भारत में मुख्यतः दो जातियां रही है पहला वह जो श्रम करती है. दूसरा वह जो श्रम नहीं करती है. इसे बिडम्बना ही का जाये कि जो जातियां श्रम करती है उसे समाज में हीन दृष्टि से देखा जाता है और जो जातियां श्रम नहीं करती है वह खुद को उच्च श्रेणी का मानती है. भारत में जातियों का इतिहास विवादास्पद और दास मालिक समाज व्यवस्था का द्योतक प्रतीत होती है. वह जातियां जो श्रम करती है और हीन दृष्टि से देखी जाती है दास मानी जा सकती है और जो जातियां श्रम नहीं करती वह मालिक मानी जा सकती है.
कहा जाता है कि आर्यों ने भारत की प्राचीन समृद्ध भारतीय सभ्यता पर हमला किया और पराजित भारतीयों को दास बना लिया. यही दास आज तक अपनी दासत्व से बंधे हैं, जिसे शुद्र, अछूत कहा जाता है. ये विजेता आर्य ने इस दास-मालिक प्रणाली को ब्राह्मणवादी धर्म बताया, जो आज भी मौजूद है. ब्राह्मणवादी दासत्व से बंधे दास को उसके श्रम के अनुसार हजारों जातियों में बांटा गया, जिसमें से कुछ जाति को आत्मकथा के बहुत ही सुंदर तरीकों से नवल किशोर कुमार ने शब्दों में पिरोया है, पाठकों के सामने प्रस्तुत है – सम्पादक
कलवार
मैं भारतीय समाज के मेरूदंड पर खड़ा रहा हूं. आप चाहें तो मेरे इस दावे को अतिरेक भी कह सकते हैं, लेकिन मैं हूं. मैं विशुद्ध रूप से गैर-ब्राह्मण रहा हूं और श्रम ही मेरा आधार रहा. हालांकि मैंने खेतों में अनाज नहीं उगाए, या फिर किसी शिल्पकार की तरह कोई सुंदर महल नहीं बनाया, किसी कुम्भहार की तरह मैंने सुंदर बर्तन नहीं बनाया, लेकिन इससे मेरा महत्व कम नहीं हो जाता. मैं तो वह हूं जिसके द्वारा आविष्कृत उत्पाद का महत्व अनंत तक बना रहेगा. फिर इससे कोई मतलब नहीं कि मेरे अपने महत्व का क्या होगा.
मैं कलवार हूं. आप चाहें तो मुझे कलार या कलाल भी कह सकते हैं. वहीं कलाल जिसका संबंध शराब से है. पश्चिम के देशों में शराब किसने बनाए, इसके बारे में मैं नहीं जानता, लेकिन यह जरूर जानता हूं कि भारत में इसका आविष्कार मैंने किया. वह मैं ही था जिसने महुआ के फूल चुने और उसमें गुड़ डालकर पेय पदार्थ बनाया. यह तो महज एक शुरुआत थी. मैंने खूब सारे प्रयोग किये और मेरे उत्पाद सभी को भाये, यहां तक कि देवियों को और देवताओं को भी. यह मैं नहीं कह रहा, यह तो ब्राह्मणों ने अपने ग्रंथों में लिखा है. मसलन, दुर्गा सप्तशती के सातवें अध्याय में दुर्गा की स्तुति करते हुए ब्राह्मण कहता है –
ओम् घ्यायेयं रत्नपीठे शुककलपठितं श्रृण्वतीं श्यामलांगी
नयस्तैकांघ्रि सरोजे शशिशकलध्रां वल्लकीं वादयन्तीम्।
कह्वाराबद्धमालां नियमितविलसचोलिकां रक्तवस्त्रां
मातंगी शंखपात्रां मधुरमधुमदां चित्रकोद्धासिभलाम।
भावार्थ- मैं मातंगी देवी का ध्यान करता/करती हूं. वे रत्नमय सिंहासन पर बैठकर पढ़ते हुए तोते के मधुर शब्द सुन रही हैं. वे अपना एक पैर कमल पर रखे हुए हैं और मस्तक पर आधा चंद्रमा धारण करती हैं तथा पुष्पों की माला धारण कर वीणा बजाती हैं. वह लाल (खून के रंग की) साड़ी पहने और हाथ में शंखमय पात्र है. उनके शरीर पर मधु (शराब/सोमरस) का प्रभाव जान पड़ता है और ललाट में बिंदी शोभा दे रही है.
