मुनेश त्यागी
कल पूरे भारत में उर्दू दिवस मनाया गया. भारत को मुसलमानों का एक महान स्थाई योगदान भाषा और साहित्य के क्षेत्र में मिला. इसी महान योगदान ने उर्दू भाषा को जन्म दिया और हिंदी भाषा तथा साहित्य को विकसित और समृद्ध किया. हिंदी खड़ी बोली का गद्य अधिकांशतः और पद्य प्राय: पूर्णतः मुस्लिम सर्जन है. 13वीं सदी से पहले या अमीर खुसरो से पहले कोई हिंदू या हिंदी कवि नहीं हुआ. हम यहां ब्रजभाषा, अवधी और भोजपुरी जैसी बोलियों की बात नहीं कर रहे हैं.
उर्दू और हिंदी दोनों ही मूलतः एक हैं क्योंकि दोनों में ही समान क्रियाएं प्रयुक्त होती हैं और उनका व्याकरणीय ढांचा भी समान है. जब दो प्रतीयमान भाषाओं की क्रिया एक ही होती है, तब वह एक ही भाषा होती है. दूसरे उर्दू कोरी शैली नहीं है. यह एक पूर्ण विकसित भाषा है. इसे इतने सारे भारतीय बोलते हैं और अपनी भाषा घोषित करते हैं. राष्ट्रीय भाषाओं के रूप में संविधान में वर्णित अनेक अन्य भाषाओं की तुलना में उर्दू भाषियों की संख्या अधिक है. इसका अपना महत्व है और यह महत्व महज इसलिए नहीं है कि एक अन्य देश ने इसे अपनी राष्ट्रीय भाषा घोषित कर दिया है. हालांकि इसे वहां कोई नहीं बोलता. पाकिस्तान में पश्तो और पंजाबी बोली जाती है.
उर्दू भाषा को हिंदू मुसलमान दोनों ने मिलजुल कर रचा और विकसित किया है और यह केवल भारत की ही भाषा है. यह भारत की सर्वसामान्य विरासत है. पाकिस्तान का इससे कोई लेना-देना नहीं है. यह भी गौर करने वाली बात है कि पंजाब से बंगाल तक अधिकांश प्रतिष्ठित हिंदू, नाम और पैसा कमाने के लिए अरबी और खासकर फारसी का अध्ययन और विकास कर रहे थे. इस विकास का नतीजा क्या हुआ ? हिंदी और उर्दू भाषा और साहित्य का सृजन और संवर्धन हुआ. कुछ शुद्धतावादियों ने अरबी, तुर्की और फारसी के महत्वपूर्ण और व्यंजक शब्दों को अलग करने और इस तरह तथाकथित विदेश विदेशी प्रभाव से भाषा हिंदी को मुक्त करने का प्रयत्न किया है. यह भौंडेपन की हद है और जताती है कि भाषा के आकार ग्रहण की प्रक्रिया से वे कितने अपरिचित हैं.
हमारी सरकारी संस्थाओं ने ऐसे ही लोग भरे हुए हैं और जिनमें से प्रगतिशील लोगों को जानबूझकर बाहर किया जाता है, पारिभाषिक शब्दावली देने की तथाकथित प्रक्रिया में इस ओर पहला कदम उठाया है. उन्होंने अंतरराष्ट्रीय शब्दों और सिद्धांतों को लक्षित करने से इनकार किया है, जिससे भाषा अंतरराष्ट्रीय क्षेत्रों में समझ में आने लायक हो सकती थी. उन्होंने उन अरबी, फारसी और तुर्की शब्दों का बहिष्कार कर दिया जो सदियों से इस्तेमाल होते चले आ रहे थे और जिन्होंने भाषा को समृद्ध बनाया था. उनकी जगह उन्होंने अनुपयोगी तथा अधिकतर गढे हुए संस्कृत शब्द रख दिये, जो संस्कृत भाषा में भी कभी प्रयुक्त नहीं हुए.
