शुद्ध शाकाहारी नरेन्द्र मोदी के हिंसक प्रकृति को समझने के लिए 8 चीतों को विदेश से आयात करने की घटना को समझना बेहद जरूरी है. सर्वप्रथम तो इन 8 चीतों को रखने के लिए जिस भू-भाग का चयन किया गया है वह है आदिवासियों के 24 गांव, जिसे जबरन उसकी जमीन से उखाड़ फेंक दिया गया है. दूसरा, इस 8 चीतों का आहार बनाने के लिए 181 मासूम हिरण को छोड़ा गया है, ताकि इसे खाकर ये 8 हिंसक चीता अपनी भूख मिटा सके. यह है शुद्ध शाकाहारी मोदी का हिंसक विकास, जिसे पत्रकार गिरीश मालवीय इस प्रकार लिखते हैं.
नेशनल पार्क का बिजनेस मॉडल यानी आदिवासियों को उनकी जमीन से खदेड़ना
चूंकि कूनो नेशनल पार्क में मोदी जी के द्वारा चीते छोड़े जानें का मामला सुर्खियों में है इसलिए एक बार नेशनल पार्क के बिजनेस मॉडल पर भी चर्चा कर ही लेना चाहिए. विदेशों के बारे में तो हम नहीं कह सकते लेकिन नेशनल पार्क के नाम पर जानवरों को रिहैबिटेट करने के नाम पर भारत में बड़े खेल होते हैं. भारत में किसी जंगल को नेशनल पार्क बनाना वहां रहने वाले मूल निवासियों यानि आदिवासियों को उनके जल, जंगल, जमीन से बेदखल करके बेशकीमती संसाधनों पर कब्जे करने का दूसरा नाम है.
कूनो में भी यही हुआ है. कूनो राष्ट्रीय उद्यान के अंतर्गत आने वाले सभी 24 गांव में लगभग दस हजार सहारिया आदिवासियों का विस्थापन किया गया है. इस जंगल-जंगल खेल की असलियत यही है कि पहले बड़े-बड़े वन क्षेत्र को संरक्षित करने की बात करो फिर वहां रहने वाले आदिवासी समुदाय को जंगल से बाहर कर दो. फिर वहा बड़े-बड़े उद्योगपतियों को खदाने खोलने की अनुमति दो, होटल रिसोर्ट वालो को खुली छूट दो और सरंक्षित क्षेत्र में चुपचाप जमकर तस्करी करवाओ.
जिस भी वन क्षेत्र को को इस तरह से रिजर्व घोषित कर दिया जाता है वहां रहने वाले आदिवासियों के अधिकारों को शून्य घोषित कर दिया जाता है. इसका बड़ा कारण यह है कि जानवरों के संरक्षण की अवधारणा में समुदायों को शामिल नहीं किया है. वहां रहने वाले समुदायों को जोड़कर, उन्हें तैयार कर, उनके लिए आर्थिक स्रोत संरक्षण व्यवस्था में विकसित कर साथ लेने के बजाए उन्हें उस पूरी प्रक्रिया से काट दिया जाता है.
भारत में जंगल को बचाना कोई पवित्र लक्ष्य नहीं है, यह एक उद्योग बन चुका है जिसमें सत्ताधारी दल के बड़े नेताओं के लग्गु भग्गूओं को जो अपने NGO खोल कर बैठे हैं, बड़ी मात्रा में फंड उपलब्ध कराया जाता है. विदेशों से, UN से भी जो भी फंडिंग आता है उसे मिलजुलकर हड़पने की योजना बनाई जाती है. हजारों करोड़ रुपये का फंड इन डेंजर स्पीशीज के नाम पर कलेक्ट किया जाता है, और इससे सैकड़ों करोड़ के विज्ञापन मीडिया संस्थानों को रिलीज कर दिए जाते हैं, बदले में मीडिया ऐसे इवेंट का खूब प्रचार करता है. बहुत सम्भव है कि आने वाले दिनों में आपको ऐसे ही विज्ञापन देखने को मिले.
