रविश कुमार
गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी भारत के नागरिकों के महत्व को कुत्ते और कौड़ी के हिसाब से आंकते हैं. किसान नेता राकेश टिकैत को दो कौड़ी का बता कर मंत्री ने खुद को अनमोल कर लिया है. जब तक आप अनमोल नहीं होंगे, किसी को दो कौड़ी का समझना मुश्किल होता है. वैसे तो संविधान में सब बराबर हैं लेकिन मंत्री जी की भाषाई सोच में लगता है कि कोई और संविधान है.
एक साल से उनकी आलोचना हो रही है, उनके इस्तीफे की मांग हो रही है, लेकिन इसके बाद भी मंत्री अजय मिश्रा जिस तरह की भाषा बोल रहे हैं, उससे यही लगता है कि उन्हें असंवैधानिक भाषा बोलने का संवैधानिक संरक्षण हासिल है. हम यह बात भी जानते हैं कि लखीमपुर खीरी में उन्हें जनसमर्थन हासिल है औऱ वहां के मतदाताओं ने यूपी चुनाव में सभी आठ सीटों पर बीजेपी को वोट देकर जीत दिलाई थी. क्या जीत के इस उत्साह के कारण उनकी भाषा उस पुराने अजय मिश्रा की है, जिसके बारे में वही याद दिलाने की बात कर रहे थे कि समझ लेना सांसद और विधायक के पहले वे क्या थे, आप भी पहले यही याद कर लीजिए –
‘हम आप को सुधार देंगे 2 मिनट के अंदर.. मैं केवल मंत्री नहीं हूं, सांसद विधायक नहीं हूं. सांसद बनने से पहले जो मेरे विषय में जानते होंगे उनको यह भी मालूम होगा कि मैं किसी चुनौती से भागता नहीं हूं और जिस दिन मैंने उस चुनौती को स्वीकार करके काम करना शुरू कर दिया, उस दिन बलिया नहीं लखीमपुर तक छोड़ना पड़ जाएगा यह याद रखना…’.
आगे बात करने से पहले यह याद रखना ज़रूरी है कि अजय मिश्रा सांसद विधायक से पहले क्या थे, ऐसा लगता है कि वे इसे साबित भी कर रहे हैं. मुझे लगता है कि इस बात को हमेशा याद रखना चाहिए. अजय मिश्रा ने कह तो दिया कि सांसद विधायक से पहले क्या थे, याद रखना, उनकी इस बात का प्रभात गुप्ता के परिवार पर क्या असर पड़ता होगा ?
सन 2000 में यूपी में बीजेपी की सरकार थी, मुख्यमंत्री थी राम प्रकाश गुप्ता. उस साल यूपी में पंचायत चुनाव हो रहे थे. जिस सीट के लिए प्रभात गुप्ता दावेदार थे, उस सीट पर अजय मिश्रा भी चुनाव लड़ना चाहते थे. तभी वह सीट आरक्षित हो गई और दोनों अपने-अपने उम्मीदवारों का समर्थन करने लगे. 8 जुलाई 2000 को प्रभात गुप्ता की हत्या कर दी गई.
इस मामले में अजय मिश्रा गिरफ्तार भी हुए थे लेकिन बाद में निचली अदालत से बरी हो गए. अभी यह हाईकोर्ट में है, जिसकी सुनवाई कई बार टल चुकी है, अब छह सितंबर को होगी. अजय मिश्रा उसी दिन राकेश टिकैत को दो कौड़ी का बताते हैं, जिस दिन लखनऊ कोर्ट में उनके मामले की सुनवाई की तारीख टल जाती है. क्या प्रभात गुप्ता के परिवार से पूछा जाए कि मंत्री जी क्या थे, या उन पत्रकारों से पूछा जाए जो मंत्री से सवाल पूछने गए थे. मंत्री जी ही याद दिलाते हैं कि क्या थे के अलावा यह भी याद रखना ज़रुरी है कि वे इस वक्त क्या हैं.
कुछ तो होगा कि उनके तेवरों में कमी नहीं आती है. राकेश टिकैत को दो कौड़ी का बता कर उन्होंने फिर से बता दिया है कि वे आज भी बहुत कुछ हैं. राकेश टिकैत को दो कौड़ा का बताने से पहले कुत्ते का प्रसंग सुनाकर उन्होंने कुत्तों की भावनाओं का अनादर किया है. अब कुत्ते तो बोल नहीं पाएंगे लेकिन उन्हें पालने वालों को बुरा लगेगा जो बहुत प्यार से अपने घर में कुत्ता पालते हैं. बच्चे की तरह दुलार करते हैे और गली के कुत्तों के लिए भी भोजन से लेकर गरम कपड़े का इंतज़ाम करते हैं.
