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जेल से जाएगा पत्रकारिता का रास्ता ?

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जेल से जाएगा पत्रकारिता का रास्ता ?
जेल से जाएगा पत्रकारिता का रास्ता ?
रविश कुमार

1989 में हिन्दी के महान साहित्यकार निर्मल वर्मा की एक कहानी प्रकाशित हुई. रात का रिपोर्टर. वक्त मिले तो इस कहानी को पढ़िएगा, आपको आज के उन पत्रकारों की मानसिक हालत दिख जाएगी जो गिनती के दस बीस रह गए हैं और पत्रकारिता कर रहे हैं. इस कहानी में पत्रकार ऋषि के घर के फोन की घंटी बार-बार बजती है और जब कोई फोन उठाता है तो दूसरी तरफ से कोई आवाज़ नहीं आती है.

ऋषि अपनी मां से कहता है कि अगर मेरे पीछे फ़ोन की घंटी बजे तो मत उठाना. ब्लैंक कॉल के कारण ऋषि हर वक्त दहशत में रहता है. उसे लगता है कि सत्ता का कोई साया उसका पीछा कर रहा है. जब वह सुबह की सैर पर जाता है तब भी लगता है कि कोई परछाई उसका पीछा कर रही है. धीरे-धीरे इसका असर उसकी शारीरिक और मानसिक सेहत पर पड़ने लगता है.

यही हालत आज पत्रकारों की हो गई है. वे आपस में ख़बरों की बातचीत कम करते हैं, एक दूसरे के गिरफ्तार कर लिए जाने की बातें ज़्यादा करते हैं. निर्मल वर्मा ने रात का रिपोर्टर आज के लिए भी लिखा है.

पहाड़ के रास्तों पर चलते-चलते अचानक बादलों ने धुंध की ऐसी चादर बिछा दी कि निर्मल वर्मा की कहानी ‘रात का रिपोर्टर’ का वह साया कभी सामने से आता दिखाई देने लगा, तो कभी पीछे से आते हुए. सरकार से सवाल करने वाले किसी भी पत्रकार को नहीं पता कि कब कोई साया उसे दबोच ले. तमाम तरह की धाराओं को लगाते-लगाते जांच के नाम पर महीनों जेल में सड़ा दे.

इस देश में जब अवैध रुप से राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लग सकता है और लगाने वाले का कुछ नहीं होता. ऐसे अनेक प्रसंगों से संदेश साफ है, आप तभी तक बचे हैं जब तक उस साये का हाथ इस धुंध से निकलता हुआ, आपको सलाखों के पीछे खींच नहीं लेता. इसलिए जो सत्ता भजन में लगे हैं, उन्हें धुंध में भी रौशनी दिखाई देती है, जो सत्ता से सवाल कर रहे हैं, रौशनी में भी धुंधलापन दिखता है.

जॉर्ज ऑरवेल की 1984 की तरह का ही उपन्यास है, रात का रिपोर्टर. फोन की घंटी ख़तरे की घंटी है. इसका एक हिस्सा आपके लिए पढ़ना चाहता हूं. आपका ध्यान सड़क पर क्यों है… निर्मल वर्मा पर क्यों नहीं है, जो इस कहानी में लिख रहे हैं… ‘उस रात वह ठीक से नहीं सो सका. दरवाजे पर थोड़ा सा भी खटका होता तो वह चौंक जाता. जीने का दरवाजा खोलकर बाहर झांकता तो सारी गली सुनसान दिखाई देती. फिर कहीं दूर अंधेरे में चौकीदार की लाठी की ठक ठक सुनाई देती. वह लौट आता.

अपने कमरे में जाने से पहले एक बार मां के कमरे में झांक लेता. वह गुड़मुड़ी से चादर ओढ़ कर फर्श पर लेटी थी. सिरहाने के पास सुराही और पीछे संदूक जो उसकी किसी पुरानी पीली साड़ी से ढकी थी. मां ने उन संदूकों को साड़ी से छुपाकर एक ऊंचे सिंहासन में बदल दिया था. सिंहासन पर उनके ठाकुर जी विराजमान होते थे, जो निरंतर उस परिवार की उच्च नीच देखते आ रहे थे. किंतु अब उनकी छुट्टी दूर नहीं थी. अब ठाकुर जी काफी आश्वस्त दिखाई देते थे क्योंकि उन्हें मालूम था कि यह अंतिम पीढ़ी है इसके आगे उन्हें कुछ नहीं देखना पड़ेगा.

