बैंक के कैस काउंटर से ही
पीछे लग जाते हैं जेबकतरे
सभ्यताओं के विकास क्रम में भी यही हुआ है
हमने कभी पीछे मुड़कर देखा ही नहीं
न दाएं न बाएं
न उपर न नीचे
मुंह उठाकर चलते रहे बड़बोक की तरह
जेब कतरे रहे हमारे अंग-संग
दाएं-बाएं, आगे-पीछे
उपर-नीचे
हमारी चाल का मुआयना करते हुए
उनकी टेढ़ी चाल को हम भांप न सके
दबी हुई आंख को देख न सके
कुटिल मुस्कान को पहचान न सके
बस चलते रहे गर्दभ-चाल
हमारी चाल देखकर
वे पहुंच गए पृथ्वी के कोने कोने तक
सामंतों, सम्राटों से राष्ट्राध्यक्षों तक
धर्मस्थलों, धर्मग्रंथों से ईश्वरों तक
समा गए वे कण-कण में
हमारे हृदय तक में जा घुसे
अब हम जिस भी तरह से चलें
चलें या न चलें
उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता
वे जान चुके हैं हमारी चाल
हमारी यात्रा भी
अगर उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता
तो हमें भी कौनसा फर्क पड़ता है !
- जयपाल
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