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‘जॉन रीड, तीसरे इंटरनेशनल के प्रतिनिधि, 1920’ : एक जीवनी

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'जॉन रीड, तीसरे इंटरनेशनल के प्रतिनिधि, 1920' : एक जीवनी
महान कृति ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ के लेखक जॉन रीड की जीवनी

पहला अमरीकी नगर, जहां मजदूरों ने सबसे पहले कोल्चाक की सेना के लिए फौजी साज-सामान लादने से इनकार किया, प्रशांत महासागर के तट पर स्थित पोर्टलैंड नगर था. इसी नगर में 22 अक्तूबर, 1887 को जॉन रीड का जन्म हुआ था.

उनके पिता उन पोढ़े शरीर और उदार मन वाले पुरोगामियों में थे, जिनका वर्णन जैक लंडन ने पश्चिम अमरीका के बारे में अपनी कहानियों में किया है. वह प्रखर मस्तिष्क के व्यक्ति थे, जिन्हें पाखंड तथा छल-प्रपंच से चिढ़ थी. प्रभावशाली तथा सम्पत्तिशाली व्यक्तियों का पक्ष लेने के बजाय उन्होंने उनका विरोध किया, और जब बड़ी-बड़ी कम्पनियों ने पसर कर राज्य के जंगलात तथा अन्य प्राकृतिक संपदाओं को अपने चंगुल में ले लेना चाहा, उन्होंने उनसे जबर्दस्त मोर्चा लिया. उन पर हजार जुल्म ढाये गये, उन्हें मारा-पीटा गया और बार-बार काम से निकाल दिया गया, लेकिन उन्होंने दुश्मन के सामने कभी घुटने नहीं टेके.

इस प्रकार अपने पिता से जॉन रीड को एक खासी अच्छी बपौती मिली – एक योद्धा का रक्त, जो उनकी शिराओं में प्रवाहित था, आला दर्जे का दिमाग और दृढ़, साहसपूर्ण भावना. जॉन रीड की प्रतिभा का विकास शीघ्र ही हुआ. हाई स्कूल पास कर वह आगे पढ़ने के लिए हारवर्ड गए. हारवर्ड विश्वविद्यालय तैलाधीशों, कोयला-शाहों तथा इस्पात-सम्राटों के बेटों का विश्वविद्यालय है. वे जानते थे कि जब चार साल के खेल-कूद, आमोद-प्रमोद तथा ‘भावशून्य विज्ञान के भावशून्य अध्ययन’ के बाद उनके बेटे घर लौटेंगे, वे उग्र विचारों के कलुष से सर्वथा मुक्त होंगे. और सचमुच अमरीका के हजारहा नौजवान कालेजों और यूनिवर्सिटियों में इसी प्रकार मौजूदा व्यवस्था के हिमायतियों – प्रतिक्रिया के सफेद गार्डों – के रूप में शिक्षित-दीक्षित होते हैं.

जॉन रीड ने हारवर्ड में चार साल बिताये, जहां उनकी व्यक्तिगत प्रतिभा तथा आकर्षक स्वभाव के कारण सभी उनसे स्नेह करते थे. विशेषाधिकार-संपन्न वर्गों की संतान के साथ उनका रोज का रब्त-जब्त था. उन्होंने समाजशास्त्र के शिक्षकों के शब्दाडंबरपूर्ण भाषण सुने. उन्होंने पूंजीवाद के राजपुरोहितों, अर्थशास्त्र के प्राध्यापकों के उपदेशपूर्ण व्याख्यान सुने. और सब कुछ के बाद उन्होंने धनिकतंत्र के उस गढ़ में, उसके ऐन केंद्र में एक समाजवादी क्लब का संगठन किया. कूढ़मग्जों के मुंह पर यह एक करारा तमाचा था. बड़े-बूढ़ों ने यह सोचकर संतोष कर लिया कि यह बस एक लड़कपन वाली धुन है, और कुछ नहीं. उन्होंने कहा, ‘उसने कालेज छोड़कर संसार में प्रवेश किया नहीं कि उसके ये गरम विचार ठंडे पड़ जायेंगे.’