यह कहानी दिल्ली की है. वह दिल्ली जो बीत गई लेकिन यह कहानी आज की दिल्ली की भी है, वह दिल्ली जो बीत रही है. निर्मल वर्मा को जी-भर कर पढ़ने वाली प्रियंका दुबे ने एक प्रसंग के बारे में इस तरह से बताया कि ऋषि का एक दोस्त गिरफ्तार हो जाता है. उसकी पत्नी अपनी छोटी बच्ची के साथ ऋषि से मिलने लाइब्रेरी आती है. उससे अपने पति की खोज खबर लेने के लिए विनती-सी करती है.

पत्रकारिता करना आपके समाज में मुश्किल काम हो गया है. आप प्राइम टाइम देखने के बाद किसी रिश्तेदार की शादी में जाने की शापिंग की तैयारी में लग जाएंगे और गिनती के बचे हुए दस बीस पत्रकार फोन पर जेल जाने की आशंका बतियाने लग जाएंगे.

क्या आप दर्शकों और पाठकों ने बिल्कुल ही देखना बंद कर दिया है कि जिन लोगों ने पत्रकारिता को शर्मिंदा किया, अपनी खराब पत्रकारिता से देश का नाम ख़राब किया, उन्हें फूल मालाओं से लादा जा रहा है और जो दो चार लोग अपने जोखिम पर पत्रकारिता कर रहे हैं, उन्हें जांच के घेरों में फंसाया जा रहा है. जेल में डाला जा रहा है. क्या जोखिम उठाने वाले पत्रकारों और पत्रकारिता के संस्थानों के बिना लोकतंत्र की कोई भी परिभाषा मुकम्मल हो सकती है ?

पत्रकारों के बीच अब बातचीत खबरों को लेकर कम, गिरफ्तारी की आशंका को लेकर ज़्यादा होने लगी है. क्या आप उस शोर को बिल्कुल नहीं पहचानते जिसे पैदा ही किया जाता है कि असली ख़बरें ग़ायब हो जाएं. उस शोर में आपको वही सुनाई दे जो सत्ता सुनाना चाहती है.

क्या उस शोर का कमाल नहीं माना जाए जिसके बीच दिल्ली पुलिस के डीसीपी के. पी. एस. मल्होत्रा को ठीक-ठीक वही सुनाई देता है, जिसे कई घंटों के बाद जज अपने फैसले में सुनाते हैं ? डीसीपी की इस सफाई को सबने स्वीकार कर लिया लेकिन किसी ने सवाल नहीं किया कि वह शोर था या कोई आकाशवाणी रही होगी, जिसमें वही सुनाई दिया, जिसे कुछ घंटे के बाद जज अपने फैसले में लिखने वाले थे ?

डीसीपी के. पी. एस. मल्होत्रा कहते हैं कि वे अपने जांच अधिकारी से बात कर रहे थे, शोर होने के कारण ग़लत सुन लिया और बयान दे दिया कि ज़ुबैर की ज़मानत याचिका रद्द हो गई है. ज़ुबैर के वकील सौतिक बनर्जी हैरान रह गए कि जज अभी बैठे भी नहीं हैं, फैसला पढ़ा भी नहीं और मीडिया में खबर चलने लगी कि ज़मानत याचिका रद्द हो चुकी है, 14 दिनों की न्यायिक हिरासत मिली है. कई घंटे बाद जब फैसला आता है तो फैसला वही होता है जो शोर के कारण डीसीपी ने गलती से सुन लिया था.

सारा कसूर शोर का था, शोर का ही है, असली ख़बरों को गायब करने के लिए दूसरे मुद्दों का शोर पैदा किया जाता है ताकि आप वह न देखें जो आपको देखना चाहिए. गोदी मीडिया के ज़रिए हर दिन शोर ही तो पैदा किया जाता है, ताकि आपकी ख़बरें ग़ायब हो जाए. अच्छी खबरों को लिखने और खोजने वाले पत्रकार और अख़बार कम होते जा रहे हैं.

