शिव वर्मा
एक दिन प्रात: जब मैं कमरे में बैठा कालेज का काम पूरा कर रहा था तो सुना बाहर पड़ोसी से कोई मेरा पता पूछ रहा है. अपना नाम सुनकर मैं बाहर निकल आया, देखा मैला शलवार-कमीज पहने कम्बल ओढ़े एक सिख नौजवान सामने खड़ा है- लंबा कद, खूब गोरा रंग, छोटी-छोटी आंखें, चुभती हुई पैंनी निगाह, खूबसूरत चेहरे पर हल्की-हल्की छोटी-सी दाढ़ी, केश और पगड़ी. ‘यह रहे शिव वर्मा’, मुझे देखकर पड़ोसी ने कहा.
आगंतुक दोनों हाथ फैलाकर मेरे ऐसे लिपट गया मानो कोई बहुत पुराना दोस्त हो. फिर मेरा हाथ खींचते हुए उसने कमरे में ऐसे प्रवेश किया जैसे कमरा मेरा नहीं उसी का था. छोटे कमरे में जगह की तंगी के कारण मैंने चारपाई निकाल कर जमीन पर ही बिस्तर लगा रखा था. उसने बगैर किसी तकल्लुफ के नि:स्संकोच जाकर बिस्तर पर आसन लगा दिया और मेरा हाथ खींच कर पास बिठलाते हुए बोला, ‘मेरा नाम रंजीत है. मैं दो-चार दिन यहीं रहूंगा. दिल्ली के तुम्हारे दोस्त से मैं तुम्हारे और जयदेव के बारे में सुन चुका हूं. मैं भी तुम्हारी ही डगर का राहगीर हूं.’ फिर कुछ सोचकर पूछा, ‘विजय और सुरेंद्र पांडे को जानते हो ?’
रंजीत के सहज व्यवहार, निष्कपट हंसी और मुस्कुराती हुई आंखों ने पहली ही मुलाकात में मेरे सब हथियार छीन लिए थे और अब मेरे लिए उस पर अविश्वास करना असंभव था. रोक-थाम के मेरे सारे बांध टूट गए और मैंने भी उसी सहज भाव से कह दिया ‘हां, जानता हूं.’
‘तो इन दोनों को कहला दो कि आज रात यहीं आकर मुझ से मिल लें.’ उसने कहा. फिर कुछ रुक कर पूछा, ‘जयदेव कहां है ?’
इस बार मैं झूठ बोल गया. साहस बटोर कर कह दिया, ‘कहीं बाहर गया है, यहां नहीं है.’
मैं बात टाल गया हूं इसे रंजीत ने भांप लिया. इस विचार ने कि मैं अभी तक उस पर विश्वास नहीं कर पाया हूं, कुछ देर के लिए उसे उदास-सा कर दिया. वह अपने साथ विक्टर ह्यूगो का सुप्रसिध्द उपन्यास ‘ला मिजरेबुल’ लाया था. उसने चुपचाप उसे पढ़ना आरंभ कर दिया-मानो किसी ने उसकी हंसी, उसकी बातचीत, उसके बेतकल्लुफाना व्यवहार आदि पर अचानक ब्रेक लगा दिया हो.
मैं झूठ बोल तो गया पर दिल में बात खटकती-सी रही. भगत सिंह की उदासी के सामने मेरे लिए कमरे में ठहरना कठिन हो गया और विजय को खबर भेजवाने के बहाने मैं कालेज चला गया. सुरेंद्र जीत का पैगाम दिया तो उन्होंने बतलाया कि वह पार्टी का पुराना आदमी है.
कालेज से वापस आते-आते दोपहर के खाने का समय हो गया था. जयदेव और मैं प्राय: मेस में खाना खाने एक ही साथ जाते थे. रंजीत के लिए कमरे में खाना मंगवाने के बजाय मैं उसे भी साथ लेता गया. मेस में उस समय हम तीन ही खाने वाले थे. रंजीत बीच में जयदेव के पास ही बैठा था लेकिन मेस का कोई अन्य सदस्य समझ कर उसने उधर ध्यान नहीं दिया. फिर जब जयदेव ने चुपचाप उसकी दाल में कस कर गरम घी छोड़ दिया तो उसने पहले जयदेव की ओर देखा फिर प्रश्न भरी निगाह से मेरी ओर देखने लगा. उसकी उलझन पर हम दोनों को हंसी आ गयी. उसके मुंह से निकल गया ‘जयदेव ?’ हम लोग और जोर से हंस पड़े. रंजीत ने मेरी पीठ पर जोर का घूंसा जमाते हुए कहा ‘चोर कहीं के.’ फिर व्यंग्य कसते हुए बोला ‘लगता है अपनों को बहुत सहेज कर रखने की आदत है.’
‘फिलहाल तो तुम्हारी घूसे की चोट ने अपना-पराया सब बराबर कर दिया है.’ मैंने कहा.
उसने बांया हाथ मेरी पीठ पर फेरते हुए कहा, ‘लो पीठ सहलाये देता हूं, अब चुप-चाप खा लो.’
रंजीत मेरे कमरे में जितने दिन रहा प्राय: रोज ही विजय और सुरेंद्र पांडे आते रहे. वह काकोरी के अभियुक्त पंडित रामप्रसाद बिस्मिल को जेल से छुड़ाने की योजना पर विचार विमर्श करने आया था. तीन-चार दिन रहने के बाद बिस्मिल से सम्पर्क स्थापित कर योजना पक्की कर रखने का भार विजय पर छोड़ वह पंजाब वापस चला गया.
रंजीत के चले जाने के बाद मुझे पता चला कि उसका असली नाम भगत सिंह है और वह पहले भी कानपुर में श्री गणेशशंकर विद्यार्थी के पास ‘प्रताप’ में काम कर चुका है. कानपुर में ‘प्रताप’ में काम शुरू करने से पहले कुछ दिन उसने अखबार बेचकर भी निर्वाह किया था. यह भी पता चला कि बिस्मिल को जेल से छुड़ाने का एक प्रयास पहले भी हो चुका था जिसे किन्हीं कारणवश बीच में ही छोड़ देना पड़ा था. उसमें भाग लेने के लिए भगत सिंह और सुखदेव के साथ पंजाब के कई और साथी भी आए थे. उसी दिशा में अब यह उसका दूसरा प्रयास था.
