Home लघुकथा आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के जन्मदिन के अवसर पर उपन्यास पुनर्नवा का एक अंश

आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के जन्मदिन के अवसर पर उपन्यास पुनर्नवा का एक अंश

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आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के जन्मदिन के अवसर पर उपन्यास पुनर्नवा का एक अंश
आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के जन्मदिन के अवसर पर उपन्यास पुनर्नवा का एक अंश

देवरात साधु पुरुष थे. कोई नहीं जानता था कि वे कहाँ से आकर हलद्वीप में बस गये थे. लोगों में उनके विषय में अनेक किंवदन्तियाँ थी. कोई कहता था, वे कुलूत देश के राजकुमार थे और विमाता से अनेक प्रकार के दुर्व्यावहार प्राप्त करने के बाद संसार से विरक्त होकर इधर चले आये थे. कुछ लोग बताते थे कि बाल्यावस्था में ही मंखलि नामक किसी सिद्ध पुरुष से परिचय हो गया और उनके उपदेशों से वे संसार त्यागकर रमता राम बन गये. उनके गौर शरीर, प्रशस्त ललाट, दीर्घ नेत्र, कपाट के समान वक्षःस्थल, आजानुविलम्बित बाहुओं को देखकर इसमें कोई सन्देह नहीं रह जाता था कि वे किसी बड़े कुल में उत्पन्न हुए हैं. उनके शरीर में पुरुषोचित तेज और शौर्य दमकता रहता था और मन में अद्‌बुत औदार्य और करुणा की भावना थी. वे संस्कृत और प्राकृत के अच्छे कवि भी थे और वीणा, वेणु, मुरज और मृदंग-जैसे विभिन्न श्रेणी के वाद्य-यन्त्रों के कुशल वादक भी थे. चित्र-कर्म में भी वे कुशल माने जाते थे.

यह प्रसिद्ध था कि क्षिप्तेश्वरनाथ महादेव के मन्दिर के भीतरी भाग में जो भित्तिचित्र बने थे, वे देवरात की ही चमत्कारी लेखनी के फल थे. शील, सौजन्य, औदार्य और मृदुता के वे यद्यपि आश्रय माने जाते थे, परन्तु फिर भी उन्होंने वैराग्य ग्रहण किया था. हलद्वीप के राज-परिवार में उनका बड़ा सम्मान था. जब कभी राजा के यहाँ कोई उत्सव होता था, वे ससम्मान बुलाये जाते थे. वे यज्ञ-याग में उसी उत्साह के साथ सम्मिलित होते थे जिस उत्साह के साथ मल्ल-समाह्वय में. वे पण्डितों की वाद-सभा में भी रस लेते थे और नृत्यगीत के आयोजनों में भी. लोगों का विश्वास था कि उन्हें संसार के किसी विषय से आसक्ति नहीं थी. उनका एकमात्र व्यसन था दीन-दुखियों की सेवा, बालकों को पढ़ाना और उन्हीं के साथ खेलना. यद्यपि वे अनेक शास्त्रों के ज्ञाता थे और भगवद्‌-भक्त भी माने जाते थे, परन्तु वे नियमों और आचारों के बन्धनों में कभी नहीं पड़े. साधारण जनता में उनकी रहस्यमयी शक्तियों पर बड़ी आस्था थी, परन्तु किसी ने उन्हें कभी पूजा-पाठ करते नहीं देखा.

देवरात का आश्रम हलद्वीप से सटा हुआ, थोड़ा पश्चिम की ओर, महासरयू के तट पर अवस्थित था. च्यवनभूमि के चौधरी वृद्धगोप उन पर बड़ी श्रद्धा रखते थे. वृद्धगोप का इस क्षेत्र में बड़ा सम्मान था. उनके पूर्व-पुरुष मथुरा से शुंग राजाओं की सेना के साथ आकर यहीं बस गये थे. नन्दगोप के वंशधर होने के कारण उनका कुल जनता की श्रद्धा और विश्वास का पात्र था. वृद्धगोप के दो पुत्र थे जिनमें एक तो वस्तुतः ब्राह्मण-कुमार था जिसे उन्होंने यत्न और स्नेह से पाला था. कुछ साँवला होने के कारण उन्होंने इसका नाम दिया था श्यामरूप. दूसरा आर्यक उनका अपना लड़का था. श्यामरूप को उन्होंने देवरात के आश्रम में पढ़ने के लिए भेजने का निश्चय किया. उस समय उसकी अवस्था आठ या नौ वर्ष की थी.

