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पेगासस जासूसी काण्ड : अगर कुछ गलत नहीं हैं, तो जांच से क्यों घबराती है मोदी सरकार है ?

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पेगासस जासूसी काण्ड : अगर कुछ गलत नहीं हैं, तो जांच से क्यों घबराती है मोदी सरकार है ?
पेगासस जासूसी काण्ड : अगर कुछ गलत नहीं हैं, तो जांच से क्यों घबराती है मोदी सरकार है ?
रविश कुमार

पेगासस जासूसी कांड लौट आया है. यह एक इज़राइल में बना ऐसा साफ्टवेयर है, जो आपके फोन में घुसकर बातें सुनता है, बिना आपकी जानकारी के फोन के कैमरे को ऑन कर देता है और सारा वीडियो कहीं और भेज रहा होता है, वहीं जहां पर वो बैठा होता है. आज की दुनिया में जनता को कंट्रोल करने के लिए सत्ता केवल झूठ का सहारा नहीं लेती है बल्कि टेक्नोलॉजी के ज़रिए आपके जीवन के भीतरी क्षणों की भी जानकारी ली जाती है ताकि सत्ता को पता चलता रहे कि कहीं कोई उसके झूठ को उजागर करने की योजना तो नहीं बना रहा.

पेगासस एक सच्चाई है. टेक्नोलॉजी की ऐसी सच्चाई जिसका एक ही नाम नहीं है, पेगासस के अलावा भी कई नाम हैं. 2020 में दस देशों के अख़बारों और अस्सी से अधिक पत्रकारों ने मिलकर पेगासस के कांड को उजागर किया था. भारत सरकार हमेशा इससे इंकार करती रही, जांच की बात से भी इंकार कर दिया और जब याचिकाकर्ता सुप्रीम कोर्ट गए तब कोर्ट ने 21 अक्तूबर 2021 को पूर्व जस्टिस आर. वी. रविंद्रन की अध्यक्षता में एक कमेटी बना दी.

इस कमेटी ने अपनी रिपोर्ट में कहा है कि भारत सरकार सहयोग नहीं कर रही है. अब इस पर सोलिसिटर जनरल तुषार मेहता कहते हैं कि उन्हें जानकारी नहीं है. सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी को भारत सरकार सहयोग न करे, यह कोई इतनी सामान्य ख़बर नहीं है. क्या सरकार खुद को सुपर बॉस समझने लगी है ?

आप जानते हैं कि विपक्षी दलों से जुड़े लोगों पर किस तरह छापे पड़ रहे हैं, जब विपक्ष जांच एजेंसियों के दुरुपयोग का आरोप लगाता है तब उन्हें यह लेक्चर दिया जाता है कि अगर कुछ गलत नहीं हैं, तो जांच से घबराते क्यों हैं ? लेकिन भारत सरकार जब सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी से सहयोग न करें तो इसका क्या मतलब निकाला जाए ? यही कि अब होने वाला कुछ नहीं है, जो होना था, वह हो चुका है.

यह अजीब-सा तर्क है. अगर बेदाग़ हैं तो जांच एजेंसी से जांच करवाएं, लेकिन जब सुप्रीम कोर्ट की कमेटी अपना कर्तव्य पूरा करने गई तब भारत सरकार ने सहयोग नहीं किया. अगर भारत सरकार बेदाग़ थी, तब सुप्रीम कोर्ट की जांच एजेंसी से सहयोग क्यों नहीं किया ? जांच एजेंसियों विपक्ष सहयोग करे और सुप्रीम कोर्ट की कमेटी से सरकार सहयोग नहीं करे ? यह कमाल भी लाजवाब है. ऐसा लग रहा है कि ये जांच एजेंसी नहीं हैं, बेदाग़ होने का प्रमाणपत्र बांटने की एजेंसी है.

इस हिसाब से तो आप सभी अपना सारा घर उठाकर जांच एजेंसी के यहां ले जाएं और बेदाग़ होने का प्रमाण पत्र ले आएं. बल्कि घर-घर जांच एजेंसी का नारा बुलंद कर दें ! हमने सिद्धार्थ वरदराजन से पूछा कि पेगासस की जांच करने वाली सुप्रीम कोर्ट की कमेटी से भारत सरकार ने सहयोग नहीं किया, सरकार से कौन कौन से सवाल पूछे जा सकते थे और किन बिन्दुओं पर उसकी प्रतिक्रिया बेहद ज़रूरी थी ? क्या इस मामले में दुनिया की और भी सरकार ने जांच कमेटी से सहयोग नहीं की ?