लगभग दो महीने बाद भगत सिंह फिर वापस आया. इस बार वह काफी दिन ठहरा. रामप्रसाद बिस्मिल के साथ विजय का संपर्क पहले तो खूब अच्छा रहा. बिस्मिल ने योजना की स्वीकृति भी दे दी थी, लेकिन दिन और समय अभी निश्चित नहीं हो पाया था. उधर केस के फैसले का दिन नजदीक आता जा रहा था. इसी बीच कुछ ऐसा हुआ कि बिस्मिल से पत्र व्यवहार और मुलाकातें आदि एकदम बंद हो गईं और उन पर सख्त पहरा लगा दिया गया. यह सब क्यों और कैसे हुआ यह तो नहीं जानता लेकिन इससे योजना को गहरा धक्का लगा. फिर भी विजय ने अपना प्रयास जारी रखा.
भगत सिंह मेरे कमरे में अधिकतर अपना समय पढ़ने में व्यतीत करता था. विक्टर ह्यूगो, हालकेन, टालस्टाय, दॉस्तोयवस्की, गोर्की, बर्नार्ड शॉ, डिकेंस आदि उसके प्रिय लेखक थे. पढ़ने से जब उसकी तबियत ऊबती तो वह छात्रावास के पीछे गंगा के किनारे जाकर बैठ जाता, या जब मुझे और जयदेव को कालेज से फुरसत होती तो हम लोगों से गप्प करता. उसकी बातचीत का विषय अधिकतर उसकी पढी हुई पुस्तकें होती. वह उनके बारे में बतलाता और फिर जोर देता कि हम भी उन्हें पढ़ें. कभी-कभी पुराने क्रांतिकारियों की कहानियां भी सुनाता-कूका विद्रोह, गदर पार्टी का इतिहास, कर्तार सिंह, सूफी अम्बाप्रसाद आदि की जीवनियां तथा बबर-अकालियों की बहादुरी की कहानियां बतलाते-बतलाते वह प्राय: ही भावुक हो उठता. उसकी वर्णन शैली में एक अजीब आकर्षण था जिससे खिंच कर प्राय: रोज ही हम दोनों घंटों पहले कालेज से भाग आते थे.
जयदेव आरंभ से ही मुझ से तगड़ा था. जोखिम से भिड़ने की उसकी आदत थी और मारपीट में उसका हाथ हमेशा से खुला था. उसके इन्हीं सब गुणों से प्रभावित होकर भगत सिंह ने उसे बिस्मिल वाले ऐक्शन में ले जाने का फैसला कर लिया. एक दिन दोपहर के समय जब उसने अपना उक्त निर्णय मुझसे बतलाया तो मुझे अपने दुबले-पतले शरीर पर बड़ी झुंझलाहट महसूस हुई. मैं पार्टी के काम के योग्य नहीं समझा गया इस विचार से मुझे गहरा आघात लगा और कुछ देर बैठे रहने के बाद नींद का बहाना लेकर मैं एक तरफ लेट गया. भगत सिंह जानता था कि मैं सो नहीं रहा हूं. वह कुछ देर तक पास पड़ी एक पुस्तक के पन्ने उलटता रहा, फिर मेरा कंधा हिलाते हुए उसने धीरे से पुकारा ‘शिव !’
‘क्या है ?’ उसकी ओर करवट बदलते हुए मैंने कहा.
‘एक बात पूंछू ?’
‘कहो.’
‘व्यक्ति का नाम बड़ा है या पार्टी का काम ?’
‘पार्टी का काम’ मैंने उत्तार दिया.
‘और पार्टी का काम अविराम गति से चलता रहे, हमारे, ‘ऐक्शन्स’ सफल होते रहें, हमारी बात देशवासियों तक नियमित रूप से पहुंचती रहे, आज़ादी की अपनी इस लड़ाई में हर मंजिल पर हम कामयाब होते रहें, इसके लिए पहली शर्त क्या है ?’
‘एक मजबूत और व्यापक संगठन’ मैंने उत्तर दिया.
‘संगठन और प्रचार’ उसने कहा. ”देश की जनता हमारे साहस और हमारे कामों की सराहना करती है लेकिन हमसे अपना सीधा संपर्क जोड़ पाने में वह असमर्थ है.अभी तक हमने खुले शब्दों में उसे यह भी नहीं बतलाया कि जिस आजादी की हम बात करते हैं उसकी रूप-रेखा क्या होगी, अंग्रेजों के चले जाने के बाद जो सरकार बनेगी वह कैसी होगी और किसकी होगी. अपने आंदोलन को जनाधार देने के लिए हमें अपना ध्येय जनता के बीच ले जाना होगा, क्योंकि जनता का समर्थन प्राप्त किए बगैर हम अब पुराने ढंग से इक्के-दुक्के अंग्रेज अधिकारियों को या सरकारी मुखबिरों को मार कर नहीं चल सकते. हम अभी तक संगठन तथा प्रचार की ओर से उदासीन रह कर प्राय: ऐक्शन पर ही जोर देते आए हैं. काम का यह तरीका हमें छोड़ना पड़ेगा. मैं तुम्हें और विजय को संगठन तथा प्रचार के कामों के लिए पीछे छोड़ना चाहता हूं.
कुछ देर चुप रह कर उसने कहा, ‘हम सब लोग सिपाही हैं और सिपाही का सबसे अधिक मोह होता है रणक्षेत्र से. इसीलिए ‘ऐक्शन’ पर चलने की बात उठते ही सब लोग उछल पड़ते हैं. फिर भी आंदोलन का ध्यान रखकर किसी न किसी को तो ‘ऐक्शन’ का यह मोह छोड़ना ही पड़ेगा. यह सही है कि आमतौर पर शहादत का सेहरा ‘ऐक्शनन्स’ में जूझने वालों या फांसी पर झूल जाने वालों के सर पर ही बंधता है, लेकिन इसके बावजूद उनकी स्थिति इमारत के मुख्य द्वार पर जड़े उस हीरे के समान ही रहती है जिसका मूल्य जहां तक इमारत का सवाल है, नींव के नीचे दबे एक साधारण पत्थर के मुकाबिले कुछ भी नहीं होता.’