अजय मिश्रा भूल गए कि उनके कैबिनेट मंत्री अमित शाह को BSF के कुत्ते ने कितनी शानदार सलामी दी थी बल्कि सरकारी शब्दावली में तो श्वान कहकर संबोधित किया जाता है. यह श्वान कितने आदर से फूलों का डलिया लेकर गृहमंत्री अमित शाह का स्वागत करता है, कदमों में झुक कर सलामी देता है. उसके बाद BSF के प्रशिक्षित कुत्तों के हुनर का प्रदर्शन भी हुआ.
क्या इन कुत्तों को देखकर कोई मंत्री कुत्ते का मज़ाक उड़ा सकते हैं ? उनके ही विभाग के तहत BSF आता है, उसका यह केंद्र आता है, जहां पर कितनी मेहनत से आतंकवाद से लेकर बचाव कार्यों के लिए कुत्तों को प्रशिक्षित किया जाता है और मंत्री अजय मिश्रा कुत्तों के बारे में इस तरह की टिप्पणी करते हैं. इसी साल 15 अगस्त को सेना ने बजाज नाम के कुत्ते को सम्मानित किया है. बजाज ने बारामुला में आतंकियों के खिलाफ आपरेशन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई थी.
राजनीतिक लड़ाई दो इंसानों के बीच होती है, कुत्तों के बीच नहीं होती है. कुत्ते तो बहुत प्यारे इंसान होते हैं. उनकी ही पार्टी के अनगिनत समर्थकों और नेताओं के घरों में कुत्ते पाले जाते हैं, उन सभी को बुरा लगा होगा. लोग बहुत चाव से कुत्ता पालते हैं और उसकी देखभाल बच्चे की तरह करते हैं. अजय मिश्रा के बयान पर ताली बजाने वाले भी यह बात जानते हैं लेकिन जब मंत्री खराब चुटकुला सुनाएं तभी हंसना ही पड़ता है. ताली बजाने वाले हमेशा यह बात याद रखते हैं.
राकेश टिकैत ने अच्छा किया कि इस बयान को तूल नहीं दिया. यही कहा कि मंत्री जी का बेटा जेल में है, इसलिए गुस्से में हैं. लखीमपुर खीरी में मंत्री के बेटे आशीष मिश्रा के खिलाफ हत्या का मामला चल रहा है. इस मामले में गवाहों ने खतरे की आशंका जताई है. टिकैत ने भी कहा है कि वहां अभियान चला कर इनके खौफ को दूर करना होगा.
गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा की यह भाषा ज़ुबान से फिसली हुई भाषा नहीं है. प्रतीक श्रीवास्तव ने जब भारतीय जनता पार्टी युवा मोर्चा के ज़िलाध्यक्ष से बात की तो राम पांडे ने क्रिया प्रतिक्रिया की बात कही और कहा कि अभी ऐसी और भाषा आने वाली है. ज़ाहिर है भाषा सोच का हिस्सा है, फिसलन का नहीं.
क्या यह सवाल पूछ कर समय बर्बाद करना चाहिए कि अजय मिश्रा की इस भाषा पर प्रधानमंत्री कुछ बोलते क्यों नहीं ? या इसकी जगह पर यह पूछना चाहिए कि बलात्कार और हत्या के आरोपियों को रिहा करने पर फूल मालाओं से क्यों स्वागत किया गया ? उन्हें क्यों समय से पहले रिहा किया गया ?
बिपिन चंद्र जोशी, शैलेश भट्ट, राधेश्याम शाह, बाकाभाई वोहानिया, केशरभाई वोहानिया, जसवंत, गोविंद, प्रदीप मोर्धिया, राजूभाई सोनी, मितेश भट्ट और रमेश चंदाना को माला पहनाने वालों के बारे में आप सोच कर क्या करेंगे ? 15 अगस्त के दिन इन्हें रिहा किया गया जिस दिन प्रधानमंत्री देश से अपील कर रहे थे कि महिलाओं के प्रति मन से सारे बुरे ख्याल निकाल देने हैं. महिलाओं को अपमानित करने वाले शब्दों से मुक्ति पानी है लेकिन यहां जिस तरह से संयुक्त परिवार जुटा है इनके स्वागत में, और ये माला पहन कर फोटो खिंचा रहे हैं, ज़ाहिर है कि समाज का एक बड़ा हिस्सा इन्हें संयुक्त परिवार का हिस्सा मानता है, तभी तो महिलाएं इनका टिका लगा रही हैं. प्रधानमंत्री के उस दिन के भाषण का यह हिस्सा लोगों की नज़र में कम आया मगर कोई बात नहीं –
‘संयुक्त परिवार की एक पूंजी सदियों से हमारी माताओं-बहनों के त्याग बलिदान के कारण परिवार नाम की जो व्यवस्था विकसित हुई ये हमारी विरासत है. इस विरासत पर हम गर्व कैसे करें ? हम तो वो लोग हैं जो जीव में भी शिव देखते हैं. हम वो लोग हैं जो नर में नारायण देखते हैं. हम वो लोग हैं जो नारी का नारायणी कहते हैं.’
