कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
शहीदे आजम भगतसिंह और चन्द्रशेखर आज़ाद हिन्दुस्तानी क्रांति के इतिहास के सर्वाधिक लोकप्रिय हस्ताक्षर हैं. इन दोनों की जिन्दगी और शहादत की कहानियों के एक विश्वसनीय साथी और गवाह सुखदेवराज को वक्त के थपेड़े छत्तीसगढ़ खींच लाये थे. दुर्ग जिले के गांव गांधीनगर (अण्डा) में उन्होंने कुष्ठ रोगियों की सेवा का काम अपने हाथ में लिया.
अपनी जिन्दगी के आखिरी बरस उन्होंने दुर्ग के शिशुकल्याण केन्द्र में अपने पुराने सहयोगी की पुत्री श्रीमती सरोजनी नायकर के अतिथि के रूप में गुजा़रे. इन पंक्तियों के लेखक को भी उनकी निकटता मिली. उनके आखिरी दिन हमारी जि़न्दगी के सबसे महत्वपूर्ण दिन थे. काश ! उनकी जि़न्दगी हमारे स्वार्थ के लिए ही सही कुछ और लम्बी होती.
‘नित्य के नियमानुसार 27 फरवरी को प्रातः जलपान करने के बाद जब मैं साइकिल से चला तो भैया रास्ते में निश्चित कार्यक्रम के अनुसार मुझसे मिले. भैया से चर्चा हो रही थी उसी समय थार्नहिल रोड पर म्योर कालेज के सामने एक व्यक्ति जाता हुआ दिखाई दिया. बातचीत का क्रम रोककर भैया ने कहा – ‘वह वीरभद्र जा रहा है, शायद उसने हमें देखा नहीं.’
मैंने गर्दन घुमाकर देखा तब तक वह आदमी आगे बढ़ चुका था. केवल उसकी पीठ दिखाई दी. मैंने वीरभद्र को कभी नहीं देखा था. 27 फरवरी की घटना से पहले एक या दो बार उसका नाम मेरे सामने आया था, वह भी उस समय जब वीरभद्र को मारने की योजना असफल हो गई थी और भैया तथा अन्य साथी कानपुर से इलाहाबाद आ चुके थे. आज तक वीरभद्र को अपनी आंखों से मैंने नहीं देखा है.
बातचीत करते करते हम दोनों ने पार्क का पूरा चक्कर कर डाला. पार्क के अंदर जब हम घुसे तो हमें एक आदमी पुलिया के ऊपर बैठा दातुन करता हुआ दिखाई दिया. उसने बड़े ध्यान से भैया की ओर देखा. मैंने भी उसे घूरा और भैया से उसके बारे में शंका प्रकट की. मैं एक बार फिर उसे देखने गया, तब वह दूसरी ओर देख रहा था.
अभी भैया से बातें ही हो रही थीं कि एक मोटर सामने सड़क पर आकर रुकी, जिसमें से एक अंग्रेज अफसर और दो कांस्टेबल सफेद कपड़ों में उतरे. हम लोगों का माथा ठनका. गोरा अफसर हाथ में पिस्तौल लिए हमारी तरफ आया और पिस्तौल दिखाकर हम लोगों से पूछा – ‘तुम लोग कौन हो और यहां क्या कर रहे हो ?’
भैया का हाथ अपनी पिस्तौल पर गया और मेरा हाथ भी अपनी पिस्तौल पर. गोरे ने जैसे ही बातें शुरू कीं हम दोनों ने पिस्तौलें खींच लीं और गोली से उत्तर दिया मगर गोरे अफसर की पिस्तौल पहले छूटी. गोली भैया की जांघ में लगी. आजाद की गोली गोरे के कंधे में लगी. दोनों ओर से दनादन गोलियां चल रही थीं. गोरे की गोली से भैया की जांघ की हड्डी चूर चूर हो गई.
एक गोली उनकी दाहिनी भुजा को चीरती हुई फेफड़े में जा घुसी, फिर भी उन्होंने साहस नहीं छोड़ा. उनका बायां हाथ ही बिजली बनकर कौंध उठा था. उनकी पिस्तौल गरजी और नाट बावर की कलाई टूट गई. पिस्तौल उसके हाथ से गिर पड़ी. उसने मोटर पर भागने की चेष्टा की परन्तु इससे पहले ही भैया की गोली से मोटर का टायर बेकाम हो चुका था.
