गुरु या शिक्षक के प्रति सम्मान उद्दात किस्म की भावना है. ज्यादातर मामलों में हम गुरुओं को झाड़ पोंछकर, रंग पेंट के बाद ही जन विमर्श में लाते हैं, उनका सम्मान व्यक्त करते हैं जबकि गुरुओं के अनेक रूप होते है. पांच सितंबर को फेसबुक पर उमड़ें मित्रों के श्रद्धा और कृतज्ञता के सैलाब में जानबूझकर अपने संस्मरण सुनाने से इसलिए हाथ खींच लिए कि कहीं गुरुओं का दर्जा डॉलर के मुकाबले रुपया जितना न गिर जाए लेकिन गुरु भी आलोचना से परे तो नहीं होता. उसकी कमजोरियों, लालच और तुनकमिजाजी का भी निसंकोच जिक्र होना चाहिए इसलिए बेहद क्षमा के साथ अपने कुछ अजीबो गरीब गुरुओं को याद कर रहा हूं. मृत या जीवित गुरुओं और उनके परिजनों को लज्जा से बचाने की दृष्टि से नाम-स्थान आदि बदल दिए हैं.
शुरुआत करते है मांगीलाल जी से. मुझे आठवीं में गणित पढ़ाते थे. उनका चेहरा देखकर मुझे न जाने क्यों उस जमाने के चर्चित कांग्रेसी नेता बाबू जगजीवनराम की याद आ जाती थी. मैं उन्हें जगजीवन राम जबकि शेष स्कूल उन्हें वराहा अवतार कहता था. वे बड़े लालची, हिसाब के बेहद पक्के, असली गुरु थे ! सूखी-सूखी तनख्वाह घर ले जाते थे क्योंकि उनका कोई खर्चा ही नहीं था. वे विद्यार्थियों से अपने स्वयं और घर के कपड़े धुलवाते, बच्चों के टिफिन अनाधिकृत रूप से खोलकर खाना खा लेते, बाजार से कुछ मंगवाना होता तो वस्तु की पिचेहतर फीसदी राशि ही देते शेष पच्चीस फीसदी राशि की भरपाई छात्र या उसके अडानी किस्म के अभिभावकों के जिम्मे छोड़ देते. नतीजन उनकी कक्षा में आधे ही बच्चे मौजूद रहते. उनकी कक्षा में छात्र एक-एक हफ्ते नहीं आते. पूछताछ में यही जवाब मिलता कि वह अभागा मांगीलाल जी की अमुक वस्तु लेने बाजार गया है, अभी तक लौटा नहीं.
उन दिनों स्कूल के चपरासी ने स्कूल प्रांगण में कुछ फूल और सब्जियां बो दी थी. फूलों पर तो प्रधानाचार्य का स्थाई हक था जबकि सब्जियां राम हवाले थी. एक बार प्रांगण में लंबी-लंबी दस पंद्रह स्वस्थ्य तुरई उग आई. उन्हें देखकर हम सभी गदगद हो गए. कड़े अनुशासन के बीच मन ही मन उन्हे तोड़ लेने का दिवास्वप्न देखने लगे. अक्सर प्रार्थना के समय में हम सभी बच्चों को कुछ खौफनाक किस्म की नैतिक कहानियां सुनाई जाती, जिसमें पराई वस्तुओं को बुरी नजर से देखने पर पाप लगने, कोढ़ निकलने, अकाल मृत्यु तक हो जाने का सार सारांश बार-बार दोहराया जाता था. विरोधाभास यह था ये सभी नीति कथाएं मांगीलाल जी ही सुनाया करते थे.
इधर मेरा विद्रोही बाल मन उन तुरई को देख मचल गया. उन्ही दिनों मुंशी प्रेमचंद की द्रवित कर देने वाली एक कहानी ईदगाह पढ़ी थी, जिसमें एक पोता ईदगाह मेले में जाकर अपने लिए मेला खर्ची से खिलोने आदि नहीं खरीदकर अपनी दादी के लिए चिमटा खरीद लाता है ताकि रोटी बनाते वक्त दादी के हाथ नहीं जले. खैर, मै वैसा आदर्शवादी पोता तो हरगिज नहीं था लेकिन सोचा की चिमटा नहीं तो क्या एक वक्त की सब्जी तो घर लेकर जा ही सकता हूं. यूं मुझे तुरई नापसंद थी, कभी खाता भी नहीं था.
मेरे इरादे पक्के थे, इससे पहले की बेल पर तुरई लगी-लगी सूख जाए उन्हें कब्जे में लेना जरूरी था. लिहाजा दो दिन बाद मैं रात को आठ बजे स्कूल पहुंच गया. इरादा था की इस सुनसान समय में स्कूल का गेट कूदकर प्रांगण से सारी तुरई तोड़ लाऊंगा लेकिन क्या देखता हूं कि अंधेरे में एक भारी भरकम साया अंदर से गेट कूदकर बाहर की ओर टपका. उस साए के हाथ में तुरई से लबालब भरा एक थैला था. मैं छिप गया हल्के उजाले में देखा तो कोई और नहीं वे हमारे गणित के शिक्षक मांगीलाल जी थे. मांगी लाल जी ने इधर उधर देखा और फटाफट कोने में खड़ी अपनी साइकिल उठाई और तीर की तरह वहां से निकल लिए.
