रविन्द्र पटवाल
दिल्ली में इस बार आम आदमी पार्टी ने वायु प्रदूषण को कम करने के लिए कोई भी सार्थक प्रयास नहीं किया. भाजपा ने इस पर सिर्फ हल्ला मचाया और आम आदमी पार्टी को गुजरात चुनावों में बदनाम करने पर ही उसका सारा फोकस बना रहा. 2 करोड़ की आबादी, साथ में एनसीआर में रहने वाले लोगों को यदि देखें तो फरीदाबाद, गुडगांव, गाजियाबाद, नॉएडा, सोनीपत, मेरठ के साथ कुल 3 करोड़ से अधिक लोगों को दिवाली के बाद से ही भयानक वायु प्रदूषण से दो चार होना पड़ रहा है.
ऐसा माना जाता है कि भारत के सबसे प्रबुद्ध वर्ग का एक बड़ा हिस्सा यहीं पर रहता है. देश की मीडिया का 60% हिस्सा यहीं से दिन-रात भौंकता है. देश के नीति-निर्माता भी यहीं रहते हैं. दुनिया के दूतावासों का भी यही अड्डा है. साथ ही भारत के सर्वोच्च न्यायालय के सभी गणमान्य व्यक्ति भी यहीं रहते हैं, साथ ही नौकरशाही भी.
फिर भी यह समस्या कम होने के बजाय बढ़ क्यों रही है ?
आम आदमी पार्टी जो पिछले वर्षों तक इस बारे में थोडा बहुत सोचती भी थी, अब पंजाब में जीत दर्ज करने के बाद उसके विचारों में बड़ा अंतर आ गया है. कल को दो चार और राज्यों में जीत यदि दर्ज कर लेती है, तो न जाने क्या-क्या समझौते कर सकती है ?
भाजपा ने आम आदमी पार्टी को गुजरात में नीचा दिखाने के लिए ही अभी तक इस मुद्दे पर मीडिया में तीखे सवाल उठाये हैं, लेकिन उसके पास तो न तो कोविड में मारे गये लोगों का कोई डेटा उपलब्ध है और न ही कोई कार्य योजना. उसने तो संसद में यह तक कह दिया कि ऑक्सीजन की कमी से एक भी भारतीय की मौत नहीं हुई. इसलिए उससे इस बात की उम्मीद सिर्फ भक्त ही कर सकते हैं.
यह सब देखते हुए तो अब लगता है कि सत्ता में 60 वर्षों तक रहने के बावजूद कांग्रेस पार्टी जिसके बारे में हमने जीवन भर इसे उखाड़ने के मंसूबे पाले थे, वह फिर भी कहीं न कहीं इन सबसे बेहतर थी.
Odd-even को कम से कम 15 दिनों तक लागू करने की कवायद करने वाली आम आदमी पार्टी ने इस बार उसका नाम तक नहीं लिया, मानो वोटर तो सिर्फ पानी-बिजली पाकर उसकी जेब में हैं.
भाजपा को 5 किलो अनाज पर अब राम मंदिर से भी अधिक भरोसा है. उसने इसे 3 महीने के लिए बढ़ा दिया है, जो गुजरात और हिमाचल में उसे यूपी की तरह जीत दिला सकता है, इस बात का भरोसा उसे अब और अधिक हो गया है. हमें कांग्रेस से कहीं बेहतर चाहिए था, इसलिए हम कांग्रेस के धुर-विरोधी थे लेकिन ये तो नाले से उठने के बजाए गटर में चले जाने जैसा हो गया है.
इस देश में कहने के लिए एक नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल भी है, जो पता नहीं किसकी ऊंगली करने पर अचानक से बड़बड़ाते हुए उठ जाती है, और फिर कई साल तक मुर्दा पड़ी रहती है. जैसे आजकल ईडी सक्रिय हो गई है वैसे ही कुछ वर्ष पहले एनजीटी सक्रिय दिखती थी. लोकायुक्त तो पता नहीं अब कोई है भी या उसकी सेवाएं खत्म हो गई हैं, पता नहीं. शायद उसका काम भी अब केंद्र सरकार ने अपने हाथ में ले लिया है. सर्वोच्च न्यायालय के पास स्वतः संज्ञान लेने का कोई संज्ञान नहीं बचा, शायद इसकी वजह केंद्र सरकार के कानून मंत्री द्वारा जहां तहां उन्हें अपनी लक्ष्मण रेखा (अपनी सीमा) में रहने की धमकी हो सकती है. फिर बचते कौन हैं ?