जॉन रीड लिखित विख्यात पुस्तक ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ का मुख्य पृष्ठ

जॉन रीड ने अपनी पढ़ाई खत्म की, अपनी डिग्री हासिल की, व्यापक संसार में प्रवेश किया और देखते-देखते उसे जीत लिया. उन्होंने उसे अपनी जिंदादिली और जोश से, अपनी कलम के जोर से जीत लिया. अभी जब वह विद्यार्थी ही थे, उन्होंने हास्य रस की एक छोटी सी पत्रिका Lampoon (व्यंग्यलेख) के संपादक के रूप में यह प्रमाणित कर दिया कि वह हास्यपूर्ण, ललित शैली में पूरे पारंगत हैं. उनकी लेखनी से कविताओं, कहानियों, नाटकों की एक अजस्र धारा प्रवाहित हुई. प्रकाशकों के प्रस्तावों की एक बाढ़ सी आ गई; सचित्र पत्रिकाओं ने उनकी रचनाओं के लिए मुंहमांगे पारिश्रमिक दिये और बड़े-बड़े अखबारों ने उनसे अंतर्राष्ट्रीय गतिविधि का पर्यवेक्षण करने का आग्रह प्रगट किया.

इस प्रकार वह संसार के राजमार्गों के पथिक बन गये. जो लोग भी संसार की समकालीन गतिविधि से परिचित रहना चाहते थे, उनके लिए जॉन रीड के लेखों पर नजर रखना ही पर्याप्त था, क्योंकि प्रभंजन पक्षी की तरह वह सदा वहीं दौड़कर पहुंचते, जहां तूफानी घटनायें हो रही होतीं.

पीटरसन में सूती मिल मजदूरों की हड़ताल ने बढ़कर एक क्रांतिकारी तूफान का रूप धारण कर लिया. जॉन रीड उस तूफान में पिल पड़े.

कोलोराडो के खनन-क्षेत्र में राकफेलर के गुलाम अपनी ‘बिलों’ से निकल आये और हथियारबंद रक्षकों की लाठी-गोली के बावजूद उन्होंने उनमें वापस जाने से इनकार किया. विद्रोहियों की हिमायत में जॉन रीड वहां भी पहुंचे.

मेक्सिको में किसानों ने बगावत की और पान्वो बिल्ला के नेतृत्व में राजधानी की ओर बढ़े. घोड़े पर सवार जॉन रीड उनके साथ थे.

इस कारनामे का विवरण Metropolitan (महानगर) में और बाद में ‘क्रांतिकारी मेक्सिको’ नामक पुस्तक में प्रकाशित हुआ. रीड ने लाल, गेरू के रंग की पहाड़ियों और ‘चारों ओर से विशाल नागफनियों से रक्षित’ रेगिस्तानी मैदानों का वर्णन किया. दूर-दूर तक फैले हुए मैदानों ने, और उनसे भी अधिक वहां की, जमींदारों और कैथोलिक चर्च द्वारा निर्मम रूप से शोषित, आबादी ने उन्हें मुग्ध कर लिया. उन्होंने लिखा कि पहाड़ी चरागाहों में अपने ढोरों को चराने वाले और रात होने पर अलावों के चारों ओर बैठकर गीत गाने वाले ये लोग आजादी की फौज में शामिल होने के लिए बेताब थे, और नंगे पैर, फटे-चीथड़े पहने वे भूख और ठंड की परवाह न कर, आजादी के लिए, जमीन के लिए बड़ी बहादुरी से लड़े.

साम्राज्यवादी युद्ध शुरू हुआ, और जहां तोप के धमाके हो रहे थे, वहीं जॉन रीड भी मौजूद थे. वह फ्रांस, जर्मनी, इटली, तुर्की, बाल्कन प्रदेश यहां तक कि रूस में भी पहुंचे. जार के अफसरों की गद्दारी का पर्दाफाश करने और ऐसे तथ्य संग्रह करने के लिए उनको और प्रसिद्ध कलाकार बोर्डमैन को पुलिस द्वारा हिरासत में ले लिया गया, जिनसे यह साबित हो जाता था कि यहूदियों की संगठित हत्या के कांडों में इन अफसरों का भी हाथ था. लेकिन हमेशा की ही तरह अपनी सूझबूझ, तदबीर, तिकड़म या संयोगवश ही उन्होंने जेल से छुटकारा पाया, और फिर हंसते-हंसते अपने दूसरे साहसिक अभियान में उतर पड़े.

कोई भी खतरा इतना बड़ा न था कि वह उन्हें रोक सकता. खतरे की परिस्थिति उनके लिए स्वाभाविक थी. वह सदा किसी न किसी प्रकार निषिद्ध क्षेत्रों में अथवा मोर्चे की खाइयों में पहुंच जाते.

