Home गेस्ट ब्लॉग नेहरु जी को देख लो मोदीजी, तुम्हारे सारे पाप धुल जाएंगे !

नेहरु जी को देख लो मोदीजी, तुम्हारे सारे पाप धुल जाएंगे !

33 second read
0
0
409
नेहरु जी को देख लो मोदीजी, तुम्हारे सारे पाप धुल जाएंगे !
नेहरु जी को देख लो मोदीजी, तुम्हारे सारे पाप धुल जाएंगे !
जगदीश्वर चतुर्वेदी

लोकतंत्र झूठ के बिना नहीं चलता. झूठे वायदे और झूठे भाषण लोकतंत्र का ईंधन है. लालकिले से मोदी ने आज का सबसे बड़ा झूठ बोला है कि – भारत लोकतंत्र की जननी है. मोदी जी जान लो – फ्रांस की राज्यक्रांति (1789) से लोकतंत्र का जन्म हुआ था.

अंखियां लोकतंत्र की प्यासी लेकिन पीएम के आज के भाषण से लोकतंत्र गायब है. लोकतंत्र माने जीवंत भारत और उसकी समस्याएं गायब. इतना जल्द चुक जाओगे विश्वास नहीं हो रहा. यही कहते कि पानी की प्याऊ लगाएंगे. देस समस्याओं से घिरा पड़ा है और पीएम की आंखें बंद, कान बंद और दिमाग पर जाले पड़े हैं. बस एक बार नेहरु जी को देख लो मोदीजी सारे पाप धुल जाएंगे !!

‘क्लिक कल्चर’ के प्रतिवाद में पंडित नेहरु

नई डिजिटल कल्चर ‘क्लिक कल्चर’ है. ‘क्विक’ कल्चर है. इसने ‘पुसबटन’ और इमेज को महान और लोकतांत्रिक मूल्यों और विचारों को खोखला और निरर्थक बनाया है. सम्प्रति टीवी से लेकर फेसबुक तक अनेक संगठन और नेता इसके शैतान खिलाड़ी के रुप में खेल रहे हैं और भारत की मासूम युवा पीढ़ी को इमेजों के जरिए दिग्भ्रमित करने में लगे हैं.

‘क्लिक कल्चर’ ने युवाओं के विवेक पर सीधे हमला बोला हुआ है. कहा जा रहा है ‘क्लिक’ इमेज ही सत्य है, विचार तो बकबास होते हैं, बोर करते हैं, कमाना मूल्यवान काम है, सोचना फालतू चीज है, व्यवहारवादी बनो, जनवादी मत बनो, धर्मनिरपेक्षता फालतू चीज़ है, लोकतंत्र में रहो लेकिन लोकतांत्रिक मूल्यों के बिना. लोकतांत्रिक मूल्य तो बोझा हैं, वोट दो, लेकिन विवेकवाद के आधार पर सोचो मत, सार्थक है सिर्फ चुनाव जीतना. इस ‘क्लिक कल्चर’ के नायक इन दिनों पंडित नेहरु का भी ‘क्लिक संस्कार’ करने में मशगूल हैं.

उल्लेखनीय है पंडित जवाहरलाल नेहरु देश के सामान्य प्रधानमंत्री नहीं थे, वे सामान्य राजनेता भी नहीं थे. आमतौर पर लोकतंत्र में नेता आते हैं और जाते हैं. औसत नेता ही लोकतंत्र की संपदा के रुप में नजर आते हैं. भारत में अनेक औसत नेता प्रधानमंत्री बने, लेकिन आधुनिक विचारवान विरल प्रधानमंत्री तो एकमात्र पंडितजी ही थे. वे ऐसे प्रधानमंत्री थे जिनके पास आधुनिक भारत का विज़न था, आधुनिक विचार था, आधुनिक जीवनशैली थी और इन सबसे बढ़कर अपने विचारों के लिए जोखिम उठाने का साहस था.