हम आप. हम आप में से भी कम से कम 20 लाख लोग तो ऐसे जरुर हैं, जो मध्य वर्ग या उससे उपरी तबके के लोग हैं. इन सबको क्या हुआ है ? क्या कोविड में जिस तरह 10 दिन में मौत हो जा रही थी, उसी तरह वायु प्रदूषण से झटपट मरने लगेंगे तभी पैनिक मोड में आयेंगे ? वर्ना अपनी अपनी चौपाया वाहन या दुपहिया वाहन से यह समझते हुए निकल जायेंगे कि हमारे प्रदूषण से तो सिर्फ गरीब लोग ही मरेंगे, हम तो फुर्र से घर से दफ्तर और दफ्तर से मॉल होटल जिम करते हुए ज्यादा हुआ तो बीच-बीच में मसूरी, शिमला से फेफड़े में ताज़ी हवा भरकर बच निकलेंगे ?
हम सब अगले 4-5 साल तक काले फेफड़ों के साथ मरने जा रहे हैं. शायद हमें धीमी मौत पसंद है. गैस चैम्बर हमने बनाये हैं. हमें सरकार ने अपने स्वार्थ के लिए डीजल-पेट्रोल युक्त वाहनों की आदत-लत-नशा दिया है. एक बार यह नशा लग जाता है तो उसी तरह नहीं छूटता जैसे हेरोइन गांजे की लत को छुड़ाने में लगता है. हम जीने के लिए नहीं बल्कि लाइफ स्टाइल के लिए जी रहे हैं. कब आपका चुटिया काट दिया गया, आपको पता ही नहीं चला.
केंद्र की मोदी सरकार को हर साल आपसे लाखों करोड़ की एक्साइज ड्यूटी इसी डीजल पेट्रोल की खपत से मिलती है. भले ही दुनिया में पेट्रोल की कीमत 100 डॉलर बैरल से बढ़कर 500 डॉलर हो जाए, सरकार कभी नहीं कहेगी कि आप गाड़ी मत चलाइये. उसकी तो फट जायेगी जिस दिन आपने वाहन चलाना बंद कर दिया. लेकिन आपको क्या हो गया है ? जब आपके प्रियजनों की आपकी आंखों के सामने मौत हो जायेगी तब आंखें खुलेंगी ? शायद तब भी नहीं. असल में वायु प्रदूषण से भी अधिक जरुरी पहले देश को मानसिक प्रदूषण से मुक्ति की जरूरत है.
अंत में एक बात और. चीन में शायद 2008 में ओलंपिक खेलों का आयोजन किया गया था. तब वहां के हालात दिल्ली जैसे ही थे, क्योंकि वह दुनियाभर का कूड़ा कचरा उत्पादित कर रहा था. विकसित देशों ने उसे अपना मैन्युफैक्चरिंग हब बना रखा था, और वह एक-एक पैसे के लिए धुआंधार उत्पादन कर रहा था. तब उसने खेलों को संपन्न करने के लिए कृत्रिम बारिश का इंतजाम किया. लेकिन इसके फौरन बाद ही उसने अपने देश में इस बारे में काम करना शुरू किया.
आज चीन की स्थिति में कायापलट हो चुका है. अब वह भी किसी यूरोपीय या अमेरिका की तरह पहले से काफी बेहतर स्थिति में है. जल्द ही वह भी आधुनिकतम तकनीक के क्षेत्र में अग्रणी स्थान के साथ अपने शहरों, नदियों, पहाड़ों और अपने 140 करोड़ लोगों को सबसे बेहतर, स्वस्थ और सुखी बनाने जा रहा है. लेकिन हम क्या कर रहे हैं ? हम तो खुद ही अपने बचे खुचे उद्योगों को खत्म कर उसके बावजूद सिर्फ वाहनों के जरिये ही सभी को मारने पर तुले हुए हैं.
जब शीर्ष पर बैठा नेतृत्व ही आंखों पर पट्टी बांधकर चंद कॉर्पोरेट के अथाह मुनाफे को दिन दूना रात चौगुना करने के लिए कृत संकल्पित बैठा हो, और मीडिया चंद टुकड़ों की खातिर उसके द्वार पर जीभ लपलपाये नजर गाड़े रहता हो, जब सभी संवैधानिक संस्थाएं सिर्फ अपनी पोजीशन और भविष्य के लाभों पर ही नजरे गडाए हो, और देश का मध्य वर्ग स्वार्थी, आत्मकेंद्रित और मानसिक रूप से अपंग बना दिया गया हो तो उस देश को इसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी और हम शान से चुकायेंगे !
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