नर का नारायण और नारी को नारायणी कहने वाले हम लोग हैं, जैसा कि प्रधानमंत्री कहते हैं लेकिन बलात्कार के दोषी को माला पहनाने वालों को क्या कहते हैं ? हाउसिंग सोसायटी के व्हाट्स एप ग्रुप में इस सवाल को पूछ कर देखिएगा, इतना तो कर ही सकते हैं देश के लिए. आज रुप रेखा वर्मा, रेवती लॉल और सुभासिनी अली ने सुप्रीम कोर्ट में एक याचिका दायर की है और मांग की है इस मामले की सुनवाई हो. कपिल सिब्बल इन तीनों की पैरवी कर रहे हैं. याचिका में मांग की गई है कि जिन्हें रिहा किया गया है, उन्हें वापस जेल भेजा जाए.
इस मामले में तृणमूल कांग्रेस की सांसद महुआ मोइत्रा ने भी सुप्रीम कोर्ट में याचिका दायर की है. महुआ की जनहित याचिका में कहा गया है कि पीड़िता को अपनी और अपने परिवार के सदस्यों की सुरक्षा को लेकर वैध आशंकाएं हैं. ये रिहाई पूरी तरह से सामाजिक या मानवीय न्याय को मजबूत करने में विफल रही है और राज्य की निर्देशित विवेकाधीन शक्ति का एक वैध अभ्यास नहीं है. इसमें कहा गया है कि सभी 11 दोषियों को एक ही दिन समय से पहले रिहा करने से स्पष्ट रूप से संकेत मिलता है कि राज्य सरकार ने योग्यता के आधार पर प्रत्येक व्यक्तिगत मामले पर विचार किए बिना यांत्रिक रूप से ‘थोक’ में रिहाई दे दी है.
मुंबई में बिल्कीस बानों के समर्थन में युनाइटेड अगेंस्ट इनजस्टिस एंड डिस्क्रिमिनेशन की एक प्रेस कांफ्रेंस हुई. इसमें इसके मुख्य संयोजक रिटायर्ड जस्टिस अभय थिप्से और रिटायर्ड जस्टिस उमेश सल्वी ने हिस्सा लिया. जस्टिस सल्वी नेशनल ग्रीन ट्रिब्युनल के अध्यक्ष भी रह चुके हैं. वरिष्ठ वकील गायत्री सिंह, मूलभूत अधिकार संघर्ष समिति के डॉ. विवेक कोर्दे और ऑल इंडिया उलेमा काउंसिल के मौलाना डॉ. महमूद दरयाबदी ने हिस्सा लिया. इन सभी ने बलात्कार और हत्या के मामले में दोषियों को आम माफी दिए जाने के फैसले पर सवाल उठाए हैं.
कई लोग पूछ रहे हैं कि इस मामले पर लोग क्यों नहीं बोल रहे हैं ? निर्भया के सामने पूरी दिल्ली उमड़ पड़ी थी, शायद बिलकीस के मामले में इस सवाल का जवाब मिल रहा है कि निर्भया के सामने दिल्ली उमड़ पड़ी थी या कुछ और हुआ था ? बिल्कीस के समय लोगों की चुप्पी से निर्भया आंदोलन को खारिज करना भी गलत होगा.
तब की जनता सही थी जो रायसीना हिल्स तक पहुंच गई थी. किसी भी समाज को बलात्कार की घटना पर आगे आना ही चाहिए, खासकर ऐसे country में जहां नारी को देवी के रूप में pray किया जाता है. उस समय बहुत से लोग जो यह मानते थे कि गलत हुआ है और अब इस पर रोक लगनी चाहिए. उन्होंने अपनी भूमिका निभाई, सरकार से सवाल किया और पुलिस की लाठियों का सामना किया और पानी की बौछारों का. सरकार ने भी जनता की भावनाओं का सम्मान किया और जस्टिस वर्मा की अध्यक्षता में एक कमेटी बनाई कि कानून में क्या सुधार किए जाने चाहिए ताकि बलात्कार की मानसिकता में बदलाव आए, अपराधियों में डर पैदा हो.
