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नेहरु द्वेष की कुंठा से पीड़ित ‘मारवाड़ी समाजवाद’ ने लोहिया को फासिस्ट तक पहुंचा दिया

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नेहरु द्वेष की कुंठा से पीड़ित 'मारवाड़ी समाजवाद' ने लोहिया को फासिस्ट तक पहुंचा दिया
नेहरु द्वेष की कुंठा से पीड़ित ‘मारवाड़ी समाजवाद’ ने लोहिया को फासिस्ट तक पहुंचा दिया

बीजेपी 2014 में बीते 30 सालों में अपने दम पर लोक सभा में बहुमत हासिल करने वाली पहली पार्टी बनी, तब से पार्टी अपनी ताकत को अपनी संख्या से परे ले गई है. देश के लगभग हर प्रमुख संस्थान पर इसने अभूतपूर्व नियंत्रण कायम कर लिया है. मीडिया, न्यायपालिका और जांच एजेंसियों से लेकर चुनाव आयोग, केंद्रीय सतर्कता आयोग और भारतीय रिजर्व बैंक जैसे संस्थानों तक में सरकार के प्रभाव और हस्तक्षेप को हर जगह महसूस किया जा रहा है.

इसने देश की शिक्षा प्रणाली को अपनी हिंदुत्व की विचारधारा के अनुरूप बनाने के लिए स्कूलों और कॉलेजों में पाठ्यक्रम और सामग्री को बदलने जैसे कदम उठाए हैं. चिकित्सा और विज्ञान जैसे विषय में गणेश सर्जरी और पुष्पक विमान को पुरातन ज्ञान और खोज का दर्जा दिया जा रहा है. मतभेद या यहां तक कि असहमति के लिए भी जगह सिकुड़ती जा रही है. इस संदर्भ में जो पार्टियां विपक्ष में हैं, उनके लिए आगे की लड़ाई को न केवल अपने अस्तित्व की लड़ाई के रूप में देखना सही होगा बल्कि इसे भारत के लोकतंत्र, संविधान और सेकुलरिज्म को बचाने की लड़ाई के तौर पर भी देखना होगा.

‘महान’ लोहिया की महान गलती का खामियाजा आज देश भुगत रहा है

थोड़ा अतीत का पन्ना उधेरते हैं. कांग्रेस को डॉ. लोहिया एक कपटी दक्षिणपंथी पार्टी के रूप में देखते थे. उनको लगता था कि कांग्रेस का शासन अमीरों, प्रभावशाली जाति के लोगों और अंग्रेजी बोलने वाले अभिजात वर्ग के लोगों के लिए है. यह 1962-63 की बात है.

आने वाले महीने में बिहार विधान सभा का चुनाव होने जा रहा था. वही बिहार जहां पर लोहिया ने सबसे पहले पहल अपने राजनीति के अनैतिक चरित्र का 1967 में नींव रखी थी और 9 राज्यों मे संविद रूप से सांप्रदायिक जनसंघ, सामंती स्वतंत्र पार्टी और वामपंथियों के साथ मिलकर संविद सरकार बनायी थी. उसका आधार कोई विचार धारा न होकर मात्र नेहरू, इंदिरा से ईर्ष्या और द्वेष था. गैर कांग्रेसवाद का नारा एक छलावा के अलावा कुछ नहीं था.

1960 के दशक में भी भारतीय लोकतंत्र में नेहरू के नेतृत्व में कांग्रेस के प्रभुत्व ने देश को एकल-पार्टी शासन तक सीमित कर दिया था. पार्टी ने 1952, 1957 और 1962 में भारी बहुमत से चुनाव जीता था और 1967 में भी उसी दिशा में आगे बढ़ती दिख रही थी.

समकालीन भारतीय इतिहास के महत्वपूर्ण व्यक्तियों में से एक राम मनोहर लोहिया ही थे, जिन्होंने कांग्रेस के वर्चस्व को समाप्त करने का बीड़ा 1962 से ही उठा रखा था था. इसके पीछे कोई वैचारिक सिद्धांत नहीं दिखाई देता है बल्कि नेहरू जैसे विराट कद के सामने प्रतिद्वंदिता की सोच की उपज मात्र थी लेकिन असफलता ने डॉ. लोहिया को कुंठाग्रस्त बना दिया, जिसका परिणाम शुरूआती प्रतिद्वंदिता, ईर्ष्यां और जलन के रास्ते व्यक्तिगत द्वेष में बदल गयी.