जस्टिस आर. वी. रवींद्रन की कमेटी को इस सवाल का पता लगाना था कि क्या सरकार ने पेगासस खरीदा है ? अगर सरकार जांच में सहयोग ही नहीं करेगी तब इसका पता कैसे चलेगा ? क्या सरकार इस सवाल से बचना चाहती थी इसलिए सुप्रीम कोर्ट की समिति से सहयोग नहीं किया ? सरकार क्यों भाग गई ? इसे सहयोग नहीं करना कहा जा रहा है पर क्या यह सवालों से भाग जाना नहीं है. सिद्धार्थ वरदराजन ने इसी 20 जुलाई को ‘द वायर’ में एक रिपोर्ट फाइल की थी जिसमें बताया है कि अगर जस्टिस रवींद्रन की कमेटी सरकार से पूछती तो किन किन अधिकारियों को सामने आना पड़ता ?

इस रिपोर्ट के अनुसार केंद्र सरकार के आठ अधिकारियों को समिति के सामने हाज़िर होना होता, जिनके समय में पेगासस का सौदा होने का इशारा मिलता है. इसके अलावा राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोवाल और गृह मंत्री अमित शाह को भी समिति के सामने हाज़िर होना पड़ता. सिद्धार्थ वरदराजन ने एक-एक अधिकारी की भूमिका के बारे में विस्तार से बताया है, जिनसे पूछताछ होती तो कई सवालों के जवाब मिलते. सिद्धार्थ की इस रिपोर्ट में तो प्रधानमंत्री का भी ज़िक्र है.

क्या इन सभी को जवाबदेही के सवाल से बचाने के लिए यह रास्ता निकाला गया कि सुप्रीम कोर्ट की बनाई समिति में जाएंगे ही नहीं, किसी बात का जवाब ही नहीं देंगे. यह तो सुप्रीम कोर्ट पर सवाल है. फिर एक सवाल उठता है कि क्या सुप्रीम कोर्ट को इस समिति की रिपोर्ट को ही भंग नहीं कर देना चाहिए ? जिस अपराध की जांच के लिए समिति बनी है, और जिस पर मुख्य अपराधी होने का शक है, उसी से पूछताछ न हो तो फिर जस्टिस आर. वी. रवींद्रन समिति की रिपोर्ट की क्या नैतिक मान्यता रह जाती है ?

Do you get my point, how govt is running from the main point ? Keep this in mind. पेगासस तो सरकार ने खरीदा होगा, वही जांच समिति से सहयोग नहीं करती है. हैं न कमाल. केवल विपक्ष को जांच एजेंसी से सहयोग करना है, बाकी सरकार जो चाहे वो करे !

पिछले साल सितंबर में सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा के कारणों का हवाला बताते हुए हलफनामा देने से मना कर दिया था, तब चीफ जस्टिस एन. वी. रमना ने कहा था कि ‘लोगों के मौलिक अधिकार का हनन हुआ है, इससे जुड़े सवालों से बचने के लिए राष्ट्रीय सुरक्षा का हवाला नहीं दिया जा सकता है.’ सितंबर 2021 में केंद्र सरकार ने कहा था कि हलफनामा दायर करने के फैसले पर विचार करने के लिए कुछ समय चाहिए लेकिन अब जब रिपोर्ट आई है चीफ जस्टिस ने ही कहा कि समिति ने कहा है कि केंद्र सरकार ने सहयोग नहीं किया. क्या केंद्र सरकार दोषी है ? कुछ ऐसा है जिससे वह समिति के सामने जाना नहीं चाहती ?

राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर केंद्र सरकार ने सीलबंद लिफाफे का रास्ता निकाला था लेकिन यहां तो सीलबंद लिफाफे में भी हलफनामा नहीं दिया गया. राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर रफाल विमान की खरीद में कथित दलाली के मामले में सरकार ने सीलबंद लिफाफे में हलफनामा दिया. भीमाकोरेगांव मामले में गिरफ्तार सामाजिक कार्यकर्ताओं के मामले में महाराष्ट्र पुलिस ने कोर्ट को सीलबंद लिफाफे में जानकारी दी. NRC के मामले में सीलबंद लिफाफा सौंपा गया.

