हेमन्त कुमार झा, एसोसिएट प्रोफेसर, पाटलीपुत्र विश्वविद्यालय, पटना
भले ही वे महज दो दिनों में ‘हीरो से जीरो’ बन गए लगते हों, लेकिन मुजफ्फरपुर के नीतीश्वर कालेज के हिंदी वाले सर जी बिहार के उन हजारों प्रोफेसरों से अधिक जीवंत साबित हुए जो अपने हक, सम्मान और अपने संस्थानों की गरिमा पर निरंतर चोटों को सहने के और चुप रह कर अपनी खोल में सिमटे रहने के आदी हो चुके हैं.
अगर बिहार के अधिकतर विश्वविद्यालयों में प्रशासनिक अराजकता, वित्तीय अनियमितता और नीतिगत अपंगता के सतत आरोप अतीत के सारे रिकार्ड तोड़ चुके हैं तो इसका सबसे निरीह शिकार वह शिक्षक ही होगा जो लंद फंद में अधिक तेज नहीं. कुल मिला कर मामला जो सामने आया है उसके अनुसार वे असिस्टेंट प्रोफेसर साहब अपनी नियुक्ति के समय से ही फ्रस्ट्रेटेड थे. उनके कई फ्रस्ट्रेशंस थे.
पहला फ्रस्ट्रेशन तो यह था कि उनकी रैंकिंग ऊंची थी लेकिन उन्हें अपनी रैंक के अनुसार पोस्टिंग नहीं मिली. मेरिट लिस्ट में उनसे बहुत ही नीचे के रैंक वालों को पीजी विभाग और अन्य प्रीमियर कालेजों में स्थापित कर दिया गया जबकि उन्हें एक नामालूम से कालेज में भेज दिया गया.
दूसरी फ्रस्ट्रेशन यह थी कि वे लगातार अपने स्थानांतरण के लिए आवेदन देते रहे लेकिन कोई सुनवाई नहीं हुई जबकि उन्हीं के अनुसार इस दौरान तबादलों के कई चक्र चले और बहुत सारे लोगों का मनचाही जगहों पर ट्रांसफर हुआ.
आमतौर पर बिहार के विश्वविद्यालयों में नौकरी करने वाले प्रोफेसरान इस तरह के ‘छोटे मोटे’ अन्यायों को सहने के आदी हो जाते हैं और ‘सब भ्रष्ट हैं’ टाइप की हारी हुई घोषणा करते हुए मित्रों के जमावड़े में अगली चाय का ऑर्डर देते दार्शनिक मुद्रा में चले जाते हैं.
जैसे-जैसे वे नौकरी में पुराने होते जाते हैं, सांस्थानिक अन्यायोंं और अराजकताओं को सहने की उनकी शक्ति भी बढ़ती जाती है. वे अपने प्रोमोशन के लिए आर्टिकल और किताबें लिखने में जुट जाते हैं. एक लिजलिजी आत्मतुष्टता और नपुंसक तटस्थता उनके व्यक्तित्व का अंग बन जाती है.
अंततः वे अपने संस्थानों में घट रही घटनाओं से, अपने पेशे की गरिमा पर हो रहे प्रहारों से, अपने अधिकारों से महरूम किए जाने आदि से निस्पृह होते जाते हैं. कुछ दे दिला कर देर सबेर अपनी सुविधा की जगह ट्रांसफर के माध्यम से स्थापित हो जाने के बाद तो उनकी रही-सही जीवंतता भी नष्ट हो जाती है. स्टाफरूम की बतकही में ‘फलां यूनिवर्सिटी में फलां पद इतने में बिका’ टाइप की रसभरी चर्चाओं के बाद वही चिर परिचित ‘सब भ्रष्ट हैं’ की हारी हुई घोषणा कर सब अपनी राह लेते हैं.
मुजफ्फरपुर के वे सर आत्मतुष्ट नहीं हुए. वे बेचैन थे कि बतौर छात्र इतना बेहतरीन करियर रहने के बावजूद, रैंक इतनी ऊंची रहने के बावजूद वे ऐसी जगह क्यों नहीं हैं जहां होना उनका नैतिक और कानूनी अधिकार था. हालांकि, जब उनकी बेचैनी विद्रोह का रूप लेकर सामने आई तो एकदम से राह भटक गई. वे अतिशय भावुकता के शिकार हो गए.
शायद उन्हें लगा कि अब तक के अपने वेतन की राशि का चेक लेकर उसे लौटाने जब वे उच्चाधिकारियों के पास जाएंगे तो वे भी भावुक हो उठेंगे. लेकिन, यहां मामला भावुकता या निष्ठुरता का नहीं, बल्कि प्रक्रिया का हो गया. आखिर क्यों और कैसे वह चेक लिया जाए ? किस मद में जमा हो ? यहीं आकर मामला उलझ गया और बात बाहर निकली तो राज्य और देश के मीडिया से होते हुए बीबीसी तक पहुंच गई.