तब लोहिया ने कहा कि अच्छे काम के लिये वे शैतान के साथ भी मत देंगे. इसी सोच के चलते वे गांधी-नेहरू के कांग्रेस के खिलाफ फासिस्ट शैतान, गांधी के हत्यारों (जनसंघ) से भी हाथ मिलाने में जरा भी संकोच नहीं किये, परिणाम फासिस्ट मोदी आज दिल्ली की सत्ता पर मजबूती से कायम है. महान लोहिया की महान गलती का खामियाजा आज देश भुगत रहा है. लोहिया के करीबी सहयोगी समाजवादी नेता मधु लिमये ने अपनी पुस्तक ‘द बर्थ ऑफ नॉन-कांग्रेसिज्म’ में लिखा था,

‘लोहिया कांग्रेस के राज और विपक्ष की अक्षमता और अधीनता से इतने खफा थे कि उन्होंने कांग्रेस शासन को नष्ट करने के उद्देश्य में खुद को समर्पित कर दिया था, और कांग्रेस को हटाने के लिये किसी भी सीमा तक जाने को सोच लिये थे.’

1960 के दशक में लोहिया ने ‘गैर-कांग्रेसवाद’ की रणनीति विकसित की और विपक्ष को कांग्रेस के खिलाफ एकजुट किया. उनके गठबंधन रातों-रात नहीं बने थे. 1962 के चुनाव के ठीक बाद लोहिया ने सबको साथ लाना शुरू कर दिया था. हालांकि 1940 के दशक की शुरुआत में लोहिया नेहरू से मंत्रमुग्ध हो गए थे और उन्हें अपने नेता के रूप में देखने लगे थे. लेकिन 1940 के दशक की शुरुआत में लोहिया ने समाजवाद, साम्राज्यवाद और अर्थशास्त्र जैसे कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर नेहरू से अलग सोचना शुरू कर दिया.

23 मार्च 1910 को उत्तर प्रदेश के अकबरपुर शहर में एक धनी बनिया परिवार में राम मनोहर लोहिया का जन्म हुआ था. लोहिया कलकत्ता के विद्यासागर कॉलेज से स्नातक करने पहुंचे और पहुंचते ही वो छात्र राजनीति में शामिल हो गए. उनका परिचय जवाहरलाल नेहरू और सुभाष चंद्र बोस से हुआ. इंदुमती केलकर की लिखी लोहिया की जीवनी ‘डॉक्टर राम मनोहर लोहिया-जीवन और दर्शन’ के मुताबिक लोहिया और नेहरू तुरंत एक-दूसरे को पसंद करने लगे.

हिटलर के ‘राष्ट्रवाद’ से प्रभावित थे लोहिया

अपने स्नातकोत्तर की पढ़ाई के लिए लोहिया जर्मनी के हम्बोल्ट विश्वविद्यालय गए, जहां वे प्रमुख अर्थशास्त्री वर्नर सोम्बर्ट के छात्र बन गए. जर्मनी में उस समय हिटलर के नाजी विचार का बोलबाला था और सोम्बर्ट भी उस विचारधारा का ही अनुयायी था. सोम्बर्ट संग लोहिया ने जो समय बिताया उससे उनका वैश्विक दृष्टिकोण पर काफी प्रभाव हुआ. सोम्बर्ट ने उन्हें सिर्फ समाजवादी अर्थशास्त्र ही नहीं सिखाया बल्कि एक सामाजिक कार्यकर्ता, समाजशास्त्री और अर्थशास्त्री के रूप में उनके विविध करियर ने लोहिया को अनुकरण करने के लिए एक मॉडल भी दिया.