जब श्यामरूप आश्रम में जाने लगा तो चार-पाँच वर्ष की अवस्था का आर्यक भी पाठशाला जाने के लिए मचल उठा. वृद्धगोप आर्यक को अपनी वंश-परम्परा के अनुकूल मल्ल-विद्या की शिक्षा देना चाहते थे, परन्तु उसके हठ को देखते हुए उन्होंने उसे भी पाठशाला जाने की आज्ञा दे दी. देवरात इन दोनों शिष्यों को पाकर बहुत अधिक प्रसन्न हुए. उन्होंने वृद्धगोप से आग्रह किया कि दोनों बच्चों को उनके आश्रम में पढ़ने दिया जाय. उन्होंने गद्‌गद-भाव से वृद्धगोप से कहा था कि उन्हें ऐसा लग रहा है, जैसे स्वयं बलराम और कृष्ण ही इन दो बच्चों के रूप में उनके सामने आ गये हैं. भाव-गद्‌गद होकर दोनों बच्चों को गोद में लेकर वे देर तक बैठे रहे और फिर आकाश की ओर देखकर बोले, ‘प्रभो ! यह कैसी अपूर्व लीला है ! आज तुमने गौर रूप धारण किया है और बड़े भैया को श्यामरूप दे दिया है !’ वृद्धगोप ने सुना तो उन्हें रोमांच हो आया. उन्हें लगा कि सचमुच ही जिस प्रकार नन्दगोप की गोदी में बलराम और कृष्ण आ गये थे, वैसे ही उनकी गोदी में श्यामरूप आर्यक आ गये हैं.

महात्मा देवरात के चरणों में साष्टांग दण्डवत्‌ करते हुए उन्होंने कहा, ‘आर्य, आज मेरा जन्म-जन्मान्तर कृतार्थ जान पड़ता है. आपने ही इन दोनों बच्चों में बलराम और कृष्ण का रूप देखा है और आप ही इन्हें बलराम और कृष्ण बना सकते हैं. मेरी हार्दिक अभिलाषा है कि श्यामरूप अपनी वंश-परम्परा के अनुसार पण्डित बने और आर्यक अपनी वंश-परम्परा अनुसार अजेय मल्ल बने, परन्तु आपके चरणों में इन्हें सौंप मैं निश्चिन्त हुआ हूँ. आप इन्हें यथोचित्‌ शिक्षा दें.’ देवरात देर तक दोनों बच्चों के शारीरिक लक्षणों की परीक्षा करते रहे और उल्लसित स्वर में बोले, ‘चिन्ता न करें भद्र, ये दोनों ही बच्चे पण्डित भी बनेंगे और अजेय मल्ल भी. आर्यक में चक्रवर्त्ती के सब लक्षण दिखायी दे रहे हैं. यदि सामुद्रिक-शास्त्र सत्य है तो आर्यक दिग्विजयई होकर रहेगा और श्यामरूप उसका महामात्य बनेगा.’ फिर आर्यक की ओर ध्यान से देखते हुए बोले, ‘मेरा मन कहता हैकि यह बालक वृद्धगोप के घर में गाय चराने के लिए पैदा नहीं हुआ है. यह बहुत बड़ा होगा, बहुत बड़ा !’ वृद्धगोप सन्तुष्ट होकर घर लौट आये. दोनों बच्चे देवरात की देख-रेख में पढ़ने और बढ़ने लगे. देवरात ने त्रिलिंग देश के मला राजुल को उन्हें व्यायाम और मल्ल-विद्या सिखाने के लिए नियुक्त किया.

देवरात दीन-दुखियों की सेवा में सदा तत्पर रहा करते थे. उन्हें किसी से कुछ लेना-देना नहीं था. परन्तु उनकी कला-मर्मज्ञता का राज-भवन में भी सम्मान था. हलद्वीप की जनता का विश्वास था कि देवरात जो हलद्वीप में टिक गये हैं, उसका मुख्य कारण राजा का आग्रह और सम्मान है. अन्तःपुर में भी उनका अबाध प्रवेश था. वस्तुतः वे राजा और प्रजा दोनों के ही सम्मानभाजन थे.

देवरात के शील, सौजन्य, कला-प्रेम और विद्वत्ता ने हलद्वीप की जनता का मन मोह लिया था. लोग कानाफूसी किया करते थे कि उनका विरोध सिर्फ़ एक ही व्यक्ति की ओर से है. वह थी हलद्वीप के छोटे नगर की नगरश्री मंजुला. सारे नगर में उसके रूप, शील, औदार्य और कला-पटुता की धूम थी. बड़े-बड़े श्रेष्टि-कुमार उसके कृपा-कटाक्ष के लिए लालायित रहा करते थे. उसके नृत्य में मादकता थी और कण्ठ में अमृत का रस. हलद्वीप में वह अत्यन्त अभिमानिनी गणिका के रूप में विख्यात थी और अपने विशाल सतखण्ड हर्म्य के बाहर बहुत कम जाती थी. केवल विशेष-विशेष अवसरों पर आयोजित राजकीय उत्सवों में ही वह अपना नृत्य-कौशल दिखाया करती थी. अन्य अवसरों पर नृत्य और गीत के प्रेमियों को उसके द्वारस्थ होकर ही अपना मनोरथ पूरा करना पड़ता था. उसके अभिमान और आत्म-गौरव के सम्बन्ध में लोगों में अनेक प्रकार की किंवदन्तियाँ प्रचलित थीं. कहा तो यहाँ तक जाता था कि कला-चातुरी के बारे में राज भी उसकी आलोचना करने में हिचकते थे.