दुर्गा तो छाेड़िए, इंद्र का देव दरबार मेरे द्वारा तैयार किये गये सोमरस के बगैर अधूरा था. इसकी गवाही तो वेद भी देते हैं लेकिन मेरे अपने पेशे के लिए ब्राह्मणों के उद्धरण की आवश्यकता नहीं है.
रही बात शराब बनाने और बेचने की तो यह कला मैंने सीखी है. हो सकता है कि आदिवासियों से मैंने यह कला सीखी हो, लेकिन मैं उनकी तरह के हंड़िया तक सीमित नहीं रहा. मैंने नये-नये प्रयोग किए और उनका व्यापार किया है. यह कहने में मुझे कोई गुरेज भी नहीं.
बिहार, उत्तर प्रदेश, पंजाब, हरियाणा, मध्य प्रदेश, पश्चिम बंगाल और उड़ीसा आदि राज्यों में मेरी उपस्थिति है. इसके अलावा मैं नेपाल में भी मौजूद हूं. हालांकि अब मैं भले ही खुद को कलवार जाति का मानता हूं लेकिन अपना सरनेम कलवार रखने से परहेज करता हूं. यह इसलिए नहीं कि मैं कोई शर्मिंदगी महसूस करता हूं, बल्कि इसलिए समय के साथ मैंने अपने पारपंरिक व्यवसाय को छोड़ दिया है. अब तो मैं खेती भी करता हूं, बनियागिरी भी करता हूं और शासन-प्रशासन में भी शामिल हो रहा हूं. जब सभी अपने अस्तित्व को महान बनाने की कोशिशें कर रहे हैं तो मैं क्यों पीछे रहूं ? यही कारण है कि आजकल मेरे लोग कलवार के बजाय जायसवाल नामांश का इस्तेमाल अधिक करते हैं. पंजाब और दिल्ली के आसपास के इलाकों में तो लोग खुद को आहलुवालिया भी कहते हैं. पंजाब में मैं सिख धर्मावलंबी भी हूं.
जायसवाल नामांश से एक सवाल जेहन में है कि कहीं इसका संबंध मलिक मुहम्मद जायसी से तो नहीं लिया गया ? इतिहास के पन्ने पलटता हूं तो बिहार में सबसे पहले काशी प्रसाद जायसवाल (27 नवंबर, 1881 – 4 अगस्त, 1937) हुए, जिन्होंने अपने नाम से कलवार शब्द हटाकर जायसवाल लिखा. वे बड़े इतिहासकार रहे. आज भी पटना में उनके नाम पर पूरे उत्तर भारत का सबसे बड़ा इतिहास का शोध केंद्र है.
रही बात मलिक मुहम्मद जायसी (1492-1548) की तो वे हिंदी साहित्य के भक्ति काल की निर्गुण प्रेमाश्रयी धारा यानी सूफी धारा के कवि थे. वे मलिक वंश के थे. वैश्विक स्तर पर कहूं तो अतीत में मिस्र में सेनापति या प्रधानमंत्री को मलिक कहते थे. ईरान में मलिक जमींदार को कहा जाता था व इनके पूर्वज वहां के निगलाम प्रांत से आये थे और वहीं से उनके पूर्वजों की पदवी मलिक थी.
खैर, जायसी का जन्म सन 1492 के आसपास माना जाता है. वे उत्तर प्रदेश के जायस नामक स्थान के रहनेवाले थे. तो जायसी तखल्लुस के जैसा है लेकिन मेरा इससे क्या संबंध है ? आखिर काशी प्रसाद कलवार ने खुद को काशी प्रसाद जायसवाल क्यों कहा होगा ?