नेहरु को पूजना आसान है, उनकी विरासत को समझना और उनके विचारों की दिशा में जोखिम उठाकर चलना बहुत मुश्किल काम है. खासकर वे लोग जो आधुनिक विचारों, वैज्ञानिक सचेतनता, धर्मनिरपेक्षता और लोकतंत्र के मर्म से अनभिज्ञ हैं या जो लोग आए दिन इनकी जड़ों में मट्ठा डालने का काम करते हैं, उनके लिए नेहरु को पाना बेहद मुश्किल है. नेहरु ‘क्लिक कल्चर’ की देन नहीं थे, वे तो संस्कृति की देन थे. नेहरु को पाने के लिए भारत की संस्कृति के पास जाना होगा. संस्कृति का मार्ग बेहद जटिल और जोखिम भरा है.

वह फेसबुक की वॉल पर लिखी ‘क्विक’ इबारत नहीं है, नेहरु कोई किताब नहीं है, कोई कुर्सी नहीं है या मूर्ति नहीं है, जिसके साथ खड़े होकर फोटो क्लिक करो और नेहरु की पंक्ति में शामिल हो जाओ ! भारत के प्रधानमंत्री बनने के बावजूद नेहरु की पंक्ति में खड़े होना संभव नहीं है क्योंकि नेहरु कुर्सी नहीं बल्कि देश का आधुनिक विज़न हैं. नेहरु के आधुनिक विज़न को सचेत रुप से अर्जित करना होगा तब ही सही मायने में नेहरु की रुह को स्पर्श किया जा सकता है, महसूस किया जा सकता है.

नेहरु को महान जिस चीज ने बनाया वह था जीवन के प्रति उनका विवेकवादी नजरिया. नेहरु के लिए साधन और साध्य एक थे. उन्होंने लिखा है –

‘शुरु में जिंदगी के मसलों की तरफ़ मेरा रुख़ कमोबेश वैज्ञानिक था, और उसमें उन्नीसवीं सदी और बीसवीं सदी के शुरु के विज्ञान के आशावाद की चाशनी भी थी. एक सुरक्षित और आराम के रहन-सहन ने और उस शक्ति और आत्म-विश्वास ने, जो उस समय मुझमें था, आशावाद के इस भाव को और बढ़ा दिया था.’

हमारे नेताओं और राजनीतिक कार्यकर्ताओं में एक बड़ा अंश है जो अंधविश्वासी और धर्म का अंधपूजक है. वे धर्म को आलोचनात्मक विवेक की आंखों से देखते ही नहीं हैं. ऐसे अंधपूजक हमारे देश के प्रधानसेवक भी हैं. जबकि नेहरु में ये चीजें एकदम नहीं थीं. नेहरु ने लिखा है –

‘मजहब में – जिस रुप में मैं विचारशील लोगों को भी उसे बरतते और मानते हुए देखता था, चाहे वह हिन्दू-धर्म, चाहे इस्लाम या बौद्ध-मत या ईसाई-मत-मेरे लिए कोई कशिश न थी. अंध-विश्वास और हठवाद से उनका गहरा ताल्लुक था और जिन्दगी के मसलों पर ग़ौर करने का उनका तरीक़ा यक़ीनी तौर पर विज्ञान का तरीक़ा न था. उनमें एक अंश जादू-टोने का था और बिना समझे-बूझे यकीन कर लेने और चमत्कारों पर भरोसा करने की प्रवृत्ति थी.’

‘फिर भी यह एक जाहिर-सी बात है कि मज़हब ने आदमी की प्रकृति की कुछ गहराई के साथ महसूस की हुई जरुरतों को पूरा किया है और सारी दुनिया में, बहुत ज्यादा कसरत में, लोग बिना मज़हबी अकीदे के रह नहीं सकते. इसने बहुत-ऊंचे किस्म के मर्दों और औरतों को पैदा किया है और साथ ही तंग-नज़र और ज़ालिम लोगों को भी. इसने इन्सानी ज़िन्दगी को कुछ निश्चित आंकें दी हैं और अगरचे इन आंकों में से कुछ आज के ज़माने पर लागू नहीं हैं बल्कि उसके लिए नुकसानदेह भी हैं, दूसरी ऐसी भी हैं, जो अख़लाक़ और अच्छे व्यवहार लिए बुनियादी हैं.’

नेहरु ने लिखा है –

‘असल में मेरी दिलचस्पी इस दुनिया में और इस जिंदगी में है, किसी दूसरी दुनिया या आनेवाली जिंदगी में नहीं.’