सबको पता है कि इसके ख़तरे पहले से कहीं ज़्यादा वास्तविक और भयंकर हैं. किसी भी बहाने से गिरफ्तारी हो सकती है और तरह-तरह की धाराएं लगा कर जांच के नाम पर जेल में डाल दिया जाएगा. यह ख़तरा आज से नहीं, दशकों से पत्रकारों का साये की तरफ पीछा करता है लेकिन ऐसा कभी नहीं हुआ कि समाज पत्रकारों के इस दमन पर चुप्पी मार जाए.

ज़ुबैर पर आरोप लगाने वाले का ट्विटर हैंडल जब प्रकाश में आया था तब इसे गिनती के लोग फोलो कर रहे थे, अब इसके फोलोअर की संख्या काफी हो चुकी है. यह किसका ट्वीट है, किसी को पता नहीं लेकिन इसके आधार पर ज़ुबैर के खिलाफ मामला दर्ज होता है. यह ट्विटर हैंडल अब भी अस्तित्व में है. किसका हैंडल है, पता नहीं.

जब इंडियन एक्सप्रेस ने रिपोर्ट प्रकाशित की कि ज़ुबैर के 2018 के ट्वीट को दिल्ली पुलिस की निगाह में लाने वाला हैंडल डिलीट हो गया है तो उसी रिपोर्ट को इस हैंडल से री- ट्वीट किया गया है. इस हैंडल से 44 लोगों को फॉलो किया जाता है, इसमें मेरा ट्विटर हैंडल ravishndtv भी है.

मीडिया रिपोर्ट के अनुसार अक्टूबर 2021 में बालाजीकीजान नाम का अकाउंट खुलता है और इससे 19 जून को पहली बार ट्वीट किया जाता है. 20 जून को ज़ुबैर के खिलाफ FIR होती है, कई धाराएं लगती हैं और बाद में दूसरी धाराएं भी जोड़ी जाती हैं, जिनका संबध लेन-देन और विदेशी चंदों के मामले से है.

ज़ुबैर फैक्ट चेकर हैं. झूठे दावों की जांच करते हैं. हर सरकार के झूठे दावों की जांच की है. अगर हिन्दू संतों के भड़काऊ बयानों को उजागर किया है तो टीवी डिबेट में मुस्लिम विद्वान बनकर हिन्दू आस्था को भड़काने वालों को भी उजागर किया है. जो काम बड़े संस्थानों को करना चाहिए, वो ज़ुबैर कर रहे थे. उनके जैसे कुछ और लोग स्वतंत्र रूप से तथ्यों की जांच करते हैं.

क्या आप नहीं जानते कि ग़लत तरीके से वीडियो की एडिटिंग की जाती है और उसे वायरल कराया जाता है ? क्या इन वीडियो में जो ग़लत है, उसे ग़लत कहना इतना बड़ा अपराध हो सकता है ? क्या यह किसी भी पत्रकार का काम नहीं होना चाहिए ? 30 जून को हिन्दू अखबार के संपादकीय का शब्दश: अनुवाद नहीं कर रहा लेकिन भावानुवाद पढ़ना चाहता हूं. इसमें लिखा है कि –

मोहम्मद ज़ुबैर को इस बात की कीमत चुकानी पड़ रही है कि उन्होंने न्यूज़ चैनल पर सत्ताधारी दल की प्रवक्ता के बयान की तरफ सबका ध्यान दिलाया, जिसके कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सरकार को शर्मिंदगी उठानी पड़ी. उल्टा ज़ुबैर पर आरोप लगा दिया गया कि 40 साल पुरानी फिल्म से एक तस्वीर शेयर कर उसने धार्मिक भावनाओं को भड़काने का प्रयास किया है.