मैं लेटे-लेटे भगत सिंह की बातें सुनता रहा. वह मेरे सर के पास दीवार का सहारा लिए बैठा था और ऐसे बात कर रहा था मानो जोर-जोर से सोचने का प्रयास कर रहा हो. बीच-बीच में उसके दाहिने हाथ की उंगलियां मेरे सर के बालों में घूम जातीं और वह फिर धीरे-धीरे रुक-रुक कर उसी लहजे में बोलना शुरू कर देता :
‘हीरे इमारत की खूबसूरती बढ़ा सकते हैं, देखने वालों को चकाचौंध कर सकते हैं, लेकिन इमारत की बुनियाद नहीं बन सकते, उसे लंबी उम्र नहीं दे सकते, सदियों तक अपने मजबूत कंधों पर उसके बोझ को उठा कर उसे सीधा खड़ा नहीं रख सकते. अभी तक हमारे आंदोलन ने हीरे कमाए हैं, बुनियाद के पत्थर नहीं बटोरे इसीलिए इतनी कुर्बानी देने के बाद भी हम अभी तक इमारत क्या उसका ढांचा भी खड़ा नहीं कर पाए. आज हमें बुनियाद के पत्थराें की जरूरत है.’
फिर कुछ रुककर बोला, ‘और त्याग तथा कुर्बानी के भी दो रूप हैं. एक है गोली खाकर या फांसी पर लटक कर मरना. इसमें चमक अधिक है लेकिन तकलीफ कम. दूसरा है पीछे रहकर सारी जिंदगी इमारत का बोझ ढोते फिरना. आंदोलन के चढ़ाव उतार के बीच प्रतिकूल वातावरण में कभी ऐसे भी क्षण आते हैं जब एक एक कर सभी हमराही छूट जाते हैं. उस समय मनुष्य सांत्वना के दो शब्दों के लिए भी तरस उठता है. ऐसे क्षणों में भी विचलित न होकर जो लोग अपनी राह नहीं छोड़ते, इमारत के बोझ से जिनके पैर नहीं लड़खड़ाते, कंधे नहीं झुकते, जो तिल-तिलकर अपने आपको इसलिए गलाते रहते हैं, इसलिए जलाते रहते हैं कि दिए की जोत मध्दिम न पड़ जाए, सुनसान डगर पर अंधेरा न छा जाए, ऐसे लोगों की कुर्बानी और त्याग पहले वालों के मुकाबिले क्या अधिक नहीं हैं ?’
दो-तीन दिन बाद विजय ने आकर जेल में बिस्मिल पर होने वाली सख्ती और अधिकारियों की सतर्कता का समाचार दिया और बतलाया कि फिलहाल उन्हें छुड़ाने के अपने मंसूबे हमें त्यागने पड़ेंगे. इस समाचार ने भगत सिंह की सारी योजनाएं चौपट कर दी, उसके सारे ख्वाब तोड़ दिए. बहुत कुछ कोशिशों के बाद बिस्मिल की लिखी एक गज़ल ही विजय के हाथ लग पायी थी. वह गज़ल हमारी योजनाओं को कार्यान्वित होने में देरी होते देख उन्होंने शायद उलाहने के तौर पर लिखी थी; जिसे अधिकारियों ने संभवत: प्रेम की एक साधारण कविता समझ कर पास कर दिया था. इस समय गज़ल की कुछ ही पंक्तियां मुझे याद हैं जो इस प्रकार थी –
मिट गया जब मिटने वाला फिर सलाम आया तो क्या,
दिल की बरबादी के बाद उनका पयाम आया तो क्या !
मिट गई जब सब उमीदें मिट गए सारे खयाल,
उस घड़ी गर नामावार लेकर पयाम आया तो क्या !
ऐ दिले नादान मिट जा अब तू कूये यार में,
फिर मेरी नाकामियों के बाद काम आया तो क्या !
काश अपनी जिंदगी में हम वो मंजर देखते,
बरसरेतुरबत कोई महशरखराम आया तो क्या !
आखिरी शव दीद के क़ाबिल थी बिस्मिल की तड़प,
सुबेहदम कोई अगर बालायेबाम आया तो क्या !
भगत सिंह ने विजय के हाथ से लेकर पर्चा पढ़ा. बिस्मिल का इशारा साफ था-कुछ करना है तो जल्दी करो, बाद में रस्से से लटकती मेरी लाश को तुमने अगर छुड़ा भी लिया तो वह तुम्हारे किस काम आएगी. कागज का वह टुकड़ा उसके हाथ से छूट कर जमीन पर गिर पड़ा और वह माथे पर हाथ रख कर पत्थर की निर्जीव मूर्ति की भांति दीवार के सहारे लुढ़क गया. अब और अधिक बातचीत उस दिन किसी के लिए भी संभव न थी. विजय और सुरेंद्र चले गए और भगत सिंह बगैर कुछ बोले चुप-चाप उठ कर गंगा की ओर चला गया.
काफी रात बीत जाने पर जब मैं और जयदेव उसकी तलाश में गंगा के किनारे पहुंचे तो उस समय भी वह माथे पर हाथ रक्खे ठंडी रेत पर उसी तरह पत्थर की मूर्ति बना बैठा था. हमने पास जाकर उसके कंधे पर हाथ रक्खा और कमरे में चलने के लिए कहा. वह उठा और परछाई की भांति हमारे पीछे हो लिया, बोला फिर भी नहीं.
कई महीने के परिश्रम से उसने जहां कुछ भी न था वहां संगठन का एक ढांचा खड़ा किया, योजना बनाई, हथियार जमा किए, साथी जुटाए और जब मंजिल नजदीक आने लगी और उसे लगा कि वह कुछ कर सकने में समर्थ हो सकेगा तो अचानक सब कुछ उलट गया-रह गया था केवल बिस्मिल का उलाहना. भगत सिंह को इससे गहरा आघात लगा, लेकिन एक ही दिन में उसने अपने ऊपर काबू पा लिया.