सितंबर 1917 में जॉन रीड तथा बोरीस रेइनश्तेइन के साथ रीगा के मोर्चे की अपनी यात्रा मुझे याद है. हमारी मोटर-गाड़ी दक्षिण में वेन्देन की ओर जा रही थी, जब जर्मन तोपखाने ने एक छोटे से गांव पर गोले दागने शुरू कर दिये. यकायक वह गांव जॉन रीड की दृष्टि में संसार का सबसे आकर्षक स्थान बन गया ! उन्होंने आग्रह किया कि हम वहां जायें. सावधानी बरतते हुए हम धीरे-धीरे चींटी की चाल से आगे बढ़े. इतने में यकायक हमारे पीछे एक भारी गोला फट पड़ा और सड़क का जो हिस्सा हमने अभी-अभी पार किया था, उसके परखचे उड़ गये और काले धुएं और गर्द-गुबार का जैसे एक फौवारा छूट पड़ा.

हम मारे डर के एक दूसरे को थामे रह गये, लेकिन क्षण भर बाद ही जॉन रीड का चेहरा खुशी से खिल उठा, जैसे अभी-अभी उनकी कोई आंतरिक इच्छा पूरी हुई हो.

इसी प्रकार उन्होंने संसार का ओर-छोर नाप डाला, उन्होंने गैरमामूली जोखिम के एक काम के बाद दूसरे काम में हाथ डालते हुए सभी देशों की यात्रा की, सभी मोर्चों का चक्कर लगाया. परंतु वह जान जोखिम में डालने वाले कोई मामूली आदमी नहीं थे, न ही पर्यटक पत्रकार अथवा दर्शक मात्र थे, जो जनता की मुसीबतों को भावशून्य दृष्टि से देखता है. न्याय तथा औचित्य की उनकी भावना इस सारी गड़बड़ी, गंदगी तथा खूंरेजी से आहत होती थी. वह धैर्यपूर्वक इन बुराइयों की जड़ तक पहुंचने की कोशिश करते थे, ताकि उन्हें समूल नष्ट किया जा सके.

जब वह अपनी यात्राओं से न्यू-यार्क लौटते तो आराम करने के लिए नहीं, नया काम और आंदोलन शुरू करने के लिए.

मेक्सिको से लौटने पर उन्होंने घोषणा की: ‘हां, मेक्सिको में बगावत और गड़बड़ी है, लेकिन उसके लिए जिम्मेदारी किसानों की नहीं, उन लोगों की है, जो रुपये की थैलियां और गोला-बारूद भेजकर झगड़े को बढ़ाते हैं, मतलब यह कि जिम्मेदारी प्रतिद्वंद्वी अमरीकी तथा ब्रिटिश तेल कंपनियों की है.’

पीटरसन से लौटकर उन्होंने मैडिसन स्क्वायर उद्यान के हाल में ‘पूंजी के खिलाफ पीटरसन के सर्वहारा का युद्ध’ नाम से एक जबरदस्त नाट्यप्रदर्शन संगठित किया.

कोलोराडो से लौटकर उन्होंने लुडलो के हत्याकांड का वर्णन किया, जिसकी विभीषिका ने साइबेरिया में लेना-खान की गोलीबारी को भी मात कर दिया. उन्होंने बताया कि किस प्रकार खान-मजदूरों को गर्दनियां देकर उनके घरों से बाहर निकाल दिया गया, किस प्रकार उन्हें तंबुओं में रहना पड़ा, किस प्रकार इन तंबुओं पर पेट्रोल छिड़ककर उनमें आग लगा दी गई, किस प्रकार सिपाहियों ने भागते हुए मजदूरों को अपनी बंदूकों का निशाना बनाया और किस प्रकार दर्जनों स्त्रियां और बालक लपटों में स्वाहा हो गये. करोड़पतियों के मुखिया राकफेलर का संबोधन करते हुए उन्होंने कहा: ‘वे खानें आपकी ही खानें हैं और वे हत्यारे आपके ही भाड़े के टट्टू हैं. आप हत्यारे हैं !’