पंडितजी पुनर्जन्म की धारणा में यकीन नहीं करते थे, अंधविश्वासों के विरोधी थे. दिमागी अटकलबाजी में यकीन नहीं करते थे. वे चीजों, घटनाओं, व्यक्तियों, समुदाय और वस्तुओं को वैज्ञानिक नजरिए से देखने में विश्वास करते थे. उन्होंने माना –

‘मार्क्स और लेनिन की रचनाओं के अध्ययन का मुझ पर गहरा असर पड़ा और इसने इतिहास और मौजूदा जमाने के मामलों को एक नई रोशनी में देखने में बड़ी मदद पहुंचाई. इतिहास और समाज के विकास के लंबे सिलसिले में एक मतलब और आपस का रिश्ता जान पड़ा और भविष्य का धुंधलापन कुछ कम हो गया.’

पंडित जवाहरलाल नेहरु और धर्मनिरपेक्षता की चुनौतियां

भारत जब आजाद हुआ तो उसकी नींव साम्प्रदायिक देश-विभाजन पर रखी गयी, फलतः साम्प्रदायिकता हमारे लोकतंत्र में अंतर्गृथित तत्व है. लोकतंत्र बचाना है तो इसके खिलाफ समझौताहीन रवैय्या रखना होगा. साम्प्रदायिकता के औजार हैं आक्रामकता और मेनीपुलेशन. इसने सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक संरचनाओं को गंभीरता से प्रभावित किया है. त्रासद पक्ष यह है कि हाल के वर्षों में साम्प्रदायिकताविरोधी चेतना का ह्रास हुआ है, खासकर आपातकाल के बाद पैदा हुए नागरिकों में यह फिनोमिना व्यापक रुप में नजर आता है.

साम्प्रदायिकता को हम तदर्थवादी और वोटवादी धर्मनिरपेक्ष कॉमनसेंस नजरिए से देखते हैं, फलतः यह भी कहने लगे हैं सभी राजनीतिक दल एक जैसे होते हैं. इस धारणा ने साम्प्रदायिक और गैर-साम्प्रदायिकदल के बीच के भेद को खत्म करने में बहुत बड़ी भूमिका अदा की है जबकि सच यह है साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षता एक ही चीज नहीं है. साम्प्रदायिकदल और धर्मनिरपेक्षदल एक ही जैसे नहीं होते.

हम इनमें समानताएं दरशाने के लिए राजनीतिक एक्शन के बीच समानताएं बताने लगते हैं. राजनीतिक एक्शनों में समानताओं के आधार पर कोई भी निर्णय सही नहीं हो सकता. सवाल विचारधारा का है. साम्प्रदायिक विचारधारा और धर्मनिरपेक्ष विचारधारा के नजरिए में समानता का तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता बल्कि ये दोनों एक-दूसरे के अंतर्विरोधी हैं.

साम्प्रदायिकता को धर्मनिरपेक्ष कॉमनसेंस के जरिए अपदस्थ नहीं किया जा सकता. पंडित नेहरु का ‘विविधता में एकता’ का नारा धर्मनिरपेक्ष कॉमनसेंस केन्द्रित नारा था, जिसके आधार पर हम साम्प्रदायिकता को हाशिए पर ठेलने की कोशिश करते रहे हैं. यह सबसे असफल नारा साबित हुआ है. कायदे से ‘विविधता और लोकतंत्र’ के आधार पर समाज को संगठित किया जाता तो बेहतर सामाजिक-सांस्कृतिक परिणाम हासिल किए जा सकते थे.

पंडित जवाहरलाल नेहरु ने आजादी के साथ ही ‘विविधता में एकता’ का नारा दिया. यह नारा सतह पर आकर्षक है लेकिन इसकी वैचारिक जड़ें खोखली हैं और इसमें राजनीतिक अवसरवाद की अनंत संभावनाएं हैं. आमतौर पर यह मान लिया गया कि पंडित नेहरु सही कह रहे हैं लेकिन सच यह है ‘विविधता में एकता’ के नाम पर देश में समय–समय पर साम्प्रदायिक ताकतों के प्रति नरम रुख की कांग्रेस के अंदर से ही शुरुआत हुई.