उन्होंने जर्मन राजनीतिक दलों के कामकाज को बारीकी से देखा और कई पार्टियों की बैठकों में भाग लिया, जिसमें एडोल्फ हिटलर द्वारा दिए गए चार संबोधन भी शामिल थे. स्वाभाविक है कि कहीं न कहीं लोहिया भी उस विचारधारा जो राष्ट्रवाद और नस्लवाद पर आधारित थी, से प्रभावित रहे. इसी का परिणाम रहा, कालांतर में गांधी के हत्या के आरोपी, सांप्रदायिकता का जहर फैलाने वाले संघ और जनसंघ जो राष्ट्रवाद और नस्लवाद के आधार पर देश को हिंदू राष्ट्र बनाने का सपना देखती है, से भी हाथ मिलाने में इनको थोड़ी भी हिचक नहीं हुआ. लोहिया बेबाकी से कहते थे कि राष्ट्रवाद और भाषा के सवाल पर हमारा और जनसंघ की सोच एक है.

जर्मनी से पढ़ाई खत्म करने के बाद लोहिया भारत लौट आए और कांग्रेस में शामिल हो गए. वो कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के संस्थापकों में से एक थे- ये कांग्रेस के भीतर की एक सभा थी-और उसके मुखपत्र ‘कांग्रेस सोशलिस्ट’ के संपादक भी थे. 1936 में नेहरू ने उन्हें पार्टी का विदेश सचिव नियुक्त किया.

मधु लिमये ने अपने ‘द बर्थ ऑफ नॉन-कांग्रेसिज्म’ में, राजनीति में लोहिया के समय का व्यापक विवरण दिया है. लिमये लिखते हैं – ‘इसके एहसास से कि वे लोहिया को नियंत्रित नहीं कर सके, नेहरू उनसे बहुत हताश होकर ध्यान देना बंद कर दिया.’ लोहिया इसे अपनी उपेक्षा समझने लगे और नेहरू के प्रति आक्रामक होते गये.

नेहरू से कोई प्रतिक्रिया ने पाकर वे हताशावश कुंठाग्रस्त होकर आजादी के तुरंत बाद कांग्रेस के अन्य प्रमुख सदस्यों जैसे कि जयप्रकाश नारायण, जिन्हें जेपी के नाम से भी जाना जाता था, बसावन सिंह और नारायण देव के साथ लोहिया ने समाजवादी पार्टी बनाने के लिए कांग्रेस छोड़ दी और दिन प्रतिदिन नेहरू से दूर होते गये.

इनकी असफलता से उपन्न कुंठा ने इनके मन में नेहरू के प्रति प्रतिद्वंदिता की जगह ईर्ष्या और द्वेष पैदा कर दिया. और लोहिया का नेहरू द्वेष का परिणाम रहा कि वे नेहरू के सेकुलरिज्म को छोड़कर गांधी के हत्यारों के हिंदूराष्ट्र के विचार से समझौता कर लिया और नेहरू के प्रखर आलोचक बन गए. उन्हें लगता था कि कांग्रेस और नेहरू का समाजवाद केवल बातें हैं.

लोहिया एक बहुत ही प्रखर सोच वाले नेता थे. पहले अपनी सोच बनाते थे, उसके बाद उस सोच को सैद्धांतिक जामा पहनाने में माहिर थे. लोहिया, जनसंघ से जब मिले तब सिद्धांत दिया कि जनसंघ और समाजवादी पार्टी में राष्ट्रवाद और भाषा के सवाल पर एकता है. लोहिया ने बहुत बारीकी से फासिस्टों और गांधी के हत्यारों को जो राजनिति में अछूत थे, को राष्ट्रवादी घोषित कर दिया, उसका परिणाम सामने है.

नेहरु द्वेष की कुंठा से पीड़ित लोहिया

कांग्रेस को लोहिया एक कपटी दक्षिणपंथी पार्टी के रूप में देखते थे. उनको लगता था कि कांग्रेस का शासन अमीरों, प्रभावशाली जाति के लोगों और अंग्रेजी बोलने वाले अभिजात वर्ग के लोगों के लिए था. (उन्होंने अंग्रेजी के ऊपर हिंदी को तरजीह देने की वकालत शुरू कर दी.) लोहिया ने पार्टी को अमीरों से पैसे लेने के लिए भी फटकार लगाई, इसके बावजूद कांग्रेस को गरीबों का वोट भी मिलता था. ये सच है कि डा. लोहिया ड्राइंग रूम के नेता नहीं थे, वे सड़क से संसद को गवर्न करने की बात करते थे. इसमे दो राय नहीं कि वे एक महान चिंतक व विचारक थे.

