जगदीश्वर चतुर्वेदी
PM नरेन्द्र मोदी अभागे और कमअक्ल पीएम हैं. हमेशा उल्टे दाव चलते हैं. वे जिस लक्ष्य को हासिल करना चाहते हैं, भगवान की कृपा से ठीक उलटा हो जाता है. उन्होंने दावे किए दो करोड़ लोगों को सालाना रोजगार देने के लेकिन उलटा हो गया, 15 करोड़ से अधिक लोगों के रोजगार छिन गए. पांच ट्रिलियन डॉलर की अर्थव्यवस्था का लक्ष्य तय किया लेकिन समूची अर्थव्यवस्था ऊपर उठने के पहले ही बैठ गई. उनके सलाहकारों ने बताया नहीं या फिर उन्होंने माना नहीं कि अर्थव्यवस्था तो पहले से ही चौपट पड़ी है.
मोदी सरकार ने अधिक गति से विकासदर हासिल रखने का लक्ष्य रखा लेकिन हुआ एकदम उलटा. लाखों कल-कारखाने बंद हो गए, विदेशी पूंजी निवेश लगातार घट रहा है, बैंकों से पूंजी गायब हो गये, रिजर्व बैंक के जमाधन से मांगकर सरकार चल रही है, सरकार अपने खर्चे भी जुगाड़ नहीं कर पा रही है.
मोदी ने कहा था अमीरों पर लगाम कसूंगा, लेकिन हुआ एकदम उलटा. एक भी लुटेरे अमीर को आज तक गिरफ्तार नहीं कर पाए, उलटे उनके मुनाफों और बैंक लूट में इजाफा हुआ है. असम में गए थे विदेशियों को बाहर निकालने लेकिन अपने देशी लाखों लोगों को ही अ-भारतीय बना बैठे. इसी तरह जम्मू-कश्मीर में गए थे शांति के लिए लेकिन भयानक अशांति और जुल्मो-सितम कर बैठे. यह एकदम भस्मासुर जैसी अवस्था है, जिस विषय और समस्या को हाथ लगाया उसके बहाने जनता को अपार कष्ट और वेदनाएं दी.
मोदी ने वायदा किया था कि वे मीडिया को स्वतंत्रता देंगे लेकिन हुआ एकदम उलटा. अपने संगठन के सदस्यों से कहा सत्य बोलो, सत्य लिखो, लेकिन संगठन के सभी सदस्य रातों-रात झूठ बोलने लगे, असत्य प्रचार करने लगे. उन्होंने अपने संगठन के सदस्यों से कहा हिंसा न करो, गऊ के नाम पर हिंसा न करो, लेकिन हुआ एकदम उलटा, संगठन के सदस्यों के हिंसाचार-लूट-खसोट में कई गुना इजाफा हो गया.
भगवान ! यह तो बताओ पीएम मोदी से इस कदर नाराज क्यों हो ? जबकि बालाजी से लेकर पशुपतिनाथ तक देश-विदेश के हरेक मंदिर और पंडित-संत की वे पूजा करते हैं, दान देते हैं, फिर उनके हाथों में आपने अपयश क्यों दे दिया ? अब मैं आपको भगवान की नाराजगी की वजह बताता हूं.
जनता को राक्षस बनाना आसान काम नहीं है, कम से कम यह क्षमता तो मोदीजी के अनेक संगठनों में है कि वे अहर्निश राक्षस बनाने का कारखाना चला रहे हैं, भले लोगों को राक्षस बना रहे हैं. यही बुनियादी वजह है कि भगवान उनसे नाराज है. वे जो काम करते हैं वह तुरंत उलटा फल देने लगता है. भारत को राक्षसी भाव में डुबोने से भगवान सबसे अधिक कुपित हैं. भारत के लोग जब तक राक्षसी भाव से लड़ने का दृढ़ निश्चय नहीं करते भगवान खुश होने वाले नहीं हैं.
इन दिनों पतन की पराकाष्ठा यह है कि आप राक्षसी भावों को सोशल मीडिया पर व्यक्त करें, उनके प्रति एकजुटता प्रदर्शित करें, लाइक करने वालों का तांता लग जाएगा. यदि राक्षस भाव का विरोध करें तो कोई पढ़ने वाला नहीं मिलेगा. भारत देव भूमि रही है, उसे राक्षस भूमि बनाने में पीएम और उनके संगठनों का बड़ी भूमिका रही है और यही वह बुनियादी वजह है जिसके कारण भगवान उनसे नाराज है, भारत की जनता से नाराज है. भारत में राक्षस भाव के खिलाफ अब कोई संयुक्त संघर्ष नहीं है, सब अपने अपने राक्षस खोजने में लगे हैं.
मनुष्य भी अजीब है. पहले संबंध बनाता है, उनको सजाता-संवारता है फिर अपने ही हाथों नष्ट करता है. फिर नया संबंध बनाता है, सजाता-संवारता है, फिर नष्ट करता है. वह ऐसा क्यों करता है ॽ सवाल यह भी है संबंध मरते कैसे हैं ॽ क्या संबंध एक दिन में खत्म हो जाते हैं या फिर तिल-तिलकर खत्म होते हैं या फिर संबंधों में तनाव आता है और एक ही झटके में संबंधों की धुरी बिखरकर चूर-चूर हो जाती है ? क्या मानवीय संबंध के बिखरने से देश भी बिखरता है ?