मसलन्, महात्मा गांधी की हत्या के बाद आरएसएस पर जब प्रतिबंध लगा दिया गया तो कायदे से यह प्रतिबंध हटाने की जरुरत नहीं थी, लेकिन यह जानते हुए भी कि संघ की विचारधारा क्या है, उस पर से प्रतिबंध हटा लिया गया, उसे खुलकर काम करने का मौका दिया गया. सवाल यह है क्या साम्प्रदायिक संगठन को लोकतंत्र में काम करने की अनुमति देनी चाहिए ? लोकतंत्र में उन संगठनों के लिए कोई स्थान नहीं होना चाहिए जो लोकतंत्रविरोधी आचरण करते हैं.

साम्प्रदायिकता वस्तुतःलोकतंत्रविरोधी विचारधारा है और इसे हमने फलने-फूलने का अवसर देकर यह भावना पैदा की कि लोकतंत्र में सबके लिए समान अधिकार हैं यानी उन विचारधाराओं के लिए भी समान अधिकार हैं जो लोकतंत्र को नहीं मानती और लोकतंत्र विरोधी आचरण करती हैं. सामाजिक कार्य हो या राजनीतिक कार्य हो, यदि उससे साम्प्रदायिकता फैलती है तो हमें उसे हर स्तर पर राजनीतिक और प्रशासनिक तौर पर रोकने के बारे में सोचना होगा.

पंडित नेहरु साध्य और साधन की एकता में गहरा विश्वास करते थे लेकिन आचरण करते समय साध्य-साधन के बीच में सामंजस्य रखने में एक सिरे से असफल रहे. मसलन् 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय वे रास्ता चूक गए और आरएसएस से मदद मांग बैठे. उनके जमाने में ही गणतंत्र दिवस की परेड में संघ की टुकड़ी मार्च करते हुए दिल्ली में राजपथ पर निकली थी. कहने का आशय यह है कि धर्मनिरपेक्षता की रक्षा के लिए साम्प्रदायिकता के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष पहली शर्त है.

इसी तरह लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक आदेशों का ईमानदारी से पालन करना दूसरी शर्त है. पंडित नेहरु ने शासन में आने के बाद लोकतांत्रिक संस्थाओं के प्रति अ-सम्मान का भाव सबसे पहले पैदा हुआ. केरल की पहली कम्युनिस्ट सरकार को जो 1957 में चुनकर आई थी उसे 1959 में एक आंदोलन के बहाने उन्होंने गिरा दिया गया जबकि यह सरकार पांच साल के लिए चुनकर आई थी. बाद के वर्षों में कांग्रेस ने इस तरह की अनेक गलतियां लगातार की.

कहने का तात्पर्य यह कि धर्मनिरपेक्षता का भविष्य दो बातों पर टिका है – पहला, साम्प्रदायिकता के खिलाफ समझौताहीन संघर्ष, दूसरा लोकतांत्रिक संस्थाओं और लोकतांत्रिक आदेशों का अडिगभाव से पालन.

भारत में साम्प्रदायिकता पर विचार करते समय यह भी ख्याल रखें कि साम्प्रदायिकता कभी भी पृथकतावाद या क्षेत्रीयतावाद में रुपान्तरित हो सकती है. यही बात पृथकतावाद और क्षेत्रीयतावाद पर लागू होती है, वे कभी भी साम्प्रदायिक रंग में रुपान्तरित हो सकते हैं. इसी तरह राजनीति, राज्यसत्ता को धर्म और धार्मिकता से पूरी तरह विच्छिन्न किया जाय. धर्म और धार्मिकता के साथ इनका संबंध साम्प्रदायिकता के प्रचार-प्रसार में मदद करता है.

लोकतंत्र का स्वस्थ व्यवस्था के तौर पर विकास करने के लिए जरुरी है कि राजनीति से लेकर समाज तक सबको अतीत के बोझ से मुक्त करें. अतीत के मलबे के जरिए जनता में एकता कायम करने से साम्प्रदायिकता तात्कालिक तौर पर कमजोर होती दिखती है लेकिन वह कमजोर नहीं होती. अतीत का मलबा साम्प्रदायिकता को ईंधन देता है, उसे दीर्घजीवी बनाता है. लोकतंत्र में अतीत प्रेम कैंसर है. इससे आप टाइमपास कर सकते हैं लेकिन सामाजिक विकास नहीं कर सकते.

