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ग्राम्य जीवन का सर्वोत्तम रूप आज पूर्णतः तिरोहित हो चुका है

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राम अयोध्या सिंह

मैंने बचपन में देखा है कि गांवों में गरीबी और अभाव का साम्राज्य था. गरीबी के दायरे का विस्तार कमोबेश सभी जातियों में था, पर जाति क्रम में जैसे-जैसे नीचे आते थे, तो गरीबी भी उसी अनुपात में बढ़ती जाती थी. हरिजन सबसे दरिद्र थे. अन्य जातियों में तेलियों, बनियों, अहीरों और लोहारों में वैसी गरीबी नहीं थी, जैसी अन्य निम्न जातियों में थी. हमारे गांव में जमीन का मालिकाना हक नब्बे प्रतिशत राजपूतों के हाथों में था. ब्राह्मणों, कायस्थ, तेली, अहीर और लोहारों के पास भी थोड़ी-सी जमीन छोड़कर बाक़ी किसी भी अन्य जातियों के पास जमीन नहीं थी. सभी कृषि कर्म से ही जुड़े थे या उस पर आश्रित थे. राजपूतों में अधिकतर नौकरीपेशा पुलिस विभाग में सिपाही या हवलदार थे. कुछ क्लर्क, कुछ बंगाल के चटकल और जमशेदपुर में टाटा की स्टील कंपनी में काम करते थे. चटकल तथा एक या दो लोग पिछड़ी जातियों में से भी चटकल और मिलिट्री में जवान थे. मुसलमानों में भी कुछ लोग कलकत्ता में काम करते थे.

खेती तब रामभरोसे ही थी. मानसून पर आश्रित खेती एक तरह से जुआ का खेल ही था. शायद इसीलिए पहले गांवों में जुआ खेलने वाले भी बहुत होते थे, अब नहीं हैं. बारिस समय पर पर्याप्त हुई, तो समझिये कि खेती देखकर किसानों के चेहरे पर खुशी झलकती थी. पर, अधिकतर उन्हें मायूस ही झेलनी पड़ती थी. आहर के किनारे वाले खेतों में दोन से कुछ पटवन हो जाती थी, पर बाकी जगहों पर सुखाड़ ही होता था, और जब आशा पूरी तरह खत्म हो जाती तो लोग धान के खेतों में मुआर काटते थे, यानि धान की फसल की उम्मीद जब खत्म हो जाए या धान की फसल मर जाए, तो उसे काटकर पशुओं को खिलाया जाता था. पानी का कहीं कोई इंतजाम न होने के कारण धान की खेती लोग सिर्फ नीचली सतह वाली जमीन पर ही करते थे, बाकी जमीन चौमास छोड़ दिया जाता था ताकि उसमें रब्बी की बुआई हो सके. राहत की बात यह थी कि रब्बी की खेती बिना पानी के भी अच्छी होती थी. रब्बी में सबसे अधिक मसूरी की खेती होती थी. उसके बाद चना, गेहूं, मटर, खेसारी, सरसों और तीसी की उपज होती थी. धान तो अगर किसी किसान को बीस मन कच्ची भी प्रति बीघे हो जाती तो सीना चौड़ा हो जाता था. पूरा गांव इसी खेती पर आश्रित था.

छोटी जातियों में भी सबके अलग-अलग काम थे. लोहार लोग लोहे और लकड़ी का काम करने के साथ ही साथ हल, ओखल, मूसल, चौखट, दरवाजे, खटिया, छप्पर और किसानों के अन्य जरूरी काम करते थे. संक्रांति और बसंत पंचमी के अवसर पर लगने वाले मेले के लिए भी लोहार लोग काठ के बर्तन, कठौती, खिलौने, हल, पालो, ओखल, मूसल तथा किसानों के लिए अन्य जरूरी सामान बनाकर बेचते थे. लोहारों का हर परिवार अलग-अलग किसानों के समूह के साथ जुड़ा होता था. कुम्हार गांव के लिए मिट्टी की हंडिया, मटका, तवा, खपड़े, नरिया तथा दिवाली के अवसर पर दीए, कुल्हिया-चुकिया तथा मिट्टी के अन्य खिलौने बनाते थे.

