सुब्रतो चटर्जी
बिहार की राजनीति का एक ध्रुव लालू यादव हैं, जो कि बिना किसी समझौते के सांप्रदायिक शक्तियों के खिलाफ खड़े हैं. क्या यही बात हम सपा के बारे कह सकते हैं या मध्य प्रदेश कांग्रेस के बारे ? नहीं. इसलिए नीतीश को अपनी राजनीतिक अस्तित्व के लिए अंततः लालू की शरण में जाना ही पड़ा.
दरअसल, बिहार की राजनीति को सिर्फ़ जातीय समीकरण की दृष्टि से न देखा जाना चाहिए और न ही समझा जा सकता है. ये सारे समीकरण चुनाव में भले असरदार दिखते हों, लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त कुछ अलग है.
बिहार आंदोलन की भूमि रही है, उत्तर प्रदेश की तरह सांप्रदायिक दंगों की नहीं. एकाध भाजपा प्रायोजित भागलपुर छोड़ दिया जाए तो लालू हों या नीतीश कुमार हों, किसी के राज में कोई सांप्रदायिक दंगा नहीं हुआ, तब भी नहीं जब भाजपा ने पिछले चुनावों में 80 सीटें लाईं. इससे ये साबित होता है कि बिहार को सांप्रदायिक लाईन पर बांटना अब तक असंभव रहा है.
इसका कारण मंडल की राजनीति नहीं है, इसका कारण बिहार में सशक्त वाम आंदोलन रहा है. बिहार के 244 विधानसभा क्षेत्रों में आधे से ज़्यादा सीटों पर वाम का प्रभाव है, यद्यपि चुनावी समीकरण के तहत वे पंद्रह बीस सीटों पर ही क्यों न जीत रहे हों ! मध्य और उत्तरी बिहार में वाम का प्रभाव हरेक जगह देखा जा सकता है. दूसरा फ़ैक्टर खुद लालू यादव हैं, जिन्होंने लाल कृष्ण आडवाणी का रथ रोक कर समाज को एक स्पष्ट संदेश दिया था कि बिहार में घृणा की राजनीति नहीं चलेगी.
लालू यादव को चारा घोटाले में फंसा कर उनकी राजनीतिक मृत्यु का जितना भी प्रयास विभिन्न सरकारों ने किया, उसका सिर्फ़ एक ही संदेश जनता के बीच गया, और वह ये कि लालू को आडवाणी के रथ को रोकने की सज़ा मिल रही है इसलिए तेजस्वी यादव को पिछले चुनाव में आशातीत सफलता मिली. और अगर बिहार के नौकरशाह पटना के निर्देश पर बेईमानी नहीं करते तो जदयू-भाजपा की सरकार वैसे भी नहीं बनती, ये बात बिहार का बच्चा बच्चा भी जानता है.
भाजपा के 80 सीटों के पीछे चिराग़ पासवान की भूमिका कौन भूल सकता है और जदयू को ठीक उसी अनुपात में सीटें कम आई जिस अनुपात में भाजपा की सीटें बढ़ीं. ऐसे में नीतीश कुमार भाजपा के साथ सिर्फ़ जदयू की क़ीमत पर ही बने रह सकते थे. भाजपा ने अपने सहयोगी मुकेश सहनी के तीनों विधायक को निगलकर किस तरह सत्ता से बाहर खदेड़ दिया, यह सभी ने देखा है. नीतीश कुमार की भी यही हालत भाजपा करने वाली थी, वक्त रहते नीतीश कुमार ने भाजपा को सत्ता से खदेड़ दिया और खुद को बचा लिया.
नीतीश कुमार के पास विकल्प क्या था ? वही पुराना साथी, यानी लालू प्रसाद यादव. आप बिहार की राजनीति की कल्पना लालू यादव के बग़ैर नहीं कर सकते. आप लालू प्रसाद को लाख चोर कहें बिहार की जनता के गले ये नहीं उतरता, ख़ास कर ग़रीबों और अति पिछड़ों के गले. जहां तक बात लालू के जंगल राज की है तो हर तोहमत की एक उम्र होती है.
आज लोग योगी और शिवराज के जंगल राज को देख रहे हैं और लालू के जंगल राज को देख चुकी हमारी पीढ़ी के पास चुनावी राजनीति को प्रभावित करने लायक़ संख्या बल नहीं है. नई पीढ़ी तेजस्वी की साफ़ सुथरी छवि के साथ है और लालू की धर्मनिरपेक्षता और वाम दलों की ईमानदार कोशिश के साथ है.
इस दृष्टिकोण से बिहार की एक अलग तस्वीर उभरती है, जिसमें ग़रीबी, मुफ़लिसी, अशिक्षा तो है लेकिन सामाजिक सौहार्द भी है और सांप्रदायिक प्रेम भी. बहरहाल, नीतीश कुमार ने तड़ीपार चाणक्य को ऐसा धोबी पाट मारा है कि वह फिर कभी उठ कर खड़ा नहीं हो पाएगा, देखते जाइये !
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सोशल मीडिया से खफा लकड़बग्घा
लकड़बग्घे की अन्तर्रात्मा !
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