लोकतंत्र में अतीत को जानना चाहिए लेकिन अतीत को पाने की कोशिश नहीं करनी चाहिए. साम्प्रदायिक ताकतों ने अपने विकास के लिए अतीत के मसलों को औजार की तरह इस्तेमाल किया है. पंडित नेहरु ने लिखा है –

‘गुजरे जमाने का – उसकी अच्छाई और बुराई दोनों का ही – बोझ एक दबा देनेवाला और कभी–कभी दम घुटानेवाला बोझ है, खासकर हम लोगों के लिए, जो ऐसी पुरानी सभ्यता में पले हैं, जैसी चीन या हिंदुस्तान की है. जैसा कि नीत्शे ने कहा है – ‘ न केवल सदियों का ज्ञान, बल्कि सदियों का पागलपन भी हममें फूट निकलता है. वारिस होना खतरनाक है.’

हमारी मुश्किल है कि हमने विरासत के नाम पर बहुत सारी चीजों का बोझ अपने लोकतंत्र पर लाद दिया है. लोकतंत्र को पुरानी चीजों का वारिस न बनाया जाया. लोकतांत्रिक मनुष्य को पुराने लबादों में न बांधा जाय, लोकतंत्र पर अतीत की विरासत का एक ही असर है और एक ही मूल्यवान चीज है जो हमें विरासत मिली है वह है शिरकत. लोकतंत्र शिरकत के जरिए विकास करता है. अतीत की चीजें भी मानवीय शिरकत से बनी थीं, हमें बाकी अतीत को उसके हाल पर छोड़कर आगे निकल जाना चाहिए.

पंडित नेहरु पर महात्मा गांधी का गहरा असर था और उन्होंने गांधी को ‘हिंदुस्तान की कहानी’ में उद्धृत किया है, लिखा – ‘मुझे गांधीजी के वे लफ्ज याद हैं, जो उन्होंने 7 अगस्त, 1942 की भविष्य-सूचक शाम को कहे थे- ‘दुनिया की आंखें अगरचे आज खून से लाल हैं, फिर भी हमें दुनिया का सामना शांत और साफ़ नज़रों से करना चाहिए.’

भारत का मर्म और पंडित नेहरू

भारत की आत्मा को समझने में पंडित जवाहरलाल नेहरू से बढ़कर और कोई बुद्धिजीवी हमारी मदद नहीं कर सकता. पंडितजी की भारत को लेकर जो समझ रही है, वह काबिलेगौर है. वे भारतीय समाज, धर्म, संस्कृति, इतिहास आदि को जिस नजरिए से व्यापक फलक पर रखकर देखते हैं, वह विरल चीज है.

पंडित नेहरू ने लिखा है –

‘जो आदर्श और मकसद कल थे, वही आज भी हैं, लेकिन उन पर से मानो एक आब जाता रहा है और उनकी तरफ बढ़ते दिखाई देते हुए भी ऐसा जान पड़ता है कि वे अपनी चमकीली सुंदरता खो बैठे हैं, जिससे दिल में गरमी और जिस्म में ताकत पैदा होती थी. बदी की बहुत अकसर हमेशा जीत होती रही है लेकिन इससे भी अफसोस की बात यह है कि जो चीजें पहले इतनी ठीक जान पड़ती थीं, उनमें एक भद्दापन और कुरूपता आ गई है.’

चीजें क्रमशः भद्दी और कुरूप हुई हैं. सवाल यह है कि यह भद्दापन और कुरूपता आई कहां से ? क्या इससे बचा जा सकता था ? यदि हां तो उन पहलुओं की ओर पंडितजी ने जब ध्यान खींचा तो सारा देश उस देश में सक्रिय क्यों नहीं हुआ ?

पंडित जवाहरलाल नेहरू ने लिखा है –

‘हिंदुस्तान में जिंदगी सस्ती है. इसके साथ ही यहां जिंदगी खोखली है, भद्दी है, उसमें पैबंद लगे हुए हैं और गरीबी का दर्दनाक खोल उसके चारों तरफ है. हिंदुस्तान का वातावरण बहुत कमजोर बनानेवाला हो गया है. उसकी वजहें कुछ बाहर से लादी हुई हैं, और कुछ अंदरूनी हैं, लेकिन वे सब बुनियादी तौर पर गरीबी का नतीजा हैं. हमारे यहां के रहन-सहन का दर्जा बहुत नीचा है और हमारे यहां मौत की रफ्तार बहुत तेज है.’

