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चड्डीश्वर

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चड्डीश्वर
चड्डीश्वर
विष्णु नागर

एक थे चड्डीश्वर. चड्डी को चड्डी की तरह तो पहनते ही थे, उसे कमीज बनाकर भी पहनते थे. चड्डी ही उनकी बनियान, उनका कच्छा थी. वह चड्डी ही बिछाते, चड्डी ही ओढ़ते थे, चड्डी में रहकर चड्डी-चिंतन करते थे. वह सिर से पैर तक बने थे चड्डी के.

एक दिन ऐसा भी आया कि चड्डी इस्तेमाल करते-करते घिस गई. यहां–वहां, जहां-तहां से फट गई मगर थी वह ऐतिहासिक चड्डी. कुछ का दावा था कि वह शिवाजी-राणा प्रताप के जमाने की थी, तो कुछ उसे 5000 साल पुराना बताते थे. जहां तक उनका अपना सवाल है, वह इसे पिछले 90 साल से कुछ ज्यादा समय से धारण कर रहे थे. नई थी, तब इतनी मजबूत नहीं थी मगर धुलते-धुलते मजबूत हो चली थी मगर इधर अचानक तार-तार हो गई थी.

वह ठहरे प्राचीन संस्कृति के पुजारी, ऐसी चड्डी पहनें कैसे और न पहनें तो फिर पहनें क्या ? उन्हें अक्सर कनफ्यूजन हो जाता था कि वह चड्डी को पहनते थे या चड्डी उन्हें पहनती थी. इसे न छोड़ते बनता था, न पहनते. वैसे नंगे रहने में कठिनाई लोकलाजवाली ज्यादा थी लेकिन इससे बड़ी समस्या यह थी कि चड्डी के बगैर उन्हें अपना जीवन सूना-सूना लगता था. समस्या यह भी थी कि पुरानी की जगह नई चड्डी कैसे पहनें ? किस मुंह से पहनें ? वह चड्डी नहीं, संस्कृति थी. संस्कृति की रक्षार्थ पुरानी चड्डी पहनना जरूरी था. इधर पैंट पहनने का दबाव बढ़ रहा था मगर जो आनंद, जो मजा, जो सुख चड्डी में है, वह और कहां ?

चड्डी उनका भरी जवानी का पहला प्यार था. इसकी खातिर उस लड़की से प्यार नहीं किया था, जो कि बहुत प्यारी थी. उसे कैसे भुला सकते थे ? ठीक है, जीवन में कभी-कभी दूसरा-तीसरा-चौथा प्यार भी हो जाता है मगर पहले प्यारवाली बात फिर कहां ? चड्डी उनका यथार्थ थी, आदर्श थी, वर्तमान थी, भविष्य थी. तुझ बिन जिया, न जाय जैसी हालत उनकी थी.

बहुत अबौद्धिक किया, योग किया, भोग किया, ढोंग किया मगर कुछ समझ में नहीं आया. राष्ट्र चिंतन किया, हिंदू-मुसलमान किया, लव जेहाद किया, गौमाता किया, ध्वज प्रणाम किया, राष्ट्र वंदन किया, गुरू जी किया, डॉक्टर साहब किया, दंगा-फसाद किया. सीधे को उलटा किया, उल्टे को सीधा किया, फिर भी कुछ समझ में नहीं आया. यहां तक कि हिंदू राष्ट्र करने से भी समझ में नहीं आया. संविधान पढ़ने का भगीरथ प्रयत्न किया तो वह समझ में नहीं आया. तिरंगे की तरफ देखा तो उसके तीन रंग आंखों में चुभने लगे क्योंकि आदत एक रंग की थी. ‘जन गण गण’ किया तो ‘वंदेमातरम’ याद आया. हाय रे संकट.

सवाल जीवन-मरण का था कि इस फटी हुई प्राचीन चड्डी का क्या करें ? क्या उसमें थेगले लगाएं ? और लगाएं तो किस रंग के लगाएं ? हरे रंग के न लगाएं, इस पर सहमति थी मगर बाकी रंगों पर तीव्र असहमति थी. कोई कहता कि खाकी में खाकी थेगला होकर भी थेगला नहीं लगेगा. कोई कहता कि पीला लगाओ. कोई कहता भगवा ही क्यों नहीं ? अंततः अगवा रंग पर सहमति बनी मगर पता चला कि ऐसा रंग होता नहीं !

अचानक विपदा आन पड़ी थी. अकस्मात आकाशवाणी हुई कि खाकी छोड़ो, भूरी पैंट पहनो. सब तरफ अहा-अहा, वहा-वहा, यहां तक कि वाह-वाह तक होने लगी. घंटा-घड़ियाल बजे, शंखनाद हुआ, हर्ष विभोर लोग डांस- वभोर जब होने लगे तो अचानक किसी ने ध्यान दिलाया कि डांस करना संस्कृति के खिलाफ है, नृत्य भी नहीं, नर्तन करो.

नर्तन करना किसी को आता नहीं था, अंततः कीर्तन करने पर सहमति बनी. मगर कीर्तन किसका ? कृष्ण का या राधा का, राम का या शिव का या पार्वती का या आसाराम का ? किसी ने कहा- ‘वह भी भगवान हैं’, मगर दूसरे ने कहा – ‘लेकिन वह जेल में हैं’ तो जवाब आया – ‘यह तो अत्यंत उत्तम है. फिर तो आसाराम ही एकमात्र विश्वसनीय है, आदरणीय है, पूजनीय है. करो-जय आसाराम, जय आसाराम, प्रभु आसाराम जी, प्रभु आसाराम. आसाराम सबसे निराले, पियारे-पियारे सुमति के फुहारे. मेरे अल्लाह, मेरे दाता, सबको सम्मति दे भगवंता…’.

इतने में कोई बोल पड़ा – यह अल्लाह किसने बोला ? निकालो उसे यहां से. यह छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी है, कम्युनिस्टों का एजेंट है, पापी है, म्लेच्छ है…’. मगर पता चला कि ऐसी गलती स्वयं प्रमुख कर बैठे हैं. प्रमुख ने आंखें दिखाईं तो वातावरण में अनुशासन उत्पन्न हो गया लेकिन भजन भंग हो गया. ध्यान का विखंडन-विसर्जन हो गया, वातावरण दु:खमय हो गया. हमारा यह वृत्तांत यहीं अधूरा रह गया. ये थीं खबरें कल तक, प्रतीक्षा करें परसों तक !

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