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अंतोनियो ग्राम्शी : परिचय एवं राजनीतिक विचार

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पूंजीवाद आने के साथ ही सारी दुनिया में भौतिकवाद की लहर आई. ग्राम्शी ने लिखा ‘इस लहर का अर्थ है पूंजीवादी सत्ता संकट में है. शासकवर्ग ने अपनी सहमति के आधार को खो दिया है यानी अब समाज को नेतृत्व प्रदान करने में समर्थ नहीं रह गया है बल्कि ‘प्रभुताशाली’ भर रह गया है, जो केवल बल प्रयोग करता है. इसका अर्थ यह भी है कि विशाल जनसमूहों ने अपनी परंपरागत विचारधाराओं से संबंध विच्छेद कर लिया है. अब वे उन बातों में विश्वास नहीं करते जिनमें पूर्वकाल में रखते थे. यह संकट ठीक इस तथ्य में निहित है कि जो पुरातन है वह मृत्युशय्या पर है लेकिन नूतन का जन्म नहीं हो सकता. इस अंतराल में विविध प्रकार के अस्वस्थ और वीभत्स लक्षण प्रकट हो रहे हैं.’

ग्राम्शी ने राजनीतिक संघर्ष और सैनिक संग्राम के अंतर्संबंध (The Interrelationship of Political Struggle and Military Struggle) पर विचार करते हुए भारत के स्वाधीनता संग्राम का बड़ा सुंदर विश्लेषण किया है. ग्राम्शी ने लिखा है, ‘सैनिक युद्ध में रणनीतिक लक्ष्य होता है शत्रु की सेना का विनाश और उसके भूभाग पर कब्जा. जब यह लक्ष्य प्राप्त हो जाता है तो शांति स्थापित हो जाती है. यह भी देखना चाहिए कि युद्ध की समाप्ति के लिए यह पर्याप्त है कि रणनीतिक लक्ष्य केवल भावी क्षमता के संदर्भ में प्राप्त हो जाएं; दूसरे शब्दों में यह काफी है कि अब इस बात में किसी तरह का संदेह नहीं कि फौज आगे संघर्ष जारी नहीं रख सकती. इसलिए विजयी सेना शत्रु के भूभाग पर कब्जा कर सकती है. राजनीतिक संघर्ष इसकी अपेक्षा बहुत अधिक जटिल है.’

इसी परिप्रेक्ष्य में ग्राम्शी ने भारत के स्वाधीनता संग्राम का विवेचन किया है. लिखा है – ‘अंग्रेजों के विरूद्ध भारत के राजनीतिक संघर्ष के अंतर्गत युद्ध के तीन स्वरूप निहित हैं – गति का युद्ध, स्थिति का युद्ध और भूमिगत लड़ाई. गांधी का निष्क्रिय प्रतिरोध स्थिति का युद्ध है और जो कुछ क्षणों में गति का युद्ध और कुछ अन्य क्षणों में भूमिगत लड़ाई बन जाता है. बहिष्कार स्थिति के युद्ध का एक स्वरूप है. हड़तालें गति के युद्ध का रूप हैं. हथियारों और लड़ाकू फौज की गुप्त तैयारी भूमिगत लड़ाई के अंग हैं. कमांडो किस्म की गतिविधियां भी पाई जाती हैं लेकिन उनका उपयोग बड़ी सावधानी से किया जाना चाहिए. अगर अंग्रेजों को यकीन हो जाए कि एक विशाल विप्लवी आंदोलन की तैयारी की जा रही है तो वे उनकी वर्तमान रणनीतिक श्रेष्ठता को जनता की दमघोंटू नीति के द्वारा नष्ट कर देंगे.’

इसी क्रम में ग्राम्शी ने लिखा – ‘युद्ध का अनुभव केवल प्रेरणा दे सकता है. प्रतिमान का काम नहीं कर सकता.’ प्रतिमान राजनीतिक संघर्ष में बनते हैं, युद्ध में नहीं. हमारे देश में ऐसे क्रांतिकारी है जो क्रांति को सैन्य प्रतिमानों के आधार सम्पन्न करने में लगे हैं, अन्तोनियो ग्राम्शी ने लिखा है- ‘सैनिक प्रतिमान पर अपने मन को केन्द्रित करना मूर्खता की निशानी है.’ ग्राम्शी ने लिखा है- ‘राजनीतिक संघर्ष में शासकवर्ग के तरीकों की नकल नहीं करनी चाहिए. नहीं तो दुश्मन छिपकर बड़ी आसानी से आप पर वार कर सकता है. इस बात को हमेशा दिमाग में रखना चाहिए. वर्तमान संघर्षों में अक्सर ऐसा होता रहता है. एक कमजोर राजसत्ता ऐसी फौज की तरह है जिसके हौसले पस्त हो चुके हैं.’

जगदीश्वर चतुर्वेदी, कोलकाता विश्वविद्यालय के अवकाशप्राप्त प्रोफेसर व जवाहर लाल नेहरूविश्वविद्यालय छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष हैं.

अंतोनियो ग्राम्शी : परिचय एवं राजनीतिक विचार
अंतोनियो ग्राम्शी : परिचय एवं राजनीतिक विचार

अंतोनियो ग्रामसी का जन्म 22 जनवरी, 1891 को इटली के सार्डिनिया प्रान्त के अलेस गांव में हुआ. उनकी मां का नाम ज्युसेपिना मर्सियस तथा पिता का नाम फ्रांसिस्को ग्रामसी था. उनके पिता एक राजस्व अधिकारी था. 27 अक्टूबर 1900 को उनके पिता को उनके राजनीतिक विरोधियों द्वारा भ्रष्टाचार के झूठे मामले में जेल भिजवा दिया. इसके बाद ग्रामसी परिवार की आर्थिक स्थिति खराब होती गई. ग्रामसी की मां ने बड़ी कठिन हालातों में उनका पालन-पोषण किया. उन्होंने ग्रामसी को गांव के स्कूल में भेजना शुरू कर दिया.

जब ग्रामसी के पिता जेल से छूटे तो उनके परिवार की आर्थिक स्थिति में कुछ सुधार आया और ग्रामसी ने अपनी प्राथमिक शिक्षा पूरी करके 1908 में काग्लियारी के उच्च विधालय में दाखिला ले लिया. इस दौरान ग्रामसी पर उसके बड़े भाई जेनारो पर काफी प्रभाव पड़ा. जेनारो एक समाजवादी लड़ाका थे और उन्होंने ग्रामसी को भी राजनीतिक शिक्षा दी. इस दौरान उन्होंने इटली की साम्राज्यवाद के अधीन दुर्दशा को भी करीब से देखा व समझा. यहीं से उनके मन में सामाजिक परिवर्तन की लालसा ने जन्म लिया. लेकिन इस समय ग्रामसी के लिए यह उचित नहीं था कि वह साम्राज्यवाद विरोधी गतिविधियों में अपना समय व्यतीत करें.

अपनी स्कूली शिक्षा पूरी करने के बाद ग्रामसी ने 1911 में तूरिन विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, इसके लिए उन्हें प्रवेश परीक्षा से गुजरना पड़ा और इस परीक्षा में उन्हें छात्रवृत्ति भी मिली. यहां पर रहकर ग्रामसी की समाजवादी विचारधारा में गहरी रूचि हो गई. यहां पर वह क्रोसे की इस विचारधारा से भी परिचित हुए कि मनुष्य को धर्म के बिना भी जीना चािहए. 1913 में ग्रामसी ने इटालियन समाजवादी पार्टी (PCI) की सदस्यता ग्रहण की और ‘सोशलिस्ट यूथ ग्रूप’ के सदस्य के रूप में राजनीतिक विवादों में बढ़-चढ़कर भाग लेने लग गये. उन्होंने ‘अवंती’ पत्रिका में अपने कई लेख भी प्रकाशित कराए और ‘ग्रीदो डेल पोपोलो’ नामक पत्रिका का सम्पादन भी प्रारम्भ किया.

1915 से 1917 तक उन्होंने मार्क्स की रचनाओं का अध्ययन किया और रुसी क्रान्ति से प्रेरणा भी ग्रहण की। 30 सितम्बर, 1917 को उसने ‘तूरिन सोशलिस्ट पार्टी’ का नेता चुन लिया गया और उसकी राजनीति में सक्रिय भूमिका आरम्भ हो गई। इसके बाद उसने इटली में समाजवादी क्रान्ति को सफल बनाने के लिए श्रमिकों में क्रांतिकारी चेतना का सूत्रपात किया। उसने बताया कि मजदूरों के कष्टों का कारण पूंजीवाद ही है। उसने भी सर्वहारा वर्ग की तानाशाही स्थापित करने की बात का समर्थन किया। प्रथम विश्वयुद्ध के बाद जब इटली में चारों तरफ अराजकता का वातावरण था तो उसने इटली में मजदूर परिषदों के निर्माण पर जोर दिया ताकि देश को आर्थिक अराजकता व साम्राज्यवाद से मुक्त कराया जा सके। इसके लिए उसने 1921 में पार्टी संगठन पर अधिक जोर देना शुरू कर दिया और वह कोमिंटर्न से जुड़ गया। लेकिन 1923 में मुसोलिनी ने साम्यवादियों को पकड़कर जेल में डाल दिया। अपनी गिरफ्तारी से बचने के लिए इस दौरान ग्रामसी रुस में ही रहा और उसके बाद आस्ट्रिया चला गया और ‘इटालियन साम्यवादी पार्टी’ को नेतृत्व प्रदान करने में जुट गया। साम्यवादियों पर किए गए मुसोलिनी के अत्याचारों से मुक्ति पाने के लिए उसने मजदूर वर्ग को नए सिरे से संगठित करने के प्रयास फिर से शुरू कर दिए और 1926 में मजदूरों और किसानों की क्रांतिकारी परिषदों के निर्माण का बिगुल बजाया।

