न केवल भारत सरकार बल्कि देश के संविधान की हिफाजत करने का जिम्मा जिस सुप्रीम कोर्ट के कंधों पर संविधान निर्माताओं ने सौंपा था, वह सुप्रीम कोर्ट आज आदिवासियों के खिलाफ खड़ी हो गई है. इतना ही नहीं वह आदिवासियों की आवाज बनने वाले हर उस शख्स के खिलाफ खड़ी है, जो आदिवासियों की क्रूरतम हत्या और उसको उसके जमीन से खदेड़ने के सरकारी अभियान के खिलाफ है.
भारत के प्रसिद्ध गांधीवादी विचारक हिमांशु कुमार ने आदिवासियों के खिलाफ चल रहे सरकारी अभियान के विरुद्ध आदिवासियों के हिफाजत में चट्टान की भांति खड़े हैं, ऐसी हालत में सरकारी ऐजेंट सुप्रीम कोर्ट में बिठाया गया दलाल जज ने हिमांशु कुमार जैसी चट्टान को हटाने के लिए उन पर पांच लाख का जुर्माना लगाने का आदेश दिया, जिसे हिमांशु कुमार ने जूता दिखा दिया.
अब हिमांशु कुमार ने छत्तीसगढ़ में आदिवासियों के खिलाफ चल रहे सरकारी साजिश के दूसरे पहलू को सख्ती से उजागर किया है, जिसमें छत्तीसगढ़ में खनन कार्य कर रही कंपनियों द्वारा आदिवासियों के रखरखाव हेतु कानूनन दी जा रही 1200 करोड़ रुपयों के सरकारी बंदरबांट को उजागर किया है, जो उन्होंने सोशल मीडिया पर लिखे एक लेख में जाहिर किया है.
हिमांशु कुमार लिखते हैं कि पिछले महीने छत्तीसगढ़ के दंतेवाडा ज़िले की हिरोली पंचायत के लोहागांव के दो आदिवासी भाई नदी में डूब कर मर गये. ये लोग जंगल में बांस की कोंपल जिसे बास्ता कहा जाता है, वह इकट्ठा करने गये थे ताकि उसे बाज़ार में बेच कर बच्चों के लिए चावल खरीद सकें. इसी बीच बारिश हुई, जिसमें ये दो भाई डूब कर मर गये.
यह बैलाडीला का पहाड़ है. यहां सरकारी एनएमडीसी सहित कई प्राइवेट कम्पनियां जैसे लक्ष्मी निप्पो आदि लोहा खोद कर विदेशी बाज़ारों में बेच कर मुनाफा कमाती हैं. लोहा निकाल कर यह कम्पनियां उसकी मिट्टी धोती है. कानून के मुताबिक कम्पनियां लोहा धोकर उसकी मिट्टी नदी में नहीं बहा सकती लेकिन कम्पनियां पैसा बचाने के लिए बदमाशी करती है.
यह कम्पनियां जनता की निगाहों में धुल झोंकने के लिए लोहा अपने बनाए हुए तालाब में धोती हैं लेकिन जल्द ही तालाब लोहे वाली मिट्टी से भर जाता है तो जैसे ही बारिश होती है कंपनी अपने तालाब का पानी नदी में छोड़ देती है ताकि सारी मिट्टी नदी में बह जाए और किसी को पता भी ना चले. इसकी वजह से आदिवासियों के खेत बर्बाद हो रहे हैं आदिवासियों के खरीदे हुए खेती वाले गाय बैल इस बहाई गई कीचड में फंस कर मर जाते हैं.
उस दिन भी ऐसा ही हुआ. लोहागांव के यह दोनों आदिवासी भाई बास्ता जमा करके वापिस लौट रहे थे तभी कंपनी द्वारा छोड़े गये कीचड का ऐसा रेला आया कि दोनों भाई उसमें फंस गये और बह कर दूर चले गये. एक भाई की लाश मिल गई दुसरे की लाश भी नहीं मिली. इस घटना के बाद सोनी सोरी अपने आदिवासी साथियों के साथ इस गांव में गई और वहां का सर्वे किया.
इस गांव की कहानी उन लोगों की आंखें खोलने के लिए एक उदहारण है जो कहते हैं कि औद्योगीकरण से आदिवासियों का विकास होगा और ये सामाजिक कार्यकर्ता आदिवासियों का और देश का विकास रोकना चाहते हैं. इस गांव में स्कूल नहीं है, आंगनबाडी नहीं है, स्वास्थ्य केंद्र नहीं है, राशन दूकान नहीं है, पीने के पानी की व्यवस्था नहीं है, महिलाएं नदी पार करके एक गड्ढे में से पानी लेकर आती है.