बहरहाल, आज सुबह से न्यूज़ चैनल चीतामय हो रहे थे. ऐसे में सोशल मीडिया समाज न्यूज़ एंकरों को ललकारने लगा कि कोई तो दिखाओ क्रिएटेविटी ! अरे कोई तो आओ चीते की ड्रेस पहन कर प्रोग्राम करने ! दीपक चौरसिया को सब बहुत मिस कर रहे थे. धीरे धीरे शाम गहराने लगी और ऐसे में रुबिका लियाकत ने एक कठिन फैंसला लिया. अपनी लियाकत को ताक पर रखते हुए एंकरों की बची खुची इज्जत को नीलाम करने का फैंसला किया और आ गई मैदान में चीता प्रिंट की ड्रेस पहनकर –
आपको याद होगा कि 2018 में महाराष्ट्र के यवतमाल में एक तथाकथित आदमखोर बाघिन की अवनि को गोली मार दी गई और वह सिर्फ इसलिए कि वह उस क्षेत्र में रह रही थी जिसके आसपास अनिल अंबानी की रिलायंस को जमीन बेच दी गयी थी. जनवरी 2018 में मोदी सरकार ने अनिल अंबानी की रिलायंस ग्रुप को सीमेंट फैक्ट्री लगाने के लिए यवतमाल के जंगल का 467 हेक्टयर दे दिया था. इसलिए कहता हूं कि यह एक बिजनेस मॉडल ही है.
अडानी के हवाले देश के संसाधन और 130 करोड़ लोग
गिरीश मालवीय के इस टिप्पणी के साथ शुद्ध शाकाहारी नरेन्द्र मोदी के विकास का एक अंश यहां पूरा हो जाता है. अब हम इस पूरी घटना का विस्तार पूरे देश में कर देते हैं, तब हम पाते हैं कि जिस तरह मोदी सरकार ने 8 चीतों के लिए आदिवासियों के 24 गांव उजाड़ा और उसका आहार बनने के लिए 181 हिरणों को छोड़ दिया, उसी तरह फकीर नरेन्द्र मोदी ने एक अडानी नामक चीता गुजरात से लाया और देश के सम्पूर्ण संसाधनों को उसके हवाले कर दिया और उसका आहार बनने के लिए 130 करोड़ लोगों को छोड़ दिया.
गिरीश मालवीय लिखते हैं – क्या विसंगतियां देखने को मिलती है ! जब मोदी की सरकार चीते का मुंह रंगा प्लेन नामीबिया भेज रही है, ठीक उसी वक्त एक मां सरकारी हस्पताल में अपनी बेटी के लिए बेड मिलने का इंतजार करती हुए खून की थैली हाथ में उठाए हुए है. आपको याद ही होगा कि कुछ दिनों पहले आपके हमारे दिए टैक्स से जमा करोड़ों रुपए शाहराहों पर रात में ड्रोन उड़ाकर लाइट शो दिखाने में बर्बाद किए गए.
खून की थैली उठाए एक मां का फोटो यहां इसलिए भी प्रासंगिक है कि कुछ दिन पहले ही ख़बर आई कि सरकार द्वारा GDP के मुकाबले स्वास्थय पर खर्च में कमी आई है. नेशनल हेल्थ अकाउंट की ताजा जारी रिपोर्ट में बताया गया है कि साल 2019 में सरकार का कुल हेल्थ पर खर्चा उनके जीडीपी का 3.2 प्रतिशत ही रह गया है. साल 2004-05 में जीडीपी का 4.2 प्रतिशत स्वास्थ्य पर खर्च होता था लेकिन साल दर साल लगातार बढ़ने के बजाए यह कम हो गया है.
रात में उड़ते हुए चमकीले ड्रोन की इवेंट हो या और नामीबिया से लाने वाले चीतों का इवेंट दिखाने वाला टीवी मीडिया कभी इस बात पर बहस नहीं करवाता कि मोदी सरकार स्वास्थ्य पर खर्च क्यों घटा रही है ? जबकि स्वास्थ्य और शिक्षा प्रदान करना किसी भी कल्याणकारी राज्य के दो अनिवार्य स्तंभ हैं. कोरोना महामारी के बाद से यह महसूस हुआ कि सरकार को स्वास्थ्य पर खर्च बढ़ाना चाहिए लेकिन देश में जीडीपी के अनुपात में स्वास्थ्य पर सरकारी खर्च बढ़ने के बजाय कम हो गया है.