लड़ाई के मोर्चों से भी जब वह लौटे, उन्होंने इस या उस युद्धरत देश की नृशंसताओं के बारे में कोरी बकवास नहीं की, वरन् उन्होंने घोर पाशविकता के रूप में, विरोधी साम्राज्यवादियों द्वारा संगठित नरमेध के रूप में उस युद्ध को ही धिक्कारा. उग्र क्रांतिकारी पत्रिका, Liberator (मुक्तिदाता) में, जिसको उन्होंने अपनी बेहतरीन रचनाएं बिना एक पैसा लिये दी, उन्होंने ‘अपने सिपाही बेटे के हाथ बांध दो’, यह नारा देते हुए एक प्रचंड साम्राज्यवाद-विरोधी लेख प्रकाशित किया. उन पर और दूसरे संपादकों पर न्यू-यार्क की एक अदालत में राजद्रोह का अभियोग लगाया गया. सरकारी वकील इस बात पर तुला था कि देशभक्तिपूर्ण विचारों की जूरी उन्हें अपराधी करार दे. उसने यहां तक किया कि मुकद्दमे की सुनवाई के दौरान राष्ट्र-गीत की धुन बजाते रहने के लिए अदालत की इमारत के पास एक बैंड पार्टी को तैनात कर दिया ! इसके बावजूद रीड और उनके साथियों ने अपने विश्वासों का पूरी दृढ़ता से समर्थन किया. जब रीड ने साहसपूर्वक कहा कि मैं क्रांतिकारी झंडे के नीचे सामाजिक क्रांति के लिए काम करना अपना कर्तव्य समझता हूं, सरकारी वकील ने जिरह की :

‘आप क्या इस युद्ध में अमरीकी झंडे के नीचे लड़ेंगे ?’

रीढ़ ने दृढ उत्तर दिया:

‘नहीं, मैं नहीं लडूंगा !’ …

‘क्यों नहीं ?’

इस प्रश्न का उत्तर देते हुए रीड ने एक ओजस्वी भाषण दिया, जिसमें उन्होंने उन विभीषिकाओं का वर्णन किया, जो उन्हें मोर्चों पर देखने को मिली थी. यह वर्णन इतना यथार्थ, सजीव तथा मर्मस्पर्शी था कि पूर्वाग्रहों से आविष्ट मध्यवर्गीय जूरी के कुछ सदस्य भी विह्वल होकर रो पड़े और संपादकों को छोड़ दिया गया.

ऐसा हुआ कि जिस समय अमरीका ने युद्ध में प्रवेश किया, उसी समय रीड को आपरेशन कराना पड़ा, जिसके कारण उन्हें अपने एक गुर्दे से हाथ धोना पड़ा. डाक्टरों ने राय दी कि वह सैनिक सेवा के योग्य नहीं हैं.

इस पर जॉन रीड ने कहा कि ‘एक गुर्दे के जाते रहने से मुझे राष्ट्रों के बीच युद्ध में भाग लेने से चाहे छुट्टी मिल जाये, लेकिन उससे वर्ग-युद्ध में भाग लेने से छुट्टी नहीं मिल जाती.’

1917 की गर्मियों में रीड भागे-भागे रूस गये, जहां उन्होंने यह भांप लिया कि शुरूआती क्रांतिकारी मुठभेड़ों का रंग-ढ़ंग ऐसा है कि वे एक विराट वर्ग-युद्ध का आकार ग्रहण कर सकती हैं.

उन्होंने परिस्थिति का मूल्यांकन करने में देर नहीं लगाई और यह समझा कि सर्वहारा द्वारा सत्ता पर अधिकार युक्तिसंगत तथा अनिवार्य था. परंतु क्रांति का मुहूर्त्त बार-बार टल जाने और देर लगने के कारण वह व्यग्र थे. रोज सुबह वह उठते और यह देखकर कि अभी क्रांति शुरू नहीं हुई है, उन्हें खीझ और झुंझलाहट होती. आखिरकार स्मोल्नी ने संकेत दिया और जन-साधारण क्रांतिकारी संघर्ष के लिए आगे बढ़े. यह एक स्वाभाविक बात थी कि जॉन रीड उनके साथ साथ कदम बढ़ाते. वह ‘सर्वविद्यमान’ थे: पूर्व-संसद भंग की जा रही थी, बैरीकेड बनाये जा रहे थे, फरार हालत से निकलने पर लेनिन और जिनोव्येव का स्वागत किया जा रहा था या जब शिशिर प्रासाद का पतन हो रहा था – सभी जगह रीड मौजूद थे …

लेकिन इन सब घटनाओं का उन्होंने अपनी पुस्तक में वर्णन किया है.

एक जगह से दूसरी जगह घूमते हुए, उन्होंने अपनी सामग्री जहां से भी वह प्राप्य थी, संग्रह की. उन्होंने ‘प्राव्दा’ तथा ‘इज्वेस्तिया’ की पूरी फाइलों, सभी घोषणाओं, पैम्फलेटों, पोस्टरों, विज्ञप्तियों को इकट्ठा किया. पोस्टरों के पीछे तो वह पागल थे. जब भी कोई नया पोस्टर निकलता और उसे पाने का कोई और तरीका न होता, तो वह उसे बेहिचक दीवार से फाड़ लेते.