कुछ इतिहासकार और मेरे कुछ लोग खुद को हैहय वंशी क्षत्रिय होने का दावा करते हैं. उनके मुताबिक तो राजपाट ब्राह्मण वर्गों द्वारा छीन लिये जाने के बाद मजबूरी में शराब के उत्पादन जैसा कार्य करना पड़ा. और देखिए तो ब्राह्मण वर्गों की धूर्तता कि उन्होंने मुझे वैश्य की श्रेणी में रखा, ठीक वैसे ही जैसे देह व्यापार करने वाली महिलाओं को उनलोगों ने वेश्या कहा.
बहरहाल, अब जब अधिकांश कलवार के बजाय जायसवाल लिखने लगे हैं तो यह अच्छा भी है. मैं तो शराब बनाने के पेशे को भी त्याज्य मानता हूं. अब जब इस पेशे पर कारपोरेट हावी है और समाज को मेरी कोई आवश्यकता नहीं तो मैंने भी अपने आपको बदलते हुए समय के अनुसार ढाला है.
अपनी संवैधानिक स्थिति की बात करूं तो मुझे ओबीसी यानी पिछड़े वर्ग में शामिल किया गया है और अब यही मेरी पहचान है. ब्राह्मणों के दिए पहचान ने मेरा बहुत कुछ छीना और मुझे गरिमा से वंचित रखा. मैं तो शुक्रगुजार हूं भारतीय संविधान के प्रति, जिसके कारण मैं सिर उठाकर जी सकता हूं. सपने देख सकता हूं और सपनों को पूरा कर सकता हूं.
ठठेरा
ब्राह्मणवाद अपनी तमाम विषमताओं के बावजूद मौजूद है तो इसके पीछे ब्राह्मण वर्गों की वर्चस्ववादी नीतियां रही हैं. ब्राह्मणों की इस नीति का शिकार सबसे अधिक जो वर्ग रहा है, वह शिल्पकार रहे हैं, जिनका एक हिस्सा मैं भी रहा हूं. ब्राह्मणों ने शिल्पकारों, जो अलग-अलग काम करते थे, उन्हें जातियों में बदल दिया. फिर चाहे वह कुम्भहार रहे हों, लोहार रहे हों, बेलदार रहे हों, सुनार रहे हों, बढ़ई रहे हों या फिर मैं ठठेरा रहा हूं. शिल्पकारों ने इस दुनिया को अपनी से हमेशा समृद्ध किया है.
बहुत पहले शिल्पकार समाज जातियों में बंटा नहीं था, तब हमारी अपनी एक ताकत होती थी. हम किसी से कमजोर नहीं थे. हमारी अहमियत होती थी. ब्राह्मण हमारे दरवाजे पर भीख मांगने आते. तब हमें कहां पता था कि जो हमारे दरवाजे पर भीख मांगने आए हैं, एक दिन वे हमें ही भिखारी बना देंगे ! यही हुआ भी. उन्होंने हमारी कला को देखा, हमारा श्रम देखा और हमारी ताकत को देखा, फिर उन्होंने हममें फूट डाला.
हमारी एकता की मिसाल को देखना हो तो सबूत के तौर पर मोहेनजोदड़ो के अवशेषों को देखा जा सकता है. वहां हम सभी ने मिलकर नगरीय सभ्यता का विकास किया. मैं तो वहां अपने द्वारा बनाए गए बर्तनों के साथ मौजूद था. तब में कांसे और तांबे से बर्तन बनाता था इसलिए कुछ लोग मुझे तमेरा और कसेरा भी कहते हैं. तमेरा मतलब वह जो तांबे का उपयोग करके बर्तन बनाए और कसेरा वे जो कांसे का बर्तन बनाए. बाद में मैं ठठेरा बना. यह सब मानव सभ्यता के विकास के क्रम में तब हुआ जब धातुओं का सो आना शुरू हुआ.