आपको जानकर हैरानी होगी कि कुछ सालों पहले भारत स्वास्थ्य पर सार्वजनिक और निजी व्यय सहित अपने जीडीपी का कुल 3.9 प्रतिशत खर्च करता था, जो मध्यम आय वर्ग के अन्य एशियाई देशों की तुलना में दूसरा सबसे कम है. म्यांमार स्वास्थ्य पर जीडीपी का 4.9 फीसदी खर्च करता है और नेपाल 6.9 फीसदी, यहां भी हम सिर्फ़ पाकिस्तान (2.7 फीसदी) से आगे हैं. न शिक्षा पर खर्च हो रहा है, न स्वास्थ्य पर !
यहां साफ़ दिख रहा है कि मोदी सरकार करदाताओं से अर्जित आय को विवेकशील ढंग से खर्च कर शिक्षा और स्वास्थ्य सेवा से जुड़ी जरूरतों को प्राथमिकता देने के बजाए इवेंटबाजी कराने में व्यस्त है.
मोदीनॉमिक्स अपने पूरे उरूज पर है
देश का विदेशी मुद्रा भंडार पिछले दो साल के सबसे न्यूनतम स्तर पर पहुंच गया हैं, जेफरीज कह रही है कि भारत को अपने विदेशी मुद्रा भंडार पर नजर बनाए रखने की जरूरत है. अगस्त के महीने में विदेशी मुद्रा भंडार में बड़ी कमी देखने को मिली है. डॉलर के मुकाबले रुपये की कमजोरी से निपटने के लिए आरबीआई ने बड़ी मात्रा में डॉलर बेचे हैं, जिसके कारण देश के विदेशी मुद्रा भंडार में यह कमी दर्ज की गई है.
जेफरीज के नोट में यह भी कहा गया है कि भारत का व्यापार घाटा बीते कुछ समय में अपने रिकॉर्ड स्तर पर पहुंच गया है. इसी तरह चालू खाते का घाटा (CAD) भी वित्तीय वर्ष 2022-23 में 3.5 फीसदी पर है जो एक दशक के उच्चत्म स्तर की ओर बढ़ रहा है.
आपको याद होगा कि मोदी राज में व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी के छात्र गाहे बगाहे यह बताते आए हैं कि मोदीजी ने देश का सारा विदेशी कर्ज चुका दिया और कोई नया कर्ज भी नहीं लिया ! जबकि असलियत इसके ठीक विपरीत है. सरकार की ही ओर से कुछ दिन पहले जारी किए गए आंकड़े बताते हैं कि 31 मार्च, 2022 तक भारत का विदेशी कर्ज 620.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर की नई ऊंचाईयों को छू गया है, जो कि एक साल पहले मार्च 2021 के अंत में रहे 573.7 बिलियन अमेरिकी डॉलर के कर्ज से 8.2 प्रतिशत ज्यादा है.
एक बड़ी बात आरबीआई की रिपोर्ट से यह भी निकल कर सामने आई है कि यह विदेशी ऋण देश के विदेशी मुद्रा भंडार से ज्यादा हो गया है. उससे भी ज्यादा चिंताजनक तथ्य यह है कि भारत सरकार को इसी साल यानी 2022-23 में 267 अरब डॉलर के विदेशी कर्ज का पुनर्भुगतान करना है, जो भारत के पास कुल विदेशी मुद्रा भंडार का करीब 40 प्रतिशत से ज्यादा है.