कहार पानी भरने तथा पालकी ढोने का काम करते थे. हजाम सालों भर लोगों के बाल काटते और दाढ़ी बनाते थे. शादी तथा श्राद्ध जैसे कामों में भी हजाम की जरूरत होती थी. तेली और बनिए घोड़े पर लदनी करने के साथ ही दुकानदारी भी करते थे. घर के लिए अधिकतर जरूरी सामान गाँव के दुकानदारों से ही मिल जाया करते थे. उस समय एक-दो घरों में तेल पेरने के कोल्हू भी थे, जहां लोग सरसों या तीसी के तेल पेरवाते थे. तेली और लोहारों की अपनी खुद की भी थोड़ी-बहुत जमीन थी. अहीर लोग दुध, दही, मट्ठा, घी और गोइठा बेचने के साथ ही अपनी जमीन जोतने के साथ ही बनिहारी भी करते थे. कानू लोगों को घूनसार होते थे, जहाँ गाँव के लोगों के अनाज और भुंजा भुंजे जाते थे. कुर्मी टोले के लोग सिर्फ खेती से जुड़े काम ही करते थे. उनमें से कोई-कोई मिलिट्री में सिपाही था या कलकत्ता में चटकल के कारखाने में काम करता था.

बहेलिया लोग बनिहारी करते या चिड़िया मारकर बेचते थे. इनमें से कुछ लोग फूलवारी में लगे अमरूद और बेरों की अधिया पर रखवाली भी करते थे, या आम के बगीचे और फूलवारी खरीदते थे और आम बेचते थे. एक घर सोनार का भी था, जो कभी-कभार किसी के घर के गहने बनवाने का काम करते थे. एक घर था हलालखोर का जो राजपूतों के घरों का पैखाना साफ करने का काम करते थे. माथे पर पैखाना उठाकर गाँव से बाहर फेंकते हुए मैंने देखा है, और सच कहूं तो उस समय भी मुझे यह काम अजीब-सा लगता था. सच में, इससे घिनौना कोई और काम नहीं हो सकता. चमार के भी पांच परिवार थे, जो मरे पशुओं के चमड़े निकालने, उसे खुखाने और बेचने का काम करते थे. औरतें किसी के घर बच्चा पैदा होने के समय जच्चा और बच्चे की नाल काटने से लेकर छठियार तक सेवरी सेने का काम करती थीं. पुरुषों में कुछ लोग शादी या अन्य अवसरों पर बाजा बजाने का काम करते थे. कुछ नाच पार्टी से भी जुड़े होते थे. दुसाध लोग कोई विशेष काम तो नहीं करते थे. वे लोग बनिहारी तक ही सीमित रहते थे.

कुल मिलाकर पूरा गांव कृषि कर्म से ही मूलतः जुड़ा हुआ था. बोअनी, रोपनी, कटनी, दौनी, भूसा ढोने, मकई का अगोरिया करने तथा चरवाही करने के सारे काम छोटी जातियों के लोग ही करते थे. राजपूतों की भूमिका सहयोगी की ही होती थी. एक-दो ही ऐसे राजपूत थे, जो बनिहार रखने की स्थिति में न होने के कारण खुद ही खेत जोतते थे. बाकी के लोग देखरेख करने, कुदाल चलाने, अगोरिया करने, खलिहान में सोने, पशुओं को सानी-पानी देने या कभी-कभी उन्हें चराने के लिए ले बधार में ले जाने का काम करते थे. पशुओं को खिलाने-पिलाने, धोने या उनके घर को साफ करने का काम करने के लिए अलग से चरवाहा रखने वाले चार या पांच ही किसान थे. बाकी सब स्वयं ही करते थे. हाँ, राजपूत लोग बगल के खेत की आरी काटने में माहिर थे. ऐसा न करने वाले कोई-कोई ही थे. बनिहारों को बनिहारी में खेसारी का सत्तू ही लोग देते थे, वह भी प्रतिदिन का एक सेर कचिया. दोपहर में खाने के लिए भी सत्तू ही मिलता था. प्रतिदिन काम करने की मजदूरी बारह आने थी. औरतों को आठ आने मिलते थे. कटनी में सोलह बोझे पर एक बोझा मिलता था. बनिहार को एक साल के में एक हल के लिए एक या सवा बीघे जमीन मिलती थी. बनिहार साल भर का बंधुआ होता था. जिस दिन मालिक के घर में काम है, उस दिन वह किसी दूसरी जगह काम करने नहीं जा सकता था.