अंतोनियो ग्रामसी की क्रांतिकारी गतिविधियों के कारण उसे 8 नवम्बर, 1926 को जेल में डाल दिया गया, लेकिन आरोप साबित न होने के कारण उसे रिहा कर दिया गया। 9 फरवरी, 1927 को उस पर नए सिरे से आरोप लगाकर उसे आजीवन कारावास का दण्ड दिया गया। जेल में उसे कठोर शारीरिक यातनाएं दी गई। जेल में रहकर ही उसने राजनीतिक विचारों का पोषण किया। उसके अधिकतर विचार ‘Prison Notes’ के रूप में इसी दौरान प्रतिपादित हुए हैं। यहां पर लगातार गिरते स्वास्थ्य के कारण ग्रामसी की 27 अप्रैल, 1937 को दिमाग की ग्रंथि फट जाने के कारण मृत्यु हो गई और एक व्यक्तिवादी व उदारवादी, व्यवहारिक मार्क्सवादी तथा लोकतन्त्रीय केन्द्रीयवाद की विचारधारा के प्रबल समर्थक ग्रामसी प्रभात के तारे की तरह अल्पायु में ही अपनी पहचान राजनीतिक चिन्तन के क्षितिज में कायम कर गए।
अंतोनियो ग्रामसी की रचनाएं
अंतोनियो ग्रामसी बाल्यकाल से ही एक असाधारण प्रतिभा का धनी था। उसने अपनी स्कूली शिक्षा के दौरान ही अपनी प्रतिभा के जौहर दिखाने शुरू कर दिए थे। उसने 1913 में ही तूरिन में रहकर ‘अवंति’ नामक पत्र में अपने लेख लिखने प्रारम्भ किए। 1914 में उसने ‘ग्रीदो डेल पोपोलो’ नामक पत्रिका का सम्पादन किया और उसमें भी अपने समाजवादी विचारों का प्रकाशन कराया। उसके समस्त विचार उसकी प्रसिद्ध रचना ‘Prison Notes’ में संकलित हैं जो उसके जेल में रहते हुए लिखी गई है।
अंतोनियो ग्रामसी के राजनीतिक विचार
यद्यपि ग्रामसी ने कोई क्रमबद्ध राजनीतिक सिद्धान्त पेश नहीं किया है, लेकिन फिर भी उसके राजनीतिक विचार ‘Prison Notes’ के रूप में व्यावहारिक धरातल पर काफी लोकप्रिय हैं। उसके ऐतिहासिक भौतिकवाद, बुद्धिजीवियों की अवधारणा, प्रभुत्व, राजनीति, राज्य और समाज तथा क्रांति आदि सम्बन्धी विचार उसके महत्वपूर्ण विचार हैं। अंतोनियो ग्रामसी के राजनीतिक विचार है।
ग्रमासी की विश्व दृष्टि या ऐतिहासिक सापेक्षतावाद
ग्रामसी की बुद्धिजीवियों की अवधारणा
ग्रामसी की प्राधान्य या प्रभुत्व की अवधारणा
ग्रामसी के राज्य और नागरिक समाज पर विचार
ग्रामसी के दल तथा राजनीति पर विचार
ग्रामसी द्वारा फासीवाद का विश्लेषण
ग्रमासी की विश्व दृष्टि या ऐतिहासिक सापेक्षतावाद –
ग्रामसी की विश्व-दृष्टि की अवधारणा परेकसी के दर्शन, ऐतिहासिक भौतिकवाद और सत्य की समस्या पर आधारित अवधारणा है। ग्रामसी की विश्व-दृष्टि की अवधारणा में ये तीनों तत्व इस प्रकार एक दूसरे से गुंथे हुए हैं कि इनमें से किसी एक को दूसरे अलग करके ग्रामसी के विचारों को समझना असम्भव है। ग्रामसी ने स्वयं कहा है, ‘‘बौद्धिक विकास की प्रक्रिया में विचारक को समझने के लिए सबसे पहले यह जानना जरूरी है कि उसकी प्रकृति में कौन से तत्व स्थिर और स्थायी हैं। ये तत्व ही बौद्धिक विकास को भौतिक विकास से उसकी श्रेष्ठता सिद्ध करते हैं और उसे अलग अस्तित्व प्रदान करते हैं।’’ ग्रामसी ने आगे कहा है कि ‘‘एक विश्व-दृष्टिकोण दार्शनिक होता है। यह एक सम्पूर्ण सामाजिक समूह के बौद्धिक तथा नैतिक जीवन को दर्शाता है। इस रूप में मार्क्सवाद ही सर्वहारा-वर्ग की विश्व-दृष्टि है।’’ विश्व दृष्टि की अवधारणा में विश्वास, मूल्य और पराभौतिक पूर्व मान्यताएं इस तरह आपस में गूंथी हैं कि वे ही विचारों को क्रियात्मक सुविधा प्रदान करती हैं। इसी कारण ग्राम्सी निम्न स्तर से दर्शन को प्राप्त करने का सुझाव प्रस्तुत करता है। ग्रामसी की विश्व दृष्टि के तीन मूलाधार निम्न हैं-
परेकसी का दर्शन –
विश्व में मार्क्स के दर्शन से पहले दर्शन को राजनीति से अलग रखने की परम्परा विद्यमान थी। लेकिन मार्क्स ने सर्वप्रथम अपने विचारों में सिद्धान्त तथा व्यवहार की एकरूपता पर जोर दिया। उसने कहा है कि ‘दर्शन और राजनीति’ एक ही सिक्के के दो पहलू हैं इसलिए इन्हें अलग नहीं किया जा सकता। मार्क्स ने दर्शन और राजनीति के पारस्परिक सम्बन्धों को विभिन्न वर्गों के दृष्टिकोण से ऐतिहासिक आधार पर पुष्ट किया और मार्क्सवाद को सर्वहारा वर्ग की विश्व-दृष्टि बना दिया। इस आधार पर दर्शन का स्वरूप एवं विषय-वस्तु भाषा पर आधारित है, क्योंकि भाषा ही सम्प्रेषण का वह साधन है जो दर्शन को स्वरूप और अन्तर्वस्तु प्रदान करती है। भाषा ही प्रत्येक दर्शन का अन्तर्निहित भाग है। गामसी का कहना है कि विश्व में आदर्शवादियों ने तथा कुछ अन्य विचारकों ने बुद्धिजीवियों के दर्शन को साधारण जनता के दर्शन से अलग करके देखने का प्रयास किया है।

अंतोनियो ग्रामसी ने श्रमजीवी वर्ग के इतिहास को आदर्शवादियों के बुद्धिजीवी वर्ग के इतिहास से अधिक महत्व देकर अपना विचार व्यक्त किया है कि दार्शनिकों ने केवल संसार की व्याख्या की है, संसार को बदलने की बात नहीं की है। इसलिए आज प्रमुख समस्या विश्व में परिवर्तन लाने की है। इसलिए दर्शन को राजनीतिक होना चाहिए, व्यावहारिक होना चाहिए और सबसे अधिक इसे दर्शन ही होना चाहिए। अंतोनियो ग्रामसी ने आगे कहा है कि ‘‘द्वन्द्ववाद और परेकसी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। द्वन्द्ववाद का सिद्धान्त है, इतिहास शास्त्र का सार तत्व तथा राजनीति का विज्ञान है। परेकसी का दर्शन (क्रिया-कलाप) या मार्क्सवाद का दर्शन समाज में विरोधाभास का अन्तर्विरोध उत्पन्न करता है तथा पूर्ववर्ती दर्शनों से इस बात में भिन्न हो जाता है कि अन्तर्विरोधों को समाप्त करने की बजाय अन्तर्विरोधों का मूल सिद्धान्त बन जाता है।’’

अंतोनियो ग्रामसी ने कहा है कि दर्शन का कार्य ऐतिहासिक प्रक्रिया से उत्पन्न समस्यओं का हल निकालना होना चाहिए। इस तरह परेकसी का दर्शन निरपेक्ष इतिहासवाद और निरपेक्ष मानववाद है। अंतोनियो ग्रामसी ने परेकसी के दर्शन की आड़ में निम्न स्तर या श्रमजीवियों के इतिहास का ही वर्णन किया है।
ऐतिहासिक भौतिकवाद –
ग्रमासी ने कहा है कि इतिहासवाद दार्शनिक और राजनीतिक दोनों हैं। दर्शन के इतिहास को वर्ग-संघर्ष के इतिहास से अलग करके नहीं देखा जाना चाहिए। सिद्धान्त और व्यवहार की द्वन्द्वात्मक एकता में मानव के इतिहास को प्रकृति के इतिहास के रूप में ही देखा जाना चाहिए। ग्रामसी ने महसूस किया कि द्वितीय इन्टरनेशनल के दौरान उपस्थित प्रवृत्तियों ने ‘ऐतिहासिक भौतिकवाद’ (Historical Materialism) की अवधारणा के रूप में इतिहासवाद के निर्धारक के रूप में भौतिकवाद पर अधिक जोर देकर परिवर्तन की प्रक्रिया में विचार तत्व की भूमिका की उपेक्षा की है जो परिवर्तन या क्रान्ति की जीवनदायनी है। ग्रामसी ने कहा है कि समाज में एक वर्ग का प्रभुत्व यन्त्रवाद की आलोचना को जन्म देता है या उसका चित्रण करता है। सबसे अधिक ध्यान रखने योग्य बात यह है कि परेकसी दर्शन के जनक कार्ल मार्क्स ने स्वयं कभी भी अपनी अवधारणा को भौतिकवादी नहीं कहा और फ्रेंच क्रान्ति के समय उसने भौतिकवाद की आलोचना भी की। इसी तरह उसने द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के स्थान पर तर्कसंगत शब्द का अधिक प्रयोग किया है। जिसका अपना विशेष अर्थ है। इसलिए ग्रामसी ने उपरोक्त व्याख्या के आधार पर अपना निष्कर्ष प्रस्तुत करते हुए कहा है कि दर्शन का इतिहास वर्ग संघर्ष के इतिहास का एक भाग नहीं है। दर्शन स्वयं में एक सांस्कृतिक संघर्ष है जिसमें लोकप्रिय मानसिकता का रूपान्तरण वांछित होता है और जो दार्शनिक नवीनताओं को विसरित करता है तथा ऐतिहासिक रूप में प्रभावित भी होता है। इस तरह दर्शन का इतिहास विभिन्न विश्व-दृष्टि रखने वाले वर्गों के बीच संघर्ष का एक इतिहास हे, जिसमें दर्शन एक राजनीति है और राजनीति एक विज्ञान। इसलिए अंतोनियो ग्रामसी ने इस बात पर जोर दिया है कि परेकसी के दर्शन को आर्थिक, राजनीतिक तथा दार्शनिक भागों में नहीं बांटा जा सकता। परेकसी का सिद्धान्त व्यक्ति और वस्तु दोनों के सह-सम्बन्धों, मनुष्य और प्रकृति की व्यापकता, मनुष्य और प्रकृति के रूपान्तर का ऐतिहासिक क्रिया-कलाप है जिसमें मनुष्य अपने कार्यों की प्रक्रिया है। मनुष्य एक सामाजिक प्राणी है और उसका स्वभाव विशेष व ऐतिहासिक है। मानव स्वभाव में ऐसा कुछ भी एकरूपता या स्थायित्व वाला गुण नहीं है जिसे इतिहास से जोड़ा जा सके। समाज में सामाजिक व आर्थिक समस्याएं तक ही विद्यमान हैं जब तक मनुष्य उसके प्रति संवेदनशील और जागरूक है। प्रगति और वैचारिक संघर्ष है जिसमें पदार्थ और मनुष्य के अन्तर्विरोध का विकास द्वन्द्व के विकास की एकता का प्रतिफल है।

