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शहर के आख्यान की तलाश में

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शहर के आख्यान की तलाश में
शहर के आख्यान की तलाश में
जगदीश्वर चतुर्वेदी

शहर का आख्यान जीवन की सही समझ और सही सैद्धांतिक फ्रेमवर्क से बनता है. सवाल यह है एक शहर को कहां से और कैसे देखते हैं ? शहर विभिन्न रंगत, विभिन्न संस्कृतियों और विभिन्न ‘एथनीक’ समूहों से बनता है. वे ही उसकी धुरी हैं. हम देखें शहर में मूल निवासी कितने हैं और बाहर से कितने लोग आए हैं. उनके जाति, धर्म, भाषा, बोली, साहित्यिक अभिरूचियां, लोकसंस्कृति, खान-पान की आदतें, संस्कार और रोजगार की अवस्था किस तरह की हैं. इससे शहर के एथनिक चरित्र को परिभाषित करने में मदद मिलेगी. एथनिक समूह की सम-सामयिक अवस्था और सांस्कृतिक चेतना को समझने में मदद मिलेगी. इसी क्रम में शहर में व्यक्ति की ‘निजी एथनिसिटी’ और ‘सामाजिक एथनिसिटी’ की स्वायत्त सत्ता और अंतर्क्रियाओं को देखना चाहिए. इस तरह के मूल्यांकन की मुश्किल यह है कि इसमें ऐतिहासिकता का निषेध अंतर्निहित है. यह मॉडल किसी भी एथनिक समूह के ऐतिहासिक विकास के परिप्रेक्ष्य की अनदेखी करता है. इसमें एथनिक पुनरूत्थानवाद का खतरा भी है.

समाजशास्त्रियों के एक वर्ग में यह मान्यता है कि दो विश्वयुद्धों ने आदिवासीवाद, राष्ट्रवाद और नस्लवाद इन तीनों को खत्म कर दिया लेकिन वास्तविकता इस दावे को पुष्ट नहीं करती. आमतौर पर सहमति है दुनिया बहुलता केन्द्रित है. इसके बावजूद धार्मिक समूहों की पहचान का सवाल हठात विवादों के केन्द्र में आ गया है. पेरिस से लेकर न्यूयार्क, मुंबई से लेकर कोलकाता तक यह समस्या फैली हुई है. शहरों में मुसलिम समुदाय के सदस्य को आसानी से मकान भाड़े पर नहीं मिलता. पेरिस में हाल ही में जो आतंकी हमला हुआ उसके बाद से आपातकाल लगाया जा चुका है और खासकर मुसलमानों पर ही सत्ता के हमले हो रहे हैं.

महानगरों की चकाचौंध में एथनिक अंतर्विरोध और जातिघृणा छिपी रहती है, लेकिन संकट की घड़ी में सतह पर उभर आती है. आज शहरों में मुसलमान या अछूत को सवर्ण हिन्दू अपने इलाके में घर खरीदने नहीं देते, भाड़े पर घर नहीं देते. आधुनिक राष्ट्र-राज्य इस अंतर्विरोध को हल नहीं कर पाया है. शहरीकरण के कारण पुरानी पहचान, मूल्य, संस्कार, आदतें खत्म कम हुए हैं, लेकिन पूरी तरह खत्म नहीं हुए. नए संस्कार, आदतें और जीवनमूल्य धीमी गति से निर्मित हो रहे हैं.

आज स्थिति यह है शहरों में पुरानी पहचान के रूप चुनौती बनकर खड़े हैं. जो लोग गांवों से शहरों की ओर ‘माइग्रेट’ करके रहे हैं उनकी मुश्किल यह है कि वे अपनी जड़ों से कटकर आ रहे हैं लेकिन कुछ अवधि के बाद उनमें पुरानी पहचान के रूप धीरे-धीरे विकृत रूप में फिर से पैदा होने लगते हैं. इस प्रक्रिया में एकसमूह है जिसका रूपान्तरण हो रहा है लेकिन एक छोटा समूह है जो रूपान्तरण नहीं कर पा रहा है, उसी के साथ नए किस्म की एथनिक टकराहट नजर आ रही है.

पहले सोचा गया शहरीकरण से जातिप्रथा नष्ट होगी, लेकिन शहरों के असमान विकास ने एक ही शहर में दो शहर पैदा कर दिए. इनमें एक शहर वह है जिसे हम झुग्गी-बस्ती इलाका कहते हैं, यहां पर ‘माइग्रेट’ लोगों का जमघट मिलेगा. इनके इलाके में नगरपालिका से लेकर नागरिक सुविधाओं तक सबका अभाव मिलेगा. ये इलाके समानान्तर अर्थव्यवस्था के गढ़ भी हैं. फलतः एथनिसिटी के साथ जाने-अनजाने अपराध जुड़ गया है. यहीं पर बड़ी संख्या में पिछड़ी और अंत्यज जातियां विस्थापित होकर गांवों से आकर बसी हैं. इनके इलाकों में सामान्य नागरिक सुविधाएं उपलब्ध नहीं हैं. ये नागरिक नहीं स्लमवासी हैं.

