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तेजी से जनता का भरोसा खोती पुलिस अपने सुधार के सोलह वर्ष बाद अब कहां है ?

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अगर आंकड़ों की बात करें तो सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 25% से भी कम लोग भारतीय पुलिस पर भरोसा करते हैं. दिनरात मेहनत करने के बाद भी यह आंकड़ा, महज 25 प्रतिशत ही क्यों है, यह जनता, पुलिस और सरकार के लिये भी चिंतन मनन का एक बिन्दु है.
तेजी से जनता का भरोसा खोती पुलिस अपने सुधार के सोलह वर्ष बाद अब कहां है ?
तेजी से जनता का भरोसा खोती पुलिस अपने सुधार के सोलह वर्ष बाद अब कहां है ?

सोलह साल पहले, यूपी और बीएसएफ के डीजी रह चुके, प्रकाश सिंह की पुलिस सुधार संबंधी एक जनहित याचिका पर 22 सितंबर 2006 को सुप्रीम कोर्ट ने एक फैसला सुनाया था कि धर्मवीर की अध्यक्षता में गठित राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशें सरकार लागू करे. लेकिन आज सोलह साल बाद भी सीबीआई तोते से ऊपर नहीं उठ पाई है और ईडी एक आज्ञाकारी बुलडॉग में बदलता जा रहा है.

पुलिस तंत्र, कानून व्यवस्था बनाये रखने और अपराध नियंत्रण का तंत्र कम, राजनीतिक प्रतिशोध का एक हथियार बनता जा रहा है. राजनेता और राजनीतिक स्वामी तो निश्चय ही पुलिस का दुरुपयोग स्वहित में करेंगे ही, भले ही कोई भी दल सत्ता में हो, यह सत्ता का स्थायी भाव और आदत है, पर पुलिस क्यों, इस राजनीतिक उद्देश्यपूर्ति में, राजनेताओं के उपकरण के रूप में, इस्तेमाल हो जाती है, यह एक दुरूह प्रश्न भले ही न हो पर अक्सर पुलिस बिरादरी में ही नज़रअंदाज कर दिया जाता है.

पुलिस सुधार (प्रकाश सिंह निर्णय) पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के 16 साल बाद भी, वास्तव में कुछ भी नहीं बदला है और पुलिस की मानसिकता, अभी भी 1861 में बने पुलिस एक्ट में अटकी हुई है. वही वह वर्ष है, जब ब्रिटिश साम्राज्य की, औपनिवेशिक सरकार ने पुलिस बल की औपचारिक स्थापना की थी.

कुछ न बदलने के लिए, वर्तमान सरकार को ही दोषी ठहराना, अन्याय होगा, क्योंकि हर सरकार और राजनीतिक दल, सत्ता में आकर उस औपनिवेशिक यथास्थिति से बाहर नहीं आना चाहता है, जो अंग्रेज बहादुर हमें विरासत में दे गए हैं. अधिकार सुख बहुत मादक होता है. उस मादकता से मुक्त होना, भला कौन चाहेगा ! यही कारण है कि, सुप्रीम कोर्ट द्वारा, पुलिस आयोग की आंशिक सिफारिशें लागू करने के निर्देश के बावजूद भी अभी चीजें जस की तस ही हैं. हां, दिखावटी या कॉस्मेटिक सुधार ज़रूर गिनाए जा सकते हैं.

पुलिस की वर्दी, जनता में उसकी विभिन्न भावनाओं को उद्घाटित करती है. जनता को कभी वह उत्पीड़क और क्रूर नज़र आती है तो, कभी वह सुरक्षा के प्रति आश्वस्त भाव जगाती हुई दिखती है. यह भी एक कटु तथ्य है कि पुलिस के प्रति हमारी धारणा, मीडिया, सिनेमा और रोजमर्रा की पुलिस संबंधी चर्चाओं से बनती है और उसी गढ़े गए परसेप्शन से अभिव्यक्ति होती रहती है. अगर आंकड़ों की बात करें तो सेंटर फॉर द स्टडी ऑफ डेवलपिंग सोसाइटीज के एक सर्वेक्षण में पाया गया कि 25% से भी कम लोग भारतीय पुलिस पर भरोसा करते हैं. दिनरात मेहनत करने के बाद भी यह आंकड़ा, महज 25 प्रतिशत ही क्यों है, यह जनता, पुलिस और सरकार के लिये भी चिंतन मनन का एक बिन्दु है.