अब कैंपस की शैक्षणिक संस्कृति और सभ्यता पर गंभीर सवाल उठने लगे तो उच्चाधिकारी जगे, पदाधिकारी जगे, शिक्षक संघ जगा. सब मिल कर डैमेज कंट्रोल में लगे. वेतन का चेक लौटाते हुए उन सर जी ने गांधी जी का नाम लेकर ऐसी नैतिकता दर्शाने की कोशिश की थी जिसके आईने में बाकी तमाम प्रोफेसर अनैतिक नजर आने लगे. हालांकि, ऐसा मानने वाले भी थे कि यह त्याग, यह नैतिकता असल में उन प्रोफेसर साहब के फ्रस्ट्रेशन का अराजक विस्फोट है.
इधर, कुछ दिलजले उनके बैंक खाते का सच सामने ले आए जिसमें हजार रुपए भी नहीं थे. नैतिक प्रतिरोध जब हास्यास्पद स्टंट के रूप में प्रचारित होने लगा तो उसका नतीजा अंततः एक माफीनामा के रूप में सामने आया. जाहिर है, उच्चाधिकारियों और शिक्षक संघ ने भी मामले को समेटने की निर्णायक पहल की होगी.
माहौल उबल कर फिर से ठंडा होने लगा है लेकिन, इस नौजवान प्रोफेसर की बेचैन आत्मा ने राज्य के युनिवर्सिटी सिस्टम में व्याप्त अंधेरे और अन्याय को एक बार फिर चर्चा में ला दिया है. सवाल तो फिर से उठा ही है कि विश्वविद्यालयों में मेरिट लिस्ट, अभ्यर्थियों की च्वाइस और पोस्टिंग की जगह में अगर कोई सामंजस्य नहीं है तो क्यों नहीं है ? सवाल यह भी है कि स्थानांतरण की क्या पॉलिसी है ?
उत्तर जितना हैरतअंगेज है उतना ही अफसोसनाक भी कि अधिकतर विश्वविद्यालयों में पोस्टिंग और स्थानांतरण तंत्र पर काबिज भ्रष्ट और अनैतिक चौकड़ी की मर्जी पर निर्भर है क्योंकि वे संस्थानों को जागीर की तरह चलाते हैं, न मेरिट लिस्ट की कोई इज्जत न अधिनियमों, परिनियमों की कोई परवाह. पता नहीं, इनकी जड़ें कितनी गहरी होती हैं और शाखें कितनी ऊंची कि विश्वविद्यालयों में अंधेर मचाते इन्हें न कोई डर लगता है, न किसी तरह का भय.
ऐसी निर्भीक बेइमानियां और अराजकताएं विश्वविद्यालयों की हर तरह की नियुक्तियों और पदस्थापनाओं में खुल कर नजर आती हैं और जिनके साथ अन्याय होता है, जिनके अधिकारों का हनन होता है उनमें से अधिकतर लोग हताश हो कर निरपेक्ष होने को विवश हो जाते हैं. मुजफ्फरपुर के उन साहब को भी या तो अपनी बेचैनी समेट कर चुप रह जाना चाहिए था या फिर उस रास्ते का मुसाफिर बन जाना चाहिए था जिस पर चल कर बिहार के विश्वविद्यालयों में काम निकलते हैं.
बिहार के विश्वविद्यालयों में नौकरी करने के लिए यही दो रास्ते हैं. कानून, अधिकार, नैतिकता आदि की बातें यहां बेमानी हो चुकी हैं. हालांकि, यह कोई नई बात नहीं. मुजफ्फरपुर के सर इस दर्द को झेलने वाले अकेले भी नहीं. न जाने कितने हैं ऐसे, जो अपने साथ हुए अन्याय को अपनी नियति मान कर चुप रह गए. तंत्र पर काबिज ताकतवर बेइमानों से लड़ना किसी सामान्य शिक्षक के लिए इतना आसान भी नहीं.
मैं 2003 में विश्वविद्यालय सेवा आयोग के माध्यम से चयनित होकर मगध विश्वविद्यालय की सेवा में आया. हिंदी की मेरिट लिस्ट में मेरा पहला रैंक था।श लेकिन, शुरू से लेकर आज तक मेरे हिस्से हाशिए के कॉलेज ही आए, जबकि जिनकी रैंक 17वीं, 29वीं या 34वीं टाइप की थी, वे प्रीमियर संस्थानों में जा कर जम गए. कैसे इतना घोर अन्याय हुआ, यह कहने की जरूरत नहीं.
मैं बेचैन हुआ लेकिन इन 19 वर्षों में कभी एक बार भी ऐसा नहीं हुआ कि मुख्यालय जाकर मैं फरियाद करूं कि ‘देखिए साहब जी, मेरी रैंक टॉप की है और पोस्टिंग में मेरे साथ अन्याय हुआ है.’ मुझे कभी तंत्र पर काबिज उन लोगों की न्यायप्रियता के प्रति आस्था ही नहीं जगी क्योंकि उनमें से अधिकतर गलत और अन्यायपूर्ण कार्यों के लिए ही विख्यात रहे. मेरे जैसे कितने हैं जिनके अधिकारों का खुल कर हनन होता रहा, कदम कदम पर जिनके सम्मान के साथ खिलवाड़ होता रहा.