आप देख ही रहे हैं कि भारत का विदेशी मुद्रा भंडार जिसकी मजबूती का बड़ा ढोल पीटा जाता था, पिछले कुछ महीने से लगातार गिर रहा है. साफ़ दिख रहा है कि ऐसे में भारत का विदेशी मुद्रा भंडार करीब करीब आधा खाली हो जाएगा. ये है देश की अर्थव्यवस्था की असलियत
मोदी सरकार ने रेलवे की भूमि के लिए न्यू लैंड लाइसेंसिंग फीस पॉलिसी बनाकर अडानी का कॉनकोर खरीदने का रास्ता साफ़ कर दिया है. LLF को मंजूरी देकर कंटेनर कॉरपोरेशन (Concor) के निजीकरण में एक महत्वपूर्ण रूकावट को हटा दिया है. भूमि लाइसेंस शुल्क को 6 प्रतिशत से घटाकर 1.5 प्रतिशत करने और लीज की अवधि बढ़ाने से CONCOR में केंद्र की 55 फीसदी हिस्सेदारी को खरीदना अडानी अब आसान हो गया है.
देश के आयात निर्यात पर अडानी के टोटल कंट्रोल के लिए उसका कॉनकोर को खरीदना बहुत जरूरी है. कॉनकोर जैसी महत्वपूर्ण सरकारी कन्टेनर कम्पनी को खरीद कर वह देश की पूरी लॉजिस्टिक चेन पर कब्जा करने जा रहा है. आप देख ही रहे हैं कि पिछले पांच सालों में अडानी ने लॉजिस्टिक के क्षेत्र में अनेक कंपनिया बनाई है और रेलवे ट्रैक के आसपास बड़े-बड़े गोदामों का निर्माण किया है.
अभी देश के 11 बड़े बन्दरगाह अडानी के कब्जे में है. 7 बड़े एयरपोर्ट पर उसका कब्जा है लेकिन इन पोर्ट्स पर लगभग सारा माल अंतर्देशीय बंदरगाहों से आता है, जिन्हें ड्राई पोर्ट्स कहा जाता है जो कॉनकोर के पास है. कॉन कोर ही कंटेनरों के लिए रेल परिवहन प्रदान करता है, जो पोर्ट संचालन के लिए सबसे महत्वपूर्ण हैं.
दरअसल कॉनकोर इंडिया यानि कंटेनर कॉर्पोरेशन ऑफ इडिया जिसे भारत सरकार के नवरत्न कंपनियों में सबसे मुनाफे की कंपनी माना जाता है, यह रेलवे से जुड़ा PSU है. इसका गठन 1988 में 83 करोड़ की लागत से कंपनी एक्ट के तहत हुआ था. आज इस कंपनी की नेट वैल्यू 32 हजार करोड़ है. इस कंपनी से प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रुप से 10 लाख लोग जुड़े हुए हैं.
इस वक्त कॉनकोर देश के लॉजिस्टिक क्षेत्र में लगभग 72 प्रतिशत की हिस्सेदारी है, इसके कुल 83 टर्मिनल है जो देश भर में अलग अलग स्थानों पर है. 43 टर्मिनल रेलवे की जमीन पर हैं, जिनकी अनुमानित लागत 25 हजार करोड़ रुपए है.
भारत में केवल कॉनकॉर ही सामुद्रिक व्यापारियों को रेल मार्ग से कंटेनरीकृत कार्गों हेतु यातायात मुहैया कराता है इसलिए किसी भी कीमत पर अडानी इसे खरीदने पर आतुर है, और मोदी सरकार उसे पूरा सहयोग कर रही है. कई बार पहले भी लिख चुका हूं कि इस देश का नाम 2024 तक इंडिया नहीं रहेगा बल्कि इस देश का नाम अडानी रिपब्लिक हो जाएगा.
‘इस देश का नाम अडानी रिपब्लिक हो जाएगा’, इसके साथ ही गिरीश मालवीय का विश्लेषण समाप्त हो जाता है और यही शुद्ध शाकाहारी पुजारी फकीर नरेन्द्र मोदी के मोदीनॉमिक्स का असली सार है. जिस तरह 181 हिरणों का शिकार करने के लिए 8 चीते विदेश से लाया है, उसी तरह 130 करोड़ भारतीयों का शिकार करने के लिए गुजरात से अडानी को लाया है. देखना है 181 हिरण और 130 करोड़ भारतीय इस चीतों का आहार बनने से खुद को किस तरह बचा पाता है.
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