इनके पास न सुरक्षा है, न कानून है और न नगरपालिका की सुविधाएं हैं. ये बस्तियां शहर के अंदर एक और शहर है. यहां नए किस्म का नरक दिखता है. यह नरक हमारे सभ्य शहरी विमर्श के बाहर है इसलिए एथनिसिटी के साथ शहरी आख्यान को निर्मित करने लिए जाति और विस्थापन इन दो तत्वों का नागरिक परिप्रेक्ष्य में नए सिरे से अध्ययन करने की जरूरत है. सवाल यह है कि नया शहर किस तरह का स्पेस या स्थान रच रहा है ? स्थान कोई मूल्यहीन तत्व नहीं है, बल्कि वह अर्थपूर्ण संरचना है. स्पेस में निजी और सामूहिक स्थान, निजी और सार्वजनिक परिवेश को सम-सामयिक परिप्रेक्ष्य में देखना चाहिए.

‘नगर’ के आख्यान की खोज में हमें बहुत सारी बातें बुनियादी तौर पर अपने ज़ेहन में साफ़ रखनी होंगी. मसलन्, ‘नगर’, ‘नगरपालिका’ और ‘नागरिक चेतना’ आदि. अब ‘नगर’ की जगह ‘शहर’ ने ले ली है. ‘नगर’ का ‘शहर’ में रूपान्तरण अपने आप में बहुत कुछ कहता है. ‘शहर’ हैं और उसमें ‘शहरी’ हैं और ‘शहरी चेतना’ है. इन पदबंधों के प्रयोग में ही बहुत कुछ बदल गया है. यह बदलाब वह है जो हमारे जीवन में आया है. इस प्रसंग में मुझे प्रो. मोहम्मद हसन की बात याद आती है. उन्होंने लखनऊ पर केन्द्रित अब्दुल हलीम ‘शरर’ की किताब ‘पुराना लखनऊ’ (गुजिश्ता लखनऊ) की भूमिका में शहर के मूल्यांकन के प्रसंग में नगर के परिप्रेक्ष्य के साथ सभ्यता को जोड़कर देखा और लिखा है –

‘सभ्य का मज़ाक उड़ाना आसान है लेकिन सभ्यताओं की विभिन्न परतें पहचानना और उनकी आत्मा तक पहुंचना आसान नहीं. सभ्यता सिर्फ़ रख़रख़ाव, अभिवादन, रस्म-रिवाज और शिष्टाचार का नाम नहीं, वेशभूषा, खानपान या मनोरंजन के साधन और मेले-ठेले भी सभ्यता नहीं-ये तो मात्र सभ्यता के बाह्य लक्षण हैं और इनके माध्यम से किसी युग की सभ्यता की आत्मा तक पहुंचने की कोशिश करनी चाहिए.’

शहर का आख्यान पढ़ते समय सभ्यता की परतों को खोलना चाहिए. हर सभ्यता अपने साथ नए किस्म का सौंदर्यबोध लेकर आती है और उसके सौंदर्यबोध के अनुरूप शहरीजनों की मनोदशा धीरे-धीरे ढ़लती चली जाती है. मसलन, एक जमाना था शहरों में अभिवादन का तरीका धार्मिक सम्बोधन से शुरू होता था, आज भी अनेक शहर है जहां अभिवादन के लिए लोग धार्मिक सम्बोधन का इस्तेमाल करते हैं. मसलन, मथुरा चले जाइए. एक वर्ग ऐसा मिलेगा जो ‘राधे-राधे’, ‘जयश्रीकृष्णा’ या ‘जै माईजी की’ कहता मिलेगा.

लखनऊ में एक जमाने में ‘सलाम अलैक’, ‘सलाम अलैकुम’ आदि धार्मिक सम्बोधन चलते थे, जिनको लखनवी सभ्यता ने ‘आदाब’, ‘तसलीम’ और ‘कोरनिस’ आदि सम्बोधनों के जरिए अपदस्थ किया. कालान्तर में सामाजिक जीवन में गुडमॉर्निंग, गुड़ ईवनिंग, हलो, हाय, नमस्ते आदि का जन्म हुआ. मिसाल के तौर पर धार्मिक संस्कार और सांस्कृतिक पर्वों का शहरी लोगों के जीवन में महत्व होता था,

मसलन, पहले मुहर्रम मुसलमानों का और वसन्त हिंदुओं का त्यौहार होता था, बाद में ये त्यौहार कुछ इस तरह मनाए जाने लगे कि ये सामाजिक त्यौहार में तब्दील हो गए. उसी तरह ‘होली’ शूद्रों का त्यौहार था लेकिन आज वह सामाजिक त्यौहार है. इसी तरह शहर की सजावट, बनाबट, नफासत आदि का संबंध भी सभ्यता के साथ जुड़ा है. इसलिए शहर पर बात हो तो सभ्यता की परतों, सभ्यता और संस्कृति के मिश्रित रूपों को खोजना चाहिए, साथ ही सभ्यता के नीचे चल रहे अंतर्विरोधों और टकरावों पर भी नज़र रखनी चाहिए.