ग्रामसी का मानना है कि ऐतिहासिक भौतिकवाद की पृष्ठभूमि में विचार, अस्तित्व से और मानव को प्रकृति से अलग नहीं किया जा सकता। इसमें किसी भी ऐतिहासिक गतिवधि को किसी वस्तु या विषय से अलग नहीं किया जा सकता। इससे यही बात उभरती है कि दर्शन और ऐतिहासिक भौतिकवाद विभाजन की वस्तु नहीं है। परेकसी का दर्शन ऐतिहासिक द्वन्द्ववाद पर ही आधारित है जो ऐतिहासिक है और अस्थायी दर्शन है। अन्तर्विरोधों को विघटित करने के साथ-साथ स्वयं उनका एक हिस्सा भी बना रहता है। इसी कारण दार्शनिक और ऐतिहासिक भौतिकवाद को अलग-अलग बांटना किसी विश्वसनीय सिद्धान्त का परिचायक नहीं हो सकता। सत्य तो यह है कि दर्शन और ऐतिहासिक भौतिकवाद का विभाजन विश्वास की पूर्ण व्यवस्था या प्रणाली नहीं है। यह तो केवल सत्य की समस्या से ही सम्बन्धित हो सकता है, क्योंकि विश्व दृष्टि का अध्ययन सत्य की अवधारणा के सन्दर्भ में ही सम्भव होता है।
सत्य की समस्या –
एक साधारण व्यक्ति के लिए सत्य की समस्या उसके आचरण से सम्बन्धित है जो मानव प्रकृति और समाज का निश्चित और सार्वभौमिक नियम है। आम व्यक्ति के लिए सत्य नीति के सदृश है। आदर्शवादियों की नजर में यह आत्मा का गुण है। अंतोनियो ग्रामसी ने सत्य की समस्या का विश्लेषण करते हुए कहा है कि परेकसी का दर्शन या रूपलेखन का दर्शन आंगिक है, क्योंकि इसमें द्वन्द्व और अन्तर्विरोध का दर्शन निहित है। विरोधाभास या अन्तर्विरोध का सिद्धान्त अन्य दर्शनों से अलग व जन समूहों का दर्शन है जो जन-समूहों में जागृति लने का प्रयास करता है। इस तरह दर्शन क्रियात्मकता के साथ-साथ एक समरूप तथा सुसंगत विश्व दृष्टि भी प्रस्तुत करता है। यह सर्वहारा वर्ग का दर्शन होने के कारण सत्ता वर्ग का आपेक्षकर्ता है जो अधीनस्थ वर्ग को सरकार चलाने की कला सिखाता है और सत्य को जानने की चेष्टा भी करता है। सत्य और तथ्य में सारभूत अन्तर होता है। प्रत्येक सत्य व्यक्तिपरक होता है। इसलिए सत्य तक पहुंचने के लिए सबसे पहले यह जानना जरूरी हो जाता है कि विज्ञान को बढ़ाने वाली वस्तु कौन सी है?

ग्रामसी का कहना है कि ज्ञान केवल अवलोकनीय तथ्यों तक ही सीमित नहीं है बल्कि कुछ अज्ञात वास्तविकताओं तक भी उसकी पहुंच है जो कालान्तर में ज्ञान की परिधि में आ सकती है। दर्शन की सैद्धान्तिक विचारधारा इस बात पर बल देती है कि जो आज अज्ञात हे, कल वही ज्ञान की श्रेणी में आ सकता है। इसी कारण दर्शन, सत्य की एक प्रणाली है। प्रत्येक सत्य का एक अस्थायी मूल्य होता है। सत्य की खोज तथा फलदायक होती है जब इसके लिए वैज्ञानिक विधि का प्रयोग किया जता है अत: सत्य की समस्या दर्शन की ही समस्या है। दार्शनिक का कार्य लोगों की चेतना में वृद्धि करके उन्हें सत्य के समीप ले जाना है। व्यक्ति का दर्शन उसकी राजनीति में निहित है और राजनीति एक परेकसी है। परेकसी सिद्धान्त और व्यवहार की एकरूपता है। यह विचार और व्यवहार, व्यक्तियों अैर वस्तुओं में अन्तर्विरोधों की द्वन्द्वात्मक एकता है जिसमें बुद्धिजीवियों का महत्वपूर्ण योगदान है।

इस प्रकार उपरोक्त विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि ग्रामसी का विश्व दृष्टि के तीन तत्व-परेकसी का दर्शन, ऐतिहासिक भौतिकवाद तथा सत्य की समस्या है। ये तीनों तत्वों आपस में इस प्रकार गूंथे हुए हैं कि इनको एक-दूसरे से अलग करके ग्रामसी की विश्वदृष्टि की अवधारणा को समझना न तो सम्भव है और न ही आसान। ग्रामसी के दर्शन में तो मार्क्सवाद का सार ही राजनीति का आधार है।
ग्रामसी की बुद्धिजीवियों की अवधारणा –
बुद्धिजीवियों की अवधारणा ग्रामसी के राजनीतिक चिन्तन का महत्वपूर्ण विषय है। दार्शनिक रूप से इस अवधारणा का सम्बन्ध इस बात से है कि ‘सभी मनुष्य दार्शनिक हैं।’ यह अवधारणा अंतोनियो ग्रामसी की शैक्षिक विचारधारा से भी गहरा सरोकार रखती है। इस अर्थ में बुद्धिजीवी वे हैं जिनके पास दिमाग है और वे उसका उपयोग करते हैं। अधिरचना का सिद्धान्तकार होने के नाते ग्रामसी ने इस अवधारणा को ही अपने चिन्तन को केन्द्र बिन्दु बनाया है और इसे मार्क्स से अधिक व्यापक अर्थ में प्रयोग किया है। ग्रामसी ने दक्षिण इटली के समाज का गहराई से विश्लेषण करने के बाद अपना यह तर्क प्रस्तुत किया है कि सभी मनुष्य बुद्धिजीवी हैं लेकिन समाज में सभी व्यक्ति बुद्धिजीवी का कार्य नहीं करते।
बुद्धिजीवी का अर्थ –
’बुद्धिजीवी’ शब्द को ग्रामसी से पहले भी और बाद में भी कई तरह से परिभाषित किया गया है। सामान्य अर्थ में बुद्धिजीवी वह व्यक्ति है जिसमें समझने एवं सोचने की शक्ति है। पूंजीवाद के आगमन से पहले कलाकारों, समाज वैज्ञानिकों और धार्मिक-सांस्कृतिक प्रतिनिधियों को ही बुद्धिजीवी माना जाता था लेकिन औद्योगिक समाज के आगमन के साथ ही तकनीशियनों, प्रबन्धकों और वैज्ञानिकों को भी इसमें जोड़ लिया गया। लेनिन का पेशेवर क्रान्तिकारियों का समूह और परेटो, मोस्का तथा मिचेलस आदि समाजशास्त्रियों का अभिजन वर्ग भी बुद्धिजीवी शब्द को ही अभिव्यक्त करते हैं। अनेक विद्वानों ने ‘बुद्धिजीवी’ शब्द को निम्न प्रकार से परिभाषित किया है।
पारसन के अनुसार-’’बुद्धिजीवी वह व्यक्ति है जो सभ्यता को निश्चित प्रणाली में भागेदारी रखता है।
लिपसेट के अनुसार-’’जो लोग इस संसार में कला, विज्ञान और धर्म सहित संस्कृति का सृजन, वितरण तथा उसे लागू करते हैं, बुद्धिजीवी हैं।’’
लेनिन के अनुसार-’’बुद्धिजीवी न तो स्वतन्त्र आर्थिक वर्ग है और न ही स्वतन्त्र राजनीति शक्ति। यद्यपि उन्हें समाज में एक विशेष स्थान प्राप्त है तथा वे आंशिक रूप में एक ओर तो बुर्जुआ समाज से तथा दूसरी तरफ सर्वहारा वर्ग से जुड़े हुए हैं।’’
बोर्डिगा के अनुसार-’’बुद्धिजीवी वर्ग उन लोगों का समूह है जो आन्दोलन को अग्रसर करता है, सर्वहारा दल का नेतृत्व करता है तथा उसके लिए नीतियों का निर्माण भी करता है। इस वर्ग में तथ्य तथा विचार दोनों में अनुशासन रहता है।
ग्रामसी ने अपने पूर्ववर्ती विचारकों के बुद्धिजीवी वर्ग सम्बन्धी विचारों का अध्ययन करके तथा इटली की तत्कालीन आर्थिक, राजनीतिक तथा सामाजिक दशा का विश्लेषण करके यह निष्कर्ष निकाला कि सभी व्यक्ति बुद्धिजीवी हैं, लेकिन समाज में उनकी भूमिका बुद्धिजीवी की नहीं है। अंतोनियो ग्रामसी ने कहा है कि समाज में प्रत्येक व्यक्ति व्यवसायिक कार्यों में उलझा होने के साथ-साथ कुछ न कुछ बौद्धिक क्रियाएं भी अवश्य करता रहता है। इसलिए बुद्धिजीवी विचारों के धरातल के साथ-साथ उत्पादन के साधन एवं सम्बन्धों में भी मजबूती से टिके हुए हैं। ग्रामसी ने फासीस्ट जेल में रहकर इस बात को सार्वजनिक किया कि बुद्धिजीवी अपने परम्परागत अर्थ से भिन्न भी समाज के संगठन, उत्पादन, संस्कृति या जन-प्रशासन के कार्य भी करते हैं। समाज में दार्शनिक, कलाकार, वैज्ञानिक, धार्मिक नेता आदि सभी की भूमिका बुद्धिजीवी की होती है। उदाहरण के लिए मजदूर की पहचान उसका शारीरिक श्रम न होकर वह परिस्थिति भी है जिसमें वह विशेष कार्य करता है।