यह कदम एक छद्म नाम वाले ट्विटर हैंडल के ट्वीट के आधार पर उठाया गया है, जिससे साफ है कि सत्ता संस्थान उसके पीछे पड़ गया है. ज़ुबैर की गिरफ्तारी सत्ता की असहिष्णुता का एक और उदाहरण है. सत्ता फैक्ट चेकर्स से गुस्सा है, जो अक्सर उसके दावों को पंचर करते रहते हैं. यह भी दिख रहा है कि जो भी बहुसंख्यक धर्मांधता को काउंटर करना चाहता है, सत्ता उसे नहीं छोड़ेगी.

29 जून को छपी न्यूज़लौंड्री के प्रतीक गोयल की रिपोर्ट विस्तार से बताती है कि कैसे ज़ुबैर की गिरफ्तारी को लेकर कई हज़ार ट्वीट किए गए और माहौल बनाया गया. जब नूपुर शर्मा और 32 लोगों के खिलाफ FIR हुई तब ही से यह अभियान चलाया गया कि ज़ुबैर का नाम क्यों नहीं है ? प्रतीक की रिपोर्ट के अनुसार अरुण नाम के व्यक्ति ने तो बाकायदा एलान किया है कि जो भी ज़ुबैर और आल्ट न्यूज़ के खिलाफ कानूनी कार्रवाई करेगा, उसका खर्चा वह देगा.

न्यूज़ लौंड्री की इस रिपोर्ट में एक ट्विटर अकाउंट The Hawk Eye को भी इस अभियान का अगुआ बताया गया है. जो अपने परिचय में लिखता है कि ‘कम्युनिस्ट समूहों के झूठे अभियानों का पर्दाफाश करना उसका काम है.’ इस रिपोर्ट के अनुसार The Hawk Eye भी उसी रेज़र पे पेज से डोनेशन लेता है, जिससे आल्ट न्यूज़ भी डोनशन लेता है.

The Hawk Eye ने प्रतीक सिन्हा, ज़ुबैर और आल्ट न्यूज़ पर पैसे के लेन-देन में गड़बड़ी के आरोप लगाए हैं. ज़ुबैर के खिलाफ विदेशी फंड की जांच हो रही है. ज़ुबैर के खिलाफ चले अभियान में यह भी जोड़ा गया है कि उदयपुर की घटना के लिए वही ज़िम्मेदार है.

यहां मामला केवल बराबरी का नहीं है कि ज़ुबैर को जेल भेजा तो नूपुर को जेल भेज दो. इससे कुछ हल नहीं निकलने वाला. सवाल यह है कि बड़ा हमला और लगातार हमला किस पर हो रहा है ? उन लोगों पर हो रहा है जो सरकार से अलग राय रखते हैं, जो सरकार के अलावा उस राजनीतिक तंत्र के फैलाए झूठ को उजागर करते हैं, जिसमें कई लोग सरकार की ही तरफदारी करते हैं. क्या यह सच नहीं कि समाज का बड़ा हिस्सा इसे देखना ही नहीं चाहता ?

कोर्ट की सख्त टिप्पणी के बाद भी नूपुर को गिरफ्तार क्यों नहीं किया गया ? इस सवाल को कभी पूछ कर देखिएगा, आपके भीतर डर का कोहरा छा जाएगा. उल्टा कोर्ट की टिप्पणी पर ही असंवैधानिक टिप्पणियां खुल कर की गईं. कुछ ऐसी कि हम रिपोर्ट तक नहीं कर सकते. पता चलता है कि इस इकोसिस्टम का क्लाउट कितना बड़ा है. इन्हें अदालत की अवमानना तक का भय नहीं है.

जस्टिस पार्दीवाला जिस तरफ इशारा कर रहे हैं, उसकी ताकत बहुत बड़ी हो चुकी है. वह अपने आप में किसी अदालत से कम नहीं. इस सिस्टम के ज़रिए बची-खुची पत्रकारिता पर हर दिन हमला होता है, हर दिन दमन के एक नए प्रहार के साथ पत्रकारिता सिमटती जा रही है. तथ्यों को खोज लाने वाले पत्रकारों की कोई सुरक्षा नहीं रही. समाज ने भी उन्हें मारे जाने के लिए अकेला छोड़ दिया है.

