पश्चिम बंगाल के आरएसएस समर्थित संगठन हिन्दू महासभा ने दुर्गा के पंडाल में महिषासुर की जगह महात्मा गांधी की प्रतिमा स्थापित कर देश भर में इस बहस को तेज कर दिया है कि दुर्गा अपनी हजारों हाथों से किसकी हत्या की थी – महिषासुर की या गांधी की ? इसके साथ ही यह बहस भी तेज हो गई है कि जिस तरह जन-जन में लोकप्रिय महात्मा गांधी की हत्या दुर्गा जैसी एक औरत के माध्यम से होते हुए दिखाया गया है, क्या उसी तरह महिषासुर भी जन-जन में प्रिय थे ?
यह दूसरा सवाल ज्यादा महत्वपूर्ण है. हिन्दू धर्म का ठेकेदार बने यह संघी गिरोह जिस तरह गांधी को महिषासुर (कुछ जगह महिसासुर भी लिखा जाता है) की जगह पदस्थापित किया है, उससे इस बात को भी बल मिलता है कि जन जन में लोकप्रिय महिषासुर की हत्या छल पूर्वक एक औरत के माध्यम से ब्राह्मणवादियों द्वारा कराया गया है, ठीक उसी तरह जैसे गांधी की हत्या एक स्त्रैण नत्थू राम गोडसे के माध्यम से छल पूर्वक किया गया है.
दुर्गा-महिषासुर कथा
महिषासुर की हत्या की गाथा कुछ इस प्रकार बतलाई जाती है. महिषासुर एक बौद्ध राजा था, जिसकी लोकप्रिय उसके प्रजा के बीच बहुत ज्यादा थी क्योंकि उसके राज्य की प्रजा सुख-समृद्धि से परिपूर्ण थी. आर्य आक्रमणकारी उसके राज्य को हड़पना चाहता था, लेकिन युद्ध के मैदान में महिषासुर की सेना को पराजित कर पाना आर्यों के लिए संभव नहीं था, इसलिए आर्यों ने षड्यंत्र रचा.
इस षड्यंत्र के दौरान आर्यों ने एक सुन्दर वेश्या को राजी किया और उसको युद्ध का ट्रेनिंग दिलवाया. जब ट्रेनिंग पूरा हो गया तब उसने उसका नाम दुर्गा रखा और महिषासुर को रिझाने के लिए उसके खेमे के आसपास मंडराने के लिए छोड़ दिया. अतीव सुन्दरी होने के कारण वह जल्दी ही वह महिषासुर की निगाह में आ गई. महिषासुर ने उसके सामने विवाह प्रस्ताव रखा, जिसे षड्यंत्रकारी दुर्गा ने स्वीकार कर लिया. फलतः महिषासुर और दुर्गा का विवाह सम्पन्न हो गया.
विवाहोपरांत दुर्गा महिषासुर के अंतःपुर में निवास करने लगी, उधर आर्यों ने दम साधकर षड्यंत्र के अनुसार महिषासुर की हत्या की प्रतीक्षा करने लगा. कलश स्थापन इसी का प्रतीक माना जाता है. दुर्गा से विवाहोपरांत महिषासुर के अन्तःपुर में काफी हलचल रही होगी, जिस कारण दुर्गा को महिषासुर की हत्या करने का उचित वक्त मिल नहीं पा रहा था, उधर आर्य दम साधे इंतजार कर रहा था कि दुर्गा महिषासुर की हत्या कब कर पाती है.
उचित मौके की इस प्रतीक्षा में दुर्गा को नौ दिन बीत जाता है. नवें दिन की रात्रि में महिषासुर जब चिरनिद्रा में सो रहा था, और बाहरी सुरक्षा व्यवस्था भी कम हो गया था, तब योजनानुसार उसकी पत्नी बनी दुर्गा ने महिषासुर पर सोते वक्त ही भाला उसकी छाती के आरपार धंसा दी. घायल उनींदे महिषासुर तत्काल मोर्चा संभाला और लड़ने को उठ खड़ा हुआ किन्तु, दुर्गा के लगातार प्रहार ने उनींदे महिषासुर को मौत के घाट उतार दिया. इसलिए अगर आप दुर्गा प्रतिमा को ध्यान से देखें तो इस दृश्य को आसानी से समझ सकते हैं. यानी दुर्गा खड़ी है और महिषासुर शस्त्र उठाकर उठने की कोशिश कर रहे हैं.
उधर, जैसे ही आर्यों को महिषासुर की मौत की खबर मिलती है, वह महिषासुर की राज्य पर तत्काल धावा कर देता है. अपने राजा को खो चुके महिषासुर की सेना आर्यों के इस आकस्मिक हमला का संगठित प्रतिरोध नहीं कर पाती है और जल्दी ही वह तितर-बितर होकर युद्ध हार जाती है. युद्ध में महिषासुर के सेना को हराने भर से आर्यों का मन नहीं भरता है इसलिए वह औरतों, बच्चों समेत बड़ी तादाद में लोगों की हत्या करता है.
महिषासुर के अन्तःपुर में नौ दिनों तक रही दुर्गा उन औरतों औऋ बच्चों के बीच रही थी, जिस कारण उसको उन लोगों से भी मोह सा हो गया लगता है, परन्तु, जब आर्यों की सेना ने उन औरतों और बच्चों की भी हत्या करने लगा इससे महिषासुर की हत्या करने वाली दुर्गा विचलित हो गई और खुद को इस हत्याकांड का दोषी मान अपराध बोध से ग्रसित हो उठी और पास के तालाब में कुदकर खुदकुशी (आत्महत्या) कर ली.