ग्रामसी ने कहा है कि उत्पादन ढांचा ही बुद्धिजीवी वर्ग के निर्माण के लिए उत्तरदायी औद्योगिक क्रान्ति आने से पहले सामंती जमींदार भी विशेष तकनीकी योग्यता के स्वामी होने के कारण ऐसे बुद्धिजीवी वर्ग का प्रतिनिधित्व करते थे जिनका कार्य सैनिक क्षमता का परिचय देना था। लेकिन औद्योगिक क्रान्ति के कारण आए उत्पादन ढांचे में परिवर्तनों ने नए-नए बुद्धिजीवी वर्गों को जन्म दिया। औद्योगिक क्रान्ति ने बुद्धिजीवी वर्ग को व्यापक आधार प्रदान करके कुलीनतन्त्रीय विचारधारा को चुनौती दी और प्रशासनों, विद्वानों, वैज्ञानिकों, सिद्धान्तकारों, दार्शनिकों आदि का नया वर्ग तैयार कर दिया। ग्रामसी का कहना है कि शारीरिक श्रम चाहे कितना भी हीन क्यों न हो उसमें कुछ-न-कुछ तकनीकी योग्यता का अल्पतम रचनात्मक बौद्धिक क्रिया अवश्य ही निहित रहती है। इसी कारण समाज में प्रत्येक व्यक्ति बुद्धिजीवी है, चाहे वह किसी भी कार्य या पेशे में लगा हुआ है।
बुद्धिजीवियों के प्रकार –
ग्रामसी ने ऐतिहासिक तथ्यों का विश्लेषण करने के बाद परम्परागत तथा जैविक बुद्धिजीवियों पर विचार किया। उसने पाया कि फ्रांस और इंग्लैण्ड में बुर्जुआ बुद्धिजीवियों का प्रभाव पादरियों और अन्य कुलीन तन्त्रियों से अधिक है, क्योंकि इन्हीं का आर्थिक शक्ति पर प्रभुत्व है। इसके विपरीत इटली में परम्परागत बुद्धिजीवियों का आधिपत्य है जो बुर्जुआ बुद्धिजीवियों की बराबरी करके अपने जैविक बुद्धिजीवियों का निर्माण करते हैं। अंतोनियो ग्रामसी ने इटली की आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक परिस्थितियों का विश्लेषण करने के बाद बुद्धिजीवियों के निर्माण के बारे में इस बात पर बल दिया कि उत्पादन के साधनों में परिवर्तन आने से समाज के स्वरूप में भी परिवर्तन आता है और नए-नए समूहों का जन्म होता है। यह परिवर्तन बुद्धिजीवियों के आपसी सम्बन्धों तथा राज्य के साथ उनके सम्बन्धों को भी प्रभावित करता है। इस परिवर्तन के परिणामस्वरूप नए आर्थिक व्यवस्था के नए प्रतिनिधि उभरते हैं। इसी से जैविक बुद्धिजीवियों का जन्म होता है जो अन्त:वर्गीय वातावरण स्पष्ट करते हैं। इस तरह अंतोनियो ग्रामसी ने दक्षिण इटली में परम्परागत बुद्धिजीवियों तथा उत्तर में जैविक बुद्धिजीवियों जो सर्वहारा वर्ग के प्रतिनिधि हैं, पर जोर दिया है। ग्रामसी ने उत्पादन की दृष्टि से बुद्धिजीवियों को दो भागों-I. परम्परागत बुद्धिजीवी, II. जैविक बुद्धिजीवी में बांटा है-
परम्परागत बुद्धिजीवी – परम्परागत बुद्धिजीवियों में साहित्यकार, वैज्ञानिक, दार्शनिक और अनुष्ठान करने वाले आदि व्यक्ति शामिल हैं। ये बुद्धिजीवी अपने सामाजिक वर्ग से स्वतन्त्र होते हैं और उनका कार्य भी स्वायत प्रकृति का होता है। ये बुद्धिजीवी अपने जन्म के वर्गों से अपना नाता तोड़कर एक अन्त:वर्गीय वातावरण को जन्म देते हैं। दक्षिण इटली में इसी प्रकार के बुद्धिजीवियों का प्रभाव है। इटली के इतिहास में परम्परागत बुद्धिजीवियों की भूमिका काफी महत्वपूर्ण रही है। इन्होंने उत्पादन व उत्पादन शक्ति में परिवर्तन आने पर भी भूतकाल को वर्तमान से जोड़े रखा है और समाज में अपनी परम्परागत भूमिका को बनाए रखने का हर सम्भव प्रयास किया है।
जैविक या आंगिक बुद्धिजीवी – जैविक बुद्धिजीवी उत्पादन प्रक्रिया में आए परिवर्तनों की उपज होते हैं। जब उत्पादन प्रक्रिया में परिवर्तन आता है तो समाज में नए-नए वर्गों का भी जन्म होता है। इंग्लैण्ड की औद्योगिक क्रान्ति ने इसी प्रक्रिया में नए-नए सामाजिक वर्गों को जन्म दिया है। इसी कारण वहां पर जैविक बुद्धिजीवियों का ही अधिक प्रभाव है। जब नए वर्गों को नेतृत्व की आवश्यकता अनुभव हुई तो इस प्रकार के बुद्धिजीवियों का भी जन्म हुआ। बुर्जुआ और सामन्त अधिपति कालान्तर में अपने-अपने वर्गों के जैविक बुद्धिजीवी ही रहे हैं। पूंजीवादी व्यवस्था ने सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवियों को पैदा किया है। यद्यपि इनकी भूमिका संगठन के रूप में ही अधिक प्रभावशाली रही है, क्योंकि ये राजनीतिक दल को अधिक महत्व देते रहे हैं। जैविक बुद्धिजीवियों की दृष्टि समाजवादी रही है। ग्रामसी ने किसी भी आन्दोलन की सफलता के लिए जैविक बुद्धिजीवियों के निर्माण को पूर्व आवश्यक शर्त के रूप में मान्यता दी है। उनका कहना है कि आंगिक या जैविक बुद्धिजीवियों के बिना न तो कोई क्रान्ति हो सकती है और न ही सफल हो सकती है। ग्रामसी ने पूंजीवादी व्यवस्था के कारण उत्पन्न हुए सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवियों को ही क्रान्ति के अग्रदूत मानकर, उनको अधिक महत्व दिया है। उसका मानना है कि ये बुद्धिजीवी ही जनता और नेतृत्व में संतुलन कायम रख सकते हैं और सामाजिक परिवर्तन की किसी भी सम्भावना को सफल बना सकते हैं। सर्वहारा वर्ग में चेतना तथा सभी प्रकार की जागरूकता व संगठन बुद्धिजीवियों के बिना असम्भव है।
ग्रामसी ने बुद्धिजीवियों को इस वर्गीकरण के तहत रखने के बाद कहा कि सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवी ऐतिहासिक आधार पर बुर्जुआ वर्ग के बुद्धिजीवियों से अलग है। इसी आधार पर अंतोनियो ग्रामसी की यह अवधारणा बुद्धिजीवियों से अन्र्तसम्बन्धों पर महत्वपूर्ण प्रकाश डालती है।अंतोनियो ग्रामसी ने कहा है कि समाज में किसी भी प्रकार का परिवर्तन चाहे वह नैतिक ही क्यों न हो, बुद्धिजीवियों द्वारा ही लाया जा सकता है। बुद्धिजीवी ही व्यक्तियों को जागरूक बनाते हैं। सभी वर्गों के बुद्धिजीवी अपने-अपने वर्गों का प्रतिनिधित्व करने के बावजूद भी राजनीतिक प्रक्रिया में भाग लेते हैं। इनकी राजनीतिक प्रक्रिया को प्रभावित करने की क्षमता अलग-अलग होती है। बुर्जुआ वर्ग के बुद्धिजीवी वर्ग अपनों को संगठित रखकर अपना प्रभुत्व कायम रखते हैं, जबकि सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवी दलीय संगठन के अधीन रहकर ही अपना कार्य करते हैं। सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवी ‘सामूहिक बुद्धिजीवी; होते हैं। इस वर्ग के बुद्धिजीवी राजसत्ता हासिल करने के बाद ही अपने को जैविक बुद्धिजीवियों की श्रेणी में ला सकते हैं। शासन-सत्ता प्राप्त किए बिना इनके लिए अपने बुद्धिजीवी पैदा करना असम्भव है। बुर्जुआ वर्ग के अधिनायकवाद को उखाड़ फैंकने के लिए इनके द्वारा अपनी विशेष संस्कृति और सामूहिक जागरूकता को अपना लक्ष्य बनाकर चलना जरूरी है। इस दृष्टि से ग्रामसी का उद्देश्य उत्पादन के ढांचे की अपेक्षा उन साधनों पर अधिक जोर देता रहा है जिनके द्वारा सर्वहारा वर्ग पूंजीवादी समाज के आर्थिक-सामाजिक सम्बन्धों का ज्ञान प्रापत कर सकता है और आवश्यकता पड़ने पर राजनीतिक रूप से पूंजीवादी ढांचे को ध् वस्त भी किया जा सकता है।

ग्रामसी ने स्थान के अधार पर भी बुद्धिजीवियों को दो भागों-ग्रामीण और शहरी में बांटा है। उत्पादन प्रक्रिया की दृष्टि से अन्तर के आधार पर ग्रामीण और शहरी बुद्धिजीवियों में अन्तर का पाया जाना स्वाभाविक बात है। अंतोनियो ग्रामसी का कहना है कि शहर में रहने वाले बुद्धिजीवी उद्योग के साथ विकसित हुए हैं। औद्योगिक प्रणाली में आने वाले उतार-चढ़ावों ने बुद्धिजीवियों के निर्माण की प्रक्रिया को भी प्रभावित किया है। शहरी बुद्धिजीवी उत्पादक और मजदूर के बीच की कड़ी है। ग्रामीण बुद्धिजीवी अधिकतर पारम्परिक होते हैं। ये ग्रामीण लोगों के सामाजिक जन-समूह और छोटे कस्बों के निम्न बुर्जुआ वर्ग से जुड़े होते हैं। उन्हें पूंजीवादी प्रणाली ने अभी तक विकसित नहीं किया है और न ही उन्हें अभी तक गति प्रदान की है। इस तरह का बुद्धिजीवी खेतीहर जनसमूहों को स्थानीय और राजकीय प्रशासन के सम्पर्क में लाता है। उनकी पेशेवर मध्यस्थता को राजनीतिक मध्यस्थता से अलग करना काफी कठिन होता है। इसमें पादरी, वकील, नोटरी, अध्यापक, डॉक्टर आदि शामिल होते हैं। ये बुद्धिजीवी खेतीहर समूहों के लिए एक ऐसा सामजिक प्रतिमान होते हैं, जिनको अपना आदर्श मानकर खेतीहर समूह अपनी संतानों को इस वर्ग से जोड़ने की इच्छा रखते हैं और उसे पूरा करने के प्रयास भी करते हैं। शहरी बुद्धिजीवियों की भूमिका ग्रामीण बुद्धिजीवियों से सर्वथा उल्ट ही होती है।