कम समय में इस जस्टिस वर्मा कमेटी ने रिपोर्ट दी और कानून में संशोधन किए गए. इस प्रक्रिया में बेशक खामियां होंगी लेकिन आप रायसीना हिल्स तक पहुंच कर प्रदर्शन करने वाले समाज के आंदोलन को नकार नहीं सकते. उन्होंने बलात्कार के मामलों में पीड़िता की मदद के लिए निर्भया फंड हासिल किया. इसके बाद कितनी ही महिलाएं आगे आईं और उन्होंने केस किया. सामाजिक लज्जा का फर्ज़ी बंधन टूट गया. एक उम्मीद पैदा हुई कि ऐसे मामलों में कार्रवाई होगी.
निर्भया आंदोलन को खारिज करना सही नहीं होगा. निर्भया के समय गोदी मीडिया नहीं था, जो पीड़िता और उसकी मां को अकेला छोड़ कर सरकार की सेवा करता था. ऐसे मुद्दे लाने में लगा था कि निर्भया की चर्चा नहीं हो. उस समय गोदी मीडिया भी पत्रकारिता करता था, इसलिए निर्भया की घटना से जुड़ी हर सूचना चैनलों पर चलती थी. सभी चैनलों पर एक साथ अनेक कार्यक्रम होते थे. जनता देख रही थी कि पत्रकार सरकार की जूती नहीं उठा रहे बल्कि पीड़िता के इंसाफ की लड़ाई लड़ रहे हैं.
अब गोदी मीडिया है. गोदी मीडिया के हर ऐंकर ने, उनके मालिकों ने यह तस्वीर देखी है कि बिल्किस के साथ बलात्कार करने वाले और उसकी बच्ची को पटक कर मार देने वाले इन दोषियों का स्वागत फूल माला से हो रहा है. अब गोदी मीडिया निर्भया के समय की तरह प्रधानमंत्री की चुप्पी पर सवाल नहीं करता है बल्कि जनता को चुप करा देता है. उसका ध्यान भटकाने के लिए मुद्दे बदल देता है. यह फर्क आया है, निर्भया आंदोलन से लेकर अब तक में.
एक फर्क और है. रेज़िडेंट वेलफेयर एसोसिएशन, रिटायर्ड अंकिल और हाउसिंग सोसायटी का व्हाट्स एप ग्रुप. अब सच्चाई कुछ भी हो, इससे जुड़े लोग यकीन उसी में करते हैं जो ग्रुप में फार्वर्ड आता है. इनका काम है सवाल करने वालों को चुप कराना या ऐसा माहौल बनाना कि हाउसिंग सोसायटी के भीतर लोग सवाल करने की हिम्मत न कर पाएं. ये निर्भया के समय नहीं था. जनता जनता थी न कि व्हाट्स एप ग्रुप और गोदी मीडिया की गुलाम.
तीसरा बल्कि पहला यही होना चाहिए था, एक बड़ा बदलाव आया, 2014 के बाद बलात्कार के आरोप में पीड़िता के साथ धर्म के आधार पर खड़े होने की राजनीति आई. इस संदर्भ में जनवरी 2018 में जम्मू के कठुआ रेप केस ने बड़ी रेखा खींच दी.
आठ साल की बच्ची के साथ बलात्कार कर, उसे पत्थर से मार कर हत्या करने वाले सभी आरोपी हिन्दू थे, इसलिए हिन्दू एकता मंच ने आरोपियों के पक्ष में तिरंगा लेकर यात्रा निकाली. इस तिरंगा यात्रा में उसी पार्टी के दो मंत्री शामिल हुए, जिस पार्टी के सबसे बड़े नेता ने इस बार घर-घर तिरंगा यात्रा का नारा दिया. महबूबा मुफ्ती सरकार में बीजेपी के दो मंत्री चंद्र प्रकाश गंगा और चौधरी लाल सिंह इस तिरंगा यात्रा में शामिल होते हैं. जब सवाल उठने लगे तब जाकर दोनों मंत्रियों ने पद से इस्तीफा दिया.
