Home कविताएं काना शहर

काना शहर

0 second read
0
0
308

सूरज के पार
काना हो जाता है मेरा शहर

रोशनी के लट्टुओं के दिन लद गए हैं
अब बित्ते भर की दांत चियारी में
जगमगा उठता है
काने का पुरुषार्थ

बेबस लड़कियां
फिसलन से बचती हुई
घरों की तलाश में मशगूल हैं
जहां पर एक काना कोने में
शील भंग की अनंत संभावनाएं
कुकुर कुंडली मारे
जाड़े से लड़ने की कोशिश में है

कोई अदृश्य हाथ मेरी गर्दन तक पहुंचता है
और मैं ठिठक कर रुक जाता हूं
पीछे कोई नहीं होता
सिवा एक बंजर दिन के
जिसकी ज़मीन पर मैं रोज़ाना बोता रहता हूं
सपने

मकानों की सारी दीवारें
नग्नता छुपाने के अभेद्य कवच हैं

जैसे सारे शब्द
भावों को छुपाने के औज़ार हैं

मैं उन लड़कियों से सच नहीं कह सकता
मैं उनको नहीं कह सकता कि
वे अपने बाथरूम में भी महफ़ूज़ नहीं हैं
नित्य क्रिया के समय भी नहीं
माहवारी के दौरान भी नहीं

बुर्के के पीछे भी
वे उतनी ही नंगी हैं
जितना कि बिकिनी के पीछे

काने शहर की एक आंख
सिर्फ़ नग्नता देखने के लिए बनीं हैं

फिर भी उस आंख से
उसे नहीं दिखता है
भूखी थालियों का भयावह सच

हर एक बदन सिर्फ़ एक थाली है
जितना भूखा और नंगा
उतना ही उपजाऊ

हैरत की बात है कि इस काने शहर में
पानी हमेशा नीचे से उपर की तरफ़ बहता है
फिर भी उनकी ऊंची बस्तियों में
जल जमाव की समस्या के प्रति कोई
आक्रोश नहीं है

नीचा नगर मस्त है
उनकी बस्ती में पीलिया का उत्सव
ज़ोर शोर से मनाया जा रहा है

उनकी बेटियों के शरीर की छाया
नशे के साथ चखना है

मेरा टूटा हुआ बदन
अपने खोह में समाने के पहले
अष्टावक्र सा दिखता है
आधे अंधेरे उजाले में लेकिन
मुझे किसी ऋषि का मान नहीं मिलता.

  • सुब्रतो चटर्जी

[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

Donate on
Donate on
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
  • गुरुत्वाकर्षण के विरुद्ध

    कई दिनों से लगातार हो रही बारिश के कारण ये शहर अब अपने पिंजरे में दुबके हुए किसी जानवर सा …
  • मेरे अंगों की नीलामी

    अब मैं अपनी शरीर के अंगों को बेच रही हूं एक एक कर. मेरी पसलियां तीन रुपयों में. मेरे प्रवा…
  • मेरा देश जल रहा…

    घर-आंगन में आग लग रही सुलग रहे वन-उपवन, दर दीवारें चटख रही हैं जलते छप्पर-छाजन. तन जलता है…
Load More In कविताएं

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…