दूसरे दिन वह स्वयं ही बोला, ‘असफलताओं के सामने सर झुका कर बैठ जाने से तो मार्ग ही अवरुध्द हो जाएगा और तब रास्ते के रोड़े हटा कर बढ़ने के बजाय हम स्वयं ही दूसरों के लिए रोड़ा बन जायेंगे.’ उसने सब साथियों को एकत्र कर संगठन तथा प्रचार की समस्याओं पर बातचीत की, आगे का कार्यक्रम बनाया और जल्द वापस आने का वादा कर पंजाब चला गया. यह 1927 के शुरू के दिनों की बात है.
1926 में भगत सिंह, सुखदेव, भगवतीचरण, यशपाल आदि ने लाहौर में नौजवान भारत सभा की स्थापना की थी. यह क्रांतिकारी आंदोलन का एक प्रकार का खुला मंच था जिसका काम था आम सभाओं, बयानों, पर्चों आदि के माध्यम से क्रांतिकारियों के और उनके विचारों का प्रचार करना. शोषण, दरिद्रता, असमानता आदि की संसारव्यापी समस्या पर अध्ययन एवं विचार कर वे लोग इस परिणाम पर पहुंचे थे कि भारत की पूर्ण स्वाधीनता के लिए केवल राजनैतिक ही नहीं बल्कि आर्थिक स्वाधीनता भी आवश्यक है. मैजिक लैंटर्न द्वारा क्रांतिकारी शहीदों के चित्रों का प्रदर्शन और उसके साथ-साथ कमेंटरी के रूप में क्रांतिकारी आंदोलन के संक्षिप्त इतिहास से जनता को अवगत कराना भी उसका एक काम था. प्रचार का वह एक सशक्त माध्यम था.
नौजवान भारत सभा की स्थापना गुप्त संगठन के कार्य का क्षेत्र तैयार करने और जनता में साम्राज्यवाद विरोधी उग्र राष्ट्रीय भावना जगाने के लिए की गयी थी. भगत सिंह और भगवतीचरण वोहरा उसके मुख्य सूत्रधार थे. भगत सिंह उसके प्रथम महामंत्री (जनरल सेक्रेटरी) और भगवतीचरण वोहरा प्रथम प्रचारमंत्री चुने गए थे. सुखदेव, धन्वन्तरी, यशपाल और एहसान इलाही भी सभा के प्रमुख एवं सक्रिय सदस्यों में से थे. उस समय समाजवाद की ओर रुझान रखने वाले कांग्रेस के प्राय: सभी नौजवान खिंच कर सभा में आ गए थे.
सभा के कार्यकर्ताओं के राजनैतिक एवं सामाजिक ष्दृष्टिकोण को परिमार्जित करने और उन्हें वैज्ञानिक भौतिकवाद से परिचित कराने में ‘सर्वेंट्स आफ़ पीपल्स सोसाइटी’ के प्रिंसिपल छबीलदास का विशेष हाथ था. उनकी एक छोटी सी पुस्तिका ‘क्या पढें’ ने उस समय अध्ययन के लिए पुस्तक चुनने में हमारी काफी सहायता की थी. इनके अलावा कुछ कांग्रेसी तथा गैर कांग्रेसी नेताओं का सहयोग भी सभा को मिलता रहता था. इनमें डॉ. सत्यपाल, डॉ. किचलू, केदारनाथ सहगल और सोहन सिंह जोश के नाम उल्लेखनीय हैं.
भगत सिंह जब भी कानपुर आता तो अन्य पुस्तकों के साथ नौजवान भारत सभा का कुछ न कुछ साहित्य अपने साथ अवश्य लाता था. राधामोहन गोकुलजी और सत्यभक्त के संपर्क ने कानपुर के हम सभी साथियों में समाजवाद की ओर रुझान पैदा कर दिया था. शचींद्रनाथ सान्याल के माध्यम से श्रीराधामोहन गोकुलजी और सत्यभक्त से भगत सिंह का संपर्क काकोरी से पहले ही स्थापित हो चुका था और यह चारों समाजवाद तथा कम्युनिज्म पर काफी विचार विनिमय कर चुके थे. स्वर्गीय श्री गणेश शंकर विद्यार्थी के नेतृत्व में हम लोगों ने कानपुर मजदूर सभा में भी दिलचस्पी लेनी आरंभ कर दी थी. आगे चल कर भगत सिंह ने हमारे उस रुझान को बल दिया और समाजवाद का अध्ययन तथा उस पर बहस आदि करने की प्रेरणा प्रदान की.
उसका कहना था कि अंग्रेजी दासता के विरुध्द संघर्ष तो हमारे युध्द का पहला मोर्चा है. अंतिम लड़ाई तो हमें शोषण के विरुध्द ही लड़नी पड़ेगी – चाहे वह शोषण मनुष्य द्वारा मनुष्य का हो या एक राष्ट्र द्वारा दूसरे का हो. यह लड़ाई जनता के सहयोग के बगैर नहीं लड़ी जा सकती इसलिए हमें हर संभव उपायों से जनता के अधिक से अधिक निकट पहुंचने का प्रयास करते रहना चाहिए. नौजवान भारत सभा की स्थापना, मजदूर सभा में काम, पत्र-पत्रिकाओं में लेख-मालाएं, मैजिक लैंटर्न का प्रयोग, पर्चे और पैम्फलेट आदि इसी प्रयास के अंग थे.
भगत सिंह से पहले प्रचार तथा जनसंपर्क की दिशा में इतना बड़ा संगठित कदम क्रांतिकारियों ने नहीं उठाया था, यहां तक कि पकड़े जाने के बाद अदालत तक को उसने मुख्यतया अपने विचारों के प्रचार के साधन के रूप में ही इस्तेमाल किया. वह अच्छा योध्दा ही नहीं अच्छा प्रचारक भी था.
