हम रोज ही कोई न कोई ‘डे’ (दिवस) मनाते हैं. अभी कुछ दिन पहले ही हमने ‘डाटर्स डे’ मनाया था. लेकिन इसी बार मुझे पता चला कि हर साल 5 जुलाई को ‘बिकनी डे’ भी मनाया जाता है. इस पर मुझे घोर आश्चर्य हुआ. मशहूर वेब मैगज़ीन ‘फर्स्टपोस्ट.कॉम’ (www.firstpost.com) ने इस बार बिकनी पर एक लंबा लेख लिखा. अमेरिकन-योरोपियन पत्रिकाओं ने बिकनी के ‘आविष्कार’ के 76 साल पूरे होने का बाकायदा जश्न मनाया.
‘फर्स्टपोस्ट.कॉम’ (www.firstpost.com) ने अपने लम्बे लेख में बिकनी की तारीफ करते हुए एक पंक्ति यह भी लिखी- ‘बिकनी एटोल’ (Bikini Atoll) में अमेरिका द्वारा किये गए हाइड्रोजन बम के परीक्षण से प्रेरणा लेकर फ़्रांस के फैशन डिजाइनर ‘लुइस रीयर्ड’ (Louis Reard) ने इस ‘टू पीस’ परिधान का नाम बिकनी रखा. आखिर बिकनी परिधान का बम और ‘बिकनी एटोल’ नामक द्वीप से क्या लेना देना ?
जब मैंने खुद इसकी पड़ताल की तो इस ‘टू पीस बिकनी’ के पीछे के इतिहास ने मुझे हिलाकर रख दिया. ‘बिकनी एटोल’[Bikini Atoll] प्रशान्त महासागर में स्थित एक छोटा सा द्वीप है. आज से ठीक 76 साल पहले 1 जुलाई 1946 को अमरीका ने इस द्वीप पर ‘हिरोशिमा-नागासाकी’ पर गिराये गये (6 अगस्त और 9 अगस्त 1945) परमाणु बम से भी कई गुना शक्तिशाली परमाणु बम का परीक्षण शुरु किया था.
1946 से 1958 तक इस द्वीप पर और आसपास कुल 67 परमाणु बम का परीक्षण किया गया. इसमें से कई की ताकत हिरोशिमा-नागासाकी पर गिराये गये बम से 1000 गुना ज्यादा थी. 1954 में इसी द्वीप पर पहली बार हाईड्रोजन बम का भी ‘सफल’ परीक्षण किया गया.
अमेरिका के परमाणु परीक्षण से तबाह बिकनी एटोल द्वीप की आदिम सभ्यता
बिकनी एटोल पर सैकड़ों सालों से एक पूरी सभ्यता निवास करती थी. 17वीं शताब्दी में स्पेन की इस पर नज़र पड़ी और उसने इस पर कब्जा जमा लिया. उसके बाद जर्मनी से होते हुए द्वितीय विश्व युद्ध में यह जापान के कब्जे में रहा. द्वितीय विश्व युद्ध में जापान के हार जाने के बाद यह अमरीका के कब्जे में आ गया.
परीक्षण शुरु करने से पहले अमरीका ने यहां के आदिवासी समाज के मुखियाओं की एक बैठक बुलाई. उनसे कहा गया कि उन्हें यह द्वीप खाली करना पड़ेगा. यहां ‘मानवता की बेहतरी’ के लिए कुछ परीक्षण किये जायेगे. इसके बाद उन्हे जबर्दस्ती जहाजों पर लाद कर यहां से 200 किलोमीटर की दूरी पर एक दूसरे निर्जन द्वीप ‘रोन्गेरिक एटोल’ पर भेज दिया गया. उन्हें महज कुछ सप्ताह का राशन मुहैया कराया गया. यह द्वीप रहने लायक नहीं था इसलिए राशन खत्म होने के बाद वे भूखमरी के शिकार होने लगे.
विश्व मीडिया में अमरीका की आलोचना होने के बाद उन्हें पुनः कुछ हफ्तों के राशन के साथ पास के दूसरे निर्जन द्वीप पर भेजा गया. तब से लेकर आज तक वे आसपास के द्वीपों पर भटक रहे है. उनमें से अधिकांश परमाणु विकिरण के घातक असर से भी जूझ रहे हैं. उनका अपना देश ‘बिकनी एटोल’ पूरी तरह तबाह हो गया. यहां विकिरण स्तर समान्य से कई गुना ज्यादा है.