पंडितजी और उनकी परंपरा ‘मौत की रफ्तार’ को रोकने में सफल क्यों नहीं हो पायी ? पंडितजी जानते थे कि भारत में जहां गरीबी सबसे बड़ी चुनौती है वहीं दूसरी ओर धर्म और धार्मिक चेतना सबसे बड़ी चुनौती है.

पंडित नेहरू ने लिखा है –

‘अगर यह माना जाये कि ईश्वर है, तो भी यह वांछनीय हो सकता है कि न तो उसकी तरफ ध्यान दिया जाये और न उस पर निर्भर रहा जाये. दैवी शक्तियों में जरूरत से ज्यादा भरोसा करने से अकसर यह हुआ भी है और अब भी हो सकता है कि आदमी का आत्म-विश्वास घट जाए और उसकी सृजनात्मक योग्यता और सामर्थ्य कुचल जाये.’

धर्म के प्रसंग में नेहरूजी ने लिखा –

‘धर्म का ढ़ंग बिलकुल दूसरा है. प्रत्यक्ष छान-बीन की पहुंच के परे जो प्रदेश है. धर्म का मुख्यतः उसी से संबंध है और वह भावना और अंतर्दृष्टि का सहारा लेता है. संगठित धर्म धर्म-शास्त्रों से मिलकर ज्यादातर निहित स्वार्थों से संबंधित रहता है और उसे प्रेरक भावना का ध्यान नहीं होता. वह एक ऐसे स्वभाव को बढ़ावा देता है, जो विज्ञान के स्वभाव से उलटा है. उससे संकीर्णता, गैर-रवादारी, भावुकता, अंधविश्वास, सहज-विश्वास और तर्क-हीनता का जन्म होता है. उसमें आदमी के दिमाग को बंद कर देने का सीमित कर देने का रूझान है. वह ऐसा स्वभाव बनाता है, जो गुलाम आदमी का, दूसरों का सहारा टटोलनेवाले आदमी का होता है.’

आम आदमी के दिमाग को खोलने के लिए कौन-सी चीज करने की जरूरत है ? क्या तकनीकी वस्तुओं की बाढ़ पैदा करके आदमी के दिमाग को खोल सकते हैं या फिर समस्या की जड़ कहीं और है ?

पंडित नेहरू का मानना है –

‘हिन्दुस्तान को बहुत हद तक बीते हुए जमाने से नाता तोड़ना होगा और वर्तमान पर उसका जो आधिपत्य है, उसे रोकना होगा. इस गुजरे जमाने के बेजान बोझ से हमारी जिंदगी दबी हुई है. जो मुर्दा है और जिसने अपना काम पूरा कर लिया है, उसे जाना होता है लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि गुजरे जमाने की उन चीजों से हम नाता तोड़ दें या उनको भूल जाएं, जो जिंदगी देनेवाली हैं और जिनकी अहमियत है.’

उन्होंने यह भी लिखा –

‘पिछली बातों के लिए अंधी भक्ति बुरी होती है.साथ ही उनके लिए नफ़रत भी उतनी ही बुरी होती है. उसकी वजह है कि इन दोनों में से किसी पर भविष्य की बुनियाद नहीं रखी जा सकती.’

‘गुजरे हुए जमाने का – उसकी अच्छाई और बुराई दोनों का ही-बोझ एक दबा देने वाला और कभी-कभी दम घुटाने वाला बोझ है, खासकर हम लोगों में से उनके लिए ,जो ऐसी पुरानी सभ्यता में पले हैं, जैसी चीन या हिन्दुस्तान की है. जैसाकि नीत्शे ने कहा है- ‘न केवल सदियों का ज्ञान, बल्कि सदियों का पागलपन भी हममें फूट निकलता है. वारिस होना खतरनाक है.’ इसमें सबसे महत्वपूर्ण है ‘वारिस’ वाला पहलू. इस पर हम सब सोचें. हमें वारिस बनने की मनोदशा से बाहर निकलना होगा.’

