सूरज के पार
काना हो जाता है मेरा शहर
रोशनी के लट्टुओं के दिन लद गए हैं
अब बित्ते भर की दांत चियारी में
जगमगा उठता है
काने का पुरुषार्थ
बेबस लड़कियां
फिसलन से बचती हुई
घरों की तलाश में मशगूल हैं
जहां पर एक काना कोने में
शील भंग की अनंत संभावनाएं
कुकुर कुंडली मारे
जाड़े से लड़ने की कोशिश में है
कोई अदृश्य हाथ मेरी गर्दन तक पहुंचता है
और मैं ठिठक कर रुक जाता हूं
पीछे कोई नहीं होता
सिवा एक बंजर दिन के
जिसकी ज़मीन पर मैं रोज़ाना बोता रहता हूं
सपने
मकानों की सारी दीवारें
नग्नता छुपाने के अभेद्य कवच हैं
जैसे सारे शब्द
भावों को छुपाने के औज़ार हैं
मैं उन लड़कियों से सच नहीं कह सकता
मैं उनको नहीं कह सकता कि
वे अपने बाथरूम में भी महफ़ूज़ नहीं हैं
नित्य क्रिया के समय भी नहीं
माहवारी के दौरान भी नहीं
बुर्के के पीछे भी
वे उतनी ही नंगी हैं
जितना कि बिकिनी के पीछे
काने शहर की एक आंख
सिर्फ़ नग्नता देखने के लिए बनीं हैं
फिर भी उस आंख से
उसे नहीं दिखता है
भूखी थालियों का भयावह सच
हर एक बदन सिर्फ़ एक थाली है
जितना भूखा और नंगा
उतना ही उपजाऊ
हैरत की बात है कि इस काने शहर में
पानी हमेशा नीचे से उपर की तरफ़ बहता है
फिर भी उनकी ऊंची बस्तियों में
जल जमाव की समस्या के प्रति कोई
आक्रोश नहीं है
नीचा नगर मस्त है
उनकी बस्ती में पीलिया का उत्सव
ज़ोर शोर से मनाया जा रहा है
उनकी बेटियों के शरीर की छाया
नशे के साथ चखना है
मेरा टूटा हुआ बदन
अपने खोह में समाने के पहले
अष्टावक्र सा दिखता है
आधे अंधेरे उजाले में लेकिन
मुझे किसी ऋषि का मान नहीं मिलता.
- सुब्रतो चटर्जी
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]