सबसे पहले लोहा सामने आया तो उसके आविष्कारक और उसके कलाकार लोहार कहलाए. बाद में जब अल्यूमिनियम और स्टील जैसे धातुओं का अस्तित्व सामने आया तब मैंने खुद को बदला और तमेरा व कसेरा जैसे शब्दों से पीछा छुड़ाते हुए स्वयं के ठठेरा कहना शुरू किया. ठठेरा मतलब ठकठक करने वाला. मेरा काम ही यही था भट्ठियों में धातुओं को गलाना और मनुष्यों के दैनिक जीवन में उपयोग हेतु बर्तन बनाना.
मैं यह बहुत खुले दिल से आज भी स्वीकार करता हूं कि धातुओं के बर्तन बनाने की कला मैंने कुमहारों से मैं जाना है. हमारे बीच अनेक समानताएं हैं. अंतर बस इतना कि वे मिट्टी का उपयोग करते हैं और मैं जमीन के अंदर मिट्टी में पड़े धातुओं का.
हालांकि कालांतर में मैंने बहुत विकास किया. इसकी वजह भी थी. वजह यह कि मेरे द्वारा बनाए गए बर्तन मिट्टी के बर्तनों से बिल्कुल अलग होते थे. वे आसानी से नहीं टूटते थे. आज भी लोगों के यहां मेरे बर्तन पीढ़ी-दर-पीढ़ी जिंदा रहते हैं, मेरे हुनर और मेरे श्रम के साक्ष्य के रूप में.
लेकिन कहा न मैंने कि ब्राह्मणों ने हम सभी शिल्पकारों को अपने सामाजिक, सांस्कृतिक और आर्थिक वर्चस्व को बनाए रखने के लिए हमें अलग-अलग जातियों में बदल दिया. मेरे लोगों को ब्राह्मणों ने कहा कि हमारा उद्गम हैहयवंश से करते हैं. वे कहते हैं कि सहस्रार्जुन नामक कोई राजा मेरा पूर्वज था हालांकि यही बात वह वैश्य समुदाय की अनेक जातियों यथा कलवार, तांती, नोनिया और रौनियार आदि के बारे में भी कहते हैं. मुझे क्षत्रिय साबित करने के लिए ब्राह्मणों ने किंवदंती भी रची है.
वे कहते हैं कि जब विष्णु के सबसे हिंसक और क्रूर अवतार परशुराम ने धरती को क्षत्रियविहीन करना प्रारंभ कर दिया तब कुछ क्षत्रिय जंगलों में छिप गए और वहां शूद्रों का काम करने लगे. उनके मुताबिक, इनमें एक मेरा भी कोई पूर्वज था जो जंगलों में धातुओं के बर्तन बनाने लगा. इस कारण से उसकी जान बच सकी.
खैर, यह तो ब्राह्मणों का मुंह है जो कभी भी कुछ भी बोलता रहता है. अब इसके बारे में क्या कहूं. अब तो उन्होंने मुझे बनिया बना दिया है जबकि मेरा काम बनियागिरी का नहीं है. मैं कलाकार हूं और श्रमिक हूं.
मेरा अपना 47 कुलों में बंटा हुआ है. मेरे लोगों की पहचान जिन सरनेम से की जा सकती है, उनमें चौहान, परमार, गोहिल, महेचा राठौड़, कांदू, वढेर, सोलंकी, भट्टी, खासी, कागड़ा और पुवर प्रमुख हैं. मैं लगभग पूरे भारत में मौजूद हूं. मसलन, उत्तर प्रदेश में ललितपुर, जालौन, बांदा, कानपुर, लखनऊ, मिर्जापुर में मेरे लोग रहते हैं. बगल के राज्य बिहार के पटना, नालंदा, गया, नवादा, भागलपुर, मुजफ्फरपुर, मुंगेर, पूर्णिया, बेगूसराय, कटिहार, खगड़िया और मधुबनी.
