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ऊर्जा संकट ने यूरोप में मचाई हाहाकार, महंगाई और युद्ध (नाटो) का विरोध हुआ तेज़

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ऊर्जा संकट ने यूरोप में मचाई हाहाकार, महंगाई और युद्ध (नाटो) का विरोध हुआ तेज़
ऊर्जा संकट ने यूरोप में मचाई हाहाकार, महंगाई और युद्ध (नाटो) का विरोध हुआ तेज़

1929 की महामंदी के बाद यूरोप का मज़दूर वर्ग अपने जीवन के हालातों पर सबसे बड़े पूंजीवादी हमले का सामना कर रहा है. पिछले डेढ़ वर्ष की रिकॉर्ड तोड़ महंगाई, जिसके लिए यूक्रेन युद्ध ने आग में घी का काम किया और लंबे वक़्त से उजरतें ना बढ़ने से यूरोप के मज़दूरों और मध्यवर्ग के भी अच्छे-ख़ासे हिस्से की तमाम बचतें चूस ली हैं और इस तबके़ के जीवन के हालात एकदम औंधे मुंह गिर पड़े हैं.

यूरोपियन यूनियन के आंकड़ा दफ़्तर (यूरोस्टैट) के अनुसार 27 सदस्यों वाली यूरोपियन यूनियन के देशों में जुलाई महीने की औसत महंगाई पिछले वर्ष के स्तर से 9.8% ज़्यादा थी और इनमें से 16 देशों की औसत इससे भी ज़्यादा थी. सबसे बुरा हाल पहले से ही कमजोर पूर्वी यूरोप की अर्थव्यवस्थाओं – चेक गणराज्य, बुल्गारिया, हंगरी और पोलैंड का हुआ है. यहां सरकारी महंगाई दर 15-20% तक बताई जा रही है. यूके जो अब यूरोपीय यूनियन का सदस्य नहीं है, वहां इस वक़्त यह दर 12% है और आने वाले तीन महीनों में 18% तक बढ़ने का अनुमान है.

ये सरकारी दरें महज़ एक धोखा हैं, असल हालात इससे भी कहीं बदतर है. भोजन, गैस, बिजली, गैसोलीन (वाहनों में इस्तेमाल किया जाने वाला ईंधन) की महंगाई सरकारी दरों से कहीं ज़्यादा है. इसका सबसे बुरा असर मेहनतकश जनता पर ही पड़ा है. इन बुनियादी ज़रूरतों की चीज़ों की क़ीमतें आसमान छूने का मतलब है कि आने वाले तीन महीनों में यानी यूरोप में सर्दियों की शुरुआत होने के साथ ही वहां की मेहनतकश जनता को भूखा रहने या ठंड से ठिठुरने में से किसी एक को चुनने की नौबत आ जाएगी, जबकि लाखों लोगों को दोनों कठिनाइयों का सामना करना पड़ेगा.

यूके की राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा ने तो यह डरावनी भविष्यवाणी भी कर दी है कि सर्दियों में अपने घरों को गर्म रखने की गुंजाइश ना होने के कारण हज़ारों लोगों की मौत तय है. महंगाई का यह हमला यूरोपियन यूनियन के सदस्य देशों को आने वाले महीनों में गहरी मंदी में धकेल देगा, जिसका सारा बोझ भी मेहनतकश जनता पर ही लादा जाएगा.

यूरोप की पूंजीवादी सरकारें महंगाई और मेहनतकश लोगों की बढ़ रही बदहाली का कारण रूस को बता रही हैं, जबकि सच्चाई यह है कि एक तो यूक्रेन युद्ध को बढ़ावा देने में इन्हीं पश्चिमी साम्राज्यवादियों का हाथ रहा है और दूसरा महंगाई का मौजूदा दौर यूक्रेन युद्ध से भी काफ़ी पहले ही शुरू हो चुका था, जो सीधा-सीधा पूंजीवादी नीतियों का ही नतीजा था.

जहां तक मज़दूरों की उजरतों, उनके जीवन स्तर पर हमले की बात है, यह तो पूंजीवादी सरकारों ने पिछले तीन-चार दशकों से नवउदारीकरण की नीतियों के अंतर्गत पूरे विश्व में मज़दूरों पर हमला बोला हुआ है. इस हमले के दौरान आग में घी का काम मौजूदा यूक्रेन युद्ध, पश्चिमी साम्राज्यवादियों द्वारा रूस पर थोपी गई बंदिशों के बदले में रूस द्वारा तेल गैस की बंद की गई पूर्ति ने कर दिया है.