पुलिस बल को हमेशा अपनी आंतरिक प्रशासनिक और लॉजिस्टिक्स की समस्याओं का भी सामना करना पड़ता है, जो अक्सर लोगों के निगाह में नहीं आती है. जैसे, काम के घंटों का तय नहीं होना, पोस्टिंग की दिक्कतें, छोटे छोटे मामलों में भी अनावश्यक राजनैतिक दखलंदाजी, पुलिस थानों में अपराध और कानून व्यवस्था की बढ़ती समस्याओं के अनुपात में उचित जनशक्ति का अभाव, और इसी से जुड़ी अनेक निजी और प्रोफेशनल समस्याएं रहती हैं, जिनका निदान अपेक्षित तो है, पर वे अमूमन उपेक्षित रह जाती हैं, जिससे पुलिस के सुचारू कामकाज और प्रदर्शन में बाधा भी पड़ती हैं.

इन सब समस्याओं के समाधान के लिये, समय-समय पर पुलिस व्यवस्था में, सुधार होते रहने चाहिए, पर हम तो अभी 1980 में प्राप्त राष्ट्रीय पुलिस आयोग की उन्हीं कुछ सिफारिशों को लागू कराने के लिये सुप्रीम कोर्ट के सोलह साल पहले दिए गए निर्देश पर खडे हैं, जबकि 1980 और फिर 2006 ई के बाद से दुनिया में बहुत कुछ तब्दीली आ गई है.

पुलिस सुधार के मुकदमे का इतिहास शुरू होता है, 1996 ई से, जब दो सेवानिवृत्त पुलिस महानिदेशक, प्रकाश सिंह और एन. के. सिंह ने यह जानने के लिए सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका, पीआईएल दायर की कि क्या उन सिफारिशों को कभी लागू किया गया था जो राष्ट्रीय पुलिस आयोग ने, पुलिस सुधार के लिये सरकार को सौंपी थी ? लंबी सुनवाई के बाद साल, 2006 में सुप्रीम कोर्ट ने अपना फैसला सुनाया जिसे प्रकाश सिंह केस के नाम से अधिक जाना जाता है.

सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि पुलिस सुधार होना चाहिए और आयोग की सिफारिशें लागू भी होनी चाहिए. अदालत ने राज्य सरकारों और केंद्र शासित प्रदेशों की सरकारों को सात बाध्यकारी निर्देशों का पालन करने के लिए कहा और इस प्रकार छब्बीस सालों बाद राष्ट्रीय पुलिस आयोग की सिफारिशों पर काम शुरू हुआ. सुप्रीम कोर्ट के फैसले में जो सात प्रमुख निर्देश दिए गए हैं, वे इस प्रकार हैं –

1. राजनीतिक नियंत्रण सीमित करें. एक राज्य सुरक्षा आयोग का गठन करें.

यह निर्देश, बढ़ती हुई अवांछनीय राजनीतिक दखलंदाजी को देखते हुए सुप्रीम कोर्ट ने दिया है. अदालत का कहना है कि सरकार यह सुनिश्चित करें कि राज्य सरकार पुलिस पर अनुचित प्रभाव या दबाव का प्रयोग न करे. इसे सुनिश्चित करने के लिए सरकार व्यापक नीति बनाए और उचित दिशानिर्देश निर्धारित करें. राज्य पुलिस के प्रदर्शन का मूल्यांकन करें.

यह सुनने में न्यायप्रिय लग रहा है और है भी पर सरकार, क्या सत्तारूढ़ दल की इस मनोवृत्ति से अलग होकर सोच सकती है कि सरकार और सत्तारूढ़ दल यानी सरकार और पार्टी दोनो अलग अलग संस्थाएं हैं ? एक संविधान के अनुसार कार्य करने के लिए शपथबद्ध हैं तो दूसरा एक राजनीतिक दल है. यह एक महीन अंतर है, सरकार और सत्तारूढ़ दल में और सरकार को न केवल यह महीन अंतर समझना चाहिए बल्कि उसे इसे व्यावहारिक रूप से लागू भी करना चाहिए लेकिन क्या यह होता है ? यह सवाल सभी राजनीतिक दलों की सरकारों से है, किसी एक राजनैतिक दल की सरकार से नहीं.