सत्तू खाना तब हमारे गांव में कोई अपवाद नहीं था. सत्तू न खाने वाले ही अपवाद थे. शायद ही गांव में ऐसा कोई घर होगा, जिस घर के लोग दिन में, खासकर दोपहर के बाद, सत्तू का सेवन न करते हों. प्रतिदिन भात, दाल और तरकारी खाने वाला एक भी परिवार हमारे गांव में न था. मेरे लिए सत्तू अनजानी चीज थी, कारण कि मेरा बचपन ननिहाल में बीता था, जहां सत्तू का दर्शन होना भी मुश्किल था. वह नहर का इलाका था, जहां सिर्फ धान और ईख की ही खेती होती थी. गांव पर 1952 में आने के बाद मैंने लोगों को जब सत्तू सानकर खाते देखा तो बड़ा आश्चर्य हुआ था. लाख प्रयास के बाद भी मैं सत्तू खाने से परहेज ही करता रहा. सत्तू का घोल तो मैं थोड़ा पी सकता हूं, पर सत्तू को सानकर पिंडी बनाकर खाना मेरे लिए असंभव ही रहा. मैं भूखे पेट रह सकता हूं, पर मैं सत्तू नहीं खा सकता. लाचारी अलग बात है, पर मैं सत्तू को कभी खाने के रूप में स्वीकार नहीं कर सका. कितने तो ऐसे राजपूत परिवार भी थे, जिसमें सत्तू ही मुख्य भोजन था. चना-चबेना और सत्तू खाकर किसी तरह से लोग जीवनयापन कर रहे थे. एक-एक पैसे के लिए लोग मोहताज थे. पैसे लोग दांत से पकड़ते थे. बच्चों को मेले के लिए चवन्नी या अठन्नी मिल जाए, तो लगता था कि वह सुल्तान हो गया. औरतों का जीवन और भी कष्टमय था. सबसे कम और सबसे खराब खाना औरतों को ही मिलता था. मैं किसी भी अर्थ में धनी या सुखी घर का तो नहीं था, पर घर की ऐसी परंपरा थी कि हमलोगों को खाना खराब मिला हो. इसलिए कि हमारे घर में बढ़िया खाना खाने की एक सुदृढ़ परंपरा चली आ रही थी. हमारे घर में अधिकतर लोग पहलवान रहे थे, या पुलिस की नौकरी कर रहे थे. इसलिए कटौती अन्य जगह हो सकती थी, पर खाना पर नहीं.

हमारे गांव में तब कुश्ती का रिवाज और एक लंबी परंपरा भी थी. मुझसे तीन-चार पिछली पीढ़ी के लोगों से लेकर हमारे समय तक भी गांव में तीन-चार अखाड़े होते थे, जिसमें अमूमन गांव का हर लड़का कुश्ती लड़ने या कसरत करने जाता था. अधिकतर राजपूत और अहीर के लड़के ही कुश्ती लड़ते थे. खुद हमारे परदादा, दादा और बाबूजी पहलवान रहे थे. मैं भी बचपन में कभी-कभी अखाड़े पर जाता था. जवार में कुश्ती के दंगल भी आयोजित होते थे, खासकर जाड़े के मौसम में, जो बसंत पंचमी तक चलता था. वास्तव में, यह पुलिस के सिपाही के लिए तैयारी होती थी. बढ़िया और सुडौल शरीर बनाकर सिपाही बन जाना ही तब जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य था. जो भी सिपाही में बहाल हो जाता, समझिये कि उसने तीर मार लिया है. घर में इतनी खुशी होती कि क्या कहने. उस समय हमारे गांव में बारह आम के बाग थे, जिनमें से तीन में अखाड़े बनाए जाते थे. मेरे बाबूजी तो राज्यस्तरीय पहलवान थे, और उनके शागिर्द के रूप में हमारे ही गांव के राम शब्द सिंह, चन्द्रशेखर सिंह, शंकरदयाल सिंह, देवबदन सिंह जैसे लोग भी थे. इनमें से शंकरदयाल सिंह को छोड़कर मेरे बाबूजी सहित बाक़ी सभी पुलिस में सिपाही थे. मनिआर्डर तब हमारे गांव की अर्थव्यवस्था की रीढ़ थी. अधिकतर घरों में मोदीखर्चा से काम चलता था. महीने भर का समान किसी निश्चित बनिए के यहाँ से सामान आता था और जब मनिआर्डर आता तो उसे चुकता किया जाता. वास्तव में, इससे एक निठल्ला संस्कृति का भी जन्म हुआ. घर के लोग अपनी जिम्मेदारी के प्रति लापरवाह होते और मनिआर्डर के पैसे की ओर ही निगाह होती. तब हमारे गांव में सिपाहियों की संख्या करीब चालीस थी.