हलद्वीप के पश्चिमी किनारे पर, जहाँ बोधसागर की सीमा समाप्त होती थी, एक ऊँचा-सा टीला था. बरसात में जब बोधसागर में पानी भर जाता था और महासरयू में भी उफान आता था, तो यह टीला चारों ओर पानी से घिर जाता था इसीलिए वह हलद्वीप में एक दूसरे द्वीप की तरह दिखायी देता था. उसका नाम ’द्वीपखण्ड’ सर्वथा उचित था. इसी द्वीपखण्ड के दक्षिण-पूर्वी छोर पर हलद्वीप का ’सरस्वती-विहार’ था. वसन्तारम्भ के दिन इस सरस्वती-विहार में काव्य, नृत्य, संगीत आदि का बहुत बड़ा आयोजन हुआ करता था. उस दिन राजा स्वयं इन उत्सवों का नेतृत्व करते थे. कई दिन तक नृत्य-गीत के साथ-साथ अक्षर-च्युतक, बिन्दुमती, प्रहेलिका आदि की प्रतियोगिताएँ चलती थीं, न्याय और व्याकरण के शास्त्रार्थ हुआ करते थे, कवियों की समस्यापूर्त्ति की प्रतिद्वन्द्विता भी चला करती थी, और देश-विदेश से आये हुए प्रख्यात मल्लों की कुश्तियाँ भी.

राजा के सभापतित्व में ही एक बार मंजुला का नृत्य इसी सरस्वती-विहार में हुआ. देवरात भी सदा की भाँति आमन्त्रित थे. मंजुला ने उस दिन बड़ा ही मनोहर नृत्य किया था. स्वयं राजा ने उसे उस नृत्य के लिए साधुवाद दिया था. देवरात भाव-गद्ग गद होकर देर तक उस मादक नृत्य का आनन्द लेते रहे. मंजुला ने उस दिन पूरी तैयारी की थी. उस दिन उसकी सम्पूर्ण देह-लता किसी निपुण कवि द्वारा निबद्ध छ्न्दोधार की भाँति लहरा रही थी; द्रुत-मन्थर गति अनायास विविध भावों को इस प्रकार अभिव्यक्त कर रही थी, मानो किसी कुशल चित्रकार द्वारा चित्रित कल्पवल्ली ही सजीव होकर थिरक उठी हो. उसकी बड़ी-बड़ी काली आँखें कटाक्ष-निक्षेप की घूर्णमान परम्पराओं का इस प्रकार निर्माण कर रही थीं जैसे नीलकमलों का चक्रवाल ही चंचल हो उठा हो, शरत्कालीन चन्द्रमा के समान उसका मुखमण्डल चारियों के वेग से इस प्रकार घूम रहा थ कि जान पड़ता था, शत-शत चन्द्रमण्डल ही आरात्रिक प्रदीपों की अराल-माला में गुँथकर जगर-मगर दीप्ति उत्पन्न कर रहे हों. उसकी नृत्य-भंगिमा से नाना स्थिति की भाव-मुद्राएँ अनयास निखर उठी थीं. उसके कन्धे के नीचे मृणाल-कोमल भुज-युगल सुकुमार-संग्रथित द्विपदी-खण्ड के समान भाव-परम्परा में वलयित हो उठते थे वस्तुतः पूर्वानिल के झोंकों से झूमती हुई शतावरी लता के समान उसकी सम्पूर्ण देह-वल्लरी ही भावोल्लास की तरंग से लीलायित हो उठी थी. ऐसा लगता था, वह छन्दों से ही बनी है, रागों से ही पल्लवित हुई है, तानों से सँवारी गयी है और तालों से ही कसी गयी है. सभा एकाग्र की भाँति, चित्रलिखित की भाँति, मन्त्र-मुग्ध की भाँति, साँस रोककर उस अपूर्व तालानुग उत्ताल नर्त्तन का आनन्द ले रही थी.

