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बिहार में गठबंधन की सरकार और संसदीय वामपंथियों का संकट

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बिहार में गठबंधन की सरकार और संसदीय वामपंथियों का संकट
बिहार में गठबंधन की सरकार और संसदीय वामपंथियों का संकट

बिहार के महागठबंधन सरकार के तौर तरीके और कई जनविरोधी हरकतों के कारण कार्यकर्ताओं का धैर्य टूट रहा है. नेताओं के द्वारा गुलदस्ते और स्वागत के कार्यक्रम से वे क्षुब्ध दिख रहे हैं. उनका असंतोष लाजमी है. जब ये विपक्ष में थे, तो जनता को आंदोलन के रूप में संगठित कर रहे थे, अब सरकार को समर्थन देने के बाद वामपंथी पार्टियां अब सड़क पर विरोध से कतरा रही हैं.

क्या वामपंथी विधायक सरकार की नीतियों का विधानसभा में आलोचना करने के लिए अब स्वतंत्र हैं ? क्या सड़क पर सरकार के खिलाफ प्रदर्शन आंदोलन करने के लिए वे स्वतंत्र हैं ? आंदोलन की जगह अब वे पैरवीकार और चिरौरी वाले नेता बनते जा रहे हैं ?

सरकार का हिस्सा बनकर पार्टी ने कार्यकर्ताओं के आंदोलन के अधिकार को बक्से में बंद कर दिया है, दूसरी तरफ सरकार पुराने ढर्रे पर ही चल रही है. पुलिस तथा प्रशासन का दमन जारी है. पटना की सड़कों पर जुलूस और प्रदर्शन करने और धरना देने के अधिकार पर पाबंदी अभी भी जारी है ? क्या वामपंथी पार्टियों ने गांधी मैदान तथा डाक बंगला चौराहा के इलाके में प्रदर्शन कराने पर लगाए गए रोक को हटाने के लिए सरकार पर दबाव बनाया ? वामपंथी पार्टियों के आंदोलन में भाग नहीं लेने से आंदोलन तो नहीं रुकेगा ?

स्वतंत्र जन संगठनों या विद्यार्थियों के द्वारा चलाए जा रहे आंदोलन और प्रदर्शनों की बेरहमी से पिटाई हो रही है. मेहनतकशों के अधिकार और कल्याण लिए कोई नये कार्यक्रम नहीं किए जा रहे हैं. पूरी सरकार पर नौकरशाही का दबदबा जारी है. आंदोलनकारियों की पिटाई की जा रही है. आखिर क्या कारण है कि सरकार बदलने के बावजूद भी पुलिस तथा नौकरशाहों का मिजाज उतना ही घमंड में है ? क्या सरकार का पुलिस और नौकरशाही पर नियंत्रण नहीं है या सरकार पार्टी और कार्यकर्ताओं के बजाय सिर्फ नौकरशाही और पुलिस पर निर्भर है ? इन सारे प्रश्नों पर बहस होनी चाहिए.

वामपंथी संगठन आंदोलन और संघर्ष के बदौलत अस्तित्व में रहता है. अपनी जीवन धारा से कट करके ये और खत्म हो जाएगी. कांग्रेस तथा लालू प्रसाद यादव की पहली सरकार को समर्थन देने के कारण पूरे देश और बिहार में सीपीआई का अस्तित्व हाशिए पर आता गया. वे ही इनके जनाधार को खा गये. 90के दशक में भी लालू प्रसाद ने ही सीपीआई (एमएल) लिबरेशन के विधायकों को तोड़ा था. इस बार दीपंकर के नेतृत्व वाली सीपीआई (एमएल) लिबरेशन फिर वही गलती कर रही है.

ज्योति बसु की सरकार ने ‘वर्गा आपरेशन’ में किसानों को जमीन और कई अधिकार दिये जो देहातों में उनके जनाधार को मजबूत किया लेकिन बाद में सीपीआई (एम) की सरकार अपने ही जनाधार किसानों पर पूंजीपतियों के पक्ष में सिंगूर तथा नंदीग्राम में दमन चलाया, परिणामस्वरूप सीपीएम को सत्ता से हाथ धोना पड़ा और बाजपेई की सरकार में मंत्री रहने वाली ममता बनर्जी ने आंदोलन की नायिका बनकर के बंगाल की सत्ता पर कब्जा कर लिया.