उन दिनों पोस्टर इतनी तेजी से और इतनी बड़ी संख्या में छापे जा रहे थे कि उनके लिए दीवारों पर जगह न रह गयी थी. कैडेटों, समाजवादी-क्रांतिकारियों, मेन्शेविकों, वामपंथी समाजवादी-क्रांतिकारियों और बोल्शेविकों के पोस्टर एक के ऊपर एक इस इस तरह चिपका दिये जाते कि उनकी खासी मोटी परतें बन जाती. एक दिन रीड ने एक के ऊपर एक तह-ब-तह लगाये गये 16 पोस्टरों का एक ढेर दीवार से फाड़कर अलग कर लिया और भागे-भागे मेरे कमरे में आकर कागजों का यह भारी पुलिंदा उछालते हुए बोल पड़े: ‘यह देखो ! मैंने एक ही झपाटे में पूरी क्रांति और प्रतिक्रांति को समेट लिया है !’

इस प्रकार भिन्न-भिन्न तरीकों से उन्होंने एक बड़ा अच्छा संग्रह जुटाया, जो इतना अच्छा था कि जब 1918 के बाद वह न्यू-यार्क बंदरगाह में उतरे, संयुक्त राज्य अमरीका के अटार्नी जनरल के एजेंटों ने उसे जब्त कर लिया लेकिन किसी प्रकार उसे फिर अपने कब्जे में ले लिया और उसे न्यू-यार्क के अपने कमरे में छिपा दिया, जहां उन्होंने भूगर्भी रास्ते की घड़-घड़, खड़-खड़ और अपने सिर के ऊपर और पैरों के नीचे गाड़ियों के दौड़ने की लगातार शोर-गुल के बीच अपनी पुस्तक ‘दस दिन जब दुनिया हिल उठी’ की रचना की.

यह समझ में आने वाली बात है कि अमरीकी फासिस्ट यह नहीं चाहते थे कि यह किताब सर्वसाधारण के हाथ में पहुचे. छ:-छ: बार वे पांडुलिपि को चुराने की गरज से पुस्तक के प्रकाशक के कार्यालय में ताला तोड़कर घुस गये थे. अपने प्रकाशक को अपना फोटो-चित्र देते हुए जॉन रीड ने उस पर निम्नलिखित शब्द लिखे थे: ‘अपने प्रकाशक होरेस लाइवराइट को, जो इस पुस्तक का प्रकाशन करते हुए बर्बादी से बाल-बाल बचे हैं.’

यह पुस्तक रूस के बारे में सच्चाई का प्रचार करने के उनके साहित्यिक प्रयासों का एकमात्र परिणाम न थी. पूंजीपति वर्ग को यह सच्चाई फूटी आंखों भी नहीं सुहाती थी. वह रूसी क्रांति से नफरत करता था और उससे दहशत खाता था, और उसने धुआंधार झूठा प्रचार कर उस पर पर्दा डाल देने की कोशिश की. राजनीतिक मंचों, सिनेमा के पर्दों, पत्र-पत्रिकाओं के कालमों से घृणित कुत्सा की मटमैली धारा अजस्त्र प्रवाहित होने लगी. वे ही पत्रिकायें, जिन्होंने कभी रीड के लेखों के लिए याचना की थी, अब उनकी रचनाओं को छापने से बाज आते. लेकिन इस तरह उनका मुंह बंद नहीं किया जा सका. उन्होंने असंख्य जन-सभाओं में भाषण दिये.

उन्होंने स्वयं अपनी पत्रिका की स्थापना की. वह वामपंथी समाजवादी पत्रिका ‘क्रांतिकारी युग’ के और बाद में ‘कम्युनिस्ट’ के संपादक बन गये। उन्होंने Liberator पत्रिका के लिए लेख पर लेख लिखे, वह सम्मेलनों में भाग लेते हुए, अपने इर्द-गिर्द के लोगों को राशि-राशि तथ्य देते हुए, उन्हें अपने स्फूर्ति क्रांतिकारी उत्साह से अनुप्राणित करते हुए अमरीका के एक छोर से दूसरे छोर तक घूमे, और अंत में उन्होंने जो बहुत बड़ी बात की, वह यह कि अमरीकी पूंजीवाद के गढ़ में कम्युनिस्ट लेबर पार्टी का संगठन किया, उसी प्रकार जैसे उन्होंने हारवर्ड विश्वविद्यालय के केंद्र में समाजवादी क्लब की स्थापना की थी.