नृत्य की समाप्ति के बाद भी एक प्रकार की मादक विह्वलता छायी हुई थी. महाराज के साथ सम्पूर्ण राज-सभा ने उल्लसित स्वर में ‘साधु-साधु’ की हर्षध्वनी की. देवरात निर्वत-निष्कम्प दीप-शिखा की भाँति, निस्तरंग जलाशय की भाँति, वृष्टिपूर्व घनघुम्मर मेघमाला की भाँति स्थिर बने रहे. मंजुला ने गर्वपूर्वक उनकी ओर देखा. वे शान्त बने रहे. ऐसा लगता था कि वे अब भी भाव-विह्वल अवस्था में थे. महाराज ने सचेत किया, ‘आर्य देवरात, नृत्य कैसा लगा आपको ?’ ऐसा लगा कि देवरात आयासपूर्वक अपनी संज्ञा के खोये हुए तन्तुओं को समेटने लगे. बोले, ‘क्या कहना है महाराज, मंजुला देवी ने आज नृत्य-कला को धन्य कर दिया है. शास्त्रकारों ने जो नृत्य को देवताओं का चाक्षुष यज्ञ कहा है, वह बात आज प्रत्यक्ष देख सका हूँ.’ फिर मंजुला को सम्बोधन करते हुए बोले, ‘धन्य हो देवि, ताल तुम्हारे चरणों का दास है, भाव तुम्हारे मुखमण्डल का मुँह जोहता रहता है….’ कहते-कहते वे बीच में ही रुक गये. स्पष्ट जान पड़ा कि वे कुछ कहना चाहते थे पर कह नहीं सके हैं. महाराज ने जान-बूझकर छेड़ा, ‘कुछ त्रुटि भी रह गयी है क्या, आर्य  ?’ मंजुला मन-ही-मन जल उठी. उसे लगा कि देवरात कुछ दोषोद्‌गार करने के लिए ही यह मीठी भूमिका बाँध रहे हैं. इसके पहले भी कई बार मंजुला देवरात की आलोचना सुन चुकी थी. यद्यपि देवरात ने कभी भी ऐसी कोई बात नहीं कही जिसमें रंच-मात्र भी अश्रद्धा प्रकट हुई हो, पर मंजुला ने सदा ही उनकी आलोचनाओं में द्वेष-भाव ही देखा था. आज भी उसे लगा की देवरात कुछ ऐसा ही करने जा रहे हैं.

परन्तु देवरात कभी विद्वेष-बुद्धि से किसी को कुछ नहीं कहते थे. उन्हें सचमुच मंजुला का नृत्य अच्छा लगा था, यद्यपि वे उससे कुछ अधिक की आशा रखते थे. मंजुला को ही सम्बोधन करते हुए बोले, ‘बड़ा ही रमणीय साधन तुम्हें मिला है देवि ! अपने को खोकर ही अपने को पाया जा सकता है. तुम्हारा नृत्य इसी महासाधना की ओर अग्रसर हो रहा है. इस महाविद्या के बल पर ही एक दिन तुम स्वयं को दलित द्राक्षा की तरह निचोड़कर महा-अज्ञात के चरणों में दे सकोगी.’ फिर यह सोचकर कहीं मंजुला के चित्त को ठेस न पहुँच जाय, वे फिर उसी को सम्बोधन करके बोले, ‘अज्ञ जन दया का पात्र होता है, देवि ! अवश्य ही तुमने कुछ समझकर ही भावानुप्रवेश की उपेक्षा की होगी. मैं तो अज्ञ श्रद्धालु के रूप में ही यह सब कुछ कह रहा हूँ. इसे अन्यथा न समझना.’ मंजुला का मुख क्षण-भर के लिए म्लान हो गया. वह कुछ उत्तर नहीं दे सकी. राजा ने ही बीच में उसे सम्हाला, ‘आर्य, किस प्रकार का भावानुप्रवेश आप चाहते हैं ?’ देवरात मंजुला का म्लान मुख देखकर अनुतप्त हुए. परन्तु बात उनके मुँह से निकल चुकी थी और राजा के प्रश्न का उत्तर आवश्यक था.