सीबीआई के पूर्व निदेशक आलोक वर्मा के मामले में भी कोर्ट ने कहा कि केंद्रीय सतर्कता आयोग सीलबंद लिफाफे में रिपोर्ट सौंपे. पेगासस मामले में सरकार ने सीलबंद लिफाफा देना भी ज़रूर नहीं समझा. अब तो हर बात में सीलबंद लिफाफा चला आता है. फरवरी 2019 में जस्टिस ए. पी. शाह ने इंडियन एक्सप्रेस में एक लेख लिखा था और इस सीलबंद लिफाफा संस्कृति पर गंभीर सवाल उठाए थे, यह काम पारदर्शी न्यायव्यवस्था के मूलभूत सिद्धांतों के खिलाफ है.

17 मार्च 2022 की एक खबर देख रहा था, केरल के चैनल मीडिया वन पर केंद्र सरकार ने प्रतिबंध लगा दिया. इस मामले की सुनवाई के समय केंद्र ने सीलबंद लिफाफे में अपना जवाब रखा. इसकी सुनवाई जस्टिस डी. वाई. चंद्रचूड़ की बेंच कर रही थी. उन्होंने कहा कि वे सीलबंद लिफाफे की न्यायप्रणाली के सख्त खिलाफ हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा के नाम पर सीलबंद लिफाफे की संस्कृति बढ़ती जा रही है.

जबकि इस मामले की सुनवाई के समय जस्टिस चंद्रचूड़ ने साफ साफ कहा कि बहुत ही कम अपवाद हो सकते हैं जैसे बच्चों के साथ यौन अपराध के मामले में सरकार की फाइलों को सभी पक्षों के सामने नहीं रखने पर सोचा जा सकता है. न्याय का मूलभूत सिद्धांत इस बात की मांग करता है कि जितने भी पक्ष हैं उन सभी को सबूतों की समीक्षा का मौका मिले. एक अन्य मौके पर चीफ जस्टिस एन. वी. रमना ने भी एक मामले में कहा कि अदालत को सीलबंद लिफाफे में रिपोर्ट न दें.

बात ये है कि पूर्व चीफ जस्टिस रंजन गोगोई सीलबंद लिफाफे में सरकार की रिपोर्ट स्वीकार करते हैं, मौजूदा चीफ जस्टिस एन. वी. रमना इसे गलत बताते हैं. जस्टिस चंद्रचूड़ गलत बताते हैं तो इस पर सुप्रीम कोर्ट की एक राय क्यों नहीं है ? क्या यह हर जज के व्यक्तिगत विवेक का मामला है ? क्या वाकई जनता ने नहीं सोचने की कसम खा रखी है कि सुप्रीम कोर्ट जांच के लिए समिति बनाए और सरकार उससे सहयोग न करें, यह सामान्य बात है. तब तो एक कानून बनाना चाहिए कि सरकार की जांच एजेंसी से कोई सहयोग न करे.

गोदी मीडिया के सहारे टापिक बदल देने से टापिक बदलता है, सवाल नहीं बदलता है. ये सवाल हैं, टमाटर नहीं हैं कि किसी को खरीदने के लिए थैली लेकर भेज दिया. जिस मुल्क में पत्रकारिता कमज़ोर हो जाती है उस मुल्क में सत्ता बेलगाम हो जाती है. लिख कर पर्स में रख लीजिए. एक दिन जब लोकतंत्र गायब हो जाएगा तब पर्स से निकाल कर पढ़ते रहिएगा.

5 दिसंबर 2021 को चीफ जस्टिस रमना एल. वेंकटेश्वरालु लेक्चर दे रहे थे, तब भी उन्होंने यही कहा था कि कार्यपालिका कोर्ट के आदेशों का पालन नहीं कर रही है. इस साल 30 अप्रैल को हाई कोर्ट के चीफ जस्टिस और मुख्यमंत्रियों के सम्मेलन में भी उन्होंने यही बात कही. उस सम्मेलन में प्रधानमंत्री मोदी भी आए थे.

सवाल था केंद्र सरकार से, कि क्या उसने पेगासस खरीदा ? किस बजट से और किस प्रक्रिया के तहत खरीदा ? लेकिन केंद्र सरकार ने सुप्रीम कोर्ट की बनाई समिति से सहयोग ही नहीं किया तो इस समिति की रिपोर्ट का क्या मतलब रह जाता है कि कानून को लेकर क्या होना चाहिए या जागरुकता को लेकर क्या होना चाहिए ?

