Home ब्लॉग दुनिया की सबसे भ्रष्ट मीडिया के दवाब में है भारत की न्यायपालिका, तो फिर आप किस पायदान पर खड़े हैं जनाब ?

दुनिया की सबसे भ्रष्ट मीडिया के दवाब में है भारत की न्यायपालिका, तो फिर आप किस पायदान पर खड़े हैं जनाब ?

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दुनिया की सबसे भ्रष्ट मीडिया के दवाब में है भारत की न्यायपालिका, तो फिर आप किस पायदान पर खड़े हैं जनाब ?
दुनिया की सबसे भ्रष्ट मीडिया के दवाब में है भारत की न्यायपालिका, तो फिर आप किस पायदान पर खड़े हैं जनाब ?

चीफ जस्टिस एनवी रमना ने मामलों के मीडिया ट्रायल पर सवाल उठाए हैं. उन्होंने कहा कि मीडिया कंगारू कोर्ट लगा लेता है, ऐसे में अनुभवी जजों को भी फैसला लेने में मुश्किल आती है. उन्होंने कहा कि प्रिंट मीडिया में अभी भी जवाबदेही है, लेकिन इलेक्ट्रॉनिक मीडिया की कोई जिम्मेदारी नहीं दिखती है.

चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कहा कि हम देखते हैं कि किसी भी केस को लेकर मीडिया ट्रायल शुरू हो जाता है. कई बार अनुभवी जजों को भी फैसला करना मुश्किल हो जाता है. न्याय देने से जुड़े मुद्दों पर गलत सूचना और एजेंडा चलाने वाली बहस लोकतंत्र की सेहत के लिए हानिकारक साबित हो रही है. अपनी जिम्मेदारियों से आगे बढ़कर आप हमारे लोकतंत्र को दो कदम पीछे ले जा रहे हैं.

चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कहा कि आजकल जजों पर हमले बढ़ रहे हैं. पुलिस और राजनेताओं को रिटायरमेंट के बाद भी सुरक्षा दी जाती है, इसी तरह जजों को भी सुरक्षा दी जानी चाहिए. वे राजनीति में जाना चाहते थे, लेकिन किस्मत को कुछ और ही मंजूर था. हालांकि, उन्हें जज बनने का मलाल नहीं है.

चीफ जस्टिस एनवी रमना ने कहा कि वर्तमान समय की न्यायपालिका के सामने सबसे बड़ी चुनौतियों में से एक फैसलों के लिए मामलों को प्राथमिकता देना है. जज समाजिक सच्चाइयों से आंखें नहीं मूंद सकते. सिस्टम को टालने योग्य संघर्षों और बोझ से बचाने के लिए जज को दबाव वाले मामलों को प्राथमिकता देनी होगी.

सुब्रतो चटर्जी लिखते हैं कि पिछले कुछ दिनों से भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के झूठ फैलाने, मीडिया ट्रायल करने और उसकी विश्वसनीयता पर कड़ी प्रतिक्रिया देते नज़र आ रहे हैं. ज़ाहिर तौर पर ऐसी प्रतिक्रिया भी उन करोड़ों बेज़ुबान लोगों की भावनाओं और मतामत को ज़ुबान देती हुई दिखती है इसलिए हमारे बौद्धिक लोग एक स्वर में ‘साधु-साधु’ चिल्ला रहे हैं.

इस साधुवाद के अहिर्निश रव में और माननीय मुख्य न्यायाधीश के डॉन क्विकहॉय की मुद्रा में अवतरित होने से इतना धुंआ फैल गया है कि इसके पीछे का सच कहीं छुप गया है. माननीय की प्रतिक्रिया में एक संशय व्यक्त किया गया है और वह ये है कि अगर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ज़िम्मेदार नहीं बनीं तो मजबूरन सरकार को उनपर अंकुश लगाने के लिए क़ानून लाना पड़ेगा.