चाहे यूरोप की सरकारें अपने नागरिकों की मुश्किलों को जायज़ ठहराने के लिए इसे यूक्रेन में ‘आज़ादी और लोकतंत्र’ की अस्थाई ‘क़ीमत’ के तौर पर पेश कर रही हैं, पर इस तर्क को भी अब खोटे सिक्के की तरह यूरोप के आम लोगों ने स्वीकार करना बंद कर दिया है. यूरोप के आम लोगों में यह यक़ीन बढ़ता जा रहा है कि यूक्रेन युद्ध इन्हीं पूंजीवादी सरकारों ने अपने साम्राज्यवादी हितों के लिए भड़काया है, जिसके बुरे नतीजे अब उन्हें ही भुगतने के लिए कहा जा रहा है.

लोगों का यह यक़ीन इसलिए भी और पक्का हो गया है, क्योंकि यूक्रेन युद्ध के बाद हथियार बनाने वाली कंपनियां, तेल गैस की कंपनियों के मुनाफे़ रिकार्ड-तोड़ बढ़ रहे हैं. एक तरफ़ यूरोप के मेहनतकश लोगों को बिजली गैस के बिल भरने मुश्किल हो रहे हैं और दूसरी तरफ़ एक्सोन मोबिल, सैवरॉन, शैल, बीपी, टोटलएनर्जी और ऐनी (संसार की सबसे बड़ी तेल कंपनियों में शुमार) के 2022 की दूसरी तिमाही के मुनाफे़ ही 64 अरब डॉलर बढ़ गए हैं. यानी यूरोप के लोगों को निचोड़कर ये कंपनियां अपनी तिजौरियां भर रही हैं.

इस सीधी-सादी लूट के विरुद्ध लोगों का ग़ुस्सा और पूरे यूरोपीय महाद्वीप में राजनीतिक अस्थिरता का माहौल बढ़ता जा रहा है. सितंबर के पहले हफ़्ते में ही यूरोप के विभिन्न देशों में हज़ारों लोगों ने इकट्ठा होकर अपनी-अपनी सरकारों की शोषणकारी नीतियों के विरुद्ध आवाज़ बुलंद की. चेक गणराज्य की राजधानी प्राग में यूरोपियन यूनियन, नाटो, ऊर्जा संकट के ख़िलाफ़ 70,000 से ज़्यादा लोगों का प्रदर्शन हुआ और लोगों ने मांग की कि यूक्रेन युद्ध में उनकी सरकार अपनी साझेदारी बंद करें.

इस तरह जर्मनी के शहर बर्लिन, फ़्रैंकफ़र्ट, लीपजिग और फ़्रांस के विभिन्न शहरों में बड़े प्रदर्शन हुए हैं और अब जब सर्दी की आमद को दो-अढ़ाई महीने का समय रह गया है, तो इन प्रदर्शनों की गिनती और घेरा और ज़्यादा बड़ा होने की पूरी उम्मीद है. यूरोप के आम लोगों में बढ़ रही यह बेचैनी एक झलक मात्र है. इसके नीचे इकट्ठा हो रहा गुबार आने वाले दिनों में लाज़िमी तौर पर मौजूदा सरकारों की वैधता पर बड़े स्तर पर प्रश्नचिन्ह लगाएगा. आख़िर जो सरकारें डेढ़ दो वर्ष पहले अपने नागरिकों में कोरोना का डर दिखाकर लॉकडाउन में क़ैद नहीं कर सकीं, अब ये उन लोगों को एक ऐसी जंग के लिए उनकी कु़र्बानी की ज़रूरत कैसे महसूस करवा पाएंगी, जो जंग उनकी अपनी नहीं है.

आज से 6 महीने पहले यूक्रेन पर रूस के हमले के वक़्त आम लोगों का जो थोड़ा-बहुत समर्थन हासिल था, वह भी इन 6 महीनों में लगभग ख़त्म हो गया है. यूरोप में आम लोगों में यह एहसास और पक्का होता जा रहा है कि उनकी पूंजीवादी सरकार ही यूक्रेन युद्ध को ख़त्म नहीं करना चाहती, बल्कि रूस के साथ अपनी साम्राज्यवादी कलह के कारण इसे तूल देते रहना चाहती है और इस सबके लिए उन्हें ही बली का बकरा बनाया जा रहा है.