यहां की एक आदिवासी महिला ने बताया मेरे आठ बच्चे हुए सब मर गए. सन 2011 की जनगणना में इस गांव की आबादी में 88 आदिवासी थे. इस महीने इस टीम ने पूरे गांव में घर घर जाकर लोगों को गिना तो अब आबादी सिर्फ 63 आदिवासी बचे हैं. यानी यहां की आबादी माईनस में जा रही है. वजह स्वास्थ्य सुविधा ना होना तथा भूख.
इस गांव में आय का कोई साधन नहीं है. खेती आदिवासी इसलिए नहीं कर पाते क्योंकि कंपनी लाल पानी जिसमें लोहे का कीचड मिला होता है, खेतों में छोड़ देती है जिससे खेत बर्बाद हो चुके हैं. कम्पनियां ज़िला प्रशासन को सीएसआर फंड के नाम पर 1200 करोड़ रुपया हर साल देती हैं. कानूनन इस पैसे को इन आदिवासियों के लिए खर्च किया जाना चाहिए लेकिन यह पैसा नया रायपुर बनाने में खर्च होता है. मंत्रियों और अधिकारियों के अनुसार खर्च होता है. भाजपा के समय में तो यह पैसा यूपी तक में जाकर सडक बनाने में खर्च हुआ है.
आदिवासियों को अस्पताल में दवाएं नहीं मिलती. टेस्ट्स भी अपने पैसे से कराने पड़ते हैं. बच्चों को बारहवीं के बाद पढ़ाना हो तो खेत बेचना पड़ता है. नियम से यह बारह सौ करोड़ रूपये से हर आदिवासी को मुफ्त इलाज मिलना था, बच्चों को मुफ्त शिक्षा की व्यवस्था होनी थी, रोज़गार, खेती सुधार, पशु पालन, कुटीर उद्योग, रोज़गार की व्यवस्था की जानी थी.
इस पैसों से हर गांव में पीने का नल से पानी पहुंच सकता था. हर दस गांव के बीच में एक खेल परिसर बन सकता था, जहां आदिवासी बच्चों की प्रतिभा निकलती और अमेरिकी कालों की तरह यह आदिवासी भी ओलम्पिक में गोल्ड मैडल लाते.
दंतेवाडा में 246 पंचायतें हैं. सुकमा और बीजापुर ज़िला भी मिला लो तो सात सौ करीब पंचायतें बैठेंगी. हर पंचायत को हर साल एक करोड़ रुपया भी दिया जाय तो भी पांच सौ करोड़ रुपया बच जाएगा. इस पैसे से आदिवासियों के गांवों में रोज़गार, स्वास्थ्य, शिक्षा, सड़क, बिजली सबकी व्यवस्था की जा सकती है. लेकिन ऐसा नहीं हुआ.
अभी मैं दंतेवाड़ा गया तो मुझसे बहुत सारे गांवों से सरपंच और गांवों के मुखिया मिलने आये. उन्होंने इस बारे में मुझसे सलाह मांगी है. मैंने उन्हें पांचवी अनुसूची में ग्राम सभा को दिए गये अधिकारों के बारे में बताया और तय हुआ कि हर पंचायत में इस बारे में प्रशिक्षण किया जाय.
तीनों जिलों की हर पंचायत से आदिवासियों की ग्राम सभा का प्रस्ताव पारित होगा कि ‘यह पैसा आदिवासी इलाके से बाहर खर्च किया जाना गैर कानूनी घोषित किया जाता है.’ सीएसआर का पैसा आदिवासी इलाके से बाहर ले जाने वाले लोगों पर रिपोर्ट दर्ज़ की जाय, मुकदमा शुरू किया जाय. और यदि सरकार तब भी नहीं मानती है तो खनन का काम रोकने के लिए व्यापक सत्याग्रह किया जाये.
जो भी हो आदिवासियों को इस तरह मरते हुए नहीं देखा जा सकता. यह इंसानियत की मौत है. लोकतंत्र की मौत है. संविधान की मौत है. यह हम नहीं होने देंगे. हम इंसानियत लोकतंत्र संविधान को बचायेंगे. आदिवासी इस सब को मिलकर बचायेंगे.
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