प्रचार के दो मुख्य साधन हैं – वाणी तथा लेखनी. भगत सिंह का दोनों पर समान अधिकार था. आमने-सामने की बातचीत में होने के साथ ही वह अच्छा वक्ता भी था. नौजवानों तथा विद्यार्थियों के बीच मैजिक लैंटर्न पर उसके भाषण तो विशेष रूप से लोकप्रिय थे. और कलम का धनी तो वह था ही. हिंदी, उर्दू, पंजाबी और अंग्रेजी पर उसका समान अधिकार था. उन दिनों कामरेड सोहन सिंह जोश अमृतसर में ‘किरती’ नाम से गुरुमुखी तथा उर्दू में एक मासिक पत्रिका निकालते थे. भगत सिंह उन में नियमित रूप से लिखता था. विभिन्न नामों से ‘किरती’ में क्रांतिकारी शहीदों की जो जीवनियां प्रकाशित हुई थीं उनमें से अधिकांश भगत सिंह की ही कलम की देन थी. हिंदी में उसने अधिकतर ‘प्रताप’ तथा ‘प्रभा’ (कानपुर), ‘महारथी'(दिल्ली) और ‘चांद’ (इलाहाबाद) में ही लिखा. अंग्रेजी में लिखे हुए उसके लेख, अदालती वक्तव्य, पत्र, पर्चें, आदि उसकी सशक्त शैली के प्रमाण हैं.
नौजवान भारत सभा के घोषणापत्र का अंग्रेजी मसविदा भगवतीचरण ने भगत सिंह के साथ मिलकर 1928 में तैयार किया था. भाषा-शैली तथा देश के उस समय के राजनैतिक स्तर को देखते हुए विचारों की परिपक्वता की दृष्टि से उस घोषणापत्र का आज भी एक ऐतिहासिक महत्व है. असेंबली में बम फेंकने के बाद पकड़े जाने पर अदालत में उसने जो बयान दिया था, वह तो उसी समय एक अंतरराष्ट्रीय ख्याति का दस्तावेज बन गया था.
उसे पढ़ने-लिखने का भी बेहद शौक था. वह जब भी कानपुर आता तो अपने साथ दो-चार पुस्तकें अवश्य लाता. बाद में फरार जीवन में जब उसके साथ रहने का अवसर मिला तो देखा कि पिस्तौल और पुस्तक का उसका चौबीस घंटे का साथ था. मुझे ऐसा एक भी अवसर याद नहीं पड़ता जब मैंने उसके पास कोई न कोई पुस्तक न देखी हो.
1923-24 में भगत सिंह के पिता उसका विवाह करने पर तुल गए थे. पिता की जिद से बचने के लिए वह भाग कर कानपुर चला आया. कुछ दिन दिल्ली भी रहा. यहां उसने बड़ी मुसीबतों में दिन बिताए. दिल्ली, कानपुर से जब वह लाहौर वापस गया तो उसकी पगड़ी का स्थान एक छोटे अंगौछे ने ले लिया था. उसकी कमीज उसके शरीर का साथ छोड़ गयी थी और जब उसका बंद गले का खद्दर का कोट कमीज का काम दे रहा था. कोट की आस्तीनें फट जाने पर उसने पायजामे की टांगें आस्तीन की जगह जोड ली थीं और पायजामे का स्थान उसकी चादर ने ले लिया था, जिसे वह लुंगी की तरह इस्तेमाल करने लगा था लेकिन इस हालत में भी उसके कोट की जेब में कोई न कोई पुस्तक अवश्य रहती थी.
भगत सिंह को सौंदर्य, संगीत तथा कला से भी बेहद प्यार था. आगरा केंद्र पर जब कभी पंजाब से सुखदेव आ जाता तो वे दोनों एक दूसरे में ऐसे खो जाते मानो और कोई हो ही नहीं. उस समय पंजाब कांग्रेस की गतिविधि, उसके नेताओं की आपसी पैंतरेबाजियां, नौजवान भारत सभा का काम, बुध्दिजीवियों का मानसिक चढ़ाव-उतार, क्रांतिकारी आंदोलन की समस्याएं, मजदूरों के संघर्ष आदि विषयों से लेकर किसने क्या पढ़ा है, पठित पुस्तकों के लेखकों की शैली और उसके विचार, नयी पिक्चर्स, अभिनेताओं की ऐक्टिंग आदि सभी बातों पर बहस होती.
भगत सिंह से पहले क्रांतिकारियों का उद्देश्य था केवल मात्र देश की आजादी लेकिन इस आजादी से हमारा क्या अभिप्राय है इस पर उससे पहले हमारे दिमाग साफ न थे. क्या अंग्रेज वायसराय को हटा कर उसके स्थान पर किसी भारतीय को रख देने से आजादी की समस्या का समाधान हो जाएगा ? क्या समाज में आर्थिक असमानता और उस पर आधारित मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण के बरकरार रहते हम सही मायने में आजादी का उपभोग कर सकेंगे ? आजादी के बाद की सरकार किस की होगी और भावी समाज की रूपरेखा क्या होगी आदि प्रश्नों पर क्रांतिकारियों में काफी अस्पष्टता थी. भगत सिंह ने सबसे पहले क्रांतिकारियों के बीच इन प्रश्नों को उठाया और समाजवाद को दल के ध्येय के रूप में सामने लाकर रखा.
उसका कहना था कि देश की राजनैतिक आजादी की लड़ाई लक्ष्य की ओर केवल पहला कदम है और अगर हम वहीं पर जाकर रुक गए तो हमारा अभियान अधूरा ही रह जाएगा. सामाजिक एवं आर्थिक आजादी के अभाव में राजनैतिक आजादी दरअसल थोड़े से व्यक्तियों के द्वारा बहुमत को चूसने की ही आजादी होगी. शोषण और असमानता के उन्मूलन के सिध्दांत पर गठित समाजवादी समाज और समाजवादी राजसत्ता ही सही अर्थों में राष्ट्र का चौमुखी विकास कर सकेगी. समाजवाद उस समय युग की आवाज थी. क्रांतिकारियों में भगत सिंह ने सबसे पहले उस आवाज को सुना और पहचाना. यहीं पर वह अपने दूसरे साथियों से बड़ा था.