ऐसे तो इस देश में हज़ारों पत्रकार हैं, लेकिन यहां प्रेस क्लब में हर बार की तरह यही चंद पत्रकार हैं, जो हर दमन का विरोध करने जमा होते हैं. प्रेस क्लब आफ इंडिया के अध्यक्ष उमाकांत लखेड़ा और द वायर के संस्थापक सिद्धार्थ वरदराजन, टी एन नाइनन आपको दिख ही जाएंगे. इंडिन विमेन प्रेस कोर की प्रेसिडेंट शोभना जैन भी हैं. फोटोग्राफर एसोसिएशन के संदीप शंकर हैं. दिल्ली यूनियन आफ जर्नलिस्ट, वर्किंग न्यूज़ कैमरामैन एसोसिएशन के प्रतिनिधि भी शामिल थे. हर विरोध प्रदर्शन में आने वाले एस. के. पांडे हैं.

इस सभा में जमा हुए पत्रकारों की उम्र देखिए, कुछ और अंदाज़ा होगा. 2014 के बाद प्रेस क्लब इंडिया में पत्रकारिता पर हमले के ख़िलाफ़ कई बार धरना प्रदर्शन हुआ. शुरू में काफी पत्रकार आते थे, धीरे-धीरे कम होने लग गए हैं. क्या पत्रकार भी निराश हो गए हैं या उन संस्थानों की निगरानी बढ़ गई है जहां काम करते हैं ?

हो सकता है काम में व्यस्त होने के कारण दिन के वक्त आना संभव न हो लेकिन क्या हम दावे के साथ कह सकते हैं कि यही कारण होगा ? जिन पत्रकारों ने इस निराशा को तोड़ा है, उनमें से भले ही कई पूर्व पत्रकार या वरिष्ठ पत्रकार हों या किसी बड़े संस्थान में काम न करते हों, क्या उनका यहां आना उस निराशा को नहीं तोड़ता है कि कुछ लोग अब भी आवाज़ उठा रहे हैं !

मोहम्मद ज़ुबैर और स्वतंत्र पत्रकारों के दमन का विरोध करते हैं. 300 से अधिक पत्रकारों को PIB की मान्यता न दिए जाने का सवाल उठाया गया. कश्मीर की पत्रकार सना मट्टू को पेरिस जाने से मना करने की घटना की भी निंदा की गई. कहा गया कि सरकार पत्रकारों को चुन चुन कर निशाना बनाना बंद करे. यह जानते हुए भी कि पत्रकारों के हित की यह ख़बर बहुत जगहों पर नहीं छपेगी, तमाम चैनल नहीं दिखाएंगे.

ऑल्ट न्यूज़ और प्रतीक सिन्हा ने झूठ को उजागर करने का शानदार काम किया है. यह काम उन संस्थानों को करना चाहिए था, जिसे हम लाखों करोड़ों की मीडिया इंडस्ट्री कहते हैं. पर वो ऐसा काम करते तो उनकी हालत मोहम्मद ज़ुबैर की तरह होती. कहने वाले तो यहां तक कहते हैं कि विज्ञापन बंद हो जाते और मालिक जेल में होते.

2014 के बाद से मीडिया संस्थानों से निकाले गए और पत्रकारिता करने के लिए बेचैन कुछ युवाओं ने लोगों से आर्थिक मदद मांगी. लोगों ने दिल खोल कर तो नहीं मगर पैसा ज़रूर दिया ताकि भारतवर्ष में पत्रकारिता ज़िंदा रहे. किसी को इस बात के लिए शर्मिंदा न होना पड़े कि विश्व गुरु के आंगन में सरकार के झूठ को उजागर करने वाला, सरकार से सवाल करने वाला कोई पत्रकार नहीं बचा है. अब आर्थिक मदद करने वाले थोड़े बहुत जो भी लोग हैं, वे भी डर जाएंगे. आज आल्ट न्यूज़ ने एक बयान जारी किया है.