बड़ी संयत वाणी में उन्होंने कहा, ‘देव, मंजुला का नृत्य निस्सन्देह बहुत उत्तम कोटि का है. जो बात मेरी समझ में नहीं आयी, वह यह है कि ‘छलित’ नृत्य में नर्त्तक या नर्त्तकी को उन भावों का स्वयं अनुभव-सा करना चाहिए जो अभिनीत हो रहे हैं. इसी को भावानुप्रवेश कहते हैं. दूसरों के द्वारा प्रकट किये हुए भाव में स्वयं अपने को प्रवेश कराना का कौशल ! निस्सन्देह मंजुला देवी इसमें निपुण हैं परन्तु ऐसा जान पड़ता है कि वे आज अपने को भूल नहीं सकी हैं. नृत्य का उद्देश्य मानो कुछ और था — सहज आनन्द से भिन्न, कुछ ओर बात !’ देवरात को संकोच अनुभव हो रहा था. बात कुछ अवांछित दिशा की ओर बढ़ती जा रही थी. उसे किसी दूसरी ओर मोड़ देने के उद्देश्य से उन्होंने कहा, ‘भावानुप्रवेश तो पहली सीढ़ी है महाराज ! अन्तिम लक्ष्य तो महाभाव की अनुभूति ही है.’ मंजुला ने सुना तो उसे बड़ी चोट लगी. नृत्य-कला में वह और किसी की विदग्धता स्वीकार नहीं करती थी परन्तु आज सचमुच ही उसके मन में चोर था. वह देवरात को दिखा देना चाहती थी कि उसके समान नर्त्तकी संसार में और कोई नहीं. हलद्वीप में एकमात्र देवरात ही उसकी दृष्टि में ऐसे थे, जो उसके रूप और गुण से अभिभूत नहीं हुए थे. आज सचमुच ही उसके मन में देवरात पर विजय पाने की लालसा थी. फीकी हँसी हँसकर उसने कृत्रिम विनय के स्वर में कहा, ‘आप तो नृतक आचार्य जान पड़ते हैं.’ परन्तु मतलब यह था कि तुम्हारे आचार्यत्व का अभिमान तुच्छ है.

सभा भंग होने के बाद मंजुला अपने घर लौट आयी, लेकिन एक शब्द उसके कानों के पास बराबर मँडराता रहा — ‘भावानुप्रवेश.’ क्रोधावेश में उसने सोचा, देवरात कहता है कि उसमें भावानुप्रवेश के कौशल में कमी है. यह देवरात दम्भी है, क्लीव है, कुत्सा-प्रिय है. उसने मंजुला का अपमान किया है. परन्तु जैसे-जैसे आवेश ठण्डा पड़ता गया, वैसे-वैसे मंजुला के मन में और तरह के विचार आते गये. देवरात एकमात्र समझदार सहृदय है. उसने मंजुला के मन का चोर पकड़ा है. उसे उसकी सीमा में प्रवेश करके परास्त करना होगा. उसका गर्व-चूर्ण करना होगा. उस रात मंजुला को नींद नहीं आयी. देवरात का अक्षोभ्य मुख उसके मानस-पटल पर बार-बार आ जाता था. यह आदमी कभी उसके रूप से अभिभूत नहीं हुआ और कभी उसके प्रति इसने अश्रद्धा या लोलुप दृष्टि से नहीं देखा. कला का मर्मज्ञ है, बाह्य रूप का चाटुकार नहीं.

मगर मंजुला यह नहीं समझ सकी कि वह उससे जलता क्यों रहताहै ! जब देखो, मीठी छुरी चला देता है. कहता है, भावानुप्रवेश की कमी है. भण्ड है, मायावी है, निन्दक है. मगर सारी दुनिया तो मंजुला पर मुग्ध है, एक देवरात नहीं मुग्ध होता तो उससे उसका क्या बिगड़ जाता है ? मंजुला के पास इसका उत्तर नहीं था. क्यों उसका मन बराबर देवरात पर विजय पाने को तरसता है ? क्या वह नहीं जानती कि हजार विडम्बक रसिकों की चाटुकारी, सच्चे सहृद्य के एक बार सिर हिलाने की बराबरी नहीं कर सकती ? नहीं, देवरात को वश में करने का उपाय कुछ और है. रूप की माया उसे नहीं आकृष्ट कर सकती, हेला और विव्वोक उसे नहीं अभिभूत कर सकते, उसे वश में करने का कुछ और ढंग होना चाहिए. मिट्टी के शरीर पर आकृष्ट होनेवाले रसिक जानते ही नहीं कि रस क्या चीज़ है. सहृदय भाव चाहता है, देवरात और भी आगे बढ़ कर महाभाव चाहता है. महाभाव क्या होता होगा भला ! मंजुला फिर उलझ गयी. देवरात किस महाभाव में रहते हैं ? सदा प्रसन्न, सदा श्रद्धा-परायण, सदा निर्लोभ. मंजुला सोचने लगी, उसे देवरात को क्या ग़लत समझा था ? पूरी राज-सभा में वही तो एक सहृदय है जो रस का मर्मज्ञ है, बाकी तो भाँड हैं. ना, देवरात ही सच्चा पुरुष है बाकी तो मांस के भुक्खड़ भेड़िये हैं. देवरात को परास्त करना होगा, मगर उसी के स्तर पर. उसे पसीना आ गया. अंगुलियों में भी स्वेद की आर्द्रता अनुभूत हुई. यह चिन्ता उसे कई दिनों तक व्याकुल किये रही.