समिति को पेगासस स्पाइवेयर के सबूत नहीं मिले हैं लेकिन 29 मोबाइल फोन में से 5 में मैलवेयर पाया गया है. मैलवेयर जासूसी साफ्टवेयर को ही कहते हैं. समिति ने कहा कि जिनके फोन की जांच हुई है, उनका आग्रह है कि उसका डिटेल सार्वजनिक न हो. कोर्ट इस मामले में चार हफ्ते बाद सुनवाई करेगा लेकिन इसकी क्या गारंटी है कि निजता भंग नहीं होगी ?

हम कमेटी के सदस्यों की भूमिका पर सवाल नहीं कर रहे, लेकिन जिस तरह से सरकार ने सहयोग ही करने से इंकार कर दिया, उसे लेकर संदेह तो किया ही जा सकता है. संदेह और सवाल में अंतर होता है. सुप्रीम कोर्ट की समिति की मदद के लिए एक तकनीकि समिति भी थी, जिसमें फोरेंसिंक यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर, आईआईटी बांबे के प्रोफेसर भी थे और केरल के अमृता विश्वा विद्यापीठम के प्रोफेसर प्रभा हरन भी, जो साइबर सुरक्षा के जाने माने एक्सपर्ट माने जाते हैं.

मंगलवार को भारत के प्रधानमंत्री ने फरीदाबाद में 2600 बिस्तरों वाले अमृत अस्पताल का उद्घाटन किया. माता अमृतानंदमयी देवी की संस्था ने यह अस्पताल बनवाया है. इसके पहले 2 अक्तूबर 2018 को प्रधानमंत्री माता अमृतानंदमयी देवी को सम्मानित कर चुके हैं. उन्होंने स्वच्छता कोष में सबसे अधिक दान दिया था. भारतीय रुपये में करीब 100 करोड़ का दान दिया है. इन्हीं के ट्रस्ट का कालेज है केरल का अमृत विश्वा विद्यापीठम, जिसके प्रोफसर डी. प्रभा हरन करण सुप्रीम कोर्ट की कमेटी के सदस्य हैं.

फोरेंसिक यूनिवर्सिटी केंद्रीय विश्वविद्यालय है, इसके प्रोफेसर भी कमेटी में सदस्य हैं. टीसीएस नाम की साफ्टवेयर कंपनी के साइबर सुरक्षा के ग्लोबल प्रमुख डॉ. संदीप ओबेराय भी इसके सदस्य हैं, जिन्होंने टेक्निकल मामलों में सहयोग किया है. यहां हम सवाल नहीं कर रहे लेकिन संदेह करना एक पत्रकार का कर्तव्य बनता है. क्या सरकार को इनकी क्षमता पर विश्वास नहीं ? तब फिर इनके सामने हाज़िर होने में उसे क्या दिक्कत थी ?

प्राइवेट कंपनी के साइबर सुरक्षा के ग्लोबल हेड एक्सपर्ट हो सकते हैं, होते ही हैं, लेकिन हम जानते हैं कि इस समय दुनिया में क्या हो रहा है. अभी दो दिन पहले ट्विटर के साइबर सुरक्षा प्रमुख के पद पर काम कर चुके एक व्यक्ति ने अमरीका की नियामक संस्था को शिकायत की अर्जी दी है कि भारत सरकार ने ट्विटर पर दबाव डाल कर उसके भीतर अपने एजेंट बिठा दिए, जो उपभोक्ताओं से संबंधित तमाम डेटा पर नज़र रखते हैं.

ट्विटर कंपनी ने इंकार किया है लेकिन ऐसे आरोप केवल इंकार और स्वीकार से तय नहीं हो जाते हैं. पूरी दुनिया में इस तरह के मामले सामने आ रहे हैं कि कैसे टेक्नोलॉजी के ज़रिए जनता को गुलाम बनाना है, वर्ना कोई आपका डेटा लेकर क्या करेगा ? आम का अचार तो नहीं बनाएगा न !

मीडिया रिपोर्ट में यह बात भी सामने आई है कि समिति का मानना है कि रिपोर्ट इसलिए भी सार्वजनिक नही होना चाहिए क्योंकि किसी को यह पता चल सकता है कि जासूसी के साफ्टवेयर कैसे बन सकते हैं और कोई नया साफ्टवेयर आ सकता है. हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि फोन के ज़रिए सर्वेलांस की टेक्नोलॉजी काफी व्यापक हो चुकी है. सरकार और कंपनियां खरबों रुपये फूंक कर इस काम में लगी हैं, उन्हें किसी समिति की रिपोर्ट पढने की ज़रूरत नहीं है.