आल्ट न्यूज़ और इसके पैतृक संगठन प्रावदा मीडिया फाउंडेशन के खिलाफ कई तरह के आरोप लगाए जा रहे हैं. आरोपों में यह दावा किया जा रहा है कि हमें उन विदेशी सोर्स से चंदे मिले हैं, जिनसे हम चंदा नहीं ले सकते हैं. ये आरोप पूरी तरह से झूठे हैं. हम जिस पेमेंट प्लेटफार्म से चंदा लेते हैं, वह विदेशी सोर्स से चंदा लेता ही नहीं है. हमें केवल भारतीय बैंकों के खाते से चंदे मिले हैं. इससे जो भी पैसा जमा होता है, संगठन के खाते में जमा होता है.

यह आरोप लगाया गया है कि संगठन से जुड़े कुछ व्यक्तियों को निजी खातों में पैसे मिले हैं, पूरी तरह से झूठा है. क्योंकि जो भी व्यक्ति है, उसे केवल महीने का वेतन मिलता है. यह सब इसलिए फैलाया जा रहा है ताकि हम जो संवेदनशील काम करते हैं, उसे बंद किया जा सके. हम आल्ट न्यूज़ को बंद किए जाने के सभी प्रयासों का मुकाबला करेंगे और सफल भी होंगे.

27 जून का इंडियन एक्सप्रेस बहुत लोग नहीं देख सके होंगे. अखबार के पहले पन्ने पर दो ख़बरें छपी हैं. एक तरफ ज़ुबेर की गिरफ्तारी की खबर छपी है. ठीक बगल में ठहाका लगाते प्रधानमंत्री मोदी, अमरीका के राष्ट्रपति जो बाइडन और कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रुडो की तस्वीर छपी है. पहली खबर है कि 2018 के ट्वीट के लिए ज़ुबैर को 2022 में गिरफ्तार किया गया है. बगल में खबर छपी है कि भारत सहित 12 देशों और यूरोपीय संघ ने डेमोक्रेसी स्टेटमेंट पर दस्तखत किए हैं. इन मुल्कों ने वादा किया है कि वे आन लाइन और आफ लाइन फ्रीडम आफ स्पीच की रक्षा करेंगे.

बयान में लिखा है कि हस्ताक्षर करने वाले देश स्वतंत्र और निर्भीक मीडिया के माहौल को बनाएंगे. इस काम में एक दूसरे की मदद करेंगे. हैं न कमाल ! उसी दिन आनलाइन पोस्ट के कारण ज़ुबैर की गिरफ्तारी की खबर छपी है जो हर दिन सरकारों के झूठ का पर्दाफाश करते हैं, नफरती भाषणों को उजागर करते हैं और समाज और प्रशासन को सतर्क करते हैं. वही आदमी नफरती भावना भड़काने के आरोप में जेल में बंद है, जो लोगों को इससे सतर्क कर रहा था.

आन लाइन की दुनिया अब सरकारों की दुनिया है. यह उसकी दुनिया है जिसके पास ताकत है. संसाधन हैं. बड़े वकील हैं. यहां फ्रीडम आफ स्पीच की रक्षा का मतलब यह नहीं कि आम आदमी की अभिव्यक्ति की रक्षा है बल्कि सरकार की हर झूठी स्पीच की रक्षा है. कोई अगर सरकार से सवाल करता है तो उसकी रक्षा में सरकार नहीं है.

जब सोशल मीडिया अपना जाल फैला रहा था, तब यह भ्रम पैदा कर रहा था कि दुनिया भर में लोकतंत्र को मज़बूत किया जा रहा है. हर तरह की आवाज़ों को प्लेटफार्म दिया जा रहा है. दरअसल एक जाल फेंका जा रहा था, जिसमें सरकार से अलग आवाज़ वाले सामने आ जाएं ताकि उन्हें खोजना आसान हो जाए, उन्हें फंसा कर बंद करना आसान हो जाए. यह काम करीब करीब पूरा हो चुका है. सरकार के साथ खड़े गोदी मीडिया की आलोचना भी असंभव होती जाएगी. गोदी मीडिया के कंटेंट को लेकर वायरल करना आसान नहीं रहेगा.