पुराने जमाने में शहरों पर बात होती थी तो सभ्यता के रूपों पर भी बात होती थी, लेकिन आजकल शहरों के आख्यान की जब खोज करते हैं और बात करते हैं तो सभ्यता पर कम सतह के सवालों पर ज्यादा बातें करते हैं. सभ्यता के इकसार रूप की चर्चा अधिक करते हैं. नगर सभ्यता में जब नगर के आख्यान को खोजते हैं तो सभ्यता में प्रवेश करते हैं, लेकिन नए शहर का आख्यान खोजते हैं तो तात्कालिक या सामयिक स्वरूपों तक सीमित रहते हैं. सम-सामयिकता आख्यानों में हावी रहती है. यानी शहर का आख्यान शहर की सभ्यता की स्मृतियों से विच्छिन्न होकर हमारे सामने आता है.

सभ्यता के प्रमुख लक्षण

नगर के आख्यान का भोक्ता नगर के गौरव में रहता था, संस्कृति के बांकपन में जीता था, देशज विशेषताओं में जीता था. नया शहरी इसके विपरीत संस्कृतिहीन उपभोक्ता की तरह जीता है. आज के शहरी के पास अपने को सजाने-संवारने के बहुत सारे उपकरण हैं, ऊपरी साजो-सामान है, लेकिन सभ्यता नहीं है, वह अपने शहर की विरासत से नावाकिफ है. हर शहर की अपनी सभ्यता है, उसके कुछ प्रमुख लक्षण हैं, सांस्कृतिक उपलब्धियां हैं, शिष्टता और लोकाचार की कुछ खूबियां हैं जिनको खोजने की जरूरत है.

अब्दुल हलीम ‘शरर’ के अनुसार शहर के आख्यान को पढ़ने के लिए हमें कुछ पहलुओं पर गौर करना चाहिए, ये हैं – 1.मकान, 2.फर्नीचर, 3. वेशभूषा, 4. शिष्टाचार, 5. शालीनता, 6. अभिवादन, 7. संबोधन और कुशल-क्षेम पूछना, 8. हास्य का ढ़ंग, 9. शादी-गमी की महफ़िलें, 10. मज़लिसें, 11. धार्मिक आयोजन.

1. मकान

घर कैसा है ? इससे अंदाजा लग सकता है कि शहर किस संस्कृति में ढल रहा है. एक जमाना था जब दिल्ली-लखनऊ के पुराने शहरों में ‘बाह्य प्रदर्शन’ और ‘शानदारी’ सिर्फ़ शाही महलों और प्रासादों तक सीमित थी. पुराने जमाने में अमीर व्यापारी जो मकान बनवाते थे वे अंदर से कैसे भी विशाल हों लेकिन बाहर से देखने में साधारण होते थे. बाहर से मामूली मकान लगते थे, इसका प्रधान कारण यह था कि बाहर से भव्य-सुंदर दिखने वाले मकान पर शाही खानदान कब्जा कर लेता था इसलिए पुराने जमाने में सिर्फ महल ही बढ़िया होते थे लेकिन आमलोगों के मकान एकदम साधारण और बाहर से देखने में साधारण हुआ करते थे.

दूसरा कारण यह था कि जनता का शानदार मकान बनवाना शाही परिवार के खिलाफ बगाबत मानी जाती थी. इन मकानों में रहने वालों का शाही परिवार अमन-चैन के साथ जीना मुश्किल कर देता था. यही वजह है दिल्ली में मकबरे और महल तो सुंदर हैं लेकिन आम जनता का कोई सुंदर मकान नजर नहीं आएगा.

यूरोप के मकान और भारतीय मकानों में उस जमाने में एक और अंतर था – योरोप के लोग कोठीनुमा मकानों में रहते थे, भारत के लोग इससे भिन्न किस्म के मकानों में रहते थे. योरोप की कोठी में आंगन नहीं होता था, क्योंकि योरोप में औरतों को पर्दा नहीं करना पड़ता था, बाहर जाने की मनाही नहीं थी. भारत में इसके विपरीत पर्दाप्रथा थी और औरतों के बाहर घूमने पर पाबंदी थी, इसलिए घरों में आंगन हुआ करते थे.

आंगन इसलिए होते थे जिससे औरतें घर में ही खुली हवा का लुत्फ़ उठा सकें. इसी तरह हिन्दुओं के आंगन छोटे और मुसलमानों के आंगन बड़े हुआ करते थे. हिन्दुओं में इमारत की ऊंचाई बढ़ाते चले जाने का रिवाज था, इसके विपरीत मुसलमानों में हवादार मकान बनाने की परंपरा थी. इस काम में कारीगरों की बड़ी भूमिका होती थी. शहर कैसा होगा यह इस पर निर्भर करता है कि मकान बनाने वाले कितने कुशल कारीगर उपलब्ध हैं.