हिंदी सिनेमा में सबसे लोकप्रिय सीन कोर्ट के होते हैं. इन कोर्ट सीनों के बल पर कई फिल्में हिट हुई हैं. देखिए यहां उर्दू कैसे सर चढ़कर बोलती है – मुल्जिम, मुजरिम, सबूत, चश्मदीद गवाह, गवाही, कत्ल, वकील, इंसाफ, मासूम, गुनाहगार, बयान, ये शब्द जनता, वादकारियों और अदालतों में रोज ही गूंजते हैं और अंत में जज अपना फैसला देता है, … दफा नंबर … ताजिराते हिंद के तहत … और फिर सजा, उम्रकैद या सजा-ए-मौत और अगर हीरो बेकसूर साबित हो तो उसे ‘बाइज्जत बरी’ किया जाता है.
आखिरकार शुद्धतावादी कितना ही यत्न क्यों न करें, कुछ शब्द वे कभी भी हमारी बोलचाल की भाषा से, व्यवहार और साहित्य से नहीं निकाल सकते. शायद वे यह जानते भी नहीं कि ये शब्द विदेशी हैं. इनकी संख्या हजारों में हैं. इनमें से कुछ एक को हम आपकी जानकारी के लिए यहां उद्धृत कर रहे हैं.
बंदूक, कागज, जागीर, माफी, परवाना, सराय, आराम, नजराना, कारीगर, बाग, कफन, ईमानदार, हराम, चपरासी, बही, गबन, कुर्की, बारूद, हवलदार, जमादार, मोर्चा, गोलंदाज, हरावल, सिपाही, संगीत, सुरंग, गुलेल, तमंचा, देहात, मोहल्ला, परगना, जिला, बादशाह, बेगम, दीवान, नवाब, जमीदार, सूबेदार, सरदार, हाकिम, नौकर, मुलाजिम, मुनीम, पेशकार, कारिंदा, दारोगा, दरबान, दफ्तरी, पैरोकार, मुंशी, बयान, फरार, हिरासत, सुराग, गिरवी, तामील, बहस, हैसियत, हवेली,
आवारा, दस्तूर, पुलिया, सरकार, आबकारी, हवालात, नजरबंद, मालगुजारी, सिक्का, रुपया, कलम, कलमदान, सोख्ता, तख्ती, स्याही, दवात, पर्चा, जिल्द,जिल्दसाज, लिफाफा, पता, सादा, कुर्ता, सलवार, तहमद, लूंगी, मौजा, जुराब, कमीज, पजामा, चादर, रजाई, लिहाफ, तकिया, शाल, दस्ताना, रुमाल, जामा, बिस्तर, चम्मच, चिलमची, मशाल, मशालची, तबला, तबलची, प्याला, सुराही, तसला, तश्तरी, तंदूर, मर्तबान, मुल्क, नथ, बर्फी, बालूशाही, कोफ्ता, कबाब, शोरबा, पुलाव, ताहिरी, हलवा, गुलाब, इत्र, मसाला, आचार, मुरब्बा, नाश्ता, मैदा, सूजी, बेसन, नमक, रोटी, चपाती, तवा,
बादाम, मुनक्का, किशमिश, शहतूत, अंजीर, नारंगी, पिस्ता, शरीफा, तरकारी, सब्जी, शलजम, चुकंदर, पुदीना, कुल्फी, प्याज, लहसुन, तरबूज, खरबूजा, गाजर, कद्दू, गजक, जलेबी, कलाकंद, समोसा, मलाई, मिश्री,शीरा, चाशनी, बर्फ, चरस, सुल्फा, हुक्का, चिलम, तंबाकू, नशा, अफीम, अबीर, गुलाल, खिजाब, शीशा, चश्मा ऐनक, कुर्सी, आराम कुर्सी, तखत, गलीचा, कालीन, पर्दा, सामियाना, बजाज, बेलदार, दलाल, दर्जी, दुकान, दुकानदार, पहलवान, रंग, रंगसाज, रंगरेज, सर्राफ,
पेशा, रोजगार, हज्जाम, हजामत, बखिया, आस्तीन, जेब, पंहुचा,कली, अस्तर, चिकन, मखमल, रेशम, गज, गिरह, करना, चरखा दरी दालान, नाडा, बुरादा, नगीना, सलमासितारा, चरखा, रोटी, तवा, चपाती आदि आदि और फिर सबसे प्रमुख दूल्हा और दुल्हन को कौन भूल सकता है !