पेगासस जासूसी साफ्टवेयर की जांच करने वाली सुप्रीम कोर्ट की समिति ने कहा है कि 29 फोन में से 5 में मालवेयर यानी ऐसे साफ्टवेयर तो पाए गए हैं मगर वह पेगासस नहीं है. जो लोग सिर्फ इसी बात से इस नतीजे पर पहुंचना चाहते हैं कि पेगासस नहीं मिला उनके लिए एक और रिपोर्ट का ज़िक्र करना चाहूंगा.

22 जुलाई को रायटर की यह खबर भारत में ‘द वायर’ और ‘ET’ में छपी है. इसमें रायटर ने यूरोपियन यूनियन के एक अधिकारी के हवाले से लिखा है कि EU के कर्मचारियों के फोन में पेगासस होने के सबूत मिले हैं. इसमें रायटर ने जिस शब्दावली का इस्तेमाल किया है उसे गौर से पढ़िए. यह लिखा है कि ठोस सबूत नहीं मिले हैं, मगर जासूसी उपकरण होने के संकेत मिले हैं. साइबर सुरक्षा के रिसर्च करने वाले संकेत का ही इस्तेमाल करते हैं. लिहाज़ा सुप्रीम कोर्ट की समिति जब कहती है कि जासूसी उपकरण के संकेत मिले हैं मगर वो पेगासस नही है तो दोनों एक साथ रखकर देखा जाना चाहिए और सवाल करना चाहिए.

पिछले साल फ्रांस की स्वतंत्र जांच एजेंसी ने तीन पत्रकारों के फोन में पेगासस होने की पुष्टि की थी. इसी दो अगस्त को इज़राइली अखबार जेरुसलम पोस्ट की खबर है कि वहां की पुलिस ने अवैध रुप से नागरिकों के खिलाफ पेगासस का इस्तेमाल किया है. इस साल फरवरी में खबर छपी थी कि इज़राइल की पुलिस राजनेता, अधिकारी, कार्यकर्ता और पत्रकारों के खिलाफ पेगासस का इस्तेमाल कर रहे थे.

अब पुष्टि हुई है कि बिना कोर्ट की मंज़ूरी के यह काम हो रहा था. हम याद दिलाना चाहते हैं कि आई फोन बनाने वाली कंपनी एप्पल ने कहा है कि पेगासस का इस्तेमाल हुआ है. भारत में जांच कमेटी ने यह कहा है कि पेगासस का इस्तेमाल हुआ है, इसके सबूत नहीं हैं, लेकिन पांच फोन में मालवेयर मिले हैं. मालवेयर मतलब वही फोन में जासूसी का सामान लगाने का जुगाड़.

नवंबर 2021 में ही आई फोन बनाने वाली कंपनी एप्पल ने पेगासस जासूसी साफ्टवेयर बनाने वाली कंपनी NSO ग्रुप के खिलाफ मुकदमा दायर किया है कि इसने एप्पल फोन के उपभोक्ताओं को टारगेट किया है. यह मुकदमा अमरीका में दायर हुआ है. यही नहीं कंपनी ने ऐसे जासूस साफ्टवेयर से उपभोक्ताओं के फोन को बचाने के लिए 10 मिलियन डालर का एक रिसर्च फंड भी बनाया. NSO पर मुकदमा करने वाली एप्पल पहली कंपनी नहीं है. 2019 में व्हाट्स एप ने भी इस कंपनी पर मुकदमा किया था जब उसके कई उपभोक्ताओं के फोन की जासूसी की खबर आई थी, तब व्हाट्स एप ने अपनी तरफ से भारत के कुछ उपभोक्ताओं को बताया था कि आपका फोन हैक हुआ है. इसे लेकर भारत में खूब हंगामा हुआ था.

इसलिए पेगासस कोई हवा मिठाई नहीं है, यह गंभीर मामला है, ऐसी बातो को गंभीरता से लिया कीजिए वर्ना फोन आएगा तो कभी फेस टाइम पर तो कभी व्हाट्स एप पर ही करते रह जाएंगे और पता चला कि तब भी कोई रिकार्ड कर रहा है और सुन रहा है. एक दिन ऐसी हालत न हो जाए कि आप कार से दस किलोमीटर दूर फोन को पीपल के पेड़ पर रखने जा रहे हैं ताकि घर में बात कर सकें. लेकिन क्या यह सवाल सीरीयस नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट की बनाई कमेटी से केंद्र सरकार ने सहयोग नहीं किया, तब उस कमेटी की जांच रिपोर्ट की क्या अहमियत रह जाती है ?

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