2.फर्नीचर

शहरी आख्यान की दूसरा तत्व है मकानों का फर्नीचर. यह वह सामान है जिससे मकान सजाए जाते हैं. इनकी प्रकृति में गुणात्मक बदलाव आया है.

3. वेशभूषा

शहरी आख्यान का तीसरा तत्व है वेशभूषा, शहर में रहने वालों की वेशभूषा के सलीके और वैविध्य को देखकर आप सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं कि इस शहर में आजादी का क्या रूप है ! सभ्यता के विकास के साथ शहरियों के औपचारिक–अनौपचारिक ड्रेसकोड में बदलाव आया है. खासकर औरतों के पहनावे में जितना खुलापन होगा, वैविध्य होगा, शहर में उतना ही खुलापन होगा. औरत के कपड़े स्वतंत्रता की प्राचीर हैं. किसी शहर में औरतों को मनमाफिक कपड़े पहनने और मनमाकिफ ढ़ंग से उन कपड़ों को सार्वजनिक स्थलो पर प्रदर्शन करने की जितनी छूट होगी, वहां पर स्वतंत्रता का उतना ही विस्तार होगा.

स्वतंत्रता के विस्तार के रूप का एक अन्य सतही पहलू है बालों की कटिंग के फैशन. सामाजिक जीवन में आप कितने स्वतंत्र हैं और तरक्कीपसंद हैं यह इस बात से भी पता चलता है कि आप बाल किस तरह कटवाते हैं या फिर किस तरह के बाल रखते हैं. एक जमाना था मजहबी लोग, विद्वान, संयमी आदि हज़रत मोहम्मद साहब के देशानुसार दाढ़ी बिलकुल छोड़ दिया करते थे. यहां तक कि मूछों को मुंड़ा डालते थे.

सबसे पहले अकबर ने दाढ़ी मुंडवाई, बाद में देखेंगे तो जहांगीर के भी दाढ़ी नहीं थी, उन्होंने भी दाढ़ी मुडवा ली. अब्दुल हलीम ‘शरर’ ने लिखा है –

‘लखनऊ में दरबार क़ायम होने के बाद दाढ़ी में कमी आनी शुरू हुई और होते-होते अक्सर लोगों के मुंह से दाढ़ी ग़ायब हो गयी. शायद इसका कारण यह हो कि एक ही मज़हब के होने से यहां के दरबारों पर ईरानियों का असर पड़ रहा था और वहां सफ़विया वंश के बादशाहों के काल से बादशाहों और अमीरों में दाढ़ी का महत्व नहीं रहा था, जो इस्लाम के प्रादुर्भाव के समय से चली आती थी.

या तो मुसलमानों में लंबी दाढ़ी थी, किसी की दाढ़ी मूंड देना सज़ा देने या उसका अपमान करने के लिए था, या ईरान के नैशापुरी ख़ानदान के पहले संस्थापक नवाब बुरहान-उल-मुल्क के मुंह पर लंबी दाढ़ी थी, शुजाउद्दौला ने दाढ़ी मुंडवायी और उसके बाद से यहां के तमाम अमीर और बादशाह दाढ़ियां मुंडाते रहे. इसका लाजिमी नतीजा यह था कि आम शीओं से दाढ़ी का रिवाज़ उठ गया, फिर बाद के जमाने में बहुत से सुन्नियों ने भी दाढ़ियां कतरवाईं या मुड़वा डालीं.

दाढ़ी मुंडाने का शौक़ पैदा होने के बाद तरह-तरह के फैशन निकलने लगे. किसी के कानों के नीचे छोटी-छोटी क़लमें निकालीं, किसी ने ठेके रखवाये, किसी ने बड़े-बड़े गलमुच्छे रखे, लखनऊ के आसपास के क़स्बों के रहनेवालों और बाज़ शहर के सुन्नियों ने भी यह फ़ैशन अपनाया कि दाढ़ी रखते मगर राजपूतों और हिंदी पठानों की रूचि के अनुसार दाढ़ी के बीच में ठुड्डी के पास मांग निकालकर दोनों तरफ के बालों को कानों की तरफ चढ़ाते और दाढ़ी को इसी फैशन में बनाये रखने के लिए घंटों ढ़ांटा बांधे रहते, फिर उसी चढ़ी हुई दाढ़ी के साथ मूंछें भी कंघी करके और बांध-बांध कर ऊपर के रूख पर चढ़ायी जातीं. चुनांचे यही फैशन यहां और सारे हिंदुस्तान में सिपहगरी और बहादुरी का प्रतीक समझा जाता था. सिर के बारे में हजरत मुहम्मद साहब के काल में आम दस्तूर था कि सिर पर बड़े-बड़े बाल होते थे जो हज के जमाने में मुंडवाये या कटवा दिये जाते.’

इसके विपरीत हिन्दुओं में सिर पर बाल रखने का रिवाज था. यह रिवाज मुसलमानों को पसंद आया और उन्होंने अपना लिया. कालांतर में अंग्रेजों के आने पर अंग्रेजी कटिंग के बाल रखने का चलन आरंभ हुआ. इसका औरतों और पुरूषों पर व्यापक असर हुआ.