हर साल जेठ के महीने में बनिहारों की अदलाबदली भी होती थी. यदि बनिहार अपने पुराने मालिक को छोड़कर किसी दूसरे के यहां जाना चाहता तो उसे पूर्व मालिक से लिए गए पैसे लौटने होते थे. यह पैसा अमूमन कोई वह दूसरा किसान लौटाता था, जो उस बनिहार को अपने लिए रखना चाहता था. इस तरह से बनिहारों की एक मालिक से दूसरे मालिक के यहां स्थानांतरण हो जाता था, पर बाकी सारी शर्तें पहले की तरह ही होती थीं. कुछ ऐसे भी किसान थे जो सालभर का बनिहारी का हिसाब-किताब देखकर रोजदारी पर ही बनिहार रखते थे, जिससे सालभर में उन्हें कुछ ज्यादा बचत हो जाती थी. एक बात मैंने गौर किया था कि हमारे गांव के अधिकतर किसानों का रवैया अपने बनिहार या मजदूरों के प्रति सहयोग और सदभावना का रहा था.

चुंकि उस समय गांव के सारे लोग कृषि कर्म से ही जुड़े होते थे, इसलिए उनके बीच आवश्यक प्रेम और सौहार्द का भी वातावरण था. नौकरी करने वालों को अगर छोड़ दिया जाए तो गांव की बाकी की आबादी एक साथ ही रहती थी. हर किसी को हर घर के बारे में सब कुछ मालूम होता था. सुख हो या दुख, आपसी सहयोग स्वत: ही मिल जाता था. अभाव की स्थिति में किसी को कुछ सहयोग कर देना लोग अपना फर्ज समझते थे और जो अनायास ही होता था. गांव की बेटी की बिदाई में सारा गांव रोता था. किसी के घर में अगलगी होने पर सारा गांव साथ मिलकर आग बुझाने का काम करता था. वास्तव में यह अभावग्रस्त लोगों के बीच स्वत: उपजी सदभावना ही थी, जो लोगों को आपस में जोड़े हुए रखता था और बिखरने से बचाता भी था. जिस तरह की दयनीय स्थिति में लोग जी रहे थे, उसमें सहानुभूति का सहारा भी बहुत कुछ था. किसी का काम किसी के बिना नहीं चल सकता था. यह गरीबी का ही बंधन था, जो लोगों को आपस में जोड़े हुए था. जैसे-जैसे लोगों के पास पैसे आते गए, लोग एक-दूसरे से दूर चले गए, और आज तो इतने दूर हैं कि साथ रहकर भी बहुत दूर हैं.

तब के गाँव की जो सबसे बड़ी विशेषता और सुखद स्थिति थी, वह थी अभाव के बीच भी लोगों के मन से निकलते लोकगीत की मधुर धुन. ब्राह्मणों को छोड़कर मैंने किसी को भी नहीं देखा जो कुछ गाता नहीं हो. इन गाने वालों में भी मैंने यह देखा है कि जो मेहनत से जितना ही जुड़ा होता था, उसके गले का स्वर भी उतना ही मिठा होता था. हम गीतों में अपने गमों को भूला देते थे. लोकगीत, लोकसंगीत, लोकनृत्य और सहजीवन एक ऐसा लोक बंधन था, जो हमें एक-दूसरे से बांधे हुए रखता था. शायद ही कोई ऐसा दिन होगा, जब गाँव के किसी कोने से लोकगीत का कोई धुन न निकलता हो. कभी पूरे सुर में, तो कभी बेसुरे भी. कभी ताल पर, तो कभी बेताल भी. औरत, मर्द, बुढ़े, बच्चे सभी के कंठ से कभी न कभी कोई न कोई गीत जरूर फुटता था. बुढ़े जहाँ अपने को भजन तक सीमित किए रहते, वहीं जवान प्रेम और प्रकृति के गीत गाते. बच्चे इन सीमाओं को जानते ही नहीं थे. उनके लिए सब धान बाइस पसेरी ही था.

औरतें धान कुटते, जांता पीसते, शादी के समय, पर्व-त्योहार मनाते, सावन में झूला झूलते और बनिहारिन रोपनी और सोहनी करते गीतों के रस से सभी को ऐसा भिंगो देती थी कि वह अपने को धन्य समझने लगता था. मेहनत और मजदूरी करने वाले लोकनृत्य और वादन कला में भी सिद्धहस्त थे. इस, मामले में वे सवर्णों से बेहतर थे. राजपूतों में गानेवाले कुछ ही लोग थे, और बजाने वाले भी दो-चार ही. उसमें भी वे सिर्फ ढोल ही बजा सकते थे. सचमुच ही लोकगीत, लोकसंगीत, लोकनृत्य और वादन श्रम से जुड़ी अभिव्यक्ति ही थे, जो मजदूरों के मुंह से जब न तब अभिव्यक्त हो जाते थे. ग्राम्य जीवन का यही सर्वोत्तम रूप था, उसकी आत्मा थी, और उसकी उदात्त संवेदना का मधुर स्वर भी था, जो आज पूर्णतः तिरोहित हो चुका है.

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