पीइंग ह्यूमन और क्रूरदर्शन ने गोदी ऐंकरों के वीडियो को लेकर दस्तावेज बनाना शुरू कर दिया था, जिससे जनता को पता चलने लगा था कि ये ऐंकर क्या करते हैं. लेकिन आज इसने ट्विट किया है कि वह अपने सारे वीडियो डिलिट कर रहा है क्योंकि उसे नोटिस आए हैं. कई कारणों में यह भी कारण होगा कि गोदी चैनलों की तरफ से ही यह कार्रवाई की गई होगी ताकि उनके वीडियो को लेकर कोई जनता के बीच यह उजागर न कर सके कि क्या खेल चल रहा है. क्रूर दर्शन ने इस रिसर्च की परंपरा शुरू की कि इन चैनलों के डिबेट में कितनी बहसें धार्मिक मुद्दों को लेकर होती हैं और बेरोज़गारी और महंगाई जैसे ज़रूरी मुद्दों पर नाम भर के लिए भी बहस नहीं होती हैं.

क्रूरदर्शन का मामला साफ संकेत करता है कि न्यूज़ चैनल पत्रकारिता करके अपनी छवि नहीं बनाना चाहते. उन्हें अब इसकी ज़रूरत नहीं है. सारी कोशिश इस पर है कि कोई जनता को यह न बताए कि कई न्यूज़ चैनल पत्रकारिता नहीं करते हैं. यह सच्चाई कई देशों की है. इस भ्रम में न रहें कि केवल भारत में ऐसा होता है. स्नोडन के मामले में जो बाइडन की सरकार क्या कर रही है, उसे भी देखना चाहिए. यह साल भारत में पत्रकारिता का दो सौंवा साल है. दो सदी का अनुभव हासिल करने के बाद पी. साईंनाथ जैसे पत्रकार को कहना पड़ता है.

आज पत्रकारिता के दो ही स्कूल हैं – एक पत्रकारिता है और दूसरा स्टेनोग्राफी. स्टेनोग्राफी पत्रकारिता का मीडिया पर राज है. जिसमें बहुत सारे पत्रकार सत्ता के सामने टाइप करने वाले बनकर रह गए हैं. अच्छी पत्रकारिता बची रहने के लिए संघर्ष कर रही है. एक कविता ही सुन लीजिए, अगर पत्रकारिता की मौत से आपको कोई फर्क नहीं पड़ता है तो. 1940 के दशक की कविता है. इसके रचनाकार के बारे में हमें नहीं पता मगर यह कविता कई जगहों पर मिल जाती है. इसका हिन्दी अनुवाद कुछ इस तरह है –

दिन के बीचों बीच एक अंधेरी रात में,
दो मरे हुए लड़के बाहर खेलने आए
पीठ से पीठ लगाकर वे आमने-सामने खड़े हो गए.
तलवार निकाल ली,और एक दूसरे पर गोली चला दी.
एक बहरे पुलिस अफसर ने जब यह आवाज़ सुनी
वह अंदर आया और उसने दोनों मृत लड़कों पर गोली चला दी

मरी हुई पत्रकारिता को कोई भी मार जाएगा. इस हालात में वही मारा जाएगा जो पत्रकार है. पत्रकारिता कर रहा है. जो पत्रकारिता के नाम पर स्तुति गान गाएगा, वह राज करेगा. उसकी आवाज़ में हनक होगी. वह लोगों को हांकेगा और आप उससे हांके जाएंगे.

1824 में जब अंग्रेज़ी हुकूमत प्रेस पर अंकुश लगाने का अध्यादेश लेकर आई तब इसके विरोध में राजा राममोहन राय ने एक ड्राफ्ट तैयार कर उस पर कई लोगों के दस्तखत कराए. अंग्रेज़ी हुकूमत से अध्यादेश वापस लेने की मांग की और कहा कि यह अध्यादेश इसलिए लाया गया है ताकि लोगों को अंधेरे में रखकर सत्ता में बैठे लोग ज़्यादा से ज़्यादा मुनाफा कमा सकें.

यह तो जगजाहिर है कि निरंकुश सरकार हर तरह की अभिव्यक्ति को कुचलती है जो उसकी करतूतों को उजागर करती हैं. राजा राममोहन राय ने कहा कि सूचनाओं का स्वतंत्र प्रवाह अच्छे शासन के लिए बहुत ज़रूरी है.

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ROHIT SHARMA

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