4. शिष्टाचार

शहरी संस्कृति में पहले हर शहर में अपने किस्म का शिष्टाचार हुआ करता था. सामान्य लोगों में शिष्टाचार देखकर आप उस शहर की संस्कृति का सहज ही अंदाजा लगा सकते हैं. यह शिष्टाचार राष्ट्रीय सभ्यता का पैमाना माना जाने लगा. आजकल लोग शिष्टाचार को दिखावा या पाखंड कहते हैं जबकि यह पाखंड नहीं है बल्कि इस तरह की बातें वे लोग करते हैं जिनको शिष्टाचार नहीं आता या जिनके पास इंसानी संस्कृति नहीं है. गौर करो तो इंसानित ही दिखावा है. अच्छा पहनना, अच्छा खाना, अच्छी जीवन–सामग्री रखना, सफाई से रहना ये सब चीजें शिष्टाचार में आती हैं. सवाल उठता है हमारे बीच से शिष्टाचार कब गायब हो गया ?

अब्दुल हलीम ‘शरर’ ने ‘पुराना लखनऊ’ में लिखा है – ‘शिष्टाचार का पहला सिद्धांत यह है कि मेल-जोल में एक-दूसरे को हर प्रकार की सुख-सुविधा की बात में अपने ऊपर तरजीह दी जाये और आपको उसके पीछे और उससे निचले स्तर पर रखा जाये.’ शिष्टाचार से व्यक्ति में ‘त्याग और बलिदान’ का भाव पैदा होता है,’ वह इस बात के लिए तैयार रहता है कि दोस्तों के साथ हर तरह के व्यवहार में स्नेह और सहानुभूति दिखाये.’ शिष्टाचार दिखावा नहीं है बल्कि हौसलामंदी है. यह आपकी सामर्थ्य का प्रतीक है. इसी तरह शालीनता का भी महत्व है.

5. शालीनता

शालीनता को इन दिनों फूहड़ता ने अपदस्थ कर दिया है. ‘शरर’ ने लिखा –

‘शालीनता की बुनियाद अमीरी, रईसी और हुकूमत में पड़ी है. हुकूमत और रियासत बताती है कि छोटों को बड़ों से और बड़ों को छोटों से किस तरह मिलना चाहिए और बराबर वालों से कैसा बर्ताव करना चाहिए. मगर व्यापारी वर्ग को अमीरी के इन चोंचलों और आचार-सम्बन्धी कष्टों से दुश्मनी है. व्यापार तो लेन-देन और स्वार्थपरता के बल पर पनपता है और सेल्फ-सेक्रिफ़ाइस यानी अपने वक़्त और अपने रूपये, अपने हुनर और अपनी दौलत का कारण ही किसी पर निछावर कर देने को मूर्खता बताता है.

‘इसके विपरीत रईसी की विशेषता यह है कि निःस्वार्थता के साथ अपने तरफ़दार या योग्य लोगों को सुख-सुविधाएं दी जायें और उसका यह लाज़िमी नतीजा है कि जहां व्यापार की प्रगति होगी और व्यापारियों की संस्कृति समृद्ध सामंतों और अभिजातवर्ग की संस्कृति पर हावी हो जायेगी वहां कोई नैतिक सिद्धांत बाक़ी नहीं रह सकता.’

कायदे से शिष्टाचार का पालन करना चाहिए, उसका मज़ाक नहीं उड़ाना चाहिए. शिष्टाचार से पता चलता है आपकी सभ्यता कितनी विकसित है.

शहरी संस्कृति

भारत में शहरी संस्कृति के विकास के साथ होटल-रैस्टोरेंट का व्यापक प्रसार हुआ लेकिन क्लब संस्कृति का विकास नहीं हो पाया. शहरों में क्लब हों और हर स्तर के लोगों के क्लब हों, इन दिनों जो क्लब हैं वे सिर्फ अमीरों के हैं, गैर-अमीर सामाजिक तबकों के लिए गलियों-मुहल्लों में क्लब संस्कृति का प्रसार करना बेहद जरूरी है. यह नए किस्म का समाजीकरण है.

नव्य-आर्थिक उदारीकरण आने के पहले पुराने शहर की संस्कृति को नव्यआधुनिक शहरी संस्कृति ने ध्वस्त किया, लेकिन पुराने किस्म की बसावट के रूपों को ध्वस्त नहीं कर पायी. महानगरीय संस्कृति विकसित हुई लेकिन उसमें पुराने जाति, धर्म, क्षेत्र आदि की सीमाएं बनी रहीं. कुछ महानगरों में ये सीमाएं टूटीं. इसको तोड़ने का तरीका विलक्षण रहा. दलितों-अल्पसंख्यकों को महानगरों में घेटो में घेर दिया गया. बार-बार उनको शहर के बाहर ठेला गया. झुग्गी-बस्तियों में ठेला गया.

