कनक तिवारी, वरिष्ठ अधिवक्ता, उच्च न्यायालय, छत्तीसगढ़
यह सवाल देश और खुद आदिवासियों तक को लगातार परेशान किए है. इसका समाधानकारक उत्तर मिल नहीं रहा. जानबूझकर और नादानी से भी उलझनें पैदा की जाती हैं. मामला कब तक हल होगा, साफ नहीं है. अंग्रेजी हुकूमत के वक्त 1891 की जनसंख्या गणना में आदिवासियों के लिए कॉलम था ‘फॉरेस्ट ट्राइब.’ 1901 में उसे लिखा गया ‘एनीमिस्ट‘ या प्रकृतिवादी. 1911 में लिखा गया ‘ट्राइबल एनीमिस्ट.’ 1921 में लिखा गया ‘हिल ऐंड फॉरेस्ट ट्राइब.’ 1931 में लिखा गया ‘प्रिमिटिव ट्राइब.’ 1941 में लिखा गया ‘ट्राइब्स.’ आज़ादी के बाद 1951 की मर्दुमशुमारी में आदिवासी आबादी वाला कॉलम हटा दिया गया.
धर्म की पहचान हटाने की वजह से आदिवासियों की गिनती अलग अलग धर्मों में बंटती गई, उसके चलते उनके समुदाय की संख्या कम गिनी जा रही है. धर्म के लिए सिर्फ छह विकल्प दिए जाते हैं- हिंदू, मुस्लिम, ईसाई, बौद्ध, जैन, सिख. 2011 से पहले धर्म कोड में सातवां कॉलम ‘अन्य‘ शीर्षक से हुआ करता था. कई लोग उसे चुन लेते थे, उसे हटा दिया गया है. इससे नुकसान यह है कि आगे चलकर पता भी नहीं चल पाएगा कि देश में आदिवासियों की वास्तविक आबादी कितनी है ?
‘ब्रिटिश शासन काल के जनगणना (1871-1931 तक) काॅलम में आदिवासियों के लिए Aboriginal (मूलनिवासी) का विकल्प चुनने की व्यवस्था थी. फिर आदिवासियों को हिंदू या किसी अन्य धर्म में जोड़कर दिखाया जाने लगा. आरोप है कि मूलनिवासी का विकल्प हटाकर सरकार ने 1947 से ही उन्हें धार्मिक गुलाम बनाना शुरू कर दिया. आदिवासियों का कहना है कि देश में आदिवासियों में कुल 83 धार्मिक रीतिरिवाज हैं, वे राष्ट्रीय स्तर पर एक विशिष्ट धार्मिक पहचान चाहते हैं, जिससे मजबूरन किसी अन्य धर्म का दामन थामना न पड़े.
क्षेत्रीय स्तर पर मान्यताओं और सांस्कृतिक स्वरूपों में विविधता भले ही हों, लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर सभी आदिवासियों के लिए समान धार्मिक पहचान या कोड की उनकी मांग है. उन्होंने कहा हिंदू धर्म में भी तो धार्मिक रीति रिवाज या पूजा-अर्चना की विधियां एक जैसी नहीं हैं. आदिवासी प्रतिनिधियों का मानना है कि देश के विभिन्न आदिवासी समुदायों में धार्मिक रीति-रिवाज काफी हद तक एक जैसे ही होते हैं. सभी समुदाय मूलतः प्रकृति के पूजक हैं. उनके दार्शनिक विचार भी लगभग एक जैसे हैं.
लेटिन भाषा से लिए गए अंग्रेजी शब्द ‘एनिमिस्ट‘ का आशय है ‘जड़ात्मवाद‘ या ‘जीववाद.’ एनिमिस्ट प्रकृति की वस्तुओं में और गैर-इंसानी गतिविधियों या प्रतीकों में विश्वसनीयता है. उनमें वह आध्यात्मिकता महसूस करता है. धर्म और सोसाइटी से संबंधित एनसाइक्लोपीडिया का कहना है भारत में एक से लेकर पांच प्रतिशत तक आबादी एनीमिस्ट रहती ही है. भारत सरकार ने भी मंजूर किया है. हिंदू सभ्यता के आने के पहले के मूल निवासी अधिकतर प्रकृति आधारित धर्मों के सहकार के साथ रहते रहे हैं.