बिहार में कहीं-कहीं मेरे लोग अब पारंपरिक पेशे से अलग होकर कुछ और काम करने लगे हैं. किसी ने दिहाड़ी मजदूरी करना प्रारंभ कर दिया है तो कोई खेतिहर मजदूर है. वजह यह कि अब बर्तन व्यवसाय भले ही बहुत बढ़ गया हो, हम ठठेरों की हिस्सेदारी घटी है. ओडिशा में मेरे लोगों को ‘कंसारी’ कहा जाता है और वे अपना सरनेम महाराणा और महापात्र रखते हैं.
मेरी समृद्ध कला राजस्थान में खूब दिखती है. जोधपुर, अलवर, जयपुर, माधोपुर, जैसलमेर, अजमेर, बीकानेर, उज्जैन, उदयपुर, बांसवाड़ा और डूंगरपुर जिलों में मेरी संख्या ठीकठाक है. हरियाणा में मेरे लोग ब्राह्मणों के कहने पर खुद को क्षत्रिय मानते हैं. एक अंतर और है, वे केवल बर्तन ही नहीं बनाते थे बल्कि सोने और चांदी के सिक्के भी बनाया करते थे.
बहरहाल, मैं लगभग हर राज्य में अब पिछड़ा वर्ग में शामिल हूं. मुझे गम है कि मेरी कला मुझसे छीन ली जा रही है. मेरी संस्कृति का क्षय हुआ है लेकिन कौन बच सका है बदलाव से ? फिर भी विश्वास कायम है.
कसाई
मैं कसाई हूं और यह मुमकिन है कि आप मेरे बारे में यह धारणा रखते हों कि मैं तो पैदायशी हिंसक हूं या फिर यह कि मेरा जन्म ही जानवरों की हत्या करने के लिए हुआ है. लेकिन मैं कर भी क्या सकता हूं अगर आप मेरे बारे में ऐसी धारणाएं रखते हों. यह मेरा काम है और भारत में यह जाति भी है.
भारत से एक बात याद आयी. यह मेरा मुल्क रहा है, शायद तबसे जब धरती पर मानव सभ्यता का विकास शुरू हुआ. ठीक-ठीक तो याद नहीं लेकिन शायद पाषाण युग से. तब मैं उनलोगों में था जिन्होंने पत्थरों से हथियार बनाने के तरीके इजाद किये. मुझे तो गोंड समुदाय के पारी कुपार लिंगो याद आते हैं, जिनके बारे में आचार्य मोतीरावण कंगाली ने विस्तार से लिखा है कि इस धरती पर वह पहले पुरुष थे, जिन्होंने सभ्यता का का विकास किया. गोंडी मान्यता के मुताबिक पारी कुपार लिंगो ने संगीत का आविष्कार किया. उनके हाथ में पहला वाद्य यंत्र डमरू था, जिसके निर्माण में चमड़े का इस्तेमाल हुआ. मुझे लगता है कि शंकर की अवधारणा भी वहीं से प्रेरित है.
शंकर की वेशभुषा भी पारी कुपार लिंगों के माफिक है. वैसे भी जिस समय की बात मैं कह रहा हूं उस समय मनुष्यों के पास खाने और पहनने को विकल्प कहां रहे होंगे !
लेकिन चूंकि अब तो मैं तो मुसलमान हूं और लोगों का क्या है वे कुछ भी कह सकते हैं कि मुसलमानों के आने के बाद ही भारत में मांस खाने का चलन शुरू हुआ होगा. लेकिन मैं पूछना चाहता हूं कि शंकर जिसे ब्राह्मणों ने हमेशा मृगछाल पहने बताया है, उसने कितनी हिरणों को मारा होगा ? अच्छा, उसने केवल इसलिए तो मारा नहीं होगा कि उसका छाल उसे पहनना है ? होता तो यह होगा कि उसे भूख लगती होगी और वह हिरण का शिकार करता होगा, फिर उसका चमड़ा अलग करता होगा, और फिर उसका मांस खाता होगा.