ग्रामसी ने अपने विश्लेषण में आगे कहा है कि इटली का एकीकरण इसी आधार पर कमजोर पड़ा कि फासीवाद तुच्छ बुर्जुआ और शहरी पूंजीपति वर्ग के गठजोड़ से उत्पन्न हुआ था। इसी कारण इसमें विश्व दृष्टि का अभाव रहा। इस विश्लेषण द्वारा ग्रामसी ने फासीवाद की असफलता पर प्रकाश डाला है। ग्रामसी का कहना है कि शहरी बुद्धिजीवी ग्रामीण बुद्धिजीवियों की अपेक्षा अधिक संगठित है और राजनीतिक प्रक्रिया को नेतृत्व के द्वारा प्रभावित करने में सक्षम हैं। इनमें सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवी तो किसी भी अवस्था में अपने सामाजिक समूहों को नेतृत्व प्रदान करने में असफल हैं और न ही वे सामाजिक परिवर्तन के लिए कोई प्रयास करते हैं। इसी तरह ग्रामीण बुद्धिजीवी केवल जमींदारों और किसानों तथा सरकार व अन्य वर्गों में मध्यस्थता का प्रयास तो करते हैं, लेकिन किसी वर्ग को नेतृत्व प्रदान करने में असमर्थ हैं। उनकी रूचि तो यथास्थिति में ही हैं। इस तरह ग्रामीण बुद्धिजीवियों की उत्पादन प्रक्रिया के प्रति उदासीनता ही इटली की कमजोर राजनीतिक दशा के लिए उत्तरदायी है। इस तरह ग्रामसी ने अपनी बुद्धिजीवियों की अवधारणा में इटली की राजनीतिक स्थिति, आर्थिक व सामाजिक समूहों, उत्पादन प्रक्रिया और उत्पादन सम्बन्धों आदि पर भी व्यापक दृष्टि उकेरी है।

ग्रामसी ने यह तत्व उद्घाटित किया है कि उत्पादन प्रक्रिया में आने वाले परिवर्तन ही बुद्धिजीवियों के वर्ग चरित्र को भी बदल देते हैं और यह परिवर्तन और बुद्धिजीवियों में जन्म और विकास के आधार पर पाया जाने वाला अन्तर समाज विशेष के ढांचे पर काफी निर्भर करता है। बुद्धिजीवियों का निर्माण एक समाज से दूसरे समाज के दृष्टिगत काफी भिन्न हो सकता है। इसी कारण प्राचीन समाज के बुद्धिजीवी आधुनिक समाज के बुद्धिजीवियों से सर्वथा भिन्न हैं। ग्रामसी ने भी मार्क्स व लेनिन की भांति सर्वहारा वर्ग को जागरूक व संगठित बनाने की आवश्यकता पर जोर देकर मार्क्सवाद को लोकप्रिय बनाने का प्रयास किया है। ग्रामसी की रूचि सामाजिक परिवर्तन में है। वह इटली की तत्कालीन राजनीतिक, सामाजिक और आर्थिक परिस्थितियों से असंतुष्ट दिखाई देता है। इसी कारण उसने ऐसे मार्क्सवाद का स्वप्न लिया है जो मानवतावाद और सुधारवाद का मिश्रित रूप हो तथा जटिल सांस्कृतिक समस्याओं का सर्वमान्य हल प्रस्तुत करने में सक्षम हो। उसने सामाजिक परिवर्तन में बुद्धिजीवी वर्ग की भूमिका पर ही बल दिया है। रुस, फ्रांस और इंग्लैण्ड की क्रान्तियों से यह बात पुष्ट हो जाती है कि क्रान्ति का सफल संचालन और उससे प्राप्त हाने वाले स्थायी व लाभकारी परिणाम बुद्धिजीवी वर्ग के बिना असम्भव है।

यद्यपि ग्रामसी की ‘बुद्धिजीवी की अवधारणा’ विश्व क्रान्ति का आधार है और सामाजिक परिवर्तन के किसी भी विचार का केन्द्र बिन्दु है, लेकिन फिर भी वह काफी विवादों से घिरी रही है। आलोचकों ने इस अवधारणा पर पहला आरोप यह लगाया है कि ग्रामसी ने बुद्धिमता मानव की एक बौद्धिक विशेषता है। इसी तरह बुद्धिमता या बुद्धिजीवियों का विभाजन भी तर्कसंगत नहीं है। आलोचकों ने अन्य आरोप यह भी लगाया है कि ग्रामसी ने इस अवधारणा में आर्थिक पक्ष पर अधिक ध्यान देकर अन्य पक्षों की उपेक्षा की है। उसने उत्पादन प्रक्रिया को ही बुद्धिजीवियों के जन्म का कारण माना है, जो सर्वथा गलत है। उसने सर्वहारा वर्ग में चेतना पैदा करने का कार्य बुद्धिजीवियों को सौंपकर मार्क्स के ही सिद्धान्तों को धूमिल कर दिया है। यद्यपि ग्रामसी की इस अवधारणा को काफी आपेक्षों का सामना करना पड़ा है, लेकिन यह बात निर्विवाद रूप से सत्य है कि ग्रामसी की यह अवधारणा तत्कालीन पूंजीवादी व्यवस्थाओं के स्वरूप पर प्रकाश डालने वाली महत्वपूर्ण अवधारणा रही है। ग्रामसी की यह बात आज भी प्रासांगिक है कि सामाजिक परिवर्तन का कोई भी विचार बुद्धिजीवियों के बिना पूरा नहीं हो सकता। ग्रामसी ने इस अवधारणा को अपने राजनीतिक दर्शन का केन्द्र बिन्दु बनाकर विश्व क्रान्ति की जो आशाएं जगाई है, वे आज की परिस्थिितों में भी सम्भव हो सकती है। अत: अंतोनियो ग्रामसी की बुद्धिजीवियों की अवधारणा एक महत्वपूर्ण विचार है जो विश्व क्रान्ति का आधार है।
ग्रामसी की प्राधान्य या प्रभुत्व की अवधारणा –
ग्रामसी की प्राधान्य की अवधारणा उसके दर्शन का महत्वपूर्ण विचार है। ग्रामसी ने अपनी पुस्तक ‘Prison Notes’ में अपने चिन्तन का सैद्धान्तिक आधार इसी अवधारणा को बनाया है। ग्रामसी को इस अवधारणा का केन्द्रीय विचार है कि जनता शक्ति द्वारा शक्ति न होकर, विचारों द्वारा शासित होती है। जब शासन का आधार शक्ति या बल बन जाती है तो प्रभुत्व या प्राधान्य के सामने उसके अस्तित्व का संकट उत्पन्न हो जाता है। ग्रामसी का कहना है कि नागरिक समाज वैचारिक सहमति पर टिका होता है। इसी पर प्राधान्य का अस्तित्व निर्भर होता है। ग्रामसी ने नागरिक और राजनीतिक समाज में अन्तर किया है। नागरिक समाज में निजी संस्थाएं जैसे स्कूल, चर्च, क्लब, दल शामिल हैं जो सामाजिक और राजनीतिक चेतना पैदा करते हैं। इसके विपरीत राजनीति समाज में सरकार, न्यायालय, पुलिस, सेना शामिल हैं जो प्राधान्य या प्रत्यक्ष प्रभुत्व के उपकरण हैं। ग्रामसी ने कहा है कि यह नागरिक समाज ही था जिसमें बुद्धिजीवियों ने प्राधान्य के पैदा करके महत्वपूर्ण भूमिका अदा की। यदि बुद्धिजीवियों द्वारा सफलतापूर्वक प्राधान्य को पैदा किया जाएगा तो नागरिक समाज में शक्ति का अस्तित्व नष्ट हो जाएगा ऐसे में शासन वैचारिक सहमति पर ही आधारित रहेगा।

ग्रामसी ने मार्क्सवादी परम्परा में कुछ सुधार करके अपनी इस अवधारणा को विकसित रूप देकर कहा है कि लेनिन की प्राधान्य की अवधारणा लेनिन का सबसे महान योगदान है। लेनिन ने अपनी पुस्तकों ‘What is to be done’ में तथा ‘Two Tactics’ में इस अवधारणा का विकसित रूप में प्रयोग किया है। अंतोनियो ग्रामसी का कहना है कि लेनिन ने इस अवधारणा को तीन रूपों में पेश किया है-I. यह एक वर्ग का नेतृत्व है, II. यह उस वर्ग का नेतृत्व है जिसके पास राजनीतिक शक्ति है, III. यह उस दल का भी नेतृत्व है जिसमें स्वतन्त्र राजनीतक शक्ति को बनाए रखने की क्षमता है। यद्यपि लेनिन से पहले भी एकसेलरोड ने इसे समाजवादी पार्टी का सदस्य होने के कारण प्रयुक्त किया था, लेकिन उसका दृष्टिकोण परम्परावादी ही रहा। पारम्परिक दृष्टि से प्राधान्य का अर्थ होता है-एक राष्ट्र का किसी भी प्रकार का प्रभुतव या सत्ता। बेलस ने भी प्राधान्य को परिभाषित करते हुए कहा है कि ‘‘प्राधान्य का अर्थ है, निर्देशित की सहमत पर आधारित राजनीतिक नेतृत्व, एक ऐसी सहमति जो शासक वर्गों की विश्व दृष्टि के प्रसार तथा लोकप्रियता द्वारा अर्जित की जाती हैं रेजर सुनियस (Rager Sunious) के अनुसार ‘‘प्राधान्य एक राजनीतिक और वैचारिक नेतृत्व का सम्बन्ध नहीं है, बल्कि यह तो सहमति का संगठन है।’’

ग्रामसी का कहना है कि लेनिन की प्राधान्य सम्बन्धी अवधारणा लेनिन का सैद्धान्तिक कार्य है। लेनिन ने इस अवधारणा का प्रयोग सर्वहारा की भूमिका निभाने के लिए किया है। ग्रामसी ने इसका प्रयोग उस क्रिया से लिया है, जिसमें सर्वहारा वर्ग उन सभी शक्तियों पर प्राधान्य प्राप्त करते हैं जो कि पूंजीवाद के विरूद्ध हैं और उन्हें एक राजनीतिक, आर्थिक, ऐतिहासिक गुट में एक करके आंतरिक गतिरोध को समाप्त करते हैं। ऐतिहासिक गुट की यह धारणा जिसमें आर्थिक, सामाजिक और वैचारिक शक्तियां एक अस्थायी एकता में समाज को बदलने का प्रयोग करें, यही विचार ग्रामसी के विश्लेषण का केन्द्रीय विचार है। ग्रामसी ने अपने जीवन के प्रारम्भिक समय में तो इसे प्रभुत्व की एक प्रणाली के रूप में ही प्रयोग किया था, लेकिन उसका राजनीतिक व्यवहार प्राधान्य की भावना से घनिष्ठ रूप से जुड़ा होने के कारण इस विचार का पोषक है कि प्राधान्य एक संस्था है। सस्था के रूप में राज्य का अर्थ मजदूरों को नए राज्य के निर्माण के लिए प्रशिक्षित करना है। फैक्टरी काउंसिल इसी सन्दर्भ में प्राया करती हैं। ये वास्तव में क्रान्ति के विचार को चेतना के द्वारा समभव बनाने के लिए प्रयासरत् होती हैं।