2. योग्यता के आधार पर पुलिस अफसरों की नियुक्ति करें.

सरकारें सुनिश्चित करें कि पुलिस महानिदेशक, डीजीपी की नियुक्ति, योग्यता आधारित, पारदर्शी प्रक्रिया के माध्यम से की जाय और उनका कार्यकाल न्यूनतम रूप से 2 वर्ष का हो.

डीजीपी की नियुक्ति के बारे में अक्सर यह कहा जाता है कि वह सरकार या मुख्यमंत्री का आदमी होता है. यहां जब यह कहा जाय तो इसे डीकोड कर के देखिए और इस प्रकार समझिए कि वह सत्तारूढ़ दल या मुख्यमंत्री का मनपसंद अफसर होता है, यह एक सामान्य अवधारणा है. सरकार या मुख्यमंत्री बदलते ही उसी ब्रांड के अफसरों के नाम मीडिया और लंगर गजट में तैरने लगते हैं, पर हमेशा ऐसा होता भी नहीं है.

सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के अनुसार डीजीपी की नियुक्ति के बारे में एक पैनल के गठन किए जाने का प्राविधान है, जो तीन वरिष्ठतम आईपीएस का चयन, उनके कामकाज के मूल्यांकन के आधार पर करता है, जिसका कार्यकाल कम से कम दो वर्ष का शेष हो. पर ऐसे भी उदाहरण हैं कि इन नियमों को बाईपास करके, अस्थाई रूप से कार्यवाहक डीजीपी की नियुक्ति की गई है और इनसे बचने का रास्ता ढूंढ लिया गया है.

प्राकृतिक न्याय का सिद्धांत कहता है कि जो नियुक्त करता है, वही हटा भी सकता है. पर यह न्याय का सिद्धांत तब भुला दिया गया जब सीबीआई के निदेशक आलोक वर्मा को केवल इसलिए तमाम नियमों को ताक पर रख कर हटा दिया गया कि उन्होंने राफेल सौदे से सबंधित एक प्रार्थनापत्र की जांच के लिए, पूर्व मंत्री यशवंत सिन्हा, अरुण शौरी और सुप्रीम कोर्ट के ऐडवोकेट प्रशांत भूषण से मुलाकात कर ली थी. राफेल सौदे की जांच के अनुरोध के मुद्दे पर हुई इस मुलाकात के बाद, न केवल सीबीआई निदेशक आलोक वर्मा रातों रात हटा दिए गए बल्कि आधी रात में उनके दफ्तर की तलाशी भी ली गई.

राफेल की जांच से डर किसे है यह बात अब पोशीदा भी नहीं है. इस सौदे के मामले में अभी न तो जांच की कोई बात सामने आई थी और न ही जांच का कोई अंदेशा था, फिर भी एक डरी हुई सरकार ने दिन के उजाले तक का इंतजार नहीं किया और बिना नियुक्ति पैनल, जिसमें प्रधानमंत्री, नेता विरोधी दल और सुप्रीम कोर्ट के चीफ जस्टिस सदस्य होते हैं, की सहमति के ही सीबीआई प्रमुख को हटा दिया. ऐसे डरपोक लोग पुलिस को बेजा राजनीतिक दखलंदाजी से मुक्त करेंगे, मुझे इस पर संदेह है.

3. न्यूनतम कार्यकाल तय करें.

सरकार यह सुनिश्चित करे कि एक्जीक्यूटिव कर्तव्य पदों पर नियुक्त, अन्य पुलिस अधिकारियों, जिसमें जिले के प्रभारी पुलिस अधीक्षकों और पुलिस स्टेशन के थाना प्रभारी आते हैं, को भी न्यूनतम 2 वर्ष का कार्यकाल प्रदान किया जाय.

4. जांच और कानून व्यवस्था बनाए रखने के कार्यों को अलग अलग करें.

यह एक वाजिब सिफारिश है और इसके लिए सरकार को कदम उठाना चाहिए. यूपी के कानपुर में जांच और कानून व्यवस्था की शाखाएं अलग-अलग रही है. कानपुर में पहले जो चौकी इंचार्ज का पद था, वह कानून व्यवस्था के लिए ही बना था और थानों में जो सब इंस्पेक्टर नियुक्त होते थे, वे विवेचक के रूप के रहते थे, पर पिछले कुछ सालों से यह व्यवस्था भी भंग हो गई.

