आवारा और बरबाद तो हो ही चुका हूं करीब-करीब.
यह दुष्ट नगर, अंतियोक, मुझे खा गया,
यह हत्यारा नगर और यहां की अय्याश जिंदगी.
लेकिन अभी स्वस्थ और जवान तो हूं.
ग्रीक भाषा का उस्ताद
(अरस्तु अफलातून को आद्योपांत पढ़े हुए
वक्ता, कवि – सभी कुछ तो हूं)
फौजी मामलों में भी कुछ दखल रखता ही हूं
कई बड़े-बड़े फौजी अफसर मेरे दोस्त हैं.
थोड़ा बहुत शासन भी जानता हूं.
पिछले साल, छह महीने अलेक्जेंड्रिया में रहा था
और देखा कि कैसे घूस और दोस्ती वगैरह से काम निकलता है.
मैं तो समझता हूं कि मैं हर तरह से
इस देश के लायक हूं
मेरा प्यारा देश, सीरिया.
वे लोग जहां चाहें मुझे रखकर देख लें
देश का फायदा ही रहेगा. मुझमें कोई कमी नहीं मिलेगी.
फिर भी, यदि उन्होंने मेरे रास्ते में अड़चनें डालीं –
तो इन अफसरों का इलाज मेरे पास है – क्या,
अभी बताना जरूरी है ? –
वे अगर मेरे रास्ते में आए तो अच्छा न होगा.
सबसे पहले तो ज़बीनास से बात करूंगा,
और अगर उस मूर्ख ने मेरी परवाह नहीं की,
तो उसके प्रतिद्वन्द्वी ग्राइपास के पास जाऊंगा,
और अगर उस गदहे ने भी मुझे काम नहीं दिया,
तो फौरन हाइरकेनस के पास
उन तीनों में से एक न एक तो मुझे चाहेगा ही
जहां तक मेरा सवाल है
मेरे लिए तीनों बराबर हैं
जहां तक सीरिया का सवाल है
उस के लिए तीनों बराबर से नुकसानदेह.
लेकिन मैं एक बरबाद आदमी, क्या करूं.
मुझे तो किसी तरह अपना पेट पालना है.
विधाता ही कुछ करता, एक चौथा आदमी बनाता
जो ईमानदार होता.
बड़ी खुशी से मैं अपने आपको उसे सौंप देता.
- कॉन्सटैन्टीन पी. कवाफ़ी
अनुवाद – कुंवर नारायण
[ प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]