लोहिया पूंजीवाद और साम्यवाद से समान दूरी की नीति की बात करते थे. वामपंथियों को वह जनसंघ के घूरे पर पलने वाला कीड़ा कहते नही थकते थे. लेकिन विडंबना देखिये 1967 में दोनों का सहयोग लेकर राज्यों में संविद सरकार बनायी, लोहिया के अनैतिक राजनितिक चरित्र का इससे बड़ा क्या उदाहरण हो सकता है. जाति मिटाने की बात करने वाले लोहिया को समय के साथ जाति समाजवाद के लिए अधिक से अधिक अहम हो गई. लोहिया के वैचारिक वंशज अब तो जातिय जनगणना की मांग करने लगे हैं. जाति मिटाने वाले जातीय गठजोड़ से सत्ता का जूठन चाटने में लग गये हैं.

सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटिज के वरिष्ठ फेलो डीएल शेठ 1950 के दशक के दौरान बड़ौदा में लोहिया के एक भाषण को याद करते हैं. शेठ ने कहा, ‘लोहिया का मुख्य संदेश था कि जाति के बंधन तोड़ दो. जिसमें जनेउ त्याग और सरनेम त्याग देने जैसी बातें भी शामिल थीं.’

1962 में हार के बाद लोहिया ने उन योजनाओं की शुरुआत की, जो भारतीय राजनीति की धारा को बदलने वाली थी. 1960 के दशक तक वो छोटे वैचारिक मतभेदों पर गठबंधन से इनकार कर देते थे. लेकिन तीसरे आम चुनाव के बाद लोहिया ने महसूस किया कि किसी भी एक पार्टी के लिए कांग्रेस को अपने दम पर हराना संभव नहीं है. चुनाव कांग्रेस को सत्ता में लौटने की एक औपचारिकता लगने लगी थी. सत्तारूढ़ दल की प्रशासन और देश की प्रत्येक संस्था पर पकड़ ये सुनिश्चित करती है कि किसी भी सरकार विरोधी माहौल का फैलाव न हो. लिमये लिखते हैं –

‘अनिश्चितकाल के कांग्रेस शासन की संभावना और नेहरू वंश के विनाश की सोच ने लोहिया को बेचैन कर दिया. वे नए रास्ते तलाशने लगे.’

चुनाव के बाद अखबारों को दिए गए बयान में लोहिया ने अनुमान लगाया कि कुछ मौजूदा राजनीतिक दलों के विलय से कांग्रेस को हराने में सक्षम पार्टी का निर्माण हो सकता है. इसलिए उन्होंने 1962 के चुनावों में कम्युनिस्टों और जनसंघ की आंशिक सफलता की तारीफ की और उन्हें ‘उथल-पुथल वाली पार्टी’ कहा. वो राजनीतिक विरोधियों जैसे कम्युनिस्टों, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी, जनसंघ ​​और सी. राजगोपालाचारी द्वारा स्थापित एक विशिष्ट धर्मनिरपेक्ष दक्षिणपंथी स्वतन्त्र पार्टी के पास जाकर सहयोग के तरीकों का पता लगाने लगे.

लिमये के अनुसार, “लोहिया एक नई पार्टी बनाने की इच्छा रखते थे, जिसमें वे कम्युनिस्टों के आंशिक ‘क्रांतिकारी उत्थान’ और जनसंघ के राष्ट्रवाद की ‘दृढ़ता’ को एकीकृत करेंगे. हालांकि उनकी सोच से जनसंघ का राष्ट्रवाद संकुचित था.’ लेकिन नेहरू को हटाने के लिये जनसंघ का साथ लेने में उनको कोई परेशानी नही थी.

