये सब करने से रोका था लेकिन दार्शनिक और गुरु बनने का मोह वे नहीं छोड़ सके. अरबिंदो घोष सहित विवेकानंद और अन्य कोई भी दार्शनिक हों वे कभी वेद वेदान्त से बाहर नहीं निकलते.

ओशो रजनीश भी अपने करियर की शुरुआत में एक नास्तिक, समाजवादी और अराजकतावादी बने रहे फिर वेदान्त में घुस गए, फिर आखिर में अमेरिकी सरकार से डील करते हुए जब उन्हें ‘दिव्य ज्ञान’ हुआ, तब वे अंतिम रूप से बुद्ध की शरण में गए. उनकी अंतिम और सर्वाधिक क्रांतिकारी किताबें जापानी बौद्ध धर्म ‘झेन’ की प्रशंसा में हैं.

दुर्भाग्य की बात है कि वे जीवन के अंतिम वर्षों में ऐसा कर सके. युवावस्था से ही एक दिशा ली होती तो एक वे इस देश में एक ठोस दार्शनिक या रहस्यवादी आन्दोलन की रचना कर सकते थे. आज उनके जाने के बाद उनके शिष्यवर्ग में जैसी बकवास और धुंध फ़ैली है, उसे देखकर लगता है कि ओशो को भी इस देश की सनातन मूढ़ता ने चबाकर लील लिया है.

ये बहुत गौर करने लायक बात है, आज भी कबीर और नानक, बुद्ध सहित सूफियों की बात बड़े पैमाने पर नहीं होती है, उनको गंभीरता से नहीं लिया गया है. ये लोग वेद वेदान्त के सपाट और आत्मघाती दर्शन से बहुत आगे की बात बतलाते रहे हैं. ऐसी बात जिसमें आतंरिक और बाह्य जीवन दोनों की समृद्धि शामिल है.

सिक्ख धर्म इस मामले में बेजोड़ है. हाथ में चमकती तलवार और ह्रदय में प्रेम की बहती धार, पूरी दुनिया में और कहीं नहीं मिलेगा. समता और भाईचारे की दिशा में ये एक बड़ा कदम था लेकिन इसकी अपने ही देश में ह्त्या की गयी है.

ये प्रयोग भारत में सफल न हो सके. न हो सके क्योंकि इस देश की रग रग में शोषण और विभाजन भरा हुआ है. कोई भी नयी पहल हो ये पुराने विषाणु वहां भी पहुंच जाते हैं. समाज में समता और भाईचारे का कोई विकल्प नहीं होता, कभी किसी संस्कृति में रहा भी नहीं है.

जिन संस्कृतियों और समाजों ने समता की पुकार को बल से कुचला है और भाईचारे के स्थान पर विभाजन और शोषण परोसा है, वे हमेशा नष्ट हुई हैं. वे एक स्वस्थ समाज और संस्कृति के रूप में ज़िंदा नहीं रह पाई हैं. भारत इसका सबसे ज्वलंत उदाहरण है.

अन्य संस्कृतियां जो अपनी आतंरिक संरचनाओं के गर्भ में किसी भी भांती के असंतुलन को पाले हुए चल रहीं थीं – उन्होंने इतिहास के लंबे सफ़र में हमेशा ठोकर खाई है और आगे भी यही होगा. सभी तथाकथित श्रेष्ठ संस्कृतियों और समाजों ने समता के आदर्श को कभी भी ठीक से समझा ही नहीं, लागू करने की तो बात ही दूर रही.

भारत इस विषय में सबसे बदनसीब देश है. यहां समता और धर्म का आदर्श सिखाने का ठेका जिन्होंने लिया है वे ही सबसे बड़े शोषक हैं. इसलिए बात और उलझ जाती है. इस देश की ऐतिहासिक पराजय और अनुर्वरता एक ऐसी शर्म की बात है जिसका विश्लेषण ठीक से किये बिना आप इस देश की आत्मा में छुपे जहर को पहचान ही नहीं सकते. और दुःख की बात ये कि इस जहर की फसल उगाने वाला वर्ग ही भूत, भविष्य और वर्त्तमान की व्याख्या करने का दावा करता आया है.

चोरों और लुटेरों ने यहां विधियां और स्मृतियां लिखीं हैं, जिन्होंने मनुष्य के स्वाभाविक भाईचारे और सहकार की कदम कदम पर ह्त्या की है, वे धर्म और अध्यात्म के शास्त्र भी रचते रहे हैं. उन्हीं के सुभाषितों से तथाकथित श्रेष्ठ साहित्य भरा पडा है.