मैं तो सीता के बारे में सोच रहा हूं. वह तो राम की पत्नी थी. उसने अपने पति को हिरण का शिकार करने के लिए क्यों कहा होगा ? वह यह भी तो कह सकती थी कि बड़ा सुंदर हिरण है, उसे मेरे पास ले आओ, मैं उसे दुलारना चाहती हूं लेकिन उसने राम से उस सुंदर हिरण का शिकार करने को कहा.
धर्म का मसला बहुत ही खराब मसला होता है. मैं तो इस झमेले में ही नहीं पड़ता. मैं तो यह भी नहीं कहता कि मैं ही इस धरती का पहला आदमी हूं, जिसने इंसानों को जानवरों का शिकार करने और फिर उसके मांस को खाने के योग्य बनाना सिखाया. इस आधार पर कायदे से हर कोई जो मांस काटता हो, उसे मेरे जैसे ही कसाई कहा जाना चाहिए. फिर चाहे वह कोई ब्राह्मण हो, कोई दलित हो, कोई ओबीसी हो या फिर कोई आदिवासी.
लेकिन मुझे कसाई कहा गया ! जैसे चमार जाति है हिंदुओं में. उनका काम चमड़ा छीलने से लेकर उसे पकाने और उससे जूते-चप्पल बनाने तक विस्तृत रहा है. लंबे समय तक उनके और मेरे बीच संबंध रहा है. मैं जानवरों को मारता, काटता और खाल उन्हें दे आता. हम श्रमणशील जातियां रहे हैं. हम ऐसे ही रहे हैं एक-दूसरे का सहयोग करनेवाले.
जाति के रूप में मैं वैसे तो भारत और पाकिस्तान में हूं, लेकिन पेशे के आधार पर सभी मुल्कों में. शायद ही ऐसा कोई देश हो जहां जानवरों का मांस नहीं खाया जाता. मुझसे मिलती-जुलती एक और जाति है मुसलमानों में – इसका नाम है चिक. लेकिन चिक जाति के लोग बड़े जानवर नहीं काटते. बड़े जानवरों को काटने और उनका मांस बेचने का अधिकार मैंने अपने पास रखा है. यह मेरी अपनी सामाजिक हैसियत का प्रतीक भी है. वैसे मेरा काम केवल जानवरों का मांस काटना भर नहीं रहा है, मैं जानवरों को पालता भी हूं. उनका व्यवसाय भी करता हूं. हिंदुओं में जो मवेशीपालक रहे हैं, वे मेरे अच्छे सहयोगी रहे हैं. उनकी तरह मेरे पास भी गाय-भैंसें रही हैं. आज भी हैं लेकिन चूंकि जानवरों को काटने का काम मेरे हिस्से रहा है तो सभी मेरे केवल इस काम को ही महत्वपूर्ण मानते हैं.
खैर, मैं उत्तर भारत से लेकर मध्य भारत और दक्षिण भारत में मिल जाता हूं. जिन राज्यों में मेरी संख्या ठीक-ठाक है, उनमें बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश, हरियाणा, राजस्थान, कर्नाटक, गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, आंध्र प्रदेश और महाराष्ट्र आदि शामिल हैं. और अधिक विस्तार से कहूं बिहार के पटना, गया, जहानाबाद, अरवल, भोजपुर, बक्सर, मुजफ्फरपुर, भागलपुर और दरभंगा आदि जिलों में मैं हूं. वहीं उत्तर प्रदेश के कानपुर, इलाहाबाद (अब प्रयागराज), बनारस, लखनऊ, और फतेहपुर आदि जिलों में मेरी बहुतायत आबादी है. जबकि राजस्थान के अजमेर, जयपुर, नागौर, जोधपुर और पाली जिले व महाराष्ट्र के अमरावती, बुलढाणा, अकोला, चंद्रपुर, नागपुर, पुणे, भिवंडी और मुंबई में अच्छी खासी संख्या में हूं.