पंडित नेहरू ने लिखा है –

‘मार्क्स और लेनिन की रचनाओं के अध्ययन का मुझ पर गहरा असर पड़ा और इसने इतिहास और मौजूदा जमाने के मामलों को नई रोशनी में देखने में मदद पहुंचाई. इतिहास और समाज के विकास के लंबे सिलसिले में एक मतलब और आपस का रिश्ता जान पड़ा और भविष्य का धुंधलापन कुछ कम हो गया.’

भविष्य का धुंधलापन कम तब होता है जब भविष्य में दिलचस्पी हो, सामाजिक मर्म को पकड़ने, समझने और बदलने की आकांक्षा हो. इसी प्रसंग में पंडित नेहरू ने कहा –

‘असल में मेरी दिलचस्पी इस दुनिया में और इस जिंदगी में है, किसी दूसरी दुनिया या आनेवाली जिंदगी में नहीं. आत्मा जैसी कोई चीज है भी या नहीं मैं नहीं जानता. और अगरचे ये सवाल महत्व के हैं, फिर भी इनकी मुझे कुछ भी चिंता नहीं.’

पंडितजी जानते थे भारत में धर्म सबसे बड़ी वैचारिक चुनौती है. सवाल यह है धर्म को कैसे देखें ? पंडितजी का मानना है –

‘धर्म’ शब्द का व्यापक अर्थ लेते हुए हम देखेंगे कि इसका संबंध मनुष्य के अनुभव के उन प्रदेशों से है, जिनकी ठीक-ठीक मांग नहीं हुई है, यानी जो विज्ञान की निश्चित जानकारी की हद में नहीं आए हैं.’

फलश्रुति यह कि जीवन के सभी क्षेत्रों में विज्ञान को पहुंचाएं, विज्ञान को पहुंचाए वगैर धर्म की विदाई संभव नहीं है.

आप दीवार के चित्रों को बदल कर इतिहास के तथ्यों को नहीं बदल सकते है – पं. जवाहर लाल नेहरू

तिरंगे की रक्षा और सम्मान सबका कर्तव्य है. तिरंगे की शान तब ही है जब देशवासियों से प्यार करें. भारत में रहने वाले सभी मनुष्यों, पर्वत, जंगल, पशु, पक्षी, नदी, तालाब, देवी-देवता, लोकतंत्र और मानवाधिकारों से प्यार करें. इनकी रक्षा के लिए संघर्षरत नागरिकों का सम्मान करें. लोकतंत्र का मतलब पीएम नहीं है. तिरंगे का अर्थ भाजपा सरकार नहीं है बल्कि भारतवासी हैं. इसमें नफरत के लिए कोई जगह नहीं है. तिरंगा हमारे राज्य-राष्ट्र की शान है. राज्य-राष्ट्र पर हमले अंदर और बाहर से हो रहे हैं. इन हमलावरों से राज्य-राष्ट्र को बचाना है. पंडित जवाहरलाल नेहरू के विचारों पर चलकर ही यह संभव है.

Read Also –

सावरकर के युग में गांधी और नेहरू एक बार फिर लाज बचाने के काम आ रहे हैं
नेहरू के भारत में राजनीति के अपराधीकरण पर सिंगापुर की संसद में चर्चा
नेहरू को बदनाम करने की साजिश में यह सरकार हमें ‘इतिहास’ पढ़ा रही है
जवाहरलाल नेहरू : देश की अर्थव्यवस्था की बुनियाद रखने वाले बेजोड़ शिल्पी, एक लेखक के रूप में
भारत में नेहरू से टकराता फासीवादी आंदोलन और फासीवादी रुझान
नेहरू को सलीब पर टांग दिया है और गिद्ध उनका मांस नोच रहा है
नेहरू परिवार से नफरत क्यों करता है आरएसएस और मोदी ?

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

Donate on
Donate on
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

कामरेडस जोसेफ (दर्शन पाल) एवं संजीत (अर्जुन प्रसाद सिंह) भाकपा (माओवादी) से बर्खास्त

भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) ने पंजाब और बिहार के अपने कामरेडसद्वय जोसेफ (दर्शन पाल…