जैसा बहुधा होता है, ‘पंडितों’ ने गलत सोचा था. जॉन रीड का उग्रवाद एक ऐसी धुन नहीं था, जो वक्त के साथ गुजर जाये. उनकी भविष्यवाणियों के बावजूद बाह्य संसार से संपर्क ने रीड का किसी भी प्रकार ‘उद्धार’ नहीं किया था. उसने उनके उग्र विचारों को और भी उग्र कर दिया. ये विचार कितने गहरे और प्रबल थे, यह जॉन रीड द्वारा संपादित नये कम्युनिस्ट मुखपत्र ‘मजदूरों की आवाज’ से प्रत्यक्ष था. अमरीकी पूंजीवादियों का माथा ठनका – उनको अब समझ में आया कि देश में आखिरकार एक सच्चा क्रांतिकारी पैदा हुआ है. अब वे इस ‘क्रांतिकारी’ शब्द से भीत और त्रस्त थे !

यह सच है कि सुदूर अतीत में अमरीका के अपने क्रांतिकारी हुए थे और अब भी वहां ‘अमरीकी क्रांति की वीरबालायें’ तथा ‘अमरीकी क्रांति के सपूत’ जैसी जानी-मानी सामाजिक संस्थायें हैं, जिनके द्वारा प्रतिक्रियावादी पूंजीपति वर्ग 1776 की क्रांति को अपनी श्रद्धांजली अर्पित करता है. परंतु वे क्रांतिकारी कब के मर चुके, जबकि जॉन रीड हाड़-मांस के क्रांतिकारी हैं, जीते-जागते क्रांतिकारी हैं, वह पूंजीपति वर्ग के लिए मूर्तिमान चुनौती हैं, साक्षात यमराज हैं.

उनके लिए सिवाय इसके कोई उपाय न था कि वे रीड को जेल की कोठरी में डाल दें. उन्हें गिरफ्तार किया गया – एक बार नहीं दो बार नहीं, बीस बार. फिलडेलफिया में पुलिस ने सभा-भवन में ही ताला लगा दिया और उन्हें वहां बोलने नहीं दिया. लिहाजा वह बाहर पड़ी एक साबुन की पेटी पर चढ़ गये और सड़क पर जो भीड़ उमड़-घुमड़ रही थी, उसके सामने उन्होंने एक व्याख्यान दे डाला. यह सभा इतनी सफल रही और उसमें रीड के इतने अधिक समर्थक निकले कि जब रोड पर ‘शांति भंग’ करने का अभियोग लगाया गया, जूरी ने उन्हें अपराधी घोषित करने से इनकार किया. अमरीका का कोई ऐसा नगर नहीं था, जिसे जॉन रीड को कम से कम एक बार गिरफ्तार किये बिना संतोष हुआ हो. लेकिन वह हमेशा किसी न किसी प्रकार जमानत देकर या मुकद्दमे को मुल्तवी करा कर जेल से निकल आते और फौरन कहीं और धावा बोलने के लिए निकल पड़ते.

पश्चिमी देशों के पूंजीपति वर्ग को अपनी तमाम परेशानियों और नाकामियों को रूसी क्रांति के सिर मढ़ने की आदत हो गई है. उस क्रांति का एक सबसे नागवार जुर्म यह था कि उसने एक प्रतिभाशाली अमरीकी को कट्टर और जोशीले क्रांतिकारी में बदल दिया था. पूंजीवादी ऐसा ही सोचते थे. वास्तव में यह बात पूरी तरह सच न थी.

जॉन रीड को रूस ने क्रांतिकारी नहीं बनाया था. जन्म की घड़ी से ही अमरीकी क्रांतिकारी रक्त उनकी धमनियों में प्रवाहित था. जी हां, यद्यपि अमरीकियों को सदा एक अफरे और अघाये हुए और प्रतिक्रियावादी राष्ट्र के रूप में चित्रित किया जाता है, तथापि क्रोध और विद्रोह की भावना उनकी नस-नस में व्याप्त है. जरा अतीत काल के महान विद्रोहियों की याद कीजिये – टामस पेन की, वाल्ट विटमैन की, जॉन ब्राउन और पार्सन्स की याद कीजिये. बिल हेवुड, राबर्ट माइनर, रूटेनबर्ग और फास्टर जैसे जॉन रीड के आजकल के साथियों और सहयोगियों की बात भी सोचिये. होमस्टेड, पालमैन और लारेंस में हुए खूनी औद्योगिक संघर्षों की, और ‘विश्व के औद्योगिक मजदूरों’ के संघर्षों की याद कीजिये. ये सब के सब – नेतागण और जन-साधारण – जन्म से शुद्धतः अमरीकी थे. आज यह बात चाहे प्रत्यक्ष दिखाई न पड़े, पर यह सच है कि अमरीकियों के खून में विद्रोह का गाढ़ा घोल है.

