सुब्रतो चटर्जी
सवाल ये नहीं है कि भारत में कितने युवा बेरोज़गार हैं, सवाल ये है कि इनमें से कितने रोज़गार पाने लायक़ हैं ? यह रोज़गार की समस्या का एक पक्ष है. दूसरा पक्ष ये है कि जितने प्रतिशत युवा रोज़गार पाने के लायक़ हैं, क्या उनको भी रोज़गार मिलता है ? अब असल मुद्दे पर आते हुए पूछा जा सकता है कि क्या नव आर्थिक नीतियों के पास रोज़गार कोई मुद्दा है ?
दूसरा सवाल ये है कि जिस तरह से पिछले पचास सालों में शिक्षा व्यवस्था को ध्वस्त किया गया है (यहां पर मैं elite education नहीं, mass, universal education की बात कर रहा हूं), उसके संदर्भ में क्या युवा वर्ग पर रोज़गार पाने की अयोग्यता का दोष मढ़ा जा सकता है ? इन सभी सवालों का जवाब आपको नकारात्मक ही मिलेगा क्योंकि ये सभी rhetorical questions हैं.
अब आते हैं इसके दूसरे पक्ष पर. सवाल ये है कि क्या भारत में बेरोज़गारी दर के साथ साथ disguised unemployment यानि अप्रत्यक्ष बेरोज़गारी पर कोई बात करता है ? जिस देश में महंगाई दर double digit में है और 25 हज़ार महीने में कमाने वाले लोगों का प्रतिशत जनसंख्या का सिर्फ़ दस प्रतिशत है, उस देश में क्या परोक्ष बेरोज़गारी पर बात नहीं होनी चाहिए ? संयोगवश , इस प्रश्न का कोई नकारात्मक जवाब नहीं हो सकता है.
80 करोड़ मोदी झोला पर निर्भर 135 करोड़ के देश में हम किन आर्थिक नीतियों की वकालत करते हैं और किस के हित में, आज ये रुक कर सोचना चाहिए. 2024 के मद्देनज़र विपक्ष एका की बात कर रहा है, राहुल गांधी भारत जोड़ो नौटंकी कर रहे हैं, लेकिन मूल प्रश्न पर किसी का कोई ध्यान नहीं है. भारत जुड़ा ही हुआ है. चंद क्रिमिनल लोगों के षड्यंत्र से भारत इतनी आसानी से टूटने वाला नहीं है.
वक़्त की ज़रूरत है कि जनता में पूंजीवादी व्यवस्था के उन नीतियों के बारे उनको जागृत करते हुए इस सड़ी गली व्यवस्था के प्रति प्रचंड घृणा का संचार किया जाए, बाक़ी काम आसान है. अन्याय और अत्याचार के प्रति घृणा ही जन आंदोलन की आधारशिला है. एक समझौते से निकल कर दूसरे समझौते के लिए जन मानस को तैयार करना कोई समाधान नहीं है.
संभव है कि राहुल गांधी की यात्रा से 2024 में सत्ता परिवर्तन की नींव पड़े. राहुल गांधी left to the centre की राजनीति में विश्वास करते हैं अपनी दादी की तरह. वे समय के पहिए को नरसिंह राव के पहले की स्थिति में ले जाना चाहते हैं. संसदीय लोकतंत्र में आज ये असंभव लगता है, लेकिन ये संभव भी हो सकता है. लेकिन, इसके लिए सिर्फ़ सिविल सोसाइटी के लोगों के सहारे उम्मीद रखना बेकार है. चंद सुविधाभोगी पूर्व नौकरशाह भी बेकार हैं, क्योंकि आम जनता के बीच उनकी कोई इज़्ज़त नहीं है.
क्या करें ?
जनता को क्रांति के लिए तैयार करना न राहुल गांधी के बस में है और न ही अन्य विपक्षी दलों के. कांग्रेस के लोगों में सत्ता प्राप्ति की छटपटाहट है और विपक्षी दलों में भी. व्यवस्था परिवर्तन कोई नहीं चाहता इसलिए सभी एक स्वर से वामपंथ को गाली देते हैं.
विडंबना की बात है कि जब आप वामपंथ को गाली देते हैं तब आप परोक्ष तौर पर फासीवाद के समर्थक ही बनते हैं, क्योंकि फासीवाद उन्हीं कारकों, जैसे जातिवाद, संप्रदायवाद, राष्ट्रवाद आदि के सहारे जन मानस में अपनी पैठ बनाता है, जिनके सहारे आप अपना चुनावी समीकरण बैठाते हैं.
मोदी सरकार जैसे भ्रष्ट और फ़ासिस्ट लोगों को हटाना फौंरी ज़रूरत हो सकती है, लेकिन अगर आपके पास देश के लिए कोई वामपंथी विजन नहीं है तो न ही आपके पास बेरोज़गारी दूर करने का कोई रास्ता है और न ही सामाजिक सौहार्द क़ायम करने का. समता के बग़ैर समरसता नहीं स्थापित होती और बिना आर्थिक राजनीतिक क्रांति के समता नहीं आती. सुधारवाद दूध के बदले खल्ली के घोल को परोसने से ज़्यादा कुछ नहीं है, इससे सिर्फ़ अश्वत्थामा पैदा होते हैं, एक अभिशप्त आत्मा !
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