अमेरिकी परमाणु परीक्षण के लिएगिनीपिग बने निवासी
‘बिकनीएटोलडाटकाम’ (www.bikiniatoll.com) ने परमाणु परीक्षण वाले दिन और उसके तुरन्त बाद की स्थितियों को इन शब्दों में कैद किया है –
‘रोन्गेरिक एटोल पर विस्थापित लोगों को नहीं पता था कि वहां क्या हो रहा है. उन्होंने उस दिन आसमान में दो सूरज देखे. उन्होंने आश्चर्य से देखा कि उनके द्वीप के ऊपर दो इंच मोटा रेडियोएक्टिव धूल के बादल छा गये. उनका पीने का पानी खारा हो गया और उसका रंग बदलकर पीला पड़ गया.
‘बच्चे रेडियोऐक्टिव राख के बीच खेल रहे थे, मांएं भय से यह सब देख रही थी. रात होते-होते उनके शरीर पर इसका असर साफ दिखने लगा. लोगों को उल्टियां और दस्त पड़ने लगे, बाल झड़ने लगे. पूरे द्वीप पर आतंक की लहर दौड़ पड़ी. इन लोगों को कुछ नहीं बताया गया था और ना ही अमरीका द्वारा किसी तरह की चेतावनी ही जारी की गयी थी. परीक्षण के दो दिन बाद उन्हें ‘इलाज’ के लिए पास के ‘क्वाजालेन द्वीप’ पर ले जाया गया.’
बिकनी एटोल पर इस परीक्षण के लिए आसपास कुल 42 हजार अमरीकी सैनिक तैनात थे. इसके अलावा परीक्षण का असर जानने के लिए 5400 चूहे, बकरी और सूअरों को भी इस द्वीप पर लाया गया.
1980 के आसपास ‘सीआइए’ की एक स्रीक्रेट रिपोर्ट ‘डिक्लासीफाइड’ हुई. बिकनी एटोल के निवासी और बिकनी एटोल की घटना पर नज़र रखने वाले लोग इस रिपोर्ट से बुरी तरह सकते में आ गये. इसमें साफ-साफ बताया गया था कि चूहों, बकरियों और सूअरों के साथ ही बिकनी एटोल के निवासी भी परमाणु परीक्षण के औजार थे इसलिए उन्हें जानबूझकर बिकनी एटोल से इतनी दूरी पर विस्थापित किया गया था कि वे परमाणु विस्फोट से मरे भी ना और पूरी तरह से परमाणु विकिरण की जद में रहें ताकि उन पर इसके प्रभावों का अध्ययन किया जा सके.
इस रिपोर्ट के बाद ही बिकनी एटोल के लोगों और इस पर नज़र रखने वाले लोगों को यह समझ में आया कि क्यों अमरीका के डाक्टर नियमित अन्तराल पर उनके बीच आते थे और उनका ‘मुफ्त’ ‘इलाज’ करते थे. यही नहीं उन 42000 अमरीकी सैनिकों में से भी कई इस विकिरण की जद में आ गये और उनमें कई कैन्सर जैसी घातक बीमारियों के शिकार हो गये. इस विकिरण से प्रभावित सैनिकों ने बाद में अपना संगठन बना कर अमरीकी सरकार पर केस भी दायर किया है.
हालांकि यह पता नहीं चल सका है कि क्या ये सैनिक भी इस प्रोजेक्ट में ‘गिनी पिग’ की तरह इस्तेमाल किये गये या यह अमरीकी साम्राज्यवाद का ‘कोलैटरल डैमेज’ था ? इसी से जुड़ा यह तथ्य कम लोगों को ही पता होगा कि ‘हिरोशिमा-नागासाकी’ पर गिराये गये बम में लाखों जापानियों के साथ ही वहां की जेलों में बन्द 100 के करीब अमरीकी युद्ध बन्दी भी मारे गये थे और अमरीका को यह तथ्य अच्छी तरह पता था कि वहां की जेलों में अमरीकी भी कैद हैं.