अपने मजहब के बारे में बताऊं तो निश्चित तौर पर मैं मुसलमान हूं और सुन्नी हूं. मेरे कई सारे उपनाम हैं. इनमें कसाब और कुरैशी शामिल हैं. कुरैशी नाम जरा रोआब वाला लगता है इसलिए मेरे अधिकांश लोग यही सरनेम इस्तेमाल करना पसंद करते हैं जबकि अरबी का मूल शब्द है कसाब. इसका मतलब है कसाई.
कुछेक इतिहासकार यह मानते हैं कि मैं मोहम्मद ग़ोरी की सेना के साथ भारत आया था. जब मोहम्मद ग़ोरी वापस अपने वतन लौट गया तो उसके कुछ लोग दिल्ली में ही रह गए, उनमें मैं भी एक था. मुमकिन हो कि वहां से मेरा विस्तार हुआ हो. मेरे बारे में किंवदंतियां भी अनेक हैं. एक तो यह कि पंजाब में खुद को राजपूत मानने वाली जनजातियां भट्टी या खोखर मेरे वंशज रही हैं. मान्यता यह है कि इनके पूर्वजों में से एक ने मेरा व्यवसाय यानी जानवरों को काटने और मांस बेचने के धंधे को अपना लिया था.
मुझसे जुड़ी सबसे हैरतअंगेज किंवदंती कश्मीर में है. वहां मुझे गनई कहा जाता है. वहां के कई समाजशास्त्री और मानवविज्ञानी मानते हैं कि गनई मूल रूप से ब्राह्मण थे, जिन्होंने इस्लाम कबूल कर लिया था.
दरअसल, मेरे बारे में कुछ भी समझने से पहले भारत में मुसलमान कौन हैं और वे किस रूप में रहते हैं, इस पर विचार किया जाना आवश्यक है. सामान्य तौर पर भारतीय मुसलमानों को तीन तरीके से विभाजित किया गया है – पहले हुए अशराफ. ये वे मुसलमान हैं जो इस मुल्क के मूल वाशिंदे नहीं हैं. ये ब्राह्मणों के जैसे दूसरे मुल्क से आए हैं. इनमें सैयद, शेख, पठान और मुगल शामिल हैं. अशराफ शब्द से याद आया, यह मूल अरबी शब्द अशरफ से लिया गया है, जिसका अर्थ होता है शरीफ. और शरीफ का मतलब नेक और पवित्र. ये बिल्कुल उतने ही नेक और पवित्र हैं, जितने कि भारत के ब्राह्मण वर्ग के लोग.
मुसलमानों में दूसरा वर्गीकरण पेशे के आधार पर किया गया है. इनमें अंसारी (जुलाहे/बुनकर), कुरैशी (कसाई), मनिहार, बढाई, लुहार, मंसूरी (धुनिया) तेली, सक्के, धोबी नाई (सलमानी ), दर्जी (इदरीसी), ठठेरे, जूता बनाने वाले और कुम्हार इत्यादी शामिल हैं. दरअसल, यह वे जातियां रहीं जो पहले हिंदू थे और बाद में ब्राह्मणों के भेदभाव की नीति के कारण इस्लाम कबूल कर लिया. हालांकि मैं यह मानता हूं कि यह पूरी तरह से सच नहीं है. कुछ जातियां जरूर बाहरी मुसलमानों के साथ आयी ही होंगी.
खैर, मैं भारतीय संविधान के हिसाब से वर्तमान में पिछड़ा वर्ग में शामिल रहा हूं. मैं दीन-हीन भी हूं और समृद्ध भी. समृद्धों की संख्या कम है और दीन-हीनों की अधिक. मैं सामाजिक रूप से उपेक्षित रहा हूं. आज भी हूं लेकिन मैंने अपने आपको कभी भी कटघरे में खड़ा नहीं होने दिया और मैं खड़ा होऊं भी तो क्यों होऊं. मैं अपना काम करता हूं और भारतीय संविधान भी काम करने की अनुमति देता है. मुझे भारतीय संविधान में विश्वास है और यह उम्मीद भी कि मेरी जाति के लोग भी शासन-प्रशासन में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाएंगे.
- नवल किशोर कुमार
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