अपनी जनता की बुरी हालत के बावजूद पश्चिमी साम्राज्यवादियों का यूक्रेन युद्ध का कोई हल निकालने का कोई इरादा नहीं है, उलटा जी-7 देशों ने रूस पर नई बंदिशों के तहत हर उस जहाज़रानी कंपनी को बीमा सेवाएं देने पर रोक लगाने का फ़ैसला किया है, जो एक तय क़ीमत से ज़्यादा रूस को तेल-गैस ख़रीदकर उसे ढोने का काम करती हैं क्योंकि विश्व के कुल जहाज़रानी बीमा बाज़ार का 90% हिस्सा इन जी-7 देशों के पास है. इसलिए यह साम्राज्यवादी धड़ा चाहता है कि इस क़दम के तहत रूस की तेल-गैस बरामद और कमाई को ठप किया जाए.

इसके विरोध में रूस की तेल कंपनी गाज़प्रॉम ने यूरोप को तेल-गैस की पूर्ति मुकम्मल रूप तौर पर बंद करने का ऐलान कर दिया है और रूस ने धमकी दी है कि अगर जी-7 के नए क़दम लागू होते हैं, तो पहले हुए समझौतों को भी रद्द कर दिया जाएगा. इस नए क़दमों के साथ यूरोप में ऊर्जा का संकट और आम लोगों की बर्बादी और ज़्यादा होगी.

यूरोपियन यूनियन और अमेरिकी नेतृत्व वाले नाटो ने स्पष्ट इशारा दे दिया है कि यूक्रेन युद्ध के मसले में ताज़ा टकराव को रोकने का उसका बिल्कुल भी इरादा नहीं है. नाटो महासचिव जेंस स्टोल्टनबर्ग ने अख़बार ‘फ़ाइनेंशियल टाइम्स’ में लिखते हुए स्पष्ट माना कि ‘नाटो इस जंग की तैयारी वर्षों से कर रहा था और यह तब तक जारी रहेगी, जब तक रूस को आर्थिक और सैन्य तौर पर तबाह करके अपने दबदबे में नहीं कर लिया जाता.’

उधर रूस पर बंदिशों के कारण उसे बिजली के पुर्जो वग़ैरह की कमी के कारण कुछ दिक़्क़तें ज़रूर आई हैं, पर आसमान छू रही ऊर्जा की क़ीमतों से रूस ने अतिरिक्त मुनाफ़ा कमाया है. दूसरा यूरोप को कम हुई पूर्ति को भी उसने चीन, भारत और अन्य देशों को तेल-गैस बेचकर पूरा कर लिया है. रूस पर लगाई गई बंदिशों ने रूस को चीन के और ज़्यादा नज़दीक ला दिया है. रूस और चीन के बीच बढ़ती साझेदारी के कारण दोनों के बीच व्यापार जनवरी-अगस्त 2022 के बीच 33% से ज़्यादा बढ़ोतरी के साथ 117.2 अरब डॉलर तक पहुंच गया. चीन के लिए रूस तेल, गैस, कोयला और कृषि उत्पादों का बड़ा स्त्रोत है.

कहने का स्पष्ट अर्थ यह है कि इन दो साम्राज्यवादी धड़ों का आपसी टकराव आज जिस स्तर पर पहुंच चुका है, इसके ठंडा पड़ने की संभावना काफ़ी कम है. बीसवीं शताब्दी का इतिहास बताता है कि ऐसे अंतर-साम्राज्यवादी युद्धों की क़ीमत हमेशा ही घरेलू मज़दूर वर्ग ने चुकाई है. अभी एक तरफ़ युद्धों पर अरबों डॉलर ख़र्च किए जा रहे हैं, आम लोगों का क़त्लेआम और अन्य जान-माल की तबाही हो रही है, वहीं दूसरी तरफ़ इन साम्राज्यवादी देशों में शिक्षा, स्वास्थ्य, सड़कों आदि का मूलभूत ढांचा ख़त्म होता जा रहा है.

इतना ही नहीं, इस टकराव के कारण विश्व अर्थव्यवस्था को होने वाले नुक़सान का असर पूरी दुनिया पर पड़ रहा है, उन देशों के लोगों पर भी पड़ रहा है जिनका इस जंग से दूर-दूर तक वास्ता नहीं है. आने वाले महीने संसार की अर्थव्यवस्था के लिए, दुनिया-भर के लोगों के लिए भारी पड़ने वाले हैं. और जिस तरह यूरोप में आम जनता ने इस जंग का विरोध करना शुरू कर दिया है, उम्मीद है कि महंगाई और युद्धवाद के ख़िलाफ़ यह विरोध और बड़े और व्यापक रूप से फैलेगा. इस पूंजीवादी साम्राज्यवादी व्यवस्था को बदले बग़ैर साम्राज्यवादी युद्धों की तबाही, बर्बादी को ख़त्म करने का कोई रास्ता मौजूद नहीं.

  • मानव (मुक्ति संग्राम)

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