जांच और कानून व्यवस्था की अलग अलग शाखाएं रहने से, मुकदमों की तफ्तीशों की गुणवत्ता बढ़ जाती है है, क्योंकि कानून और व्यवस्था की इतनी समस्याएं रोज आती है कि एक ही अधिकारी जो जांच भी करता है और उसे ही कानून व्यवस्था भी बनाए रखनी है तो वह उन गंभीर अपराध की विवेचनाओं के प्रति, न तो पर्याप्त समय दे पाता है और न ही उनके प्रति न्याय कर पाता है.

पर इन दोनों शाखाओं को अलग अलग करने के लिए अधिक जनशक्ति, अधिकारियों विशेषकर सब इंस्पेक्टर और कांस्टेबल की जरूरत होगी लेकिन जब सरकार पहले से ही रिक्त पद नहीं भर पा रही है तो क्या वह नए पद का सृजन और उनपर नियुक्ति करने की स्थिति में है, यह एक विचारणीय प्रश्न है.

5. निष्पक्ष और पारदर्शी प्रणाली स्थापित करें.

पुलिस उपाधीक्षक के पद से नीचे के पुलिस अधिकारियों के स्थानांतरण, पोस्टिंग, पदोन्नति और अन्य सेवा से संबंधित मामलों पर निर्णय लेने और सिफारिश करने के लिए एक पुलिस स्थापना बोर्ड की स्थापना करें. राज्य सरकारों ने इस प्रकार के पुलिस स्थापना बोर्ड का गठन किया गया है और इसी अनुसार नियुक्तियां भी हो रही है.

6. प्रत्येक राज्य में एक पुलिस शिकायत प्राधिकरण की स्थापना.

राज्य स्तर पर पुलिस हिरासत में मौत, गंभीर चोट या पुलिस हिरासत में बलात्कार सहित गंभीर कदाचार के मामलों में पुलिस अधीक्षक और उससे ऊपर के पुलिस अधिकारियों के खिलाफ सार्वजनिक शिकायतों को देखने के लिए एक पुलिस शिकायत प्राधिकरण होना चाहिए. जिला स्तर पर पुलिस उपाधीक्षक के स्तर तक के पुलिस कर्मियों के खिलाफ गंभीर कदाचार के मामलों में सार्वजनिक शिकायतों की जांच के लिए पुलिस शिकायत प्राधिकरण की स्थापना की जानी चाहिए. यह सिफारिश मान ली गई है. शिकायत प्राधिकरण गठित है.

7. चयन आयोग का गठन करें.

कम से कम 2 साल के कार्यकाल के साथ केंद्रीय पुलिस संगठनों के प्रमुखों के चयन और नियुक्ति के लिए एक पैनल तैयार करने के लिए केंद्रीय स्तर पर एक राष्ट्रीय सुरक्षा आयोग की स्थापना की आवश्यकता है.

उपरोक्त, बाध्यकारी निर्देशों को, सुप्रीम कोर्ट ने तत्काल लागू करने को कहा था. प्रारंभ में, शीर्ष अदालत ने अपने फैसले के अनुपालन की निगरानी की और सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों द्वारा आदेशों के पालन के बारे में सुप्रीम कोर्ट ने यह भी पाया कि कुछ बिंदुओं पर अनुपालन असंतोषजनक था. कॉमनवेल्थ ह्यूमन राइट्स इनिशिएटिव द्वारा तैयार की गई एक रिपोर्ट में फरवरी 2014 तक सभी राज्य सरकारों द्वारा किए गए अनुपालन की स्थिति उपलब्ध है, उसे देखा जा सकता है.