प्राण बचाने के लिए नाट बावर ने मौलसरी के एक पेड़ की आड़ ली. सिपाही कूदकर नाले में जा छिपे. इधर हम लोगों ने भी एक जामुन के पेड़ की आड़ ली. एक क्षण के लिए लड़ाई रुक गई. ‘सिराज (इसी नाम से वह मुझे पुकारते थे) तुम निकल जाओ.’ यह वास्तव में उनका कवरिंग ऐक्शन था. अपने प्राणों को होम करके भी एक सिपाही की जान बचाने के लिए वे आतुर थे.
इसमें संदेह नहीं कि भैया अगर बुरी तरह घायल न हो गए होते और दोनों पक्षों के पास गोली बारूद खत्म न हो गया होता तो वह लड़ाई जारी रहती. गोली रहते हुए भी पिस्तौल में डाली हुई गोलियां निकाल कर और गोलियां भरने की सुविधा लड़ाई में होने से ही लड़ाई और आगे चल सकती थी. भैया रण कौशल में प्रवीण थे.
लगभग तीन महीने पहले सालिगराम शुक्ल और सुरेन्द्र पाण्डेय का पुलिस से सामना हो गया था. पुलिस दल के नायक थे इंस्पेक्टर शंभुनाथ शुक्ल. सालिगराम को पुलिस ने गोली मार दी और वे आहत अवस्था में सड़क पर पड़े थे. पाण्डेय मौका पाकर चले गए थे. कुछ ही क्षणों के बाद आजा़द, वैशम्पायन और निगम साइकिलों पर उधर से गुजरे. आहत साथी को निःसंदेह ही उन्होंने पहचाना.
समय की नजा़कत देखकर आजा़द ने निगम से कहा – ‘चुपके से आगे बढ़े चलो.’ निगम को हिचकिचाता देखकर भैया ने डांटा – ‘सीधे चले चलो नहीं तो गोली मार दूंगा.’ जिस प्रकार की लड़ाई हम लोगों की ब्रिटिश सरकार से चल रही थी, उसमें यही एक रास्ता था.
यह ठीक है कि भैया ने मुझे भाग जाने को कहा. यह भी ठीक है कि मेरे पास गोलियां कुल दो या तीन ही बची थीं. यह भी ठीक है कि पुलिस के साथ जमकर लड़ाई करने का कायदा क्रांतिकारियों का नहीं था. डानव्रीन की एक कविता हम इस संबंध में अक्सर कहा करते थे –
‘One who fights and runs away
Lives to fight another day.’
अर्थात्, जो क्रांतिकारी लड़कर भाग निकलता है वह दूसरी बार के संघर्ष के लिए जीवित रहता है.
यहां यह उल्लेखनीय है कि विश्वेश्वर सिंह ने खबर देकर नाट बावर को यहां बुलाया था परंतु जब नाट बावर वहां आया तो उस समय वह वहां मौजूद नहीं था, बल्कि समर हाउस की ओर से भैया पर गोली चला रहा था, जिसके जवाब में भैया की गोली ने उसका जबड़ा चकनाचूर कर दिया था. दाहिने, बाएं, सामने सभी ओर से गोलियां आ रही थीं परन्तु भैया का लक्ष्य नाट बावर ही था.प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार घायल सिंह की तरह रह-रहकर वे ललकार रहे थे.
जिस मौलश्री के पेड़ के पीछे नाट बावर ने शरण ली थी उस पर भैया की गोलियों के निशान 6 फुट की ऊंचाई तक मिले थे जबकि उस जामुन के पेड़ पर जिसके नीचे भैया घायल होकर गिरे थे 10-12 फुट की ऊंचाई तक पुलिस की गोली के निशान थे.
इससे स्पष्ट है कि काल के सम्मुख भी भैया ने मानसिक संतुलन नहीं खोया था जबकि पुलिसवाले अपना मानसिक संतुलन खो बैठे थे और अंधाधुंध गोलियां चला रहे थे. भैया के प्राण विसर्जन के उपरांत भी उनके षव के पास फटकने का साहस किसी अफसर या सिपाही में नहीं था. वे दूर से गोलियों की बाढ़ दागते रहे. जमीन पर पड़े जामुन के पत्ते उनके अनमोल रक्त से तरबतर हो गए थे.
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