लोहिया के दृष्टिकोण में आया यह महत्वपूर्ण बदलाव था क्योंकि उन्होंने लंबे समय तक जनसंघ को सांप्रदायिक और अनैतिक करार दे रखा था. उन्होंने 1960 के दशक के दौरान जनवरी के एक अंक में लिखा था..

‘जनसंघ का दृष्टिकोण संप्रदायवादी है, लेकिन स्वतंत्रतावादियों या कम्युनिस्टों की तुलना में वे चतुर हैं. इसने हिंदू धर्म के सभी प्रतिक्रियावादी गुणों और मर्यादाओं को अपना लिया है. इसके चरित्र, भाषण, कार्रवाई और नीति में कोई निरंतरता नहीं है लेकिन ये लोग सफलतापूर्वक टिके हुए हैं. समय और मांग के हिसाब से अलग-अलग समूहों का इस्तेमाल करके अपनी ताकत बढ़ाई है. संकीर्ण संप्रदायवाद, (का नारा) अविभाजित भारत, सांस्कृतिक एकता और भाषण में लोकतंत्र और अल्पकालिक स्वार्थ का काम जनसंघ की नीति और पहचान है.’

कांग्रेस विरोध एकमात्र आधार बना लोहिया की नीतियों का

लेकिन लोहिया ने फैसला किया कि कांग्रेस को हराने का एकमात्र तरीका चुनाव पूर्व गठबंधन के माध्यम से विपक्षी वोट एकजुट करना है. इस रणनीति को उन्होंने गैर-कांग्रेसवाद का नाम दिया. पहली बार इसका परीक्षण 1963 में गुजरात की राजकोट सहित चार लोकसभा सीटों और उत्तर प्रदेश के अमरोहा, जौनपुर और फर्रुखाबाद के लिए किया गया. इन सीटों पर क्रमशः स्वातंत्र पार्टी के मीनू मसानी, प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के जे. बी. कृपलानी, जनसंघ के दीन दयाल उपाध्याय और खुद लोहिया चुनाव लड़ रहे थे. चार दलों ने मिलकर चुनाव लड़ा और मसानी, कृपलानी और लोहिया जीते, दीन दयाल हारे. य  पहला संकेत था कि कांग्रेस का प्रभुत्व अंत के करीब था.

1964 में लोहिया ने समाजवादियों को एकजुट करने के लिए काम किया और प्रजा सोशलिस्ट पार्टी के साथ विलय करके संयुक्त समाजवादी पार्टी बनाई (हालांकि, बाद में इससे अलग हुए एक गुट ने उस साल पीएपी को पुनर्जीवित कर दिया.) लिमये ने ‘द बर्थ ऑफ नॉन-कांग्रेसिज्म’ में लिखा है कि –

लोहिया ने कांग्रेस पर तीन-आयामी हमले किए – ‘आपसी सामूहिक कार्रवाई और अदालतों के माध्यम से नागरिक स्वतंत्रता के लिए लड़ना; संसद और विधानसभाओं में सरकार के कुकर्मों को उजागर करना; और नो-कॉन्ट्रैक्ट चुनावी समझौतों को ठीक करने के प्रयास.’ जैसा कि लिमये ने लिखा कि लोहिया इस बात से अवगत थे कि ऐसे गठबंधन ‘सिर्फ फायदे का सौदा नहीं हो सकते.’

1967 का चुनाव नजदीक आ रहा था और कोई महागठबंधन नहीं दिख रहा था. आखिरकार राज्य-स्तरीय गठबंधन किए गए. जनसंघ ने उत्तर प्रदेश, बिहार और महाराष्ट्र में अकेले लड़ने का फैसला किया. केरल में यूनाइटेड फ्रंट ने एसएसपी और इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के साथ चुनाव लड़ा. बंगाल में अजोय मुखर्जी की बंगाल कांग्रेस और सीपीआई और पीएसपी का गठबंधन बना. राजस्थान में भी एक तरह की सहमति बनी.