यह बात तर्कसिद्ध बल्कि अनुभवसिद्ध भी है कि प्रत्येक संस्कृति की अपनी एक विशेषता होती है. इस वजह से दूसरोंं से उसका अलगाव भी स्पष्ट रूप से दिखाई देता है. प्रत्येक देश में आदिवासी समाज में लगभग कमोबेश उसी रूप में अब तक पाया जाता रहा है. संगठित और नामधारित मजहब एक तरह की ‘सुपरनैचुरल‘ (पराभौतिक) सत्ता में विश्वास करते हैं. आदिवासी जो महसूसते हैं, उसे शब्द आधारित किसी भाषा में अभिव्यक्त करना या व्याकरणसम्मत भाषा में समझाने की उन्होंने कोई प्रणाली अपनी समझ में विकसित करने की जरूरत महसूस नहीं की.
मसलन झारखंड में आदिवासियों ने अपने कुदरती धर्म का नाम सरना रखा है. वह पवित्र वृक्षों या उपवनों के धर्म के रूप में समझा जाता है. झारखंड के मुंडा, हो, संथाली, खुरुक आदिवासी इस तरह के धर्म पर भरोसा और विश्वास करते हैं. पवित्र वनस्पतिज, वन-उपवन की भौतिक उपस्थिति से उपजे अहसास का नाम सरना है. इनमें कई तरह के पशु पक्षी और पौधे वगैरह शामिल हैं. गाय, मछली, मोर, हाथी, नाग, पीपल, तुलसी, नीम आदि शब्द आदिवासियों की परंपराओं से कथित आर्य-हिंदू समाज में अंतरित हुए हैं.
प्रसिद्ध मानवशास्त्री निर्मल कुमार बोस गांधीजी के निजी सचिव भी रहे हैं. 1941 में बोस ने भारतीय विज्ञान कांग्रेस के सामने शोध पत्र प्रस्तुत किया. वह आदिवासियों और हिन्दुओं के बीच तब से कथित आंतरिक रिश्ते को लेकर समझ की नई खिड़की की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है. बोस का अध्ययन ओडिशा के पाललहरा इलाके में जुआंग आदिवासियों की सामाजिक व्यावहारिकता और बदलते समीकरणों को लेकर रहा है. राष्ट्रीय फलक पर लंबे अंतराल तक फिर किसी बड़े शोध प्रबंध या शोध प्रणाली को विकसित नहीं समझा गया.
बोस की थ्योरी है कि आदिवासी हिन्दुओं के दिन प्रतिदिन संपर्क में रहे हैं. इस प्रक्रिया में वे क्रमश: अपनी आदिवासी पहचान और अस्मिता भूलते गए. सवर्ण हिन्दू भले ही उन्हें वर्णाश्रम पद्धति को सिर माथे लादे शूद्रों अर्थात दलितों आदि के समकक्ष कथित नीची जातियों के साथ रखते हैं. बोस के शोध पत्र को मानवशास्त्र के पाठ्यक्रमों में सम्मिलित करते उस अकादेमिक क्षेत्र में मील के पत्थर की तरह प्रशंसा और मान्यता दे दी गई है.
तारकचंद्र दास की वैज्ञानिक खोज
गांधी के सचिव निर्मल कुमार बोस की थ्योरी में कई खामियां रही हैं. यह जांचने की कोशिश नहीं की गई कि कथित उच्चवर्णवाद बल्कि ब्राह्मणवाद को जब आदिवासी सामाजिकता पर श्रेष्ठता का अहंकार लिए लाद दिया गया तो आदिवासियों की क्या प्रतिक्रिया रही होगी. आदिवासियों के कई धड़ों ने निश्चित तौर पर इस तरह के उच्चवर्णीय हिन्दूवाद की मुखालफत तो की होगी, लेकिन उस संबंध में व्यापक अध्ययन मानवशास्त्रियों ने नहीं करते हुए हिन्दू श्रेष्ठता के पक्ष में अपनी तयशुदा अवधारणाओं को इतिहास की प्रासंगिकता के लिए लिख दिया.
कहीं कहीं अतिरेकी उत्साह के साथ लिखा गया है कि कथित निचली जातियां अपने से श्रेष्ठ द्विज जातियों की नकल करती आई हैं. उनमें एक तरह का खालीपन कुंठा के साथ उन्हें उकसाता है कि वे भी उच्च वर्ण की तरह बेहतर नस्ल की जिंदगी जिएं. इस सिद्धांत को संस्कृतीकरण का नाम दिया गया. यह भी विश्वविद्यालयों में मानवशास्त्र तथा समाजशास्त्र के पाठ्यक्रमों के आधारभूत सिद्धांतों की तरह पढ़ाया जाता है.