लिहाजा यह नहीं कहा जा सकता कि रूस ने जॉन रीड को क्रांतिकारी बनाया लेकिन उसने उन्हें वैज्ञानिक रूप से सोचने वाला सुसंगत क्रांतिकारी जरूर बनाया, और यह एक बहुत बड़ी सेवा है. रूस ने उन्हें इसके लिए प्रवृत्त किया कि वह अपनी मेज को मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन की किताबों से लाद दें. उसने उन्हें इतिहास तथा घटनाक्रम की एक समझ दी. उसी की बदौलत उन्होंने अपने किंचित अस्पष्ट मानवतावादी विचारों के स्थान पर अर्थशास्त्र के निर्मम, कठोर सत्य को ग्रहण किया. और उसी ने उनको यह प्रेरणा दी कि वह अमरीकी मजदूर आंदोलन के शिक्षक बने और उसके लिए वही वैज्ञानिक आधार प्रस्तुत करने का प्रयास करें, जो उन्होंने अपने विश्वासों के लिए प्रस्तुत किया था.

उनके दोस्त उनसे कहा करते, ‘जॉन, तुम राजनीति के लिए नहीं बने हो ! तुम कलाकार हो, न कि प्रचारक. तुम्हें चाहिए कि तुम अपनी प्रतिभा को साहित्यिक सृजन में लगाओ.’ वह इस बात की सच्चाई को अक्सर महसूस करते, क्योंकि उनके दिमाग में नई कवितायें, नये उपन्यास तथा नाटक के विचार भरे होते और वे अभिव्यक्ति पाने के लिए जोर मारते, निश्चित आकार ग्रहण करने के लिए हठ करते. जब उनके दोस्त आग्रह करते कि वह अपने क्रांतिकारी प्रचार-कार्य को छोड़कर अपनी मेज पर जम जायें, तब वह मुस्कराते हुए जवाब देते, ‘अच्छी बात है, मैं ऐसा ही करूंगा.’

परंतु उन्होंने अपना क्रांतिकारी कार्य कभी बंद नहीं किया; वह ऐसा कर ही नहीं सकते थे ! रूसी क्रांति ने उनके मन-प्राण को जीत लिया था. उसने उनको पक्का कर दिया था और उनकी ढुलमुल, अराजक भावना पर कम्युनिज्म के अनुशासन का कठोर अंकुश लगा दिया था. उसने उन्हें इस बात के लिए प्रवृत्त किया कि वह क्रांति के एक अग्रदूत के रूप में अपना ज्वलंत संदेश लेकर अमरीका के नगरों में विचरण करें. 1919 में क्रांति के आह्वान पर वह संयुक्त राज्य अमरीका की दोनों कम्युनिस्ट पार्टियों को एक में मिलाने के सिलसिले में कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के साथ काम करने के लिए मास्को पहुंचे.

कम्युनिस्ट सिद्धांत के नये तथ्यों से लैस होकर वह फिर गुप्त रूप से न्यू-यार्क के लिए रवाना हुए. एक मल्लाह ने दगा की और उनका भेद खोल दिया; उन्हें जहाज से उतार लिया गया और फिनलैंड की एक जेल में एकांत कारावास में रखा गया. वहां से वह फिर रूस लौट आये, ‘कम्युनिस्ट इंटरनेशनल’ में लिखा, एक नई पुस्तक के लिए सामग्री जुटाई और बाकू में हुई पूर्वी जनों की कांग्रेस में एक प्रतिनिधि के रूप में भाग लिया. उन्हें टाइफस ज्वर की छूत लग गयी (संभवत: काकेशिया में); अत्यधिक परिश्रम से उनका शरीर पहले ही छीज चुका था, फलत: वह इस रोग के ग्रास बने और रविवार, 17 अक्टूबर 1920 को उनकी मृत्यु हो गई.