अंग्रेज यहां इसलिए नहीं आए थे कि वे एक सुव्यवस्थित शासन प्रणाली स्थापित करें. वे क्राउन के सबसे चमकते हीरे जैसे, इस उपनिवेश से, कमाने खाने और अपने साम्राज्य को समृद्ध करने के उद्देश्य से आए थे. उन्होंने शांति व्यवस्था स्थापित करने का जो तंत्र विकसित किया, उसका भी उद्देश्य लोकहित उतना नहीं था, बल्कि वे इसलिए शांति चाहते थे कि वे चैन से देश की संपदा का दोहन कर सकें. ब्रिटिश साम्राज्य के शासनकाल में कितनी धन संपदा ईस्ट इंडिया कम्पनी से लेकर, क्राउन के राज खत्म होने तक, अंग्रेजों द्वारा बटोर कर ब्रिटेन ले जाई गई है, इस पर एक पैराग्राफ में नहीं लिखा जा सकता है, इस पर तो कई किताबें भी उपलब्ध हैं.

1861 ई. में जब पुलिस अधिनियम बना तब आधुनिक पुलिस का ढांचा अस्तित्व में आया. पुलिस तब कलेक्टर के आधीन रखी गई, क्योंकि कलेक्टर को लगान वसूलना था और लगान वसूलने में कोई समस्या न आए इसलिए पुलिस का गठन किया गया और उसे कलेक्टर के आधीन रखा गया. लगान या टैक्स वसूलना ही मूल उद्देश्य था. यह अधिनियम आज भी पाकिस्तान और बांग्लादेश में लागू है. तभी इंडियन पेनल कोड, अपराध स्थिति और अपराध की विवेचना, और ट्रायल के लिए कोड ऑफ क्रिमिनल प्रोसीजर सीआरपीसी का गठन किया गया. मुकदमों के दौरान सुबूतों पर कैसे बहस और यकीन या लायकीन किया जाएगा, उसके लिए इंडियन एविडेंस एक्ट बनाया गया. यह क्रिमिनल जस्टिस सिस्टम की शुरुआत थी जो आज भी लगभग 160 साल बाद थोड़े बहुत परिवर्तनों के साथ कमोबेश उसी सिलसिले पर चल रही है.

एक दिक्कत यह भी है कि, केंद्र सरकार/संसद अब पुलिस अधिनियम 1861 को निरस्त नहीं कर सकती है. भारत सरकार अधिनियम 1935 और अब भारत के संविधान 1950 के लागू हो जाने के बाद ‘पुलिस’ राज्य का विषय निर्धारित हो गया है. उस समय का लागू कोई भी कानून, राज्य विधानमंडल द्वारा पारित कानून समझ लिया है. अब केवल, संबंधित, राज्य विधानमंडल ही पुलिस से जुड़े कानून बना सकते हैं, जिसमें पुलिस अधिनियम 1861 में संशोधन या उसका निर्स्तीकरण भी शामिल है. केंद्र सरकार केवल एक मॉडल कानून की सिफारिश कर सकती है, लेकिन वह एक मॉडल गाइडलाइन की ही तरह होगा. इसके अतिरिक्त उसके पास भी कोई कानूनी बल नहीं होगा कि वह उसे पारित करा ही दे.

क्या केंद्र सरकार की नीयत, सच में, पुलिस सुधार की है ? ऐसा बिलकुल नहीं लगता है. जिस तरह से सरकार, सीबीआई, ईडी आदि का खुलकर दुरुपयोग कर रही है, अपने चहेते अफसरों को अनावश्यक सेवा विस्तार देकर उन्हें उपकृत कर अपना दखल जांच एजेंसियों में बढ़ा रही है, उसे देखते हुए यह उम्मीद करना कि वर्तमान सरकार, पुलिस सुधार के एजेंडे पर आगे बढ़ेगी, मिथ्या आशा पालना है.

सच तो यह है कि, केंद्र सरकार खुद पुलिस में किसी भी सुधार को रोकने में अधिक रुचि ले रही है. इस सरकार ने तो खुलेआम ‘सेवा विस्तार नियमों का उल्लंघन कर, मनचाहे अफसरों को नियुक्त करने की एक नई राह खोज ली है. 1980 में तैयार हुई राष्ट्रीय पुलिस कमीशन की रिपोर्ट भी अब तो अप्रासंगिक हो रही है, क्योंकि, नए नए अपराध और अपराध के तरीके तब से बदल गए हैं. या यूं कहें वे और जटिल और आधुनिक होते जा रहे हैं, और हम अब भी उसी औपनिवेशिक मानसिकता की पुलिस से अपराध नियंत्रण और कानून व्यवस्था स्थापित करने की उम्मीद पाले हैं.

  • विजय शंकर सिंह

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