जब परिणाम आए तो कई विपक्षी नेताओं को इस वजह से झटका लगा क्योंकि वो गठबंधन की ताकत के बारे में लोहिया की राय से इत्तेफाक नहीं रखते थे कि इससे कांग्रेस को हिलाया जा सकता है. हालांकि, लोहिया ने कन्नौज में कांग्रेस के एसएन मिश्रा को 472 वोटों से हरा कर मुश्किल से जीत हासिल की लेकिन उनकी एसएसपी ने 23 सीटें जीतीं, खासकर बिहार और उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में अच्छा प्रदर्शन किया. कांग्रेस बिहार में बहुमत पाने में विफल रही, जिससे गठबंधन सरकार के लिए रास्ता खुला.

सीपीआई और जनसंघ जैसे जानी दुश्मनों ने संयुक्त विधायक दल के झंडे तले सरकार बनाने के लिए एसएसपी से हाथ मिला लिया.
बिहार में लोहिया को अन्य पिछड़ा वर्ग को एकजुट करने का फायदा हुआ. हालांकि नए मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा एक कायस्थ थे, लेकिन उप मुख्यमंत्री कर्पूरी ठाकुर पिछड़े नाई-समुदाय से आते थे. ठाकुर लोहिया के सबसे करीबी सहयोगियों में से थे और दोनों एक-दूसरे को कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के दिनों से जानते थे.

1967 के चुनाव में पहली बार भारत सच में एक बहुदलीय लोकतंत्र बन गया. लोहिया द्वारा शूद्रों और अन्य जातियों की लामबंदी एक सफलता थी, जिसने भारतीय राजनीति को अधिक विविध बना दिया. लोकसभा में 520 में से 283 सीटों के साथ कांग्रेस ने अपना बहुमत बनाए रखा लेकिन ये इसके समग्र प्रदर्शन में विघटन का पहला संकेत था. एक साथ विधानसभा चुनावों में क्षेत्रीय दल जैसे पंजाब में अकाली दल, तमिलनाडु में द्रविड़ मुनेत्र कड़गम, पश्चिम बंगाल में बंग्ला कांग्रेस और फारवर्ड ब्लॉक, ओडिशा और मध्य प्रदेश में जन कांग्रेस, बिहार में जन क्रांति दल, केरल में आईयूएमएल और महाराष्ट्र में किसान और मजदूर पार्टी ने अपनी पहचान बनाई. सबसे बड़ी बात थी कि कामराज जैसा नेता चुनाव हार गये थे .

चुनाव ने लोहिया को उम्मीदों से भर दिया. उन्होंने कहा कि ‘लालच, भ्रष्टाचार और दुराचार’ के अंत का समय आ गया है और ‘सादगी और कर्तव्य’ का समय शुरू हो गया है. लेकिन उनका भ्रम बहुत जल्दी ही टूट गया. वे बेचैन हो गये. उनके साथी सत्ता के चकाचौंध में वही सब करने लगे जिसका वे सदा विरोध करते थे, खासकर बिहार में.

लोहिया ने एसवीडी की सरकारों को सलाह देना जारी रखा और तय बातों को पूरा करने पर जोर देना भी. बिहार सरकार ने गैर-लाभकारी खेती से लैंड टैक्स को अधपके तरीके से हटाया, सार्वजनिक जगहों पर अंग्रेजी का इस्तेमाल घटाया और महामारी-भ्रष्टाचार से लड़ने के कदम उठाए. हालांकि, कांग्रेस-विरोध के अलावा सत्ता में समाजवादियों ने पिछली सरकार से कोई अलग काम नहीं किया. एसएसपी नेताओं का लालच और लोहिया के आदर्श आचरण की मांग एक निरंतर चलने वाला संघर्ष बन गया.

सबसे महत्वपूर्ण विवाद में बिंदेश्वरी प्रसाद मंडल (बी.पी. मंडल) शामिल थे. मंडल ने 1967 के चुनाव में लोक सभा में एक सीट जीती थी लेकिन वो इसे छोड़ देना चाहते थे और एसवीडी सरकार में मंत्री बनना चाहते थे. लोहिया ने पार्टी अध्यक्ष बने लिमये को मंडल से राज्य सरकार में मंत्री का काम त्याग देने के लिए मनाने को कहा. मंडल ने संसद में एक फ्रंट सीट, एक बंगला और एक संसदीय समिति की अध्यक्षता की मांग की. लिमये शर्तें मान गए फिर भी मंडल ने इस्तीफा नहीं दिया.