शहरों का विकास हुआ लेकिन पडोसी संस्कृति खत्म हो गयी. नया स्थापत्य आया, बहुमंजिला इमारतें और फ्लैटघर की संस्कृति आई. इसने अभिजात्य और अधिनायकवादी परिप्रेक्ष्य में अपना विकास किया. नए किस्म का सामाजिक विभाजन पैदा हुआ. अमीरों के इलाके अलग, मुहल्ले या कालोनी अलग, गैर–अमीरों और गरीबों के इलाके अलग.

फ्रेडरिक जेम्सन के अनुसार इस दौर के शहरी व्यक्ति में नयी संस्कृति का मूलाधार है ‘मै नहीं जानता’, यानी शहर में रहते हैं, फ्लैट में रह रहे हैं, संरक्षित माहौल में रह रहे हैं, लेकिन ‘मैं नहीं जानता’ का एटीट्यूट समूचे शहर में छाया हुआ है. यही एटीट्यूट उसके सामाजिक संबंध का आधार है. शहरों में नयी जीवनशैली आई, लेकिन यह ‘इंस्टिंक्ट एस्थेटिक्स’ (सहजजात सौंदर्य) पर आधारित है.

यह सहजजात वस्तुकरण पर आधारित है. इसके कारण सबके घर एक जैसे सजे मिलेंगे. सबको फास्टफूड या जंक फूड का खाने की आदत मिलेगी. फास्टफूड के इकसार रूपों को लासवेगास से लेकर गुड़गांव तक एक ही स्वाद में पा सकते हो. नया स्थापत्य भी इस तर्क पर आधारित है कि ‘मुझे क्या लेना-देना’, सभी शहरों में नयी इमारतें इसी नजरिए पर आधारित हैं. ये मुक्त इमारतें हैं, इनमें रहने वाले एक-दूसरे से बेखबर, अपरिचित, संबंधहीन ढ़ंग से रहते हैं. ये इमारतें सीमेंट का ढ़ेर हैं.

शहर का स्थापत्य

फ्रेडरिक जेम्सन के अनुसार नए शहर का स्थापत्य पूरी तरह कम्प्यूटर फोटोग्राफ की जीरोक्स कॉपी लगता है. अंदर जाएंगे तो घर की सजावट और बाहरी स्थापत्य देखकर घर में रहने वाले की निजी देशज जीवनशैली, मूल्यबोध, संस्कृति आदि का अंदाजा लगाना संभव ही नहीं है. घर के अंदर जाएंगे तो वहां कम्प्यूटरजनित सूचनाएं इधर-उधर बिखरी नजर आएंगी. घर एक तरह से फिल्मी शूटिंग का सैट नजर आएगा. ज्यादातर घरों की डिजायन ’फोटोग्राफी’ के आधार पर तैयार की गयी है. उल्लेखनीय है आरंभ में ये घर ‘फोटोग्राफी’ के लिए बनाए गए थे, इन घरों का फोटोग्राफी मूल्य था.

वस्तुतःशहर में हम जिस स्थापत्य का उपयोग कर रहे हैं वहां ‘फोटोग्राफिक उपकरणों’ का उपयोग है. इसमें आप ‘आब्जेक्ट’ का उपयोग नहीं करते बल्कि फोटोग्राफिक उपकरणों की, इमेजों का उपभोग करते हैं. अब एक ही जैसे फ्लैट होते हैं, उनमें स्थापत्य की दृष्टि से कोई वैविध्य नहीं होता.

फ्रेडरिक जेम्सन के अनुसार नए शहरी स्थापत्य ने ‘रूम’ यानी ‘कमरा’ की धारणा बदल दी है. रूम का अब कम से कम उपयोग करते हैं. रूम के साथ नई भाषा और वाक्य-संरचना आई है उस पर गौर करने की जरूरत है. निजी रूम, पब्लिक रूम, ऑफिसरूम आदि विभिन्न नाम प्रचलन में हैं. नए घर का स्थापत्य पुराने स्थापत्य से एकदम भिन्न है. पहले वाले घर में दाएं-बाएं, ऊपर-नीचे, आगे-पीछे आना-जाना होता था लेकिन नए घर में यह सब देखने को नहीं मिलेगा. अब तो बस घर में रूपहीन एक खुली लॉबी है जिसमें विभाजन करके कमरे बना दिए गए हैं. इस विभाजन के पीछे मूल मंत्र है ‘सब कुछ अलग से है’.

इसमें एक ही सपाट स्पेस में विभाजन करके सोने का कमरा, डाईनिंग कमरा, बाथरूम, रसोईघर आदि हैं. यह वह स्थापत्य है इसमें न परिवार है, न राष्ट्र है और न पड़ोस है, न शहर है. यह अमूर्त स्पेस है. जेम्सन के अनुसार यह अंतर्राष्ट्रीय मोटल के चैन का हिस्सा दिखता है या फिर एयरपोर्ट के टर्मिनल की तरह दिखता है, जिसमें सारी चीजों को एक साथ देख सकते हैं. पहले वाले घर का स्थापत्य निजी संपत्ति पर आधारित था, नया स्थापत्य बहुराष्ट्रीय कंपनी या बड़े पूंजीपति के संरक्षण पर आधारित है.