कुछ दिन बाद एक दूसरे आयोजन के समय मंजुला को देवरात पर विजय पाने का अवसर मिला. उस दिन उसका चित्त निरन्तर मथित होने के बाद शान्त हो आया था. जैसे बिलोये हुए दधि में मक्खन उतर आता है, वैसे ही मंजुला में अब सात्त्विक भाव उमड़ आया था. उसने विशुद्ध कलाकार की ऊँचाई से सहृदय को वश में करने का निश्चय किया था. देवरात उस दिन प्राकृत में एक कविता सुना रहे थे. कवित शृंगार रस की जान पड़ती थी. बहुत-से लोग, जो देवरात को वैरागी समझते थे, इस कविता को सुनकर विस्मित हुए थे. कविता इस प्रकार थी —

अज्जं पिताव एक्कं मा मं वारेहि पियमहि रुअन्तीं।
कल्लिं उण तम्मि गए जइ ण मुआ ता ण रोदिस्सम्‌॥

(रोवन दै सखि आजि तू, मति बरजै, रहि मौन।
ललन चलन लखि काल्हि जौ, प्राण बचै, रोऔ न॥)

देवरात ने इसको बड़े व्याकुल स्वर में पढ़ा. उनका स्वर काँप रहा था. ऐसा जान पड़ता था कि नाभी-कुहर से निकले हुए शब्द हैं जो समस्त चक्रों को अनायास ही बेधकर निकल रहे हैं. देवरात का नाद-यन्त्र केव निमित्त-मात्र जान पड़ता था. ऐसा लगता था कि कोई विश्वव्यापिनी मर्म-वेदना अनायास ही उनके नाद-यन्त्र के माध्यम से हिल्लोलित हो उठी हो. छिछले रस-मर्मज्ञों को इसमें सन्देह नहीं रहा कि इसका कवि स्वयं अनुभव करने के बाद ही ऐसी बात कह रहा है. लोगों ने यह भी कहना शुरू किया कि इस कविता का सम्बन्ध देवरात की किसी आप-बीती कहानी से अवश्य है लेकिन मंजुला विचलित हो गयी. वह मन-ही-मन देवरात के वैदग्ध्य से मुग्ध हो रही. उसे लगा कि व्यर्थ में उद्धत अभिमान के कारण वह अब तक इस एकमात्र सहृदय पुरुष की उपेक्षा करती रही है. उसका अन्तर इस प्रकार द्रवित हो उठा जैसे दीर्घकाल से जमा हुआ हिम एकाएक उष्ण वायु स्पर्श से पिघल गया हो. हाय, किस गहराई में उस असामान्य पुरुष के अन्तर-देश में मर्मन्तुद पीड़ा घर किये बैठी है ! ऊपर से वह गम्भीर बनी रही पर उसका अन्तर द्रवित हो चुका था.

राजा ने उससे प्रश्न किया, ‘कहो मंजुला, आर्य देवरात की कविता कैसी लगी ?’ मंजुला ने कृत्रिम गर्व का भाव धारण किया. विव्वोक-चटुल मुद्रा में ‘नासा मोरि नचाइ दृग’ बोली, ‘बासी है !’ और मन्द-मन्द मुस्कराती हुई देवरात की ओर इस प्रकार देखने लग गई, मानो कह रही हो मेरे शब्दों पर न जाना, कविता अच्छी है. देवरात ने उस दृष्टि का अर्थ समझा और बोले, ‘देवि ! अनुग्रह हो तो कुछ प्रत्यग्र-मनोहर सुनने की इच्छ है.’ लेकिन इस बीच मंजुला का यह उत्तर सुनकर राजा हँस पड़े थे और उनके पीछे बैठी चाटुकारों, भाटों, विदूषकों और विटों की मण्डली भी हँसी से इस प्रकार लोटपोट हो गयी थी, मानो अन्नदाता ने अभूतपूर्व परिहास किया हो. मंजुला के मन पर चोट लगी. वह नहीं चाहती थी कि देवरात उसे ग़लत समझें. अपनी बड़ी-बड़ी आँखों से उसने कातर अपांग से देवरात की ओर देखा, भाव था, ‘इन भोंडे रसिकों की हँसी की उपेक्षा करें. मैं परवश हूँ.’ देवरात ने आँखों की भाषा में उत्तर दिया, ‘कुछ परवाह न करो, ये नासमझ हैं.’ फिर एक-दो बार आँखों-ही आँखों में बातें हुईं.