अंतोनियो ग्रामसी का यह विचार लेनिन की तरह 1926 तक वर्ग नेतृत्व के रूप में पोषित होता रहा जिसमें मजदूर वर्ग को अपना स्वतन्त्र राजनीतिक स्वरूप विकसित करना माना गया। लेकिन ‘Prison Notes’ में उनकी धारणा में परिवर्तन आया और उसने प्राधान्य को नए रूप में विकसित किया, अब ग्रामसी ने प्राधान्य को समूह के नैतिक और बौद्धिक नेतृत्व के रूप में मान्यता प्रदान की। परमाधिकार की अवधारणा के नेतृत्व के रूप में अब प्राधान्य का विचार समूह के नैतिक और बौद्धिक नेतृत्व के विचार के साथ-साथ प्रभुत्व का उत्पीड़क स्वरूप का भी पोषक बन गया। यह विचार ग्रीक काल्पनिक कथा के आधे जानवर (अवपीड़क का प्रतिनिधित्व) तथा आधे मानव (प्रभुत्व का प्रतिनिधित्व) की सहायता से पोषित किया गया है।

ग्रामसी का कहना है कि एक वर्ग के विकास में तीन पहलू आथिक, सामूहिक और अधिपत्यात्मक होते हैं। इस दृष्टि से प्राधान्य ही नेतृत्व है तथा अन्य वर्गों के बुद्धिजीवियों की सहमति ही इसका आधार है। ग्रामसी ने आगे कहा है कि प्राधान्य या प्रभुत्व दो प्रकार का हो सकता है। प्रथम रूप में तो यह सर्वहारा वर्ग की एक ऐसी युक्ति हो सकता है जिसके द्वारा सर्वहारा वर्ग नए राज्य का निर्माण कर सकता है। दूसरे रूप में यह राज्य का एक भाग हो सकता है, राज्य के एक भाग के रूप में प्राधान्य या प्रभुत्व का कार्य है-शासक वर्ग के लिए सहमति अर्जित करना। ग्रामसी ने कहा है तुरिन काउंसिल आन्दोलन ने प्राधान्य की अवधारणा का ही पोषण किया है। इस आन्दोलन में शासक वर्ग ने अपने अधीनस्थ वर्ग पर अपना प्राधान्य कायम रखने क ेलिए सहमति प्राप्त की। इस काम में बुद्धिजीवियों की भूमिक शासक वर्ग के पक्ष में ही रही। बुद्धिजीवियों के सहयोग से शासक वर्ग की विश्व दृष्टि ने समस्त समाज को आत्मसात् कर लिया।

ग्रामसी ने कहा है कि अब तक वे विश्व इतिहास का अध्ययन करने से यह बात सर्वविदित हो जाती है कि आज तक के जन आन्दोलन बुर्जुआ समाज के पक्ष में ही रहे हैं। जब तक सांस्कृतिक प्राधान्य बुर्जुआ वर्ग के हाथों में रहेगा, तब तक सर्वहारा क्रान्ति असम्भव है। सर्वहारा वर्ग को अपना प्राधान्य स्थापित करने के लिए संकीर्ण हितों से ऊपर उठकर कार्य करना चाहिए। इसे समस्त समाज के हितों का संरक्षक बनने का प्रयास करना चाहिए। जब तक सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवी सक्रिय रूप से राजनीतिक सहभागिता अदा नहीं करेंगे तब तक उनका हित होने वाला नहीं है। ग्रामसी ने कहा है कि दलीय संगठन और फैक्टरी काउंसिल भी नागरिक समाज में अपने प्राधान्य के बिना समाजवादी कार्यक्रम को सफल नहीं बना सकती।ग्रामसी ने अपने इस विचार पर जोर दिया है कि सर्वहारा वर्ग अपनी तानाशाही की स्थापना के बिना समाजवाद की स्थापना नहीं कर सकता। किसी भी क्रान्ति के लिए समाज में प्राधान्य को सहमति और दल दोनों की आवश्यकता होती है। सहमति और बल के बिना प्राधान्य का विचार निरर्थक है। प्रत्येक नागरिक समाज में प्राधान्य के लिए संघर्ष आम बात है। समाजवाद की स्थापना के लिए यह संघर्ष आर्थिक और राजनीतिक शक्ति पर अपना अधिकार करने के लिए जरूरी है। कभी-कभी यह नागरिक समाज में राजनीतिक शक्ति प्राप्त करने के बाद भी जारी रहता है। यही प्राधान्य के विचार का सार है।

इस प्रकार ग्रामसी ने प्राधान्य की अवधारणा को विश्व-क्रान्ति के विचार से जोड़ा है। उसने बुद्धिजीवियों के विचार को इस अवधारणा से जोड़कर समाजवाद का मार्ग तैयार किया है। उसने इस बात पर विशेष जोर दिया है कि सर्वहारा वर्ग के बुद्धिजीवियों के निर्माण के बिना विश्व क्रान्ति द्वारा समाजवाद की बात करना निरर्थक है। राज्य-शक्ति पर नियन्त्रण का कोई भी तब तक सफल नहीं हो सकता, जब तक नागरिक समाज में प्राधान्य न हो। नागरिक समाज में प्राधान्य ही समाजवादी कार्यक्रम की सफलता का आधार है। इसी विचार के कारण ग्रामसी लेनिन व अन्य समाजवादियों से आगे निकल जाता है।
ग्रामसी के राज्य और नागरिक समाज पर विचार –
ग्रामसी का राज्य का सिद्धान्त उसके द्वारा राज्य और नागरिक समाज के पारस्परिक सम्बन्धों के विश्लेषण पर आधारित है। ग्रामसी और मार्क्स दोनों ने राज्य सम्बन्धी विचारों को नागरिक समाज के सन्दर्भ में पुष्ट किया है। लेकिन मार्क्स और ग्रामसी में इसी बात में भेद है कि मार्क्स ने आर्थिक सम्बन्धों पर अधिक जोर दिया है, जबकि ग्रामसी का जोर अधिरचना पर है। ग्रामसी की राज्य सम्बन्धी अवधारणा राजनीतिक और दार्शनिक तत्वों के विश्लेषण पर आधारित है। ग्रामसी ने वहां से शुरू किया है, जहां पर लेनिन ने छोड़ा है। ग्रामसी का मानना है कि राज्य में राजनीतिक और नागरिक समाज दोनों शामिल हैं।

राज्य सम्बन्धी विचारों का विश्लेषण करने के बाद इटली के सन्दर्भ में अपना मत प्रस्तुत करते हुए कहा है कि इटली का राज्य कभी भी लोकतन्त्रीय नहीं था बल्कि निरंकुश और पुलिस राज्य की तरह था। यह मजदूर और कृषक वर्ग के विरूद्ध पूंजीपति वर्ग था उद्योगपति वर्ग की तानाशाही थी। यद्यपि उसका यह विश्लेषण इटली के एकीकरण से पूर्व का है। ग्रामसी का कहना है कि इटली के सभी राज्य स्वतन्त्र रहे क्योंकि बुर्जुआ लोग उन्हें एक करने में असफल रहे। मैकियावेली द्वारा किए गए एकीकरण के सारे प्रयास व 19वीं सदी के अन्त के अन्य प्रयास भी असफल रहे, ग्रामसी ने कहा है कि 19वीं सदी के बाद इटली का एकीकरण का प्रमुख कारण अन्तर्राष्ट्रीय प्रशासन था।

ग्रामसी ने अपने विश्लेषण में कहा है कि राज्य शोषण का यन्त्र होने के साथ-साथ सभी सैद्धान्तिक और व्यवहारिक क्रिया-कलापों का जटिल समूह है जिसके द्वारा शासक वर्ग शासितों पर अपने शासन या आधिपत्य को न्यायोचित ठहराता है और उनकी सहमति प्राप्त करने का भी प्रयास करता है। ग्रामसी ने आगे कहा है कि शासक वर्ग का आधिपत्य नागरिक समाज के माध्यम से ही सम्भव हुआ है परन्तु यह आधिपत्य सभी समाजों में बराबर नहीं रहा है। यदि रुस और पश्चिमी यूरोप के अन्य देशों की तुलना की जाए तो रुस में राज्य ही सब कुछ रहा है जबकि पश्चिम में राज्य और नागरिक समाज में अच्छे सम्बन्ध रहे हैं। जब रुस में राज्य को झटका लगा तो नागरिक समाज का उदय हुआ। ग्रामसी का यह विश्लेषण दो विभिन्न प्रकार के राज्यों के बारे में ज्ञान करा देता है। ग्रामसी ने आगे कहा है कि लेनिन का राज्य सम्बन्धी मॉडल पश्चिमी के सन्दर्भ में अनुपयुक्त ही रहा है। पश्चिमी के विकसित देशों में रुस की तरह संक्रमणकालीन वह माध्यम है जो पाश्चात्य जगत के विकसित देशों में क्रान्ति लाई जा सकती है।

ग्रामसी ने हीगल की तरह नागरिक समाज की अवधारणा में अपना विश्वास व्यक्त करते हुए कहा है कि राज्य नागरिक और राजनीतिक समाज का योग है। ग्रामसी ने नागरिक समाज को भी एक अधिसूचना के रूप में लिया है। कई बार तो ग्रामसी ने नागरिक समाज को राजनीति और अर्थव्यवस्था के बीच मध्यस्थता तथा आर्थिक संरचना को राज्य के बीच कानून द्वारा दबाव डालने वाला बताया है। ग्रामसी ने कहा है कि नागरिक समाज का सबसे महत्वपूर्ण कार्य संस्कृति से सम्बन्धित है। उसी कारण ग्रामसी लेनिन व मार्क्स से आगे निकल जाता है। कई बार ग्रामसी ने तानाशाही और प्राधान्य (Hegemony) को समान माना है और राज्य को भी उसी श्रेणी में खड़ा किया है। उसने राज्य और नागरिक समाज को भी समान माना है। इतना होने के बावजूद भी ग्रामसी राज्य और नगरिक समाज के गहरे रिश्ते से परिचित था और फासीवाद के अन्तर्गत तो इनके सम्मिश्रण से भली-भांति अवगत था। लेकिन उन्होंने राज्य और नागरिक समाज में अन्तर भी किया है जो उदारवादी धारणा में अधिक स्पष्ट है। राज्य और नागरिक समाज में मुख्य अन्तर यही है कि नागरिक समाज निजी है, जबकि राज्य राजनीतिक समाज का प्रतिनिधि है।