भारत महान है, इसका हम सबसे अधिक जयगान करते हैं लेकिन कभी मानवीय संबंधों के पैमाने से भारत की महानता को मापने की कोशिश नहीं करते. महान देश राजनेताओं के कारण नहीं बनता, बल्कि आम जनता के मानवीय संबंधों और मानवीय मूल्यों के कारण बनता है. आज फ्रांस, अमेरिका, जर्मनी आदि तमाम यूरोपीय देशों में महानता का पैमाना सरकार, विकास, राजनेता, पीएम या राष्ट्रपति का राजनीतिक कद नहीं है, बल्कि समाज में व्याप्त मानवीय संबंधों और मानवीय मूल्यों के स्तर के आधार पर किसी भी देश की महानता को मापा जाता है.
मानवीय संबंधों में आई दरार का राज्य-राष्ट्र के बिखरने का या दो देशों के संबंधों के बनने-बिगड़ने के साथ गहरा संबंध है. मानवीय संबंध बिखरते हैं तो परिवार, मित्र, नातेदार-रिश्तेदारों से संबंध टूटता है, उसका समूचे सामाजिक-राष्ट्रीय तानेबाने पर भी असर होता है. समाज में मानवीय संबंधों के टूटने की प्रक्रिया बहुस्तरीय, बहुवर्गीय, बहुसांस्कृतिक और बहु-धार्मिक है. यह प्रक्रिया हमारे बहस-मुबाहिसे के दायरे में कभी दाखिल ही नहीं होती, हम इस पर समग्रता में विचार ही नहीं करते.
समाज-सुधार के एजेण्डे को यदि समस्त विचारधारात्मक संघर्ष के केन्द्र में लाना है तो हमें सारी प्राथमिकताएं नए सिरे से तय करनी होंगी. सर्वोच्च प्राथमिकता पर मनुष्य, मानवीय मूल्य और मानवीय संबंधों को लाना होगा. इस समय हम सबकी प्राथमिकता के केन्द्र में राष्ट्र, धर्म और राष्ट्रहित हैं, इसके कारण मानवीय हित, मानवीय संबंध और मनुष्य की उन्नति, रक्षा और आपसी मित्रता गंभीर रूप से खतरे में पड़ गयी है. इस खतरे को निर्मित करने में आरएसएस-भाजपा और मोदी सरकार की केन्द्रीय भूमिका है.
RSS-मोदी का नया नॉर्मल है – यदि सेना, पुलिस या अर्द्ध-सैन्यबल जुल्म करें तो उनको जुल्म न कहो, मोदी सरकार जुल्म करे तो जुल्म न कहो, यदि जुल्म कहोगे तो देशद्रोही, पाक एजेंट कहलाओगे. कमाल की दमनकारी बुद्धि-विवेक की भारत के मीडिया और ह्वाटसएप विश्वविद्यालय के संघी स्कॉलरों ने सृष्टि की है. बड़ी ही निर्लज्जता के साथ खोज-खोजकर दमन की वैधता पर सोशल मीडिया और दैनिक अखबारों में लिख रहे हैं. खासकर कोरोना संंक्रमण के कुप्रबंधन, अर्थव्यवस्था के कुप्रबंधन, जम्मू-कश्मीर के कुप्रबंधन ने जिस तरह के हालात पैदा कर दिए हैं उनकी किसी भी तरह हिमायत संभव नहीं है.
उल्लेखनीय है कश्मीर में आतंकवाद बढ़ा है, आर्थिक पामाली बढ़ी है, 135करोड़ जनता के ऊपर अकथनीय दमन चक्र चल रहा है. दूसरी ओर आरएसएस-मोदी सरकार की देशभक्ति और आतंकविरोधी मुहिम मूलतः जम्मू-कश्मीर की आम जनता के खिलाफ है और उन पर पाक समर्थित होने का आरोप लगाकर बेइंतहा जुल्म किए जा रहे हैं.
सवाल यह है अदालतों से लेकर न्यूज टीवी मीडिया तक इस अमानवीयता और जुल्मोसितम के आख्यान एक सिरे से गायब क्यों हैं ? य़े सब संस्थान इतने अमानवीय क्यों हो गए हैं ? आज हमें राष्ट्र की बजाय मनुष्य को संवाद और बहस के केन्द्र में लाना होगा. राष्ट्र जब तक बहस के केन्द्र में रहेगा मानवीय संबंध, सामाजिक संबंध, साम्प्रदायिक सौहार्द्र, जातीयताओं के बीच मित्रता वायवीय रहेगी. यह मात्र प्रचार सामग्री के रूप में ही नजर आएगी. इसे वास्तव में कहीं पर भी देख नहीं पाएंगे.