नए स्थापत्य में ‘सतह’ महत्वपूर्ण है. अब हम सतह को ही देखते हैं, गहराई को नहीं देखते. इसके कारण सतहीपन सब जगह छा गया है. सतहीपन वस्तुतः फोटोग्राफी की देन है. सतहीपन ने इमोशनल ऑब्शेसन भी पैदा किया है. अब जीवन की अंतर्वस्तु को लेकर हमें बेचैनी नहीं होती. नई इमेज की खूबी है कि हम उसे देखते हैं, लेकिन महसूस नहीं करते, वह हमारी अनुभूतियों को स्पर्श नहीं करती, फलतः इमेज है लेकिन संवेदना और अनुभूतियां गायब हैं. नयी अवस्था यह है जिसमें ‘दर्द’ है लेकिन दर्द की अनुभूति गायब है. यानी शब्दों को उनसे अर्थ से विच्छिन्न कर दिया गया है. अब संप्रेषण है लेकिन नाटकीय रूप में. अब हम अपनी आंतरिक अनुभूतियों को भी नाटकीय ढ़ंग से पेश करते हैं. ऐसी अवस्था में ‘सत्य’ क्या है यह तय करना बेहद मुश्किल काम है. ऐसी स्थिति में सत्य को तो भूल ही जाइए.

इन दिनों व्यक्ति की पीड़ा, अहं, निजता, साझा पीड़ा, अवसाद आदि को अ-केन्द्रित कर दिया है. आज मनुष्य है, उसमें बेचैनी भी है, लेकिन यह सब नजर नहीं आएगा. नया मनुष्य बेचैनी से मुक्त है. सभी किस्म की अनुभूतियों और संवेदनाओं से मुक्त है, वह अब भीड़ की संवेदनाओं, मीडिया निर्मित संवेदनाओं और मीडिया जनित उन्माद में जीता है. अब सत्य वह नहीं है जो मनुष्य भोग रहा है, बल्कि सत्य वह है जो मनुष्य को मीडिया बता रहा है. फलतःहम मनुष्य के सत्य को देख ही नहीं पाते. अब मीडिया निर्मित रूढ़ियों और शैलियों में बंधकर रह गए हैं. कैसे खाएं, कैसे बोलें, कैसे चलें, कैसे व्यवहार करें, इन सबको मीडिया निर्मित कर रहा है. इसके कारण व्यक्ति की निजता और निजी विशिष्टताओं का लोप हुआ है.

सामान्य चेतना यह है कि स्थापत्य की कोई विचारधारा नहीं होती, लेकिन यह सच नहीं है. स्थापत्य की विचारधारा होती है. स्थापत्य के निर्माण में सामाजिक परिस्थितियों, परिवेश, मौसम और राजनीतिक अर्थशास्त्र आदि की भूमिका होती है. स्थापत्य महज कारीगर के दिमाग की पैदाइश नहीं है. आजादी के बाद सामने आए नए शहरी स्थापत्य पर प्रसिद्ध स्थापत्यविद रोमी खोसला ने ‘इनक्लुडिंग आइकोनोग्राफी एंड इमेज़ेज़ इन आर्कीटेक्चर’ (1984) लेख में विस्तार से लिखा है.

खोसला के अनुसार भारतीय स्थापत्य कला की खूबी है कि इसमें वैविध्य है. एकरूपता का अभाव है. यह मूलतः बहुलतावादी है. पूरी तरह खुला हुआ और भारतीय यथार्थ से पूरी तरह जुड़ा हुआ. आजादी के बाद अनेक ऐसी इमारतें बनी हैं जिनका आधार अवांगार्द है अथवा पश्चिमी है. इस प्रवृत्ति ने हमारी स्थापत्यकला को भी प्रभावित किया है. मसलन्, दिल्ली में एम्स, कोलकाता में टाटा सेंटर आदि की बिल्डिंग को ही लें. इसमें भारतीय स्थापत्य के किसी भी तत्व का इस्तेमाल नहीं किया गया. इस तरह की इमारतों में अमूर्तन हावी रहता है. इस तरह की इमारतों का परायापन बंद बक्से और कंकरीट के ढ़ेर की तरह दिखाई देता है.

रोमी खोसला के अनुसार इस तरह की इमारतों का अग्रभाग बोरियत पैदा करता है. इसमें गणितीय चतुष्कोण एवं रेक्टेगिंल्स की पुनरावृत्ति मिलती है. प्रत्येक मंजिल चौकोर योजनाबद्ध संकलनों का बंडल नज़र आती है. डिजायन कला इस तरह तैयार की जाती है कि प्रत्येक हिस्सा स्वायत्त नज़र आता है और उसकी स्वतंत्र भूमिका होती है. इस तरह की इमारतों में स्थापत्य की तकनीकी श्रेष्ठता दूर-दूर तक नजर नहीं आती. इसके विपरीत स्थापत्य कला के तर्क की अमूर्त इमेज नजर आती है. मजबूती और ऊंचाई ही इनका वैशिष्ट्य है. ऐसी इमारतों का स्थापत्य पूरी तरह तथ्यों और आंकड़ों में बातें करता है. बौद्धिक ‘ऑब्जर्वेशन’ से इसका कोई संबंध नहीं होता.