भगत सिंह और दत्त द्वारा असेंबली भवन में फेंके गए पर्चों की पहली पंक्ति थी ‘बहरों को सुनाने के लिए जोर की आवाज की जरूरत होती है.’ लेकिन सरकार तो जान-बूझ कर बहरी बनी थी. असेंबली में उसका बहुमत था. ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल पास हो गया लेकिन पब्लिक सैफ्टी बिल को पेश करने का उसका साहस नहीं हुआ. वह आर्डिनेन्स के रूप में देश के सर पर थोप दिया गया. पर्चे में फ्रेंच विप्लवी वेलां के कुछ उध्दरण देकर क्रांतिकारी दल के कार्यों का समर्थन किया गया था और कहा गया था कि जनता के प्रतिनिधि अपने निर्वाचकों के पास लौट जाए और जनता को भावी विप्लव के लिए तैयार करें.
दिल्ली में अब मैं और जयदेव ही रह गए थे. हमने पहले से ही अलग एक कमरा ले लिया था. उन दोनों साथियों की गिरफ्तारी के साथ-साथ हम पुराना मकान छोड़ कर नए कमरे में आ गए. दिन भर के काम के बाद काफी रात गए जब हम सोये तो हम दोनों के दिल भारी थे. ऐसा लग रहा था मानो हम अभी-अभी अपने दो संबंधियों की बलि चढ़ाकर लौटे हों. एक दूसरे से बिना कुछ बोले ही हमने आखें बंद कर ली. आंखें बंद करते ही मेरे सामने जेल का नक्शा घूमने लगा. उस समय तक मैंने जेल देखा न था, केवल उसकी दिल दहलाने वाली कहानियां ही सुनी थीं. एक रात पहले हम चारों एक साथ सोए थे. और अब उनमें से दो हमेशा के लिए हमसे छिन चुके थे. जीवन में उनसे अब हम कभी भी न मिल सकेंगे; इस विचार से मुझे रुलाई-सी आने लगी. आंसू बहाना कमजोरी है, अपने पर काबू पाने और अपने भावों को दबाने के विचार से में चुपचाप उठा और रात के सन्नाटे में सुनसान सड़क की ओर खुलती एक खिड़की के पास जाकर बैठ गया.
जयदेव भी शायद मेरी ही तरह केवल आंख बंद किए पड़ा था. कुछ देर बाद जब उसने आंखें खोली तो देखा शिव अपने बिस्तर पर नहीं है. मुझे ढूंढ़ निकालने में उसे कठिनाई नहीं हुई। मुझे खिड़की पर चुपचाप बैठा देख वह मेरे पास आ गया. पास बैठते हुए उसने पुकारा.
प्रकृति ने शरीर में दो ऐसे भेदिये लगा दिए हैं जो लाख छिपाने पर भी हृदय का सारा राज दूसरों से कह डालते हैं. बहुत कुछ संभालने पर भी मेरी आंखों से आंसू के दो बूंद लुढ़क ही गए. उसी समय दो और भेदिये भी अपनी कहानी कह डालने के लिए उतावले हो पड़े. जयदेव की आंखें भी नम हो गयी. जब हमसफर बिछड़ जाते हैं तो शायद सब जगह ऐसा ही होता है. उस रात हम लोग काफ़ी देर तक खिड़की के पास चुपचाप बैठे रहे और भेदिये रुक-रुक कर अपनी-अपनी कहानियां कहते रहे.
दल ने इन दोनों साथियों को जिस काम के लिए बलिदान किया था, उसे उन्होंने पूरे उत्तरदायित्व के साथ निबाहा. अदालत के सामने भगत सिंह और दत्त ने दल के आदर्श के प्रचार के साधन के रूप में इस्तेमाल करने का पक्षपाती था, साथ ही वह यह भी चाहता था कि हम लोग अदालत में तथा जेलों में राजनैतिक बंदियों के अधिकारों के लिए अनवरत सर्घष करें, सरकार, उसकी अदालत तथा उसकी नीतियों के प्रति अपने घृणा के भाव को अपने कामों द्वारा हर उपयुक्त अवसर पर प्रदर्शित करें, और अंत में यदि वक्तव्य देने का अवसर मिले तो एक राजनैतिक वक्तव्य द्वारा पूरी व्यवस्था पर गहरा प्रहार करें.
सरदार की इन बातों का सभी साथियों ने समर्थन किया. इस योजना के अनुसार सभी अभियुक्तों को तीन श्रेणियों में विभाजित किया गया. पहली श्रेणी उन लोगों की थी जिनका केस वकील द्वारा लड़ा जाना था. इसमें पांच साथी थे – देशराज भारती, प्रेमदत्त, मास्टर आज्ञा राम, अजय घोष और किशोरी लाल. दूसरी श्रेणी थी शत्राु की अदालत को मान्यता न देने वालाें की. इनका काम था उपयुक्त अवसर पर अदालती अभिनय के ढकोसले पर सैध्दांतिक प्रहार करना. इन साथियों ने ट्रिब्यूनल के सामने पहले ही दिन जो बयान दिया उसके बारे में अदालत के जजों ने लिखा था कि वह ‘ब्रिटिश सरकार पर हिंसात्मक राजनैतिक हमला था. चूंकि खुली अदालत में इस भाषण्ा का, जो कि राजद्रोहात्मक प्रचार के अतिरिक्त और कुछ भी न था. बहुत ही अनुचित था …इसलिए टिब्यूनल ने उसका पढ़ा जाना रोक दिया.’
बयान के अंत में कहा गया था ‘इन कारणों से हम इस हास्यास्पद अभिनय का अंग बनने से इनकार करते हैं और आगे से हम इस अदालत की कार्यवाही में किसी प्रकार का हिस्सा नहीं लेंगे.’ इनमें थे महावीर सिंह, बी. के. दत्ता, डॉ. गयाप्रसाद, कुन्दनलाल और जतींद्रनाथ सान्याल. और तीसरी श्रेणी उन लोगों की थी जो अपना केस स्वयं लड़ रहे थे. इनका काम था सरकारी गवाहों से जिरह करना, मुखबिरों तथा गवाहों के मुंह से अपनी बात कहलवाना. उनकी हर बात का उद्देश्य होता था प्रचार. इस ग्रुप के साथियों के नाम थे- भगत सिंह, सुखदेव, राजगुरु, शिव वर्मा, जयदेव कपूर, विजय कुमार सिन्हा, कमलनाथ तिवारी और सुरेंद्रनाथ पांडे.