ग्रामसी ने अपने विश्लेषण में आगे कहा है कि प्राधान्य की अवधारणा का अर्थ ही यह है कि सांस्कृतिक, राजनीतिक और शैक्षिक आदि सभी क्षेत्रों में परिवर्तन हो। ग्रामसी ने कहा है कि प्राधान्य आर्थिक भी होना चाहिए। इसी दृष्टि से रुस की क्रान्ति पूर्ण क्रान्ति नहीं कही जा सकती, क्योंकि इसमें नागरिक समाज और राज्य का समायोजन नहीं था। कभी-कभी ग्रामसी ने यह भी कहा है कि नागरिक समाज राजनीति और अर्थव्यवस्था में मध्यस्थ का कार्य करता है। ग्रामसी ने आगे यह भी कहा है कि सर्वहारा वर्ग का राजसत्ता पर नियन्त्रण नागरिक समाज के माध्यम से ही सम्भव है। ग्रामसी का मानना हे कि जब नागरिक समाज द्वारा राजनीतिक समाज पर पूर्ण अधिकार हो जाएगा तो वही वर्ग विहीन समाज की स्थिति होगी।
ग्रामसी के दल तथा राजनीति पर विचार –
राजनीति शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग अरस्तु द्वारा अपनी पुस्तक ‘The Politics’ में किया गया था। अरस्तु ने इसका प्रयोग ‘राज्य’ के रूप में किया था। लेकिन कालान्तर में यह राज्य व सरकार की प्रत्येक समस्या से सम्बन्धित हो गया, चाहे वह समस्या सामाजिक और आर्थिक क्यों न हो। इटली में ‘राजनीति’ शब्द को नया आयाम देने का श्रेय मैकियावेली को प्राप्त हुआ मैकियोवेलियन राजनीति नैतिकता विहिन तथा अवसरवादिता पर आधारित नया पदबन्ध है जो राजनीति के नकारात्मक पक्ष पर अधिक जोर देती है। मैकियावेली की प्रसिद्ध पुस्तक ‘The Prince’ राजनीतिक विचारधारा तथा राजनीतिविज्ञान को काल्पनिक आधार पर एकसूत्र में बांधती है। यह प्रयास आधे जानवर और आधे मानव की परिकल्पना पर आधारित है।

ग्रामसी ने मार्क्स के प्रति अपना लगाव प्रकट करते हुए उसके सामाजिक परिवर्तन के सिद्धान्त को अपनी ‘राजीनीति’ की अवधारणा का आधार बनाया है। ग्रामसी की दृष्टि में दर्शन और राजनीति में अटूट सम्बन्ध है। ग्रामसी का कहना है कि यदि दर्शन वास्तविक है तो उसे राजनीतिक भी होना चाहिए। उसने दर्शन और राजनीति में सम्बन्ध स्थापित करने के बाद राजनीति को परिभाषित करते हुए कहा है-’’सभी क्रियाकलाप प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप में विश्व की एक या अधिक धारणाओं के निर्माण सम्बन्धित है और एक या अनेक धारणाओं में भागेदारी रखते हैं, राजनीति के अन्तर्गत शामिल हैं।’’ इसी आधार पर ग्रामसी परेकसी के दर्शन को राजनीति और दर्शन दोनों मानता है। उसका मानना है कि परेकसी का दर्शन (मार्क्सवाद) राजनीति भी है और राजनीति एक दर्शन भी है। ग्रामसी ने कहा है कि दर्शन के रूप में राजनीति का कार्य यह सोचना भी है कि उसे कैसा होना चाहिए ताकि वह निश्चित लक्ष्य तक पहुंच सके। अपने यथार्थ रूप में इसी कारण दर्शन को राजनीति से अलग नहीं किया जा सकता। जागरूक व्यक्ति ही वातावरण को समझकर उसमें परिवर्तन ला सकता है अर्थात् उसे लक्ष्य के अनुकूल बना सकता है। कानून भी राजनीति के क्षेत्र में ही आता है जो शासन कला से सम्बन्धित है और लोगों पर शासक का शासन आसान बनता है। इसी कारण राजनीति या राजनीतिक क्रियाकलाप एक जैविक विकसित विद्या है जिसे हमेशा नई-नई चुनौतियों का सामना करना पड़ता है और समयानुसार सरंचना में परिवर्तन भी करने पड़ते हैं ताकि समाज का पुनर्निर्माण किया जा सके। इसी अर्थ में राजनीतिक दल को भी संगठनात्मक और राजनीतिक दोहरे कार्य करने पड़ते हैं।

ग्रामसी ने मार्क्सवाद का विश्लेषण करते हुए कहा है कि दर्शन राजनीति और अर्थशास्त्र मार्क्सवाद के तीन तत्व हैं। मनुष्य और पदार्थ में गतिरोध द्वन्द्वात्मक हैं। भाषिकी विकास के रूप में मार्क्सवाद के तीनों तत्व एकीकार हो जाते हैं। दर्शन वह साधन है जो मानव इच्छा तथा आर्थिक दशा के बीच में सम्बन्ध स्थापित करता है। यह सरंचना और अधिरचना के बीच में भी एकता लाता है। अर्थशास्त्र में कार्यकर्त्ताओं और औद्योगिक-उत्पादक शक्तियों में सम्बन्ध मूल्यों द्वारा नियन्त्रित किया जाता है। राजनीति में राज्य और समाज के बीच सम्बन्ध ही संतुलन का आधार होता है। राजनीति शासक और शासित दो कोटियों पर ही आधारित है। यह नेता तथा नेतृत्व पर भी आधारित है। नेता और नेतृत्व भाषिकी अन्त:क्रिया पर आधारित है। इसमें दल की प्रकृति राज्य की प्रकृति का ही मूल अवयव है। राज्य प्रकृति के एक विचारधारा और निश्चित लक्ष्य का समायोजन दल प्रकृति में ही सम्भव है। इसी सन्दर्भ में राजनीति, अर्थशास्त्र और सामाजिक संगठन एक सम्पूर्ण का निर्माण करते हैं और राजनीति मनुष्य को, जैसा वह है और निश्चित लक्ष्य को प्राप्त करने के लिए जैसा उसे होना चाहिए, उसकी कल्पना करती है। इसलिए वास्तविक दार्शनिक वही है जिसे राजनीति का ज्ञान है।

ग्रामसी ने अपने विश्लेषण को फासीवाद पर आधारित करते हुए भी यह निष्कर्ष प्रस्तुत किया है कि फासीवाद इटालियन समाज के अन्तर्विरोधों को हल करने में असफल रहा। उसने आगे कहा कि समाज की महत्वपूर्ण समस्याओं का हल तो राजनीति की गतिशील और स्वायत्त प्रकृति में ही सम्भव है। ग्रामसी ने क्रोसे द्वारा मार्क्स की दी गई व्याख्या को सही बताते हुए स्वीकार किया कि ‘सर्वहारा वर्ग का मैकियावेली’ बनकर ही सामाजिक ढांचे का पुनर्निर्माण सम्बन्ध है। इसी सन्दर्भ में गा्रमसी ने इटली की तत्कालीन दशा का विश्लेषण किया और अपनी रचना ‘Prison Notes’ में मैकियावेली के सिद्धान्तों को स्वीकार किया। उसने कहा कि मैकियावेली का सबसे महान कार्य राजनीति को नीति-शास्त्र से अलग करना रहा है। इसी सन्दर्भ में ग्रामसी ने दल को ही आधुनिक राजकुमार कहा है। उसकी दृष्टि में दल बुद्धिजीवी समाज का एक संगठन है जिसमें सामूहिक इच्छा के रूप में व्यक्ति की इच्छा का लोप हो जाता है। दल ही श्रम संघवादी प्रभुत्व को स्थापित करने के लिए तथा सभ्य समाज की मांगों को पूरा करने के लिए जन समुदायों में राजनीतिक चेतना का समावेश करता है, दल एक वर्ग के लिए एक नामतन्त्र है जो किसी भी दल को इतिहास, समाज तथा राज्य के जटिल चित्रांकन से प्रकट होता है।

राजनीतिक दल अपने वर्ग के हितों के प्रति न तो आंख मूंद सकता है और न ही यह सम्भव है। उसके तीनों तत्व-विश्वसनीय सैनिक, नयक और कप्तान, उसे चैन से नहीं बैठने दे सकते। फासीवाद में पाई जाने वाली दलीय स्वायत्तता ही समाज के अन्त:विरोधों को दूर करने में असफल रही है और इसी कारण उसका जल्दी पतन हो जाएगा। इसके विपरीत मार्क्स के क्रान्ति के विचार में दलीय अनुशासन का महत्व कभी कम नहीं होगा। इसी कारण ग्रामसी ने अपनी दल सम्बन्धी अवधारणा का निर्माण मैकियावेली, मार्क्स और लेनिन के विचारों के अध्ययन के आधार पर किया है जिसके अन्तर्गत राजनीतिक दल श्रमिक या सर्वहारा वर्ग को नेतृत्व का यन्त्र है और वह बुर्जुआ वर्ग का अन्त करता है। इस कार्य में ग्रामसी बुद्धिजीवी वर्ग की भूमिका को महत्वपूर्ण मानता है। उसका मानना है कि इस वर्ग के बिना न तो सर्वहारा वर्ग को संगठित किया जा सकता है और न ही किसी क्रान्ति की आशा की जा सकती है।

ग्रामसी का दल के बारे में यह विचार है कि दल को अपना नाम सार्थक करने के लिए सांस्कृतिक और राजनीतक दोहरे कार्य करने पड़ते हैं। आधुनिक युग में समय की आवश्यकता ने दलों का गुटों में विभाजन अपिरहार्य कर दिया है। जिन देशों में एक ही दल है वहां दल के कार्य राजनीतिक होने के साथ-साथ तकनीकी भी हो जाते हैं। जहां पर दलों के परोक्ष चरित्र हैं, वहां पर दल शुद्ध रूप में शैक्षणिक, नैतिक और सांस्कृतिक समुदाय के रूप में ही कार्य करते हैं। इस दृष्टि से दल दो प्रकार के मालूम पड़ते हैं-पहला दल वह जिसका निर्माण सास्कृतिक मनुष्यों का विशिष्ट वर्ग करता है। इनका कार्य आपस में समान विचारधारा वाले दलों के महान आन्दोलन को सांस्कृतिक और सामान्य विचारधारा के क्षेत्र में नेतृत्व प्रदान करना है। दूसरा दल आधुनिक युग में किसी बुद्धिजीवी वर्ग के द्वार निर्मित न होकर जन समूहों की राजनीतिक केन्द्र के प्रति सामूहिक वफदारी की देन होता है। दल के निर्माण व स्थापना की निश्चित तिथि की बात करना तो मूर्खतपूर्ण प्रश्न है, दल के अस्तित्व के लिए तो निश्चित रूप से कुछ-न-कुछ अवश्य कहा ही जा सकता है।