स्थापत्य भावबोध को ये इमारतें अस्वीकार करती हैं. यह शुद्ध अमूर्तन की कला है. इसकी खूबी है जटिलता को छिपाना, इकसार सतह, छतों का लोप, किसी भी तरह के मूर्ति प्रतीकों एवं विश्वासों से इसका कोई संबंध नहीं है. यह अजनबीपन की कला है. यह ऐसे मनुष्य की कला है जिसका आशय समझना मुश्किल है. इसका हमारी परंपरा से कोई संबंध नहीं है.

भारतीय स्थापत्य कला का आधार है ‘प्रतिमा विद्या’, यह ऐसी विद्या है जो हमारे चिह्नों, प्रतीकों, संस्कार और दर्शन में घुली हुई है. हमारे यहां हजारों प्रतिमाएं हैं. उनकी हजारों इमेज हैं. इन इमेजों से व्यक्ति के सोचने का पता चलता है. रोमी खोसला का मानना है जब किसी घर की परिकल्पना की जाती है तो उसके विभिन्न अंगों के साथ इमेज को जोड़ने की कोशिश की जाती है. असल में स्थापत्य को प्रतिमा विद्या को रूपायित करनेवाली संरचना मात्र नहीं समझना चाहिए और प्रतिमा विद्या को सजाने वाले तत्व के रूप में भी विश्लेषित नहीं करना चाहिए.

शहरीकरण के खतरे

शहर के आख्यान के सिलसिले में यह सवाल भी उठा है कि हमें ‘शहरीकरण’ (अर्बनाइजेशन) को आंख बंद करके मान लेना चाहिए या फिर शहरीकरण पर सवाल भी खड़े करने चाहिए ? शहरीकरण के गंभीर खतरे भी हैं जिनकी ओर हमने कभी ध्यान ही नहीं दिया. नए किस्म का शहरीकरण आज अपने चरम पर पहुंच गया है. इसे शहरीकरण का अंत कहें तो बेहतर होगा. शहरीकरण के कारण मूल मुद्दों पर बहस नहीं हो रही है. मसलन्, रीयल स्टेट पॉलिसी, गृहहीन लोगों की दशा आदि के सवाल गायब हैं. अब कहा जा रहा है “बाजार” ही यथार्थ है, वही नियामक है.

इस प्रसंग में रिम कोल्हास की किताब ‘दि ग्रेट लीप फार्वर्ड’ याद आ रही है. इस किताब में कोल्हास ने शंघाई के विकास का भव्य वर्णन करते हुए देंग शियाओ पिंग के नजरिए का व्यापक विश्लेषण किया है. शंघाई में 9 हजार से ज्यादा बहुमंजिला इमारतें 1992 के बाद बनी हैं. कोल्हास ने लिखा साम्यवाद के गोपन रूप का आदर्श है लाल. यह लाल के यूटोपिया से भागने की कोशिश भी है क्योंकि उस समय ‘लाल’ पर चारों से हमले हो रहे थे.

जब दुनिया विध्वंस और दु:खों के ऊपर मुनाफा कमा रही हो तब ‘रेड’ नहीं, ‘इंफ्रारेड’ जरूरी है. यह सुधार की विचारधारा है. इस तरह का प्रचार अभियान साम्यवादी यूटोपिया के अंत के समय चलाया गया. इस प्रकल्प का लक्ष्य था 19वीं सदी के आदर्शों को 21वीं सदी के यथार्थ के आवरण में छिपाना. जो कह रहे थे ‘बाजार’ ही यथार्थ है, वे बाजार की वास्तविकता को ठीक से समझ ही नहीं पाए. वे देंग की रणनीति समझ नहीं पाए.

‘बाजार’ के पक्षधर मानते हैं पूंजीवाद को मानो या विध्वंस के लिए तैयार रहो. लेकिन ‘बाजार’ तो टूट चुका है. स्थापत्य की दृष्टि से देखें तो चीन में हजारों इमारतें बनायी गयीं लेकिन उनमें कोई किराएदार नहीं है. ये इमारतें पूंजीवादी अवस्था के लिए कोई कीमत नहीं दे रहीं. इन इमारतों की मौजूदगी को सिर्फ बाजार के तर्क के आधार पर नहीं देख सकते. पश्चिम बंगाल के कोलकाता के पास में राजारहाट ऐसा ही प्रयोग है जहां पर सैंकड़ों इमारतें बना दी गयीं लेकिन सब खाली पड़ी हैं. नौएडा से लेकर मुंबई तक दोलाख मकान बनकर तैयार खड़े हैं लेकिन उनके खरीददार नहीं हैं.

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