इसलिए नवीं के रात्रि के पहले तक शुद्ध शाकाहार का पालन करने वाला दुर्गा भक्त आधी रात के बाद से हिंसक हो उठता है और मांसाहार करने लगता है और अगले दिन यानी दसवीं को बड़े पैमाने पर बलि दी जाती है, जो हिंसक आर्यों की नरबलि यानी महिषासुर के परिवारों, उसके परिजनों और सैनिकों की नृशंस हत्याकांड का ही प्रतीक जान पड़ता है. जिसके बाद दुर्गा की प्रतिमा को उठाकर तालाब में डूबोने की तैयारी शुरू कर दी जाती है. आखिर, परम्पराएं यूं ही हवा में नहीं बनती है. उसके पीछे भी कुछ न कुछ कारण जरूर मौजूद होते हैं.
दुर्गा और गांधी कथा
पश्चिम बंगाल में दुर्गा द्वारा गांधी की हत्या का बना प्रतिमा भी कोई अन्यथा नहीं है. आर्यों जो ब्राह्मण धर्म का प्रणेता है, और महिषासुर जो भारत के मूलनिवासी यानी, आज के दलित, पिछड़े, अछूत यानी शुद्रों एवं आदिवासियों का पूर्वज थे, पर जीत हासिल कर अपना गुलाम (दास) बना लिया था, के समर्थन में गांधी काफी हद तक नहीं थे और वे महिषासुर के पराजित वंशजों यानी दलितों, पिछड़ों, अछूतों, आदिवासियों को एकजुट कर अंग्रेजों के खिलाफ संघर्ष में उतारने के कारण उसमें राजनीतिक चेतना विकसित हो रहा था. ऐसा ब्राह्मणवादी संगठन संघ का मानना था.
जबकि वास्तव में अंग्रेजों द्वारा चलाये जा रहे कई अन्य सुधार कानून मसलन, शिक्षा वगैरह के कारण शुद्रों के अन्दर राजनीतिक चेतना विकसित हो रहा था, जिस कारण ब्राह्मणवादी संघ अपनी नासमझी के कारण गांधी को ही अपना दुश्मन मानने लगा, जिससे कई प्रयास के बाद अन्ततः उनकी हत्या कर दी. वस्तुतः काफी हद तक गांधी भी संघ की ही नीतियों को आगे बढ़ा रहे थे, थोड़े उदारतावादी तरीके से, लेकिन कट्टर संघी ने उन्हें ही मौत के घाट उतार दिया.
खैर, कारण चाहे जो भी हो, गांधी के लिए विशुद्ध कट्टर संघी तरीके से शुद्रों को राजनैतिक तौर पर विस्थापित करना संभव नहीं था क्योंकि जैसे जैसे उसकी राजनैतिक चेतना बढ़ रही थी, वह अपनी दयनीय हालत पर विचार करना और उसके खिलाफ प्रतिरोध खड़ा कर रही थी, जिसको रोक पाना गांधी के ‘रामराज्य’ और ‘गीतोपदेश’ के बाद भी संभव नहीं हो पा रहा था, उधर कट्टर ब्राह्मणवादी गांधी की मजबूरी समझने के लिए तैयार नहीं था, फलतः उसे गोली मार दिया और अब उसे महिषासुर के शक्ल में दुर्गा के भाले के नीचे लुढ़का दिया.
प्रतिक्रियावादी कट्टर ब्राह्मणवादी संघ और शुद्र
जैसा कि मोहन भागवत ने कहा था – ‘हिन्दू कोई धर्म नहीं है.’ तब धर्म क्या है ? धर्म है ब्राह्मण धर्म. ब्राह्मण धर्म क्या है ? दास-मालिक समाज व्यवस्था में मालिक ब्राह्मण है और दास शुद्र. सदियों से शिक्षा से महरुम ये दास शुद्र ब्राह्मणवादी शैली में इस कदर ढल गये हैं कि उन्हें इससे इतर सबकुछ अनिष्ट लगता है. इससे बाहर निकलने की बात करना भी उन्हें तकलीफदेह लगता है.
यही कारण है कि आज ब्राह्मणवाद का सबसे बड़ा चेहरा या उत्पीड़क यही शुद्र बन कर उभरे हैं, जो आज संघ यानी आरएसएस का आरक्षित सेना बन गया है और उनकी ही मुक्ति की बात करने वाले प्रगतिशील विचारधारा के खिलाफ हिंसक तरीकों से उठ खड़ा हुआ है. यानी, जो कार्य महिषासुर के वक्त में आर्य यानी ब्राह्मण करते थे, अब उसी कार्य को आगे बढ़ाने का बीड़ा ये ब्राह्मणवादी शुद्रों ने अपने कांधों पर उठा लिया है और अपने ही उद्धारकों (महिषासुर, एक हद तक गांधी भी) की हत्या का जश्न मनाता है.
आरएसएस के इस शातिर चाल को समझने के लिए 1947 के पूर्व आरएसएस के एक मुखपत्र में गांधी को रावण के बतौर चित्रित किया था, जिसके अन्य मुखों में नेहरु, सुभाषचंद्र बोस आदि को भी दिखाया था. अगर हम रावण के दसो मुख की तुलना आरएसएस के इस गांधी वाले रावण और उसके दसों मुख से करें तो हम यहां भी वही पायेंगे जो विश्लेषण महिषासुर और गांधी के हालिया प्रतिमा पर हम उपर कर पाये हैं.
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