ये भयावह संकेत हैं, जिनकी अनदेखी नहीं की जा सकती है. दरअसल, मोदी सरकार मीडिया पर नकेल कसने के लिए नए क़ानून पर विचार कर रही है. इन क़ानूनों का स्वरूप कैसा होगा या इनमें कौन-कौन से प्रावधान होंगे, इसके बारे अभी सिर्फ़ क़यास ही लगाया जा सकता है. लेकिन, इस जनविरोधी सरकार के चाल, चरित्र और चेहरे से इतना तो समझा जा सकता है कि इस नये क़ानून का इस्तेमाल सच को दबाने के लिए ही किया जाएगा.

और गहराई में जाएंगे तो समझ आएगा कि मोदी सरकार हरेक ग़ैरक़ानूनी काम को क़ानूनी जामा पहनाने में पारंगत है. अघोषित आपातकाल जैसी स्थितियों को देश ने नोटबंदी के समय भी देखा है और तालाबंदी के समय भी. किसान आंदोलन की पृष्ठभूमि में भी यही रवैया नज़र आया और सामाजिक कार्यकर्ताओं को जेल भेजने के मामले में भी आया.

इसी क्रम में मोदी सरकार ने संविधान में संशोधन किए बिना ही संविधान में निहित धर्मनिरपेक्षता के सिद्धांत को ताक पर रख कर सरकार को ही विभिन्न हिंदू धार्मिक अनुष्ठानों का प्रोमोटर बना दिया. नए संसद भवन की पूजा इसी क्रम में एक कड़ी मात्र है. अघोषित आपातकाल के तहत सारे सांविधानिक संस्थाओं को पंगु बना दिया गया है और देश पर लोकतंत्र की आड़ में अधिनायकवाद को थोप दिया गया है.

इस परिप्रेक्ष्य में देखें तो माननीय मुख्य न्यायाधीश की चिंता दरअसल सरकार की मीडिया पर लगाम कसने की तैयारी की पैरवी लगती है. उत्कोच की एक सीमा होती है. मीडिया को पहले ख़रीदा गया, दाम का इस्तेमाल हुआ. अब दंड की बारी है. साम, दाम, दंड और भेद के सहारे चलती हुई राजनीति किसी भी स्वस्थ समाज और देश का निर्माण नहीं करता. ठीक इसके उलट, ऐसी राजनीति सिर्फ़ कुंठित, स्वार्थी दलालों, बिकाऊ राजनेताओें और पत्रकारों को जन्म देती है. इन हथियारों से मिली सफलताओं (?) पर इठलाने वाले कुंठित नामर्द पैदा होते हैं और समाज में एक घनघोर निराशा का माहौल तैयार होता है.

क्या भारत के माननीय मुख्य न्यायाधीश यह बताने की कृपा करेंगे कि अगर वे मीडिया ट्रायल को न्यायालय की प्रक्रिया में हस्तक्षेप मानते हैं तो किस प्रक्रिया के तहत आज तीस्ता शीतलवाड जैसे जेल में हैं ? दूसरी तरफ़, नुपुर शर्मा को Y ग्रेड सुरक्षा और बेल देने का फ़ैसला किस मीडिया ट्रायल के दवाब में लिया गया ? क्या राम जन्मभूमि (?) पर फ़ैसला भी मीडिया के दवाब में लिया गया ? क्या राफाएल डील पर चुप्पी किसी मीडिया ट्रायल के दवाब में है ?

सवाल हज़ारों हैं, लेकिन आपके पास कोई जवाब नहीं है. अगर हम ये मान लें कि भारत की इलेक्ट्रॉनिक मीडिया, जिसका स्थान दुनिया में रेडियो रवांडा के समकक्ष है, के दवाब में भारत की न्यायपालिका है, तो फिर आप किस पायदान पर खड़े हैं हुज़ूर ?

पढिये क्या कहा मुख्य न्यायधीश रमना ने –

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