बात सिर्फ ट्रांसफर-पोस्टिंग की ही नहीं. जैसे-जैसे आप सीनियर होते जाते हैं, बहुत सारे मुकाम आपके सामने आते हैं, लेकिन यह अराजक और बेईमान तंत्र हर कदम पर आपको हतोत्साहित करता है, अपमानित करता है और न जाने किस मिलीभगत से आपका हक किसी नाजायज हाथों को सौंप देता है. प्रतिरोध न करना मेरी अकर्मण्यता भी समझी जा सकती है, लेकिन मैं अपना सच जानता हूं कि मैं अकर्मण्य नहीं. बस, यही हुआ कि कभी मन नहीं किया कि मुख्यालय जा कर अरण्य रोदन करूं. क्यों मन करे ? जाके मुख देखे दुख उपजत, ताके करन पड़ी परनाम…!
कालिदास ने कहा है कि अधम लोगों के पास जा कर न्याय के लिए फरियाद करना व्यर्थ है. बचा हाईकोर्ट, तो सबके पास इतना धीरज, इतनी ऊर्जा, इतना पैसा नहीं कि सनी देओल के शब्दों में तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख, तारीख पर तारीख के डिप्रेशन को झेल सके.
दरअसल, हमारे विश्वविद्यालयों में अधिकतर ऐसे लोग ही काबिज होते रहे हैं जो योग्यता और अधिकारों का असम्मान करने में, नियम-कानूनों का गला घोंटने में, गलत लोगों को गलत तरीके से पदों पर बैठाने में अपने पूर्ववर्तियों के घटिया रिकार्डों को तोड़ने में लगे रहते हैं. उनके सामने जाकर कोई न्याय और नियम-कायदे की बातें करें तो सिवा अपमान और हताशा के और क्या हासिल हो सकता है ?
जिन छात्रों के लिए यह पूरा सिस्टम है, युनिवर्सिटी के साहेबानों के लिए उनकी चिंता सबसे निचली पायदान पर है. वरना, यह कैसे संभव है कि ट्रांसफर के नाम पर घनघोर उगाही के आरोपों के बीच ग्रामीण क्षेत्र के किसी कालेज के कई विभागों को प्राध्यापक विहीन कर दिया जाए ? आखिर, आधे विभाग शिक्षक विहीन होने पर छात्र क्यों कालेज आएं ? ग्रामीण कालेजों के कैंपस में तब अजीब सी मुर्दनी क्यों नहीं छाए ?
भले ही धारणा बन गई हो कि प्रोफेसर पढ़ाते नहीं हैं इसलिए छात्र नहीं आते, लेकिन, असल में कैंपस में छात्रों की अनुपस्थिति के अनेक सामाजिक, आर्थिक और सांस्थानिक कारण हैं. आपकी मर्जी, आप सिर्फ शिक्षक को कोसते रहें.
मेरे पिताजी प्रोफेसर थे. तो, बचपन से ही विश्वविद्यालयों के बारे में जानता-सुनता रहा हूं. खुद भी 19 वर्षों से इस सेवा में हूं. बिहार में ज्वाइन करने से पहले एक केंद्रीय विश्वविद्यालय में भी पढ़ाने का अवसर मिला था. गड़बड़ियां के आरोप-प्रत्यारोप हर दौर में रहे, लेकिन, इधर हाल के कुछ वर्षों में बिहार के यूनिवर्सिटी सिस्टम में जितनी नैतिक और प्रशासनिक गिरावट आई है, उसने राज्य की नौजवान पीढ़ी को शैक्षिक बर्बादी के गहरे अंधेरे कुएं में धकेल दिया है.
आपकी मर्जी, आप सिर्फ स्कूल-कॉलेजों के शिक्षकों को कोस कर समाज और नई पीढ़ी के प्रति अपने चिंतन को विराम दे दें, लेकिन सत्य इससे कहीं बहुत अधिक जटिलताओं से भरा है.
जहां अनैतिकताओं और अन्याय का राज होगा, वहां शिक्षक कुंठित होंगे, योग्यता उपेक्षित होगी, क्षमता अपमानित होगी और छात्र के रूप में नई पीढ़ी का भविष्य दांव पर लगेगा. जिस समाज और जिस राज्य में ऐसा होता रहेगा वह सिर्फ सड़कें और फ्लाईओवर बना कर अपने विकास का भ्रम भले ही पाले, उसकी नींव खोखली होती जाएगी और यह किसी के भी हित में नहीं होगा. बिहार को इन अंधेरों से जूझना ही होगा, अंधेरे के सौदागरों की पहचान करनी ही होगी. और कोई विकल्प नहीं.
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