राज-सभा में किसी ने इस दृष्टि-विनिमय को समझने का प्रयत्न नहीं किया. राजा ने मंजुला से कहा, ‘हाँ सुन्दरि, कुछ प्रत्यग्र-मनोहर सुनाओ.’ प्रत्यग्र-मनोहर, अर्थात्‌ जो अपनी ताज़गी से ही मन हर लेता हो. मंजुला ने एक बार फिर देवरात की ओर ईषत्‌ कटाक्ष-निक्षेप किया. भाव यह था कि ‘शुरू करूँ, अनुमति है ?’ देवरात ने हँसते हुए कहा, ‘अवश्य सुनाओ देवि, मगर सौन्दर्य तो वही है जो बासी नहीं होता.’ मंजुला ने जीभ काट ली — क्या देवरात को आलोचना बुरी लग गयी है ? राजा की ओर देखते हुए, किन्तु वस्तुतः देवरात को लक्ष्य करके उसने कहा, ‘मैं बासी को भी ताज़ा बना सकती हूँ, महाराज !’ राजा एक बार फिर हँसे और साथ ही विटों और विदूषकों की मण्डली लहालोट हो गयी. देवरात ने कहा, ‘अवश्य कर सकती हो देवि, विलम्ब का क्या प्रयोजन है ?’ पीछे से किसी ने टिटकारी दी, ‘हाय, हाय, सूखी डाल में कोंपलें फूट रही हैं रे !’ मंजुला को बुरा लगा. देवरात के चेहरे पर कोई भाव नहीं दिखायी दिया.

मंजुला ने सोचा कि देर करने से इन विडम्ब-रसिकों से न जाने क्या-क्या सुनने को मिले इसलिए हाथ जोड़कर उसने राजा से कहा, ‘महाराज, आप नए प्रत्यग्र-मनोहर सुनाने की अनुमति दें और बाद में बासी को ताज़ा करने की.’ महाराज ने उल्लासपूर्वक साधुवाद दिया और मंजुला रंगभूमि में उतरी. उस दिन वह सचमुच ’भावानुप्रवेश’ की मुद्रा में थी. बड़ी ही करुण-मधुर वाणी में उसने अपनी रचना पढ़ी. लेकिन कविता का पाठ आरम्भ करने के साथ ही वह भाव-विह्वल मुद्रा में दिखायी पड़ी. कसा हुआ धम्मिल-पाश (जूड़ा) न जाने कब बिखरकर पीठ पर फैल गया. वह करुण रस की मूर्त्ति या शरीरधारिणी विरह-व्यथा की भाँति कूक उठी. क्या सोचकर उसने यह कविता लिखी थी, यह तो उसके अन्तर्यामी ही जानते होंगे, परन्तु उसके पढ़ने में अजीब मादकता थी. ऐसा जान पड़ता था कि उसने हृदय का समूचा रस उँड़ेलकर उसके एक-एक अक्षर को भिगोया था. प्रत्येक अक्षर स्फुट रूप से उच्चरित था, यथास्थान, ’काकु’ का उचित सन्निवेश था और छ्न्द की लहरी भाव के साथ विचित्र भंगिमा में हिल्लोलित हो उठी थी. उस दिन वह वास्तविक ‘भावानुप्रवेश’ की अवस्था में थी. उसने संस्कृत का श्लोक नहीं पढ़ा, प्राकृत की आर्या नहीं सुनायी, सुनाया गराम्य भाषा में प्रयुक्त होनेवाला विरह-गीत (बिरहा) का अत्यन्त मनोहर दोहा छ्न्द. व्याकुल वाणी में उसने सुनाया –

दुल्लह जण अणुराउ गरु लज्ज परब्बसु प्राणु ।
सहि मणु विसम सिणेह बसु मरणु सरणु णहु आणु ॥

(दुर्लभ जन अनुराग बड़ि लज्जा परबस प्रान।
सखि मन विषम सनेह-बस, मरन सरन, नहिं आन॥)

उसने व्याकुल कम्पित स्वर में ‘प्राणु’ शब्द को खींच. ऐसा जान पड़ा, आकाश रो उठा है, वायु-मण्डल काँप उठा है. अन्तिम चरण तक आते-आते उसका स्वर शिथिल होने ल्गा. वह अर्धमूर्च्छित-सी होकर रंगभूमि में शिथिल भाव से पड़ रही. सभासदों ने आशंकित होकर सोचा, यह क्या अभिन्य है, या सच्ची वेदना है ? धीरे-धीरे मंजुला की संज्ञा लौट आयी. उसने देवरात की पढ़ी हुई आर्या को भी पढ़ा. करुण-कम्पित स्वर से वायु-मण्डल विद्ध हो उठा. ऐसा जान पड़ा, वह आविष्ट है. जो मंजुला नित्य दिखाई देती है, उससे मानो यह भिन्न हो. काव्य, संगीत और अभिनय के उत्तम पक्षों का यह बहुत ही रमणीय सामंजस्य था. जब कविता-पाठ के बाद वह उठी, तब भी आविष्ट अवस्था में थी. चलने लगी तो चरणों के अलस संचार में भी विरह-व्यथा तरंगित हो रही थी, विलुलित केश-पाश से अनुभाव लहरा उठे थे और शिथल नयनों से व्याकुल उच्छ्‌वास चंचल हो उठा था.