इसी विरोधाभास और षड्यंत्रकारी मानसिकता ने ही इस देश को नपुंसक बनाया. इतने लंबे ज्ञात और अज्ञात इतिहास में तमाम भौगोलिक और प्राकृतिक सुविधाओं के बावजूद विज्ञान, लोकतंत्र, तकनीक, सभ्यता आदि का निर्माण न हो सका, ये किसी भी समाज के लिए शर्म की बात होनी चाहिए. इसके बावजूद आज भी उसी मूर्खता का नगाड़ा चारों और बज रहा है.

आज भी दलित हेलमेट पहनकर बरात निकालने को मजबूर हैं, मोबाइल की रिंग-टोन जैसे मुद्दे पर ह्त्या हो जाती है, उन्हें सरेआम ट्रेक्टरों से कुचला जाता है – ये सतयुग की वापसी के संकेत हैं !

जिस विभाजक शोषक और पाखंडी मानसिकता ने स्त्रियों और श्रमिक जातियों को इंसान होने की गरिमा से दूर रखा, उसी का शोर आज भी चारों तरफ सुनाई दे रहा है और अतीत के मोह से ग्रस्त मूढ़ अभी भी इन बातों को नकार रहे हैं. अब मीडिया भी इन बातों को सामने नहीं ला रहा है. पूरा देश जैसे एक नए आत्मसम्मोहन और पाखण्ड में दीक्षित कर दिया गया है. ये वो स्वर्णकाल है जिसकी प्रतीक्षा की जा रही थी.

बहुत आसानी ने यह गलतफहमी पाली जा सकती है कि सदियों के शोषण को औरतें, दलित या आदिवासी भूल जायेंगे. ये सुविधाजनक तर्क और आत्मघाती मान्यातएं आजकल हवा में तैर रही हैं कि दलितों-आदिवासियों के शोषण का असली जिम्मेदार मुग़ल और ब्रिटिश शासन है. आजकल कुछ बुद्धिजीवियों ने इस बहस को चला रखा है, शायद आगे वे ये सिद्ध कर दें कि मनुस्मृति सहित ऋग्वेद और गीता भी मुगलों और अंग्रेजों ने लिखी है.

अगर मुग़ल और ब्रिटिश इतिहासकारों ने कुछ इतिहास न लिखा होता तो शायद ये लोग ऐसा कर भी देते. सदियों से इनकी कुल जमा कुशलता यही रही है. समाज में जब कुछ बदलाव हो जाता है तो ये बस एक नया शास्त्र और पुराण लिखकर उसे पुरानी मूर्खताओं के साथ ‘एडजस्ट’ कर देते हैं.

बुद्ध की महाक्रान्ति के बाद बुद्ध को विष्णु अवतार बताकर यही किया है. अब नए शास्त्र लिखे जा रहे हैं. वे कहेंगे कि तमाम स्मृतियां और विभाजक प्रेस्क्रिप्शन विदेशियों ने लिखे हैं. हमारे देश के लोग तो एकदूसरे को बहुत प्रेम करते थे. जाति और वर्ण तो बाहर से आये हैं.- आजकल इस तरह के तर्क पर भारी काम हो रहा है.

लेकिन एक बात जो बहुत वाज़े तौर पर जाहिर है वो इन्हें दिखाई नहीं देती. आज भी दूर-दराज के गांवों में जहां न तो कभी मुगल पहुंचे थे, न अंग्रेज और ना आज की सरकार पहुंच पाई हैं, वहां भी छुआछूत कहां से पहुंचा ?

इसका कोई उत्तर नहीं है इन मूर्खों के पास. अब एक गुप्त आन्दोलन छिड़ गया है, दलन और शोषण की जिम्मेदारी पूरी तरह से विदेशियों पर डाल दी जायेगी. ऐसा करते हुए इस देश के मूर्खों को शर्म भी नहीं आयेगी.

  • डॉ. संजय जोठे

Read Also –

मनुस्मृति : मनुवादी व्यवस्था यानी गुलामी का घृणित संविधान (धर्मग्रंथ)
‘एकात्म मानववाद’ का ‘डिस्टोपिया’ : राजसत्ता के नकारात्मक विकास की प्रवृत्तियां यानी फासीवादी ब्राह्मणवादी राष्ट्रवाद
भारत में ब्राह्मणवादी शिक्षा प्रणाली को खत्म कर आधुनिक शिक्षा प्रणाली का नींव रख शूद्रों, अछूतों, महिलाओं को शिक्षा से परिचय कराने वाले लार्ड मैकाले
धार्मिक उत्सव : लोकतंत्र के मुखौटे में फासिज्म का हिंसक चेहरा
मुगलों ने इस देश को अपनाया, ब्राह्मणवादियों ने गुलाम बनाया
अशोक स्तम्भ को हटाकर मोदी स्तम्भ लगाने के मायने

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

scan bar code to donate
scan bar code to donate
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

इतिहास का अध्ययन क्यों करें ?

लोग वर्तमान में जीते हैं. वे भविष्य के लिए योजना बनाते हैं और उसके बारे में चिंता करते हैं…