समाज बनता है मनुष्यों, मानवीय मूल्य और मानवीय संबंधों से, न कि राष्ट्र से. राष्ट्र एकदम काल्पनिक चीज है. राष्ट्र का कोलाहल जितना बढ़ेगा, राष्ट्रीय कलह उतने ही बढ़ेंगे. राष्ट्र की बजाय मनुष्यों को देखने की आदत डालने की जरूरत है. इससे भी बडी बात यह कि मनुष्यों के आपसी संबंध छोटी –छोटी चीजों और बातों पर टूटते हैं. मानवीय जीवन में छोटी-छोटी वस्तुओं और बातों की बड़ी अहमियत है, उनको कम करके नहीं देखना चाहिए.
आज देश में जो हो रहा है वह स्वतंत्र भारत की सबसे बड़ी त्रासदी है. इस त्रासदी का स्रोत न तो 370 है और न वैध नागरिकता और न ही भगवान की भूमिका है बल्कि बल्कि इसका स्रोत है मोदी सरकार की गलत नीतियां, मनुष्य और मानवीयता का राष्ट्र के स्तर पर पैदा हुआ अभाव. राष्ट्रीय शासक वर्गों में पैदा हुए मानवीयता के अभाव और राष्ट्र के अहंकार ने देश में इस तरह की त्रासदियों को जन्म दिया है.
आजकल राष्ट्र अहंकार को हमारा मीडिया राष्ट्रप्रेम कह रहा है, मानवीय विद्वेष को कानून का पालन कह रहा है. यह एकदम नए किस्म की भाषा है जो विभाजन, उत्पीड़न और मानवाधिकारों के उल्लंघन से भरी है. अफसोस की बात यह कि भारतीय न्यायालय इस अवस्था को वैधता प्रदान कर रहे हैं.
हम सबके जीवन में संबंधों के टूटने और बनने-बिगड़ने का सिलसिला चलता रहता है. कभी किसी मित्र, नातेदार, रिश्तेदार, पड़ोसी, परिचित से संबंध बने, फिर अचानक कुछ ऐसा घटा कि वे बिखर गए या संबंधों में दूरी आ गयी और सारा जीवन और संबंधों की ऊष्मा ठंडे बस्ते के हवाले कर दी गयी.
संबंधों को ठंडे बस्ते के हवाले करने के अलावा कुछ लोग यह भी करते हैं कि संबंधों को तोड़ते हुए, तनाव में रहते हैं, तनाव और झगड़े या फिर मुकदमेबाजी के जरिए संबंध को जीते हैं. साल-दर-साल तलाक या घरेलू हिंसा के बहाने मुकदमेबाजी करते हैं और कागजी संबंध बनाए रखते हैं. सवाल है यथार्थ मानवीय संबंध महत्वपूर्ण हैं या कागजी संबंध महत्वपूर्ण हैं ?
कागजी संबंधों के नाम पर संतान के जरिए आर्थिक वसूली, सम्पति वसूली एक आम रिवाज है. आए दिन अभिभावक इसके लिए अपनी संतान की शिकायतें करते रहते हैं कि बेटा-बेटी देखभाल नहीं करते लेकिन संपत्ति हथिया ली है या फिर संपत्ति पाना चाहते हैं.
26 साल की बेटी है, जो स्नातक है या उससे अधिक शिक्षित है, वह कभी अपने पिता को शक्ल नहीं दिखाती या उसने कभी शक्ल नहीं दिखायी, पिता की कभी सेवा-सुश्रूषा नहीं की, खबर तक नहीं ली, कभी फोन तक नहीं किया, लेकिन बेकारी की अवस्था में वो कानूनन पिता से अपने खाने-पीने का खर्चा पाने की हकदार है. कानून उसे मदद करता है, यह एक तरह से अमानवीयता को कानूनी मदद कही जाएगी. इस तरह की अवस्थाएं निजी जीवन से लेकर व्यापक राष्ट्रीय स्तर की समस्याओं में सहज ही देखी जा सकती हैं.
असम में नागरिक रजिस्टर तो सुप्रीम कोर्ट के फैसले के अंध पालन का साक्षात नमूना है. दिलचस्प बात यह है संत रविदास के मंदिर को बनाने के लिए सुप्रीम कोर्ट का फैसला बुनियादी आधारों को बदलकर पंक्चर किया जा सकता है लेकिन नागरिक रजिस्टर में निहित अमानवीयता को खत्म करने के लिए कोई सटीक कदम नहीं उठाया जा सकता, बल्कि 19 लाख से अधिक लोगों की नागरिकता के विवाद के निपटारे के लिए 400 ट्रिब्यूनल बनाए गए हैं, आप उनमें जाएं, चक्कर काटें, अदालत में जाएं चक्कर काटें, अंत में त्रासदी झेलने को तैयार रहें.
न्यायालयों की यही स्थिति मानवीय संबंधों के प्रति है. इसे समाज में चारों ओर सहज ही देखा जा सकता है. इस समूची प्रक्रिया ने समाज में राक्षसी परिवेश और राक्षसी भावबोध को जन्म दिया है. इससे भारत की सामाजिक एकता टूटी है. इसके लिए भगवान नहीं पीएम मोदी और आरएसएस की नीतियां सीधे जिम्मेदार हैं.
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