स्वयं देवरात के सिवा सभी सभासदों ने यही समझा कि यह देवरात को परास्त करने का आयोजन है. वे यह भी सोच रहे थे कि देवरात अवश्य कुछ-न-कुछ दोषोद्‌गार करेंगे परन्तु आश्चर्य के साथ देखा गया कि देवरात की आँखों से अविरल अश्रु-धारा झर रही है. उनके होंठ सूख गये हैं और कपोल-प्रान्त मुरझाये हुए कमल के समान पाण्डुर हो उठे हैं. मंजुला ने यह कल्पना भी नहीं की थी कि देवरात की ऐसी दशा हो जायेगी. देवरात कुछ प्रकृतिस्थ होकर बोले, ‘धन्य हूँ देवि, जो वाग्देवता को प्रत्यक्ष देख रहा हूँ.’ उनकी इस प्रशंसा को सुनकर मंजुला के सहज-प्रगल्भ मुख पर पहली बार लज्जा की लालिमा दिखायी पड़ी. नि:स्सन्देह उस दिन वह देवरात पर विजय प्राप्त करने की कामना से आयी थी. उसे अभूतपूर्व सफलता भी मिली, पर विधाता के मन में कुछ और ही था. वह अपने को पा गयी, अपने को ही खोकर, जिसे वह सदा अपना प्रतिद्वन्द्वी समझती रही, उसी देवरात को हराकर वह स्वयं हार गयी. उसने पहली बार अनुभव किया कि हारकर भी मनुष्य चरितार्थ हो सकता है.

देवरात उस दिन अधीर और व्याकुल देखे गये. राजा ने समझा कि उन्होंने अपने को अपमानित अनुभव किया. सुनने में आया कि राजा ने मंजुला पर अपना क्रोध भी प्रकट किया. यद्यपि उन्होंने उसके मुँह पर कुछ नहीं कहा, तथापि सारे नगर में उनके रोष की कहानी फैल गयी. मंजुला ने सुना तो उसका हृदय व्यथा से तड़प उठा. क्या सचमुच देवरात को उस दिन उसने चोट पहुँचायी ? अभिमानिनी गणिका को अपने औद्धत्य के लिए पहली बार पश्चाताप हुआ— हाय अभागी, तूने कैसा अनर्थ कर दिया ! परन्तु उसके अन्तर्यामी कहते थे कि यह बात झूठ है. देवरात ऐसे छोटे नहीं हैं. उन्होंने मंजुलाको ग़लत नहीं समझा है. राज-सभा भोंडी रसिकता की शिकार है। विडम्ब-रसिक अपने मन से दूसरों के मन को मापा करते हैं। देवरात इनसे ऊपर हैं, बहुत ऊपर।

लेकिन देवरात अपने आश्रम में दीन-दुखियों की सेवा और बालकों को पढ़ाने लिखाने का काम यथानियम करते रहे. उस दिन की क्षणिक अधीरता के बाद कभी भी उन्हें कातर या अभिभूत नहीं देखा गया. वे राजा की सभा में आयोजित नृत्य-गीतों में भी उसी उत्साह के साथ सम्मिलित होते रहे, जिस उत्साह के साथ मल्लशाला में आयोजित मल्ल-समाह्व्यों में. वे पण्डितों की वाद-सभा में भी उतना ही रस लेते थे. राज-सभा के सभासदों ने सिर हिला-हिलाकर जो आशंका प्रकट की थी कि किसी-न-किसी दिन यह कला-प्रेमी वैरागी मंजुला के कटाक्ष-बाणों से घायल होगा, वह कभी सत्य नहीं हुई. देवरात यथापूर्वक निर्विकार और निर्लिप्त बने रहे. केवल एक परिवर्त्तन हुआ जिसे देवरात के अन्तर्यामी के सिवा और कोई नहीं देख सका. जब कभी देवरात एकान्त में होते, वे उदास स्वर में गुनगुना उठते –

दुल्लह जण अणुराउ गरु लज्ज परब्बसु प्राणु ॥
सहि मणु बिसम सिणेह बसु मरणु सरणु णहु आणु ॥

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