सीपीआई (एम) में राजनीतिक कार्यकर्ता की जगह धंधेबाजों ने कार्यकर्ताओं की जगह ले ली. पंचायत स्तर पर लूट बढ़ा और राजनीति से लैश कार्यकर्ताओं की जगह भोट लूटने वाले गैंगों का पार्टी में महत्व बढ़ता गया. नंदीग्राम में ऐसे ही लोग किसानों पर हमले का अगुआई किया. सत्ता चलाते हुए जो दमन और जनविरोधी नीतियों को सीपीआई (एम) ने बंगाल में लागू किया उसका परिणाम सामने है. सीपीआई (एम) के हाथ से सत्ता खिसकने पर सत्ता में बने रहने के लिए यही गैंग यानी कल के वामपंथी नेता बाद में तृणमूल कांग्रेस और भाजपा में शामिल होने लगे.

तो इतिहास की इन तमाम घटनाओं से वामपंथियों को सीखना चाहिए लेकिन वह नहीं सीखेंगे, क्योंकि कहीं ना कहीं सरकार चलने के लिए सभी पार्टियों की तरह उन्हें भी पूंजी और पूंजीपतियों से समझौते, यहां तक कि उनकी चाकरी करनी पड़ती है. और वे सरकार में ही रहना चाहते हैं, जन आंदोलन के द्वारा पूंजीवाद का विकल्प पेश करना अब उनके कार्यक्रम से गायब हो चुका है.

यह अकारण थोड़े है कि केरल की सरकार को पूंजी की चिंता है. वह कह रहे हैं कि मिलिटेंट ट्रेड यूनियन आंदोलन से पूंजी निवेश पर प्रभाव पड़ेगा. यानी सरकारों को हर हाल में पूंजी निवेशकों के हितों की रक्षा करनी है और पूंजी निवेशक यानी कि पूंजीपतियों का सेहत तभी ठीक रहेगा, जब मजदूरों सको कम से कम मजदूरी देकर काम कराने में सरकारी मदद करेंगी ! इसलिए कार्यकर्ताओं को फासीवाद का भय दिखाकर सत्ताधारी पार्टियों के पीछे-पीछे घिसटते रहने की सलाह दी जा रही है.

पार्टी नेताओं से सवाल कीजिए कि क्या वर्ग संघर्ष को बढ़ाए बगैर फासीवाद पराजित हो जायेगा ? फासीवाद का मुख्य स्रोत शोषक वर्ग होता है, आज वह एकाधिकार पूंजी है जो साम्राज्यवाद और वित्त पूंजी के साथ मजबूत एकता बनाए हुए है. लेकिन सभी सरकारें अडानी अंबानी जैस एकाधिकार पूंजी के मालिकों के लिए काम कर रही हैं. यूं ही इतनी तेजी से इनकी पूंजी नहीं बढ़ रही है.

कांग्रेसी सरकारें राजस्थान और छत्तीसगढ़ में इन्हीं की सेवा में लगी है. फासीवाद का विकल्प सिर्फ आंदोलन से गुजर कर ही आ सकता है. आज पूंजीवादी लोकतंत्र इंग्लैंड में हड़ताल और प्रदर्शन का अधिकार छीन रहा है, तो विकल्प हड़ताल और प्रदर्शन की झड़ी लगा कर ही दिया जा सकता है.

वामपंथी कार्यकर्ताओं को सरकार के पीछे नहीं आगे चलना चाहिए, लेकिन उनके नेता सीटों के लिए मोहताज दीख रहे हैं. कार्यकर्ताओं से अपील है कि पार्टी में सवाल उठाइए. कभी-कभी पार्टी में प्रेशर भी बनना पड़ता है और कभी कभी विद्रोह भी करना पड़ता है. सीपीआई (एमएल) लिबरेशन खुद इस विद्रोह का नतीजा है, विद्रोह और सृजन की इस परंपरा को जारी रखिए. जो नक्सलबाड़ी किसान आंदोलन और चारू मजूमदार के संशोधनवाद के खिलाफ संघर्ष की परंपरा को बढ़ाने वाले कार्यकर्ता हैं, वे अवश्य एक बार फिर अपने ऐतिहासिक कार्यभार के लिए कमर कसेंगे.

  • नरेन्द्र कुमार

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