अदालत के मंच को प्रचार के साधन के रूप में इस्तेमाल करने की हमारी यह योजना बहुत सफल रही.
यह भूख-हड़ताल 63 दिन चली. भगत सिंह और दो ने तीन महीने से ऊपर पार किये. इन तीनों महीनों में भगत सिंह अपना सारा काम-लिखना, पढ़ना, नहाना, अदालत जाना, मसविदे तैयार करना, सरकार से पत्र-व्यवहार करना, अदालत में बयान देना, हंसना, गुनगुनाना-नियमित रूप से करता रहा. केस के दौरान भगत सिंह और दत्ता को लाहौर सेन्ट्रल जेल में रखा गया और शेष अभियुक्तों को बोर्स्टल जेल में. डिफेंस (सफाई) के लिए आपसी परामर्श के बहाने वे दोनों प्रत्येक रविवार के दिन बोर्स्टल जेल आ जाते थे. भगत सिंह कई बार भूख-हड़ताल के बावजूद बोर्स्टल जेल आया.
जेल में किताबों की सुविधा थी और आरम्भ से ही पढ़ने-लिखने का वातावरण बन गया था. आपस में सैध्दांतिक एवं राजनैतिक समस्याओं पर बहस आदि भी होती थी लेकिन भगत सिंह के आ जाने पर उस सब में एक नयी जान सी आ जाती. उस दिन शायद ही कोई विषय अछूता रहता हो-सप्ताह की पढ़ी हुई पुस्तकें, मार्क्सवाद, सोवियत संघ की उन्नति, अफगानिस्तान के उलट फेर, चीन और जापान की तनातनी, लीग आफ नेशंस का निकम्मापन, मेरठ केस, भारतीय पूंजीपति वर्ग की भूमिका, कांग्रेस की गतिविधि, लाहौर-कांग्रेस में ध्येय परिवर्तन का प्रश्न आदि सभी विषयों पर चर्चा रहती.
यों हमारे केस के प्राय: सभी साथियों को पढ़ने लिखने में अच्छी रुचि थी, लेकिन भगत सिंह इस क्षेत्र में सबसे आगे था. उसका प्रिय विषय साम्यवाद होते हुए भी उपन्यासों में उसकी अच्छी रुचि थी, विशेषतया राजनैतिक तथा आर्थिक समस्याओं पर प्रकाश डालने वाले उपन्यास. डिकेन्स, अप्टन सिंक्लेयर, हाल केन, विक्टर ह्यूगो, गोर्की, स्टेपनियेक, आस्कर वाइल्ड, लियांनाइड एन्ड्रीव आदि उसके प्रिय लेखक थे. लियांनाइड एन्ड्रीव की सुप्रसिध्द पुस्तक ‘सेवन दैट वेयर हैंग्ड’ उसने अदालत में हमें पढ़ कर सुनाई. पुस्तक का एक पात्र जिसे मौत की सजा हुई थी, लगातार यही दोहराता रहता था कि ‘मुझे फांसी नहीं लगनी चाहिए.’ जब उसे फांसी पर लटकाने के लिए ले जाया जाने लगा तब भी वह बार-बार कातर स्वर से यही चिल्लाता रहा, ‘मुझे फांसी नहीं लगनी चाहिए.’
भगत सिंह जब कहानी के इस प्रसंग पर पहुंचा तो उसकी आंखों में आंसू छलक आए. उस समय मृत्यु पर विजय पाने वाले अपने साथी को मृत्यु भय से कातर एक औपन्यासिक पात्र की सहानुभूति में आंसू बहाते देख सब के दिल भर आए थे.
जिन दिनोें हमारा केस चल रहा था उन दिनों प्राय: हर दूसरे, तीसरे दिन पुलिस वालों से या जेल अधिकारियों से झगड़ा और मारपीट चलती रहती थी. उन झगड़ों में मुझ जैसे दुबले-पतले लोग थोड़ी मार खाकर ही बच जाते थे. लात-घूंसाें और डंडों की अधिकंाश चोट बेचारे पांच छह व्यक्तियों के हिस्से में ही पड़ती थी. देखने में मोटे-तगड़े उन साथियों को जैसे अधिकारियों ने इसी काम के लिए चुन-सा लिया था. राजनैतिक समस्याओं पर वाद-विवाद में ही नहीं वरन् मार खाने वाले साथियों की उस लिस्ट (भगत सिंह, जयदेव कपूर, महावीर सिंह, किशोरी लाल, गयाप्रसाद आदि) में भी भगत सिंह सबसे आगे था.
अंत में फैसले का दिन भी आ गया. भगत सिंह को फांसी की सजा होगी इसके लिए हम पहले से तैयार थे, फिर भी उसे सुन कर मेरे सर में चक्कर-सा आ गया. कल तक जो अनुमान था वह अब यथार्थ बन कर सामने आ रहा था.
सजा के बाद बोर्स्टल जेल से हटा कर केंद्रीय कारागार में कर दिया गया. वहां के नये और पुराने दोनाें फांसी के हाते एक दूसरे से सटे हुए थे. भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु नये हाते में थे और हम लोग पुराने में. एक रात अचानक हमारी कोठरियों के ताले खुले और चलने के लिए कहा गया. हमारे साथियों को फांसी देने से पहले ही सरकार हमें किसी दूसरी जगह भेज देना चाहती थी.
जेल का बड़ा दरोगा अपने पूरे दलबल के साथ हमें लेकर फाटक की ओर चला. कुछ दूर चलकर उसने पूछा ‘अपने साथियों से मिलोगे ?’ उदारता के लिए धन्यवाद पाकर उसने नये हाते का फाटक खुलवाया और हमें भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की कोठरियों के सामने ले जाकर खड़ा कर दिया.
