कभी सोचता हूं
रूक कर
इन घरों के बारे में
कहां चले जाते हैं
लोग ?
इन घरों से बिछड़ कर
दूर गांव से
शहर या अनजान
इलाकों में
किस मजबूरी में ?
किस दर्द से ?
दहलीज लांघी होगी
न जाने कहां तलक चलने को ?
न जाने क्यों चलने के लिए ?
मैं ठहर गया
इसी जगह
रोज गुजरता हूं
इन विरान घरों के आगे से
स्कूल जाते हुए
कभी जल्दी में रहा या
ठहर कर, रुक कर
सोचता जरूर हूं
कहां चले गए लोग ?
जो छोडकर चले गए
घर कूडी बाडी सब
बहुत तकलीफ से
सम्भाल पाता हूं अपने को
कितना खिलखिलाती धूप रही होगी
जब यहां बसावट थी
उन बर्तनों की आवाज से
बच्चों के हल्लों की आवाज
बडो की गप्पें
हुक्के की गुडगुड
और भी अनंत स्वर ध्वनि
दर्द तो होता है
वह सब सोचकर
जब बसे थे घर
जो उजड गए अब
फिर रोजबरोज
एक ही हल निकालता हूं
समय का चक्र है
कैसा क्रूर है ?
हम सब कभी न कभी
कहीं न कहीं
छोडकर आ चुके हैं
फिर इस नई जगह को
फिर छोडने के लिए
इतना सोचकर
बिछोह का दर्द
दार्शनिक हो कर
शांत हो जाता है
- डॉ. नवीन जोशी
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