जब हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक लोग उर्दू को विदेशी भाषा बताते हैं तो वह उस समय हिंदू मुस्लिम एकता में भी विभाजन पैदा कर रहे होते हैं और वह जानबूझकर उर्दू को विदेशी भाषा बताते हैं जबकि उर्दू हमारे देश में ही पैदा हुई है, हमारे देश की भाषा है, यही पली-बढ़ी, विकसित और समृद्ध हुई है. यह हमारी साझी संस्कृति की सबसे बड़ी और महान विरासत है. हमें इसकी रक्षा में आगे आना होगा.
और सबसे अधिक हमें इस बात पर फक्र है कि जब भी जनता और मजदूर, सरकार की, पूंजीपतियों की और जमीदारों के जुल्म ज्यादतियों से परेशान होते हैं, तो वे ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा बुलंद करते हैं. जब जनता अन्याय शोषण जुल्म महंगाई भ्रष्टाचार से परेशान होती है तो वह ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा बुलंद करती है. जब किसान मजदूर अपनी रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य, न्यूनतम वेतन और फसलों का वाजिब दाम मानते हैं और एकजुट होकर संघर्ष करते हैं और संघर्ष के मैदान में उतरते हैं तो वे भी ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे से धरती और आसमान गुंजाते हैं.
और सबसे अधिक भारत के स्वतंत्रता संग्राम में ‘साम्राज्यवाद मुर्दाबाद’ और ‘इंकलाब जिंदाबाद’ कहने वाले भगत सिंह और उनके साथियों ने अदालतों के सामने, अपने लेखों और भाषणों में ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा बुलंद किया था, हमें यह बताने में खुशी हो रही है कि यह नारा स्वतंत्रता सेनानी और क्रांतिकारी लेखक और साहित्यकार और शायर हसरत मोहानी ने इजाद किया था. इसी नारे का भगत सिंह और उनके साथियों ने जमकर इस्तेमाल किया था और आज भी भारत में भारत के कोने कोने में सबसे ज्यादा यही ‘इंकलाब जिंदाबाद’ का नारा बुलंद किया जाता है जो हमारी राजनीति, साहित्य, कविता और संघर्षों को हमारी उर्दू की सबसे बड़ी देन है.
हमारे देश में सबसे ज्यादा उर्दू का प्रयोग होता है. फिल्में, गाने, कविता और शायरी तो जैसे इसके बिना की नहीं जा सकती. उर्दू के हजारों शब्दों को हमारे आचार-विचार व्यवहार से नहीं निकाला जा सकता और जब हिंदुत्ववादी सांप्रदायिक ताकतें, आरएसएस और उसके तमाम साम्प्रदायिक संगठन और बीजेपी, उर्दू को विदेशी भाषा बताते हैं तो हमें उनका मुंहतोड़ जवाब देना चाहिए और जनता में भाषा के नाम पर बंटवारे को बर्दाश्त नहीं करना चाहिए, उसका पुरजोर विरोध करना चाहिए और उपरोक्त के आलोक में उन्हें नसीहत देनी चाहिए और जनता को गुमराह होने से बचाना चाहिए.
यह आज के राजनीतिज्ञों, बुद्धिजीवियों, लेखकों, कवियों, कलाकारों, वकीलों, जजों, और मीडियाकर्मियों और सभी सम्पादकों की सबसे बड़ी जिम्मेदारी है कि हिंदुस्तान की प्यारी भाषा उर्दू को विदेशी भाषा बताए जाने का पुरजोर विरोध करें और जनता को बताएं कि उर्दू एक हिंदुस्तानी भाषा है, यह कतई भी विदेशी भाषा नहीं है. आज सारी भारतीय जनता को इसकी जानकारी सबसे ज्यादा जरूरी है. आइए, हम सब भी उर्दू के इस महान रथ के सारथी बनें.
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