प्रश्न सुन कर पहले तो सरदार ठहाका मार कर हंसा, फिर गंभीर हो कर बोला, ‘क्रांति के मार्ग पर कदम रखते समय मैंने सोचा था कि यदि मैं अपना जीवन देकर देश के कोने-कोने तक इंकलाब जिंदाबाद का नारा पहुंचा सका तो मैं समझूंगा कि मुझे अपने जीवन का मूल्य मिल गया. आज फांसी की इस कोठरी में लोहे के सीखचों के पीछे बैठ कर भी मैं करोड़ों देशवासियों के कंठाें से उठती हुई उस नारे की हुंकार सुन सकता हूं. मुझे विश्वास है कि मेरा यह नारा स्वाधीनता संग्राम की चालक शक्ति के रूप में साम्राज्यवादियों पर अंत तक प्रहार करता रहेगा.’ फिर कुछ रुक कर अपनी स्वाभाविक मुस्कराहट के बीच उसने आहिस्ते से कहा, ‘और इतनी छोटी जिंदगी का इससे अधिक मूल्य हो भी क्या सकता है ?’
मैं सबसे पीछे था. विदाई लेते समय मेरी आंखाें में आंसू आ गए. मुझे रोते देखकर उसने कहा ‘भावुक बनने का समय अभी नहीं आया है प्रभात. मैं तो कुछ ही दिनों में सारे झंझटों से छुटकारा पा जाऊंगा, लेकिन तुम लोगाें को लंबा सफर पार करना पड़ेगा. मुझे विश्वास है उत्तरदायित्व के भारी बोझ के बावजूद इस लंबे अभियान में तुम थकोगे नहीं, पस्त नहीं होगे और हार मान कर रास्ते में बैठ नहीं जाओगे.’ यह कहकर उसने सीखचों के अंदर से हाथ बढ़ा कर मेरा हाथ पकड़ लिया.
जेल के दरोगा ने पास आकर आहिस्ते से कहा, ”चलिए.’ सरदार से वह हमारी आखिरी मुलाकात थी.
और फिर 23 मार्च, 1931 की संध्या समय सरकार ने उनसे सांस लेने का अधिकार छीन कर अपनी प्रतिहिंसा की प्यास भी बुझा ली. अन्याय और शोषण के विरुध्द विद्रोह करने वाले तीन और तरुणों की जिंदगियां जल्लाद के फंदे ने समाप्त कर दी.
फांसी के तख्ते पर चढ़ते हुए भगत सिंह ने एक अंग्रेज मजिस्ट्रेट को संबोधित करते हुए कहा, ‘मजिस्ट्रेट महोदय, आप वास्तव में बड़े भाग्यशाली हैं, क्योंकि आप को यह देखने का अवसर प्राप्त हो रहा है कि एक भारतीय क्रांतिकारी अपने महान आदर्श के लिए किस प्रकार हंसते-हंसते मृत्यु का आलिंगन करता है.’
फांसी से कुछ पहले भाई के नाम अंतिम पत्र में उसने लिखा था, ‘मेरे जीवन का अवसान समीप है. प्रात:कालीन प्रदीप के प्रकाश के समान टिम-टिमाता हुआ मेरा जीवन प्रदीप भोर के प्रकाश में विलीन हो जायेगा. हमारा आदर्श, हमारे विचार बिजली के कौंध के समान सारे संसार में जागृति पैदा कर देंगे. फिर यदि यह मुट्ठी भर राख विनष्ट भी हो जाए तो संसार का इससे क्या बनता बिगड़ता है !’
जैसे-जैसे भगत सिंह के जीवन का अवसान समीप आता गया, देश तथा मेहनतकश जनता के उज्ज्वल भविष्य में उसकी आस्था गहरी होती गयी. मृत्यु से पहले सरकार के नाम लिखे एक पत्र में उसने कहा था, ‘अति शाीघ्र ही अंतिम संघर्ष के आरंभ की दुंदुभी बजेगी. उसका परिणाम निर्णायक होगा. साम्राज्यवाद और पूंजीवाद अपनी अंतिम घडियां गिन रहे हैं. हमने उसके विरुध्द युध्द में भाग लिया था और उसके लिए हमें गर्व है.’
एक महान एवं पवित्र आर्दश के प्रति अडिग विश्वास ही किसी देश के नवयुवकों को जल्लाद के सामने भी मुस्कराता हुआ खड़ा रख सकता है. भगत सिंह और उसके दोनों साथियों का अपने आदर्श की अंतिम विजय में कितना विश्वास था, वह उनके उपरोक्त शब्दों से स्पष्ट है. और यह विश्वास ही उनके अमरत्व का राज था.
जिस समय भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु को फांसी दी गई उस समय मैं आंध्र प्रदेश (उस समय मद्रास प्रांत के अंतर्गत) की राजमहेंद्री जेल में था. मुझे ऐसा लगा कि हम शायद बिछड़ने के लिए ही मिले थे. यतीन्द्रदास, भगवतीचरण और आजाद तो जा ही चुके थे, अब जल्लाद ने मेरे तीन और साथी मुझसे छीन लिए.
मेरे हमजोलियों की कतार से अलग होकर वे शहीदों में जा मिले, तब से उन पर सारे देश का अधिकार है. उनके नामों के जै-जैकार के बीच जब भी कभी उनके चित्राों पर फूल चढ़ते देखता हूं या किसी अजनबी को उन पर रचे सैकड़ों गीतों में से किसी एक गीत की पंक्तियां गुनगुनाने सुनता हूं तो गर्व से मस्तक उंचा हो जाता है. फिर भी हमराहियों के बिछुड़ जाने से जीवन में जो एक अभाव-सा पैदा हो जाता है, उससे कुछ तकलीफ तो होती ही है. और पुरानी स्मृतियां जब कभी मन को कुरेद देती हैं तो वह कविवर आलम के शब्दों में कह उठता हैं –
‘नैनन में जे सदा रहते तिनकी अब कान कहानी सुनो करै’ और तब अंतर के स्वर अधीर होकर पूछने लगते हैं : वे सूरतें इलाही किस देश बसतियां हैं ?
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