जॉन रीड की तरह दूसरे लोग भी थे, जिन्होंने अमरीका में और यूरोप में प्रतिक्रांतिकारी मोर्चे का वैसी ही बहादुरी के साथ मुकाबला किया, जैसी कि सोवियत संघ में लाल सेना ने प्रतिक्रांति से अपने संघर्ष में दिखाई. इनमें कुछ संगठित हत्याकांडों में मारे गये, और कुछ के मुंह पर जेलों में हमेशा के लिए ताला लगा दिया गया. एक को वापस फ्रांस लौटते हुए श्वेत सागर में तूफान के दौरान जान गंवानी पड़ी. एक और क्रांतिकारी सान-फ्रांसिस्को में शहीद हुआ; जिस हवाई जहाज से वह हस्तक्षेप के प्रति प्रतिवाद करने वाली घोषणाओं को नीचे गिरा रहा था, उससे वह खुद लुढ़क पड़ा.

साम्राज्यवाद ने क्रांति पर प्रचंड आक्रमण किया अवश्य, परंतु यदि ये योद्धा न होते, तो वह आक्रमण और भी प्रचंड हो सकता था. प्रतिक्रांति का दबाव शिथिल करने में उन्होंने भी अपना योगदान दिया. रूसी क्रांति को रूसियों, तातारों और काकेशियाइयों ने ही मदद नहीं पहुंचाई; चाहे कम ही सही, लेकिन फ्रांसीसियों, जर्मनों, अंग्रेजों और अमरीकियों ने भी उसे सहारा दिया. इन ‘गैर-रूसी विभूतियों’ में जॉन रीड का नाम सदा उजागर रहेगा, क्योंकि वह एक असाधारण मेधावी व्यक्ति थे, जो भरी जवानी में मृत्यु के ग्राम हुए.

जब हेल्सिंगफोर्स और रेवेल से उनकी मृत्यु का समाचार हमारे पास पहुंचा, हमने यही समझा कि यह उन्ही झूठों में एक झूठ है, जिन्हें प्रतिक्रांतिकारियों के झूठ के कारखाने रोजाना गढ़ा करते थे. परंतु जब लुईसे ब्रयांत ने इस स्तम्भित कर देने वाले समाचार की पुष्टि की, तब हमें इस समाचार के खंडन की आशा का परित्याग करना पड़ा, यद्यपि यह हमारे लिए अत्यंत कष्टप्रद था.

जब जॉन रीड की मृत्यु हुई, वह निर्वासित थे और पांच साल कैद की सजा उनके सिर पर मंडरा रही थी, लेकिन फिर भी पूंजीवादी अखबारों तक ने कलाकार तथा मानव के रूप में उन्हें श्रद्धांजलियां अर्पित की. पूंजीवादियों ने चैन की सांस ली: जॉन रीड, जो उनकी झुठाई का पर्दाफाश करना खूब जानते थे और जिन्होंने अपनी लेखनी से उनकी इतनी निर्मम आलोचना की थी, अब जीवित न थे.

अमरीका के क्रांतिकारी जगत को अमार्जनीय क्षति पहुंची. उनकी मृत्यु के कारण हमारी अभाव की भावना का अमरीका से बाहर रहने वाले साथी मुश्किल से ही अंदाजा लगा सकते हैं. यह मृत्यु रूसियों की दृष्टि से स्वाभाविक बलिदान है, क्योंकि उनके लिए यह एक मानी हुई बात है कि एक व्यक्ति अपने विश्वासों के लिए अपने प्राणों की आहुति देता है. यहां भावना के लिए कोई स्थान नहीं है. सोवियत रूस में हजारों आदमियों ने समाजवाद के हेतु मृत्यु का वरण किया. परंतु अमरीका में अपेक्षाकृत कम बलिदान हुए हैं. आप चाहे तो कह ले कि जॉन रीड कम्युनिस्ट शहीद थे, आने वाले हजारों शहीदों के पूर्वगामी. सुदूर मुहासिराबंद रूस में उनके उल्का सदृश जीवन का सहसा अंत अमरीकी कम्युनिस्टों के लिए कठोर आघात था.

पुराने मित्रों और साथियों के लिए सांत्वना की बस एक बात है, वह यह कि जॉन रीड को उसी स्थान में समाधिस्थ किया गया, जो उन्हें संसार में सबसे ज्यादा प्यारा था – क्रेमलिन की दीवार के जेर साये लाल चौक में./उनकी कब्र पर एक स्मारक खड़ा किया गया – उनके चरित्र के ही अनुरूप ग्रेनाइट का एक बेकाटा-तराशा शिलाखंड, जिस पर लिखा है:

‘जॉन रीड, तीसरे इंटरनेशनल के प्रतिनिधि, 1920’

  • एल्बर्ट विलियम्स

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ROHIT SHARMA

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