राम अयोध्या सिंह
स्वाभाविक प्राकृतिक घटनाओं को भी धार्मिक जामा पहनाकर लोगों की धार्मिक भावनाओं का शोषण करना कोई बनिया और ब्राह्मणों से सीखे. अमरनाथ गुफा में बर्फ के जमने से स्वत: शिवलिंग के आकार के बनने वाले दृश्य को शिवलिंग घोषित कर लोगों के बीच सालों- साल इतना प्रचारित किया गया है कि लोगों ने इस प्राकृतिक घटना से निर्मित दृश्य को अलौकिक और चमत्कारिक मानकर इसकी पूजा और अभ्यर्थना भी शुरू कर दी. और समय के साथ ही इसका आकर्षण इतना बढ़ा है कि आज यह एक बड़े हिन्दू समुदाय के लिए जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि के रूप में इसकी महिमा और मान्यता प्राप्त हो गई है.
जैसे-जैसे समय आगे बढ़ रहा है और हम अधिक से अधिक आधुनिक होते जा रहे हैं, हमारी धार्मिक मान्यताओं में भी उसी अनुरूप और अनुपात में वृद्धि भी होती जा रही है. हमने आज तक प्राकृतिक घटनाओं को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने का कभी प्रयास ही नहीं किया है. सबको ईश्वर की कृपा या चमत्कार मानकर उसकी पूजा करने के अलावा और कोई भी तर्क हमें मंजूर नहीं है. लोगों की इसी मानसिकता और मनोवृत्तियों का बनियों और ब्राह्मणों ने जमकर फायदा उठाया है.
हर धार्मिक क्रिया-कलाप के लिए हम ब्राह्मणों पर आश्रित हैं और भीड़ जुटने के साथ ही बनियों के लिए मुनाफा कमाने का सुअवसर भी प्राप्त हो जाता है. यात्रियों को ढोने के लिए आवागमन के विभिन्न साधनों, होटलों, जरूरी सामानों की खरीददारी के लिए आवश्यक दुकानों, पुजारियों, खच्चरों, घोड़ों, पालकी ढोनेवालों और अन्य कई तरह की जरूरतों के लिए हजारों लोग लगे हुए होते हैं. इस मद में हर साल करोड़ों रुपये का कारोबार होता है.
बाजार को अपने हक में और भी फायदेमंद बनाने के लिए हर साल बनिए और ब्राह्मण हर तरह के तिकड़म करते हैं. तीर्थयात्रियों की जेब साफ करना ही इनका मूल मकसद होता है. दूसरी तरफ धर्म के नाम पर पुण्य कमाने के लिए तीर्थयात्री भी हर संभव कठिनाई सहने के लिए तैयार रहते हैं. वो यह मानकर चलते हैं कि उन्हें जितनी अधिक तकलीफ होगी, भगवान या देवता उनसे उतने ही अधिक प्रसन्न होंगे. तीर्थयात्रा में होनेवाली कठिनाइयों को वे प्रभु द्वारा ली जाने वाली परीक्षा समझते हैं और प्रभु इच्छा के नाम पर सब कुछ सहन करने के लिए तैयार हो जाते हैं.
अमरनाथ यात्रा करने वाले तीर्थयात्रियों को हर साल ही किसी न किसी दुर्घटना का सामना करना ही पड़ता है. पर कभी-कभी ऐसी भयानक और दर्दनाक घटनाएं भी होती हैं, जो राष्ट्रीय समाचार का विषय बन जाते हैं. कल ही 8 जुलाई, 2022 को बादल फटने या अतिवृष्टि के कारण आए सैलाब में तेरह लोगों की मौत हो गई, अड़तालीस लोग घायल हो गए और चालीस लोग लापता हैं. ऐसी घटनाएं कुछ सालों के अंतराल पर अक्सर ही घटती रहती हैं. लेकिन सरकार आज तक भी तीर्थयात्रियों के लिए निरापद तीर्थयात्रा का प्रबंध नहीं कर सकी है.
हर साल सरकार द्वारा किए जाने वाले इंतजामों का ढिंढोरा तो खुब पीटा जाता है, पर वास्तविक धरातल पर कुछ खास नहीं होता है. वास्तव में यह सब कुछ आपदा में अवसर की तलाश की कवायद है. मजबूर तीर्थयात्रियों से जितना संभव हो, मुनाफा कमाना ही इसका उद्देश्य होता है. 1969 में 40 लोग मरे थे, 1996 में 263 लोग और 2018 में 4 लोग मरे थे. सरकार सिर्फ दिखावे के लिए दुःख प्रकट कर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर लेती है. सच तो यह है कि तीर्थयात्रा और तीर्थयात्रियों के माध्यम से राजनीतिक दल अब अपना राजनीतिक स्वार्थ सिद्ध करने का भी भरसक प्रयास करते हैं.
कुल मिलाकर यह अर्थसत्ता, राजसत्ता और धर्मसत्ता का नापाक संश्रय है, जो अपने फायदे के लिए तीर्थयात्रियों की जिंदगी से खेल करने से भी नहीं चुकता. सहानुभूति के दो शब्द कहकर सरकार भी अपने कर्तव्य का निर्वहन कर लेती है, लोग भी इस घटना को प्रभु की माया समझकर भूल जाते हैं और राजसत्ता, अर्थसत्ता और धर्मसत्ता का संश्रय फिर से अपने मुहिम में जुट जाता है, और लोग बार-बार ऐसी दुर्घटनाओं को सहने और भोगने के लिए अभिशप्त होते रहते हैं.
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