ग्रामसी का कहना है कि दल का अस्तित्व-जन तत्व, संयोजक तत्व और अन्तर्राष्ट्रीय तत्वों पर आधारित है। जन तत्व में साधारण और औसत व्यक्ति शामिल हैं, जिनकी भागीदारी अनुशासन और निष्ठा का रूप लेती है। यह तत्व राजनीतिक दृष्टि से प्रभावहीन है। दूसरा तत्व संयोजक तत्व है जो राष्ट्रीय स्तर पर केन्द्रीयकरण करता है और अनुशासन का तत्व दल में लाता है। तीसरा तत्व अन्तर्राष्ट्रीय तत्व है जो पहले तत्व को दूसरे तत्व से जोड़ता है। ग्रामसी ने दल सम्बन्धी विश्लेषण में यह बात भी जोड़ी है कि दल को मजदूर वर्ग का एक भाग होना चहिए ताकि फासीवाद के विरूद्ध एक संगठित ढांचा खड़ा किया जा सके। अत: ग्रामसी ने इटली की तत्कालीन परिस्थितियों में दल को बहुत महत्व दिया है।
ग्रामसी द्वारा फासीवाद का विश्लेषण –
फासीवाद का विश्लेषण ग्रामसी का राजनीतिक चिन्तन को महान योगदान है। ग्रामसी ने इटली, स्पेन, पुर्तगाल, पोलैण्ड, बाल्कान आदि देशों के राजनीतिक दलों व विचारधाराओं का अध्ययन करने के बाद निष्कर्ष निकाला कि फासीवाद इटली व अन्य देशों में जटिल सामाजिक व राजनीतिक समस्याओं का समुचित समाधान निकालने में असफल रहा है। इसमें विश्व दृष्टि का भी नितान्त अभाव है। इटली में फासीवाद का आगमन भी पूंजीवाद की तरह ही अपूर्ण परिस्थितियों का परिणाम है। फासीवाद के आगमन का कोई निश्चित क्रम नहीं हे। इटली में पूंजीवाद का आगमन सर्वहारा वर्ग की क्रान्ति का परिणाम न होकर विश्वयुद्ध का परिणाम है। इसी कारण इटली में पूंजीवाद व फासीवाद दोनों अपूर्ण हैं। इसी कारण इटली में विशेष वर्ग के प्राधान्य ने प्राधान्य या प्रभुत्व का संकट भी पैदा किया है। फासीवाद शक्ति पर आधारित दर्शन होने के कारण प्राधान्य के संकट से जुझ रहा है। इसी कारण फासीवाद एक निष्क्रिय क्रान्ति है जो इटली को आधुनिक बनाने और इसकी अर्थव्यवस्था का पुर्ननिर्माण करने में असफल रही है। इसके विपरीत रुस में मार्क्सवाद एक पूर्ण व सक्रिय क्रान्ति होने के कारण वहां की अर्थव्यवस्था का पुर्ननिर्माण करने में सफल रहा है। फासीवाद ग्रामीण तुच्छ बुर्जुआ और शहरी पूंजीपति के गठजोड़ से उत्पन्न हुआ है इसी कारण विश्व दृष्टि के अभाव में इटली का एकीकरण भी कमजोर पड़ा और इटली की राजनीतिक दशा कमजोर व अस्थायी रहा। इसलिए फासीवाद न केवल इटली से बल्कि विश्व से भी अपनी अल्पायु में चल बसा।

अपने फासीवाद के विश्लेषण ने ग्रामसी ने तीन सामान्य अवधारणाएं भी विकसित की हैं-I. सीजेयरवाद (Caesarism), II. संघर्ष का युद्ध (War of Attrition), III. निष्क्रिय क्रान्ति (Passive Revolution) सीजेयरवाद एक ऐसी अवस्था का प्रतीक है जिसमें अज्ञात शक्तियों द्वारा राजनीतिक प्रभुत्व स्थापित करके प्राधान्य की संकटकालीन व्यवस्था में स्थिर संतुलन कायम किया जाता है। यह सामान्य राजनीति के तहत वैधीकरण की प्रक्रिया के तहत ही होता है। ग्रामसी ने फासीवाद को संघर्ष का युद्ध कहते हुए इसे ‘आन्दोलन के युद्ध’ से अलग किया हैं उसका कहना है कि आन्दोलन के युद्ध में सैनिक शक्ति के द्वारा राजनीतिक शक्ति पर एकाधिकार की प्रद्धति पाई जाती है। 1917 की नवम्बर क्रान्ति इसी का उदाहरण है। ग्रामसी ने ट्राटस्की की निरन्तर क्रान्ति की अवधारणा का विरोध करते हुए कहा है कि निरन्तर क्रान्ति का विचार तो उस स्थिति में ही ठीक था जब राजनीतिक दलों और आर्थिक संघों की संख्या अधिक नहीं थी। इसलिए ग्रामसी ने फासीवाद को निष्क्रिय क्रान्ति की अवधारणा से पुष्ट किया। ग्रामसी ने कहा है कि निष्क्रिय क्रान्ति की अवधारणा प्रत्यक्ष कार्यवाही की समर्थक नहीं है। यह स्थिति के युद्ध (War of Position) की समर्थक हो सकती है। निष्क्रिय क्रान्ति की अवधारणा व्यूह रचना के युद्ध के प्रतिकूल है। इसी कारण फासीवाद की यथास्थिति का ही समर्थक रहा है। उसने परिवर्तन के किसी भी विचार का विरोध किया है।

इस तरह ग्रामसी ने फासीवाद का व्यापक विश्लेषण किया और उसे इटली की तत्कालीन समस्याओं का समाधान कर पाने में प्रतिकूल बताया, इसलिए ग्रामसी की फासीवाद सम्बन्धी विचाधारा राजनीतिक चिन्तकों के लिए आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है। ग्रामसी को इसी कारण फासीवाद का प्रामाणिक व्याख्याकार भी माना जाता है।
अंतोनियो ग्रामसी का आलोचनात्मक मूल्यांकन
उपरोक्त विचारों का अध्ययन व विश्लेषण करने के बाद यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि ग्रामसी असाधारण प्रतिभा व वामपंथी दार्शनिक चिंतक है। मार्क्सवादी इतिहासकार ई0जे0 हाब्सबाम ने ग्रामसी को पश्चिमी यूरोप में 20वीं सदी का का सम्भवता सर्वाधिक मौलिक साम्यवादी विचारक माना है। अन्य विचारकों ने भी ग्रामसी को ऐसा उग्र-साम्यवादी विचारक कहा है जिनके व्यक्तित्व और कृतित्व में विचार और आचरण अर्थात् सिद्धान्त और व्यवहार का सुन्दर समन्वय देखने को मिलता है। इटली के सर्वहारा वर्ग के प्रति उनकी चिन्ता और श्रमिक आन्दोलनों में उनकी सक्रिय सहभागिता में उनके चिन्तन को यथार्थवादी और व्यवहारिक धरातल पर प्रतिष्ठित किया है। इतिहास, संस्कृति, शिक्षा, दर्शन और सामाजिक समस्याओं के प्रति ग्रामसी का मार्क्सवादी दृष्टिकोण उन्हें उग्र-साम्यवादी बना देता है। कलोकोवास्की ने ग्रामसी को लेनिन के बाद साम्यवादी परम्परा का महत्वपूर्ण राजनीतिक विचारक माना है। यद्यपि ग्रामसी ने मार्क्सवादी दर्शन को बदलती परिस्थितियों और बदलते परिवेश के अनुसार विकसित किया लेकिन फिर भी उनकी आलोचना की गई है।

ग्रामसी की पुस्तक ‘Prison Notes’ के प्रकाशन के तुरन्त बाद राजनीतिक समीक्षकों व आलोचकों ने ग्रामसी पर आरोप लगाया कि ग्रामसी स्वतन्त्र या मौलिक क्रान्तिकारी लेखक नहीं बल्कि कट्टर लेनिनवादी व मार्क्सवादी है। कुछ अन्य आलोचकों ने उन्हें हीगेलियन या समाज लोकतांत्रिक माना। ग्रामसी को बेनेदित्तो क्रोसे की परम्परा का आदर्शवादी विचारक भी कहा जाता है जो मार्क्सवाद का विरोधी और संशोधनवाद का समर्थक भी माना जाता है। ग्रामसी के राजनीतिक चिन्तन की आलोचना के प्रमुख आधार हैं-
ग्रामसी की बुद्धिजीवियों, दल और राज्य सम्बन्धी अवधारणाओं ने विभिन्न विरोधाभासों को जन्म दिया है। उनका लोकतांत्रिक केन्द्रवाद पर जोर और उनकी प्राधान्य संघर्ष सम्बन्धी अवधारणा उसे सुधारवादी, सामाजिक प्रजातन्त्रवादी और नव-मार्क्सवादी बना देती हैं।
ग्रामसी ने मार्क्सवाद को हीगेलियन तरीके से समझने का प्रयास किया है। मार्क्स व एंजिल्स को हीगेलवादी तरीके से उसका समझने का प्रयास गलत है। उसने इतिहास और द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद को भी ऐतिहासिक भौतिकवाद के अनुरूप मानकर भारी गलती की है।
हीगलवादी दार्शनिक क्रोसे के प्रभाव में आकर ग्रामसी ने इतिहास पर अधिक जोर दिया है इससे राजनीतिक दर्शन व चिन्तन के अन्य पहलूओं की उपेक्षा हुई है।
कुछ विचारकों ने ग्रामसी को इटालियन साम्यवादल दल (PCI) में उनकी भूमिका के कारण बुर्जुआ समाज का पोषक भी कहा है।
रोजा ने ग्रामसी के विचारों का विश्लेषण करने के बाद उसे कृषक हितों का पोषक कहा है। कुछ अन्य विचारकों ने उसको लेनिन की तरह पेशेवर क्रान्तिकारियों का समर्थक विचारक माना है जो उनकी बुद्धिजीवियों की अवधारणा से मेल खाता है।
इसलिए अंतोनियो ग्रामसी को हीगेलियन मार्क्सवादी, सामाजिक प्रजातन्त्रवादी तथा लेनिनवादी कहकर अनेक आपेक्ष लगाए गए। लेकिन इसका तात्पर्य यह नहीं है कि ग्रामसी का कोई महत्व नहीं है। ग्रामसी ही एकमात्र ऐसा विचारक रहा है जिसने इटालियन समाज को विश्व मानचित्र पर संगठित राष्ट्र के रूप में उभारने के लिए व्यावहारिक व यथार्थवादी विचारों का पोषण किया है। उसने मार्क्सवाद को इटली की परिस्थितियों के अनुकूल ढालकर सामाजिक परिवर्तन का मार्ग तैयार किया है। इसी कारण उसे नव-साम्यवादी और आधुनिक मानवतावादी विचारक कहा जाता है। वह अपने जीवन के अन्तिम क्षणों तक अपने सिद्धान्तों और व्यवहार की एकरूपता का पोषण करने में ही लगा रहा। इसके मार्क्सवादी दर्शन के कारण उन्हें लेनिन व मार्क्स का सच्चा उत्तराधिकारी माना जा सकता है। उनके चिन्तन ने विश्व क्रान्ति की जो आशाएं जगाई हैं, वह उसका महान योगदान है। अत: ग्रामसी एक ऐसा राजनीतिक चिन्तक व दार्शनिक है जो राजनीतिक चिन्तन के इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखता है।

 

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