सौन्दर्य प्रतियोगिता यानी अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चस्ववादी संस्कृति की स्थापना
इस विवरण को पढ़कर मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि कैसे इस त्रासद कहानी से ‘टू पीस बिकनी’ को जोड़ा गया. बाद में मुझे पता चला कि ‘सेक्स बम’ जैसे शब्द भी हमारे शब्दकोश में इसी समय जुड़े. 1952 में अमेरिका के लास वेगास में हुई एक सौन्दर्य प्रतियोगिता में विजयी ‘सुंदरी’ को ‘मिस एटोमिक ब्लास्ट’ (Miss Atomic Blast) से नवाजा गया.
शीत युद्ध के इस दौर में अमेरिकी साम्राज्यवादी वर्चस्ववादी संस्कृति यह स्थापित करने का प्रयास कर रही थी कि ‘महिला सेक्स’ विध्वंसकारी, खतरनाक और भयावह होती है इसलिए इस पर नियंत्रण की जरूरत है. ठीक उसी तरह जैसे परमाणु बम पर नियंत्रण की जरूरत होती है. भारत की सामंती संस्कृति में भी इसीलिए स्त्री को क्रमशः बाप-पति-बेटे के नियंत्रण में रखने को कहा गया है. यह सामंती और साम्राज्यवादी संस्कृति की जुगलबंदी बहुत दिलचस्प है.
बिकनी एटोल के निवासियों के साथ हुई इस त्रासद अमानवीय घटना के रुपक को यदि फैशन पर लागू करे तो हम देखेंगे कि इसी समय से विशेषकर अमेरिका और यूरोप में महिलाओं पर फैशन का ‘आक्रमण’ होना शुरु हुआ. प्रयास किया जाने लगा कि उनकी मानवीय रुह को विस्थापित करके उन्हें महज ’फैशन डाॅल’ में तब्दील कर दिया जाय.
महिला की चेतना को कुंद कर नियंत्रण की तैयारी
सोवियत संघ और चीन में समाजवाद और तीसरी दुनिया में राष्ट्रीय मुक्ति युद्धों के कारण महिलाओं में जो चेतना पैदा हो रही थी, उसका मुकाबला करने के लिए उनके लिए यह जरुरी था कि सामूहिकता के बरक्स व्यक्ति को स्थापित किया जाय. यानी व्यक्तिवाद को बढ़ाया दिया जाय. महिलाओं की बढ़ती चेतना को कुंद करने के लिए उन्हें फैशन की ओर धकेला जाय.
इस सन्दर्भ में फैशन उस परमाणु बम की तरह ही था जिससे महिलाओं में आ रही ‘मुक्ति की चेतना’ को तबाह किया जा सकता था और उन्हें सामूहिकता के द्वीप से विस्थापित करके अलग-अलग निर्जन द्वीपों पर विस्थापित किया जा सकता था. 2005 में आयी ‘एडम कुरटिस’ की मशहूर डाक्यूमेन्ट्री ‘सेन्चुरी ऑफ दि सेल्फ’ में इस परिघटना को बेहद बारीकी से दिखाया गया है.
अमरीकन और यूरोपियन फैशन के इसी विध्वंसक और अमानवीय स्वरुप के कारण ‘टू पीस परिधान’ का नाम बिकनी पड़ा. इसमें कोई शक नहीं. साम्राज्यवाद-पूंजीवाद में हर चमकती जगमगाती आकर्षक चीज के पीछे त्रासदी, दुःख और खून-पसीना होता है.
जब भी आप फैशन का कोई आकर्षक परिधान देंखे तो बांग्लादेश का ‘रानाप्लाजा’ जरुर याद कर लें. और जब भी आप कोई आकर्षक इलेक्ट्रानिक सामान देंखे तो कांगो के उन बच्चों को याद कर लें जो इन इलेक्ट्रानिक सामानों में प्रयुक्त होने वाले धातुओं को निकालने के लिए लंबी अंधेरी सुरंगनुमा खानों में प्रवेश करते हैं और कई तो वहीं दम तोड़ देते हैं.
‘कार्ल मार्क्स’ ने इन सब का निचोड़ पेश करते हुए लिखा है- ‘पूंजी सर से पांव तक खून और गंदगी में सनी हुई है.’ लेकिन हममें से कितने लोग इसे देख और समझ पाते हैं !
- मनीष आज़ाद
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