लिमये लिखते हैं, ‘उन्होंने कांग्रेस को एसएसपी में शामिल होने के लिए छोड़ दिया था, लेकिन ऐसा लगता था कि उनकी वैचारिक जड़ें अभी भी कांग्रेस में बरकरार थीं.’ उन्होंने आगे कहा कि मंडल और एसएसपी को कई लोग जाति आधारित गुटों में बंट गए. उन्होंने लोहिया के जाति विरोधी सिद्धांत को जातिवादी सिद्धांत बना दिया, जो आज लालू नीतीश पासवान सहित तमाम जातीय गिरोहों का आदर्श बन गया है. जाति मिटाने वाले लोहिया के वैचारिक वंशज जाति जनगणना की मांग कर रहे हैं.

अनैतिक गठजोड़ के वारिस ने लोहिया की नीतियों को ‘मारवाड़ी समाजवाद’ बता किया खारिज

उस साल 30 सितंबर में लोहिया की बढ़ी हुई प्रोस्टेट ग्रंथि का ऑपरेशन हुआ. ऑपरेशन के बाद की जटिलताओं से जूझने के बाद 12 अक्टूबर 1967 को उनका निधन हो गया. लोहिया के मृत्यु के थोड़े ही दिनों पहले मंडल ने बिहार सरकार गिरा दी थी और 40 विधायकों के साथ कांग्रेस के समर्थन से सरकार बना ली. उन्होंने लोहिया की विचारधारा को ‘मारवाड़ी समाजवाद’ कह कर खारिज कर दिया. जल्द ही एक एक कर अन्य राज्यों में एसवीडी सरकारों का पतन शुरू हो गया.

एसवीडी सरकारों की असफलता के लिए लिमये ने लोहिया की कमजोरियों के लिए जगह नहीं बनाने को जिम्मेदार ठहराया. उन्होंने लिखा, ‘कभी-कभी उनका दृष्टिकोण व्यावहारिक नहीं रहता. वे उन मानवीय चीजों के लिए जगह नहीं रखते थे, जिनके साथ भारत में काम करना पड़ता है.’

साफ है कि समाजवादियों के समक्ष लगभग आज जैसा ही, उस समय भी द्वंद था. अंतर यह है कि पहले केंद्र में कांग्रेस थी जिसके नेता नेहरू थे, जो कम से कम लोकतंत्र, संविधान और सेकुलरिज्म के सवाल पर अडिग थे. जबकि आज केंद्र में ऐसी सरकार बैठी है जिस पर गांधी के हत्या का आरोप है और वह लोकतंत्र, संविधान तथा सेकुलरिज्म को फूटी आंख देखना पसंद नहीं करता. नेहरू तथा कांग्रेस सरकार के बनाये गये एक एक संस्थानों के कौड़ी के भाव अपने चहेते पूंजीपतियों को बेंच रही है और तथाकथित लोहिया के अनुयायी उसमें मदद कर रहे हैं. आज सरकार के लिये लोकतंत्र, समाजवाद, सेकुलरिज्म महज संविधान की प्रस्तावना में रह गया है. अप्रासंगिक हो जाने और हाशिये में धकेल दिये जाने का खतरा उपस्थित है.

1967 के लोहिया का बिहार आज फिर उसी चौराहे पर खड़ा है. एक जाति की जनगणना की मांग करने वाला प्रधानमंत्री का ख्वाब बुन रहा है और दूसरा 21वीं सदी में मुख्यमंत्री निवास में पैदा होकर 9वीं क्लास नहीं पास कर सका और लालू का बेटा होने के कारण बिहार का मुख्यमंत्री बनने का ख्वाब बुन रहा है. दो सपनाजीवियों के अनैतिक तालमेल का मैदान बन चुका है बिहार. लोहिया का अनैतिकता का बोया हुआ बीज, आज बिहार में बरगद बनकर लहलहा रहा है. आगे आगे देखिये होता है क्या ?

  • डरबन सिंह

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