लोग भूल गए कि आठ साल की बच्ची का बलात्कार मंदिर में हुआ था, जहां उसे नशे की गोली दी जाती थी, जहां मंदिर के पुजारी सांझी राम ने उस आठ साल की बच्ची के साथ बलात्कार किया. उसका भांजा उसमें शामिल था. पुलिस को भी पहले से पता था, बल्कि पुलिस के अधिकारी पर आरोप लगा कि उसने पुजारी सांझी राम को नशे की गोली के बारे में जानकारी दी है.
यह घटना हिन्दू बनाम मुसलमान में बदल जाती है, इसमें से आठ साल की वो बच्ची गायब कर दी जाती है जिसका पुजारी ने बलात्कार किया, मंदिर में बलात्कार किया और मार दिया. जब इस मामले की चार्जशीट तैयार हुई तब वकीलों ने भी पेश होने से रोकने की कोशिश की. लोगों में धर्म का नशा छा गया था. निर्भया के नाम से निर्भय हो चुके लोग बेशरम हो चुके थे, आज तक बेशरम हैं. जून 2019 में इस मामले में छह आरोपियों को बलात्कार और हत्या के मामले में कई साल की सज़ा हुई.
उसके बाद से हर दूसरे केस में यही होने लगा, जब आरोपी मुसलमान होते थे तब मामला बनता था और चुप रहने वालों को गाली दी जाती थी।फांसी की मांग होने लगती थी। बलात्कार के मामले में हिन्दू मुस्लिम की राजनीति क्रूर हो गई। उसे पीड़िता का इंसाफ नहीं चाहिए था, उसे अपने सांप्रदायिक सनक का सम्मान चाहिए था। भीड़ की यह सनक हैदराबाद में दूसरा मोड़ लेती है।बलात्कार और हत्या के मामले में एनकाउंटर करने वाली पुलिस पर फूल बरसाती है,बाद में एनकाउंटर फर्जी निकलता है। इसलिए यह समाज बिल्कीस के समय नहीं बोलेगा।इसने कई सारे अपराधों का साथ दिया है, अब यह दूसरों के इंसाफ की लड़ाई नहीं लड सकता। अगर आप इतना ही याद रखें कि कठुआ बलात्कार कांड में बलात्कार के आरोपियों के पक्ष में तिरंगा यात्रा निकाली गई थी फिर आप बार बार निर्भया आंदोलन को खारिज नहीं करेंगे। कठुआ की बच्ची को कानून से इंसाफ मिल गया मगर समाज से इंसाफ मिला या समाज बलात्कारी के साथ ही रहा, इस सवाल का जवाब मेरे पास नहीं है
मगर यहां आप देख सकते हैं कि समाज किसके साथ है, इनके गले में जो लोग फूल माला डाल गए हैं, वे किस समाज से आते हैं, आप देख सकते हैं. कठुआ के समय प्रधानमंत्री मोदी ने भी बयान जारी कर निंदा की थी. 13 April 2018 को प्रधानमंत्री कार्यालय ने एक ट्विट किया था इसमें प्रधानमंत्री मोदी का बयान है कि जिस तरह की घटनाएं हमने बीते दिनों में देखीं हैं, वो सामाजिक न्याय की अवधारणा को चुनौती देती हैं.
पिछले 2 दिनों से जो घटनायें चर्चा में है वो निश्चित रूप से किसी भी सभ्य समाज के लिये शर्मनाक है. एक समाज के रूप में, एक देश के रूप में हम सब इस के लिए शर्मसार हैं. हम नहीं जानते कि बिलकीस के साथ बलात्कार करने वाले, उसकी बच्ची को मार देने वाले, मां सहित रिश्तेदारों की हत्या करने वाले इन दोषियों को रिहा करने वाला समाज सभ्य है या नहीं ? माला पहनाने वाला समाज सभ्य है या नहीं ? इतना जानते हैं कि आप इस तरह की चर्चा अपनी हाउसिंग सोसायटी के वाह्टस एप ग्रुप में नहीं कर सकते.
कठुआ के समय जब बीजेपी के मंत्री बलात्कार के आरोपी के पक्ष में होने वाली रैली में गए तब काफी आलोचना हुई थी और उसका असर हुआ था. दोनों मंत्रियों को इस्तीफा देना पड़ा. मगर क्या गृहमंत्री अमित शाह का यह विषय नहीं है ? क्या प्रधानमंत्री को इस पर नहीं बोलना चाहिए था ? फिर कठुआ पर क्यों बोल रहे थे ? कठुआ बलात्कार कांड में आप जम्मू कश्मीर हाई कोर्ट के जस्टिस तेजिंदर सिंह ढिंढसा और जस्टिस विनोद एस भारद्वाज का जजमेंट पढ़िएगा.
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