मुझे वस्तु स्थिति समझने में देर नहीं लगी. अगले दिन मांगीलाल जी का दिल्ली पुलिस जैसा इंसाफ पसंद रूप भी देखने को मिला. प्रार्थना के समय उन्होंने चार बच्चों की संदिग्ध तुरई चोर के रूप में न सिर्फ शिनाख्त की बल्कि पूरे स्कूल के सामने उन्हें मुर्गा बना डाला.
नवीं कक्षा में मेरी रूपवती नामक क्लास टीचर थी. रूपवती मैडम नाम के सर्वथा विपरीत थी. सारे चेहरे पर चेचक के दाग, ठिगना कद, बेतुका डीलडौल. न जाने क्यों उन्हे देखकर मुझे हैरी पॉटर कहानी की झाड़ू पर उड़ने वाली चुडेल जैसी फिलिंग आती थी. यह कहने में संकोच नहीं कि उस उम्र में स्त्री या नारीत्व मात्र की गरिमा, सम्मान, उनके गुण आदि की पहचान नहीं होने के कारण मोटे तौर पर शक्ल सूरत पर ही ध्यान केंद्रित रहता था. महिला शिक्षिका हो तो उस आयु में उसके नाम में तब तक ही आपकी दिलचस्पी रहती जब तक आप उनके साक्षात दर्शन नहीं कर लेते, फिर पढ़ लेने के बाद तो रही-सही रुचि भी खत्म हो जाती थी.
वे मुझे हिंदी पढ़ाती थी. वे अपनी तमाम कुरुपताओं के बावजूद स्कूल की प्रमुख आकर्षण थी. उनके बारे में कई वयस्क कहानियां प्रचलित थी जिनमें उनका प्रधानाचार्य से प्रेम किस टाइप का है, इसी पर जोर रहता था।श. और भी उनके बारे में जानकारी चाहिए होती तो स्कूल के मूत्रालय में जाकर ‘आज का विचार’ की तर्ज पर लिखी भीति-शायरी से मिल जाती थी. पूर्व में स्थापित इन सब बातों पर मेरा कोई विश्वास-श्रद्धा नहीं थी, मुझे हिंदी पढ़नी थी और उन्हें पढ़ानी थी.
एक बात मुझे तब जरूर महसूस होती थी कि वे स्वयं को बहुत सुंदर समझती थी. अध्यापन दौरान वे क्लास में अकारण ही अपनी दोनो चोटियों को आगे पीछे झटकती और माथे पर ढलक आए घुघराले बाल की लटो में उंगुलिया फेरती रहती. अगर वे मीर और गालिब के जमाने में होती तो जुल्फों पर अमर शायरी करने की बजाय वे लोग गंजेपन के फायदे पर अनेक खंडकाव्य लिख चुके होते. वैसे रूपवती बहनजी खुद को सुंदर क्यों न समझती, समूचे स्कूल में वही तो एक मात्र महिला शिक्षक थी. वे जो भी, जैसी भी थी स्कूल का समस्त मेल स्टाफ और शिक्षक गण किसी कबाड़ी की भांति उनमें ही अपना पुरातात्विक-रोमांस ढूंढता था. कहना न होगा कि ऐसे हालत में शाला प्रधान को तो हर बात में विशेषाधिकार होता ही है.
शुरआत में ही मेरी उनसे बात बिगड़ गई. हुआ यूं की एक दिन एक चपरासी एक रजिस्टर और कुछ रुपए लेकर अचानक क्लास में आया. चपरासी ने उन्हें रुपए थमाए और रजिस्टर में दस्तखत करा चल दिया. क्लास में मैं आगे बैठता था, मुझे लगा ये रुपए उनकी तनख्वाह के हैं. पूछ बैठा कि मैडम आपको कितनी तनख्वाह मिलती है ? वे कुछ नाराज सी हो गई और बोली – बड़े अशिष्ट हो सुनील !कभी किसी युवती से उसका वेतन और आयु नहीं पूछते. इस पर मैंने भी उज्जड़ता से कह दिया कि मैडम आपकी आयु मुझे क्या सारे स्कूल को पता है, आप तो बस वेतन बता दीजिए.
वे बुरी तरह भड़क गई. संस्कृतगृभित हिंदी में मुझे गरियाते हुए कक्षा से बाहर निकाल दिया. अपमानित होकर मैंने भी प्रण कर लिया कि अब उनकी क्लास में जाना ही नहीं. मैंने पूरे साल उनकी क्लास का बहिष्कार किया और साल के अंत में हिंदी में छह अंक के ग्रेस से उत्तीर्ण होकर जतला भी दिया कि मुर्गा बाग नहीं देगा तो क्या सवेरा नहीं होगा ?
- सुनील बिज्जू माथुर
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