इसका श्रेय एम. एन. श्रीनिवास को दिया जाता है जो निर्मल बोस के दृष्टिकोण के समर्थक रहे हैं. यह भी तथ्य है कि आज़ादी के पहले और बाद में पश्चिमी अध्ययनशील शोधकर्ता भारत आते जाते रहे. उन्होंने भी हिन्दू धर्म के पुख्ता फैलाव की परिधि के अंदर रहते हुए ही आदिवासियों के समाजविज्ञान और मनोविज्ञान को जांचने की कोशिश की. उनमें से कई मैदानी सतह पर जाकर खोज करने से बचते हुए अकादेमिक नस्ल की पुनरावृत्ति करते मानवशास्त्र और समाजशास्त्र के इतिहास में प्रतिष्ठित भी हो चुके हैं हालांकि कई अपवाद भी हैं.
नई चिंताओं से लबरेज खोजों के कारण एक प्रसिद्ध मानवशास्त्री और निर्मल बोस के समकालीन तारकचंद्र दास (1898-1964) उभरकर प्रतिष्ठित हो गए हैं. उन्होंने बोस के बरक्स अपनी समझ की तात्विकता को बेहतर, वैज्ञानिक और सेक्युलर आधारों पर जांचते हुए लगभग उलट या अलग निष्कर्ष निकाले. तारकचंद्र दास ने बोस के शोधपत्र ‘हिन्दू मेथड आफ ट्राइबल एब्साॅर्प्शन‘ के बरक्स अपने कई शोध पत्र प्रकाशित किए.
अजीब और दुर्भाग्यपूर्ण है कि तारकचंद्र दास के खोजों को वह प्रसिद्धि और प्रचार नहीं मिला जिसके वे हकदार रहे हैं. उन्होंने छोटा नागपुर की हो, खरिया और भूमिज जनजातियों पर शोध प्रबंध किए. उन्होंने भी 1941 में महत्वपूर्ण शोध पत्र प्रस्तुत किया था, जिसका शीर्षक था ‘कल्चरल एंथ्रोपोलाॅजी इन द सर्विस आफ द इंडिविजुअल एंड द नेशन.’ वह भी एक तरह से भुला दिया गया है.
तारकदास ने जोर दिया कि कई आदिवासियों ने हिन्दू धर्म के बढ़ते प्रभाव के बावजूद आदिवासी नस्लीय पहचान को जीवित रखा. तारकदास की खोजें मैदानी अध्ययन की हकीकतों पर ज़्यादा निर्भर रही हैं. उन्होंने यह भी कहा ‘जनजातियों का आज़ादी पसंद तबका ब्रिटिश वर्चस्व और हिन्दू संस्कृति के आगे बढ़ते कदमों के सामने झुकने की बजाय पीछे हट गया और उसने पहाड़ों की कंदराओं और साल के जंगलों में शरण ली. उसने अपने समाज और संस्कृति की रक्षा के लिए सामाजिक वर्जनाओं की दीवारें खड़ी कर लीं.’
उन्होंने यह भी माना कि इससे हिन्दू धर्म के प्रभाव में कमी आई. कई जातियों और उत्तरपूर्व की जनजातियों में अब भी विवाह एक सामाजिक करार है न कि एक ऐसा पवित्र बंधन जिसे तोड़ा नहीं जा सकता था और जिसके अंतर्गत पति अपनी पत्नी और उसकी संपत्ति का मालिक बन जाता है. वे कहते हैं – खरिया जाति के आदिवासी हिन्दू धर्म के प्रभाव से पूरी तरह मुक्त रहे हैं. इस तरह यह अवधारणा कि आदिवासी हिन्दू धर्म से इस कदर प्रभावित और आच्छादित रहे हैं कि उनके हिन्दूकरण पर कोई सवाल नहीं उठाए जा सकते, का तार्किक द्वैध रचने से स्वीकार्य थ्योरी नहीं मानी जा सकती.
भारतीय मानवशास्त्रीय विद्वानों ने आदिवासियों और हिंदुओं की जातिप्रथा के बीच अन्योन्यक्रिया का काफ़ी अध्ययन किया है. बी. के. राॅय बर्मन, एल. पी. विद्यार्थी और वेरियर एल्विन जैसे अध्येताओं ने जनजातीय समूहों को चार या पांच भागों में अपने अपने हिसाब से वर्गीकृत किया है. इनमें ऐसे आदिवासियों की श्रेणियां भी शामिल हैं जिनका हिंदू समाज में पूरी तरह से विनियोग किया जा चुका है, या जो हिंदू समाज के प्रति सकारात्मक रुख रखते हैं, या जो ग्रामीण इलाक़ों में रहते हैं और जिनका पूरा या आधा रूपांतरण हो चुका है, या जो मैदानी समाज के सम्पर्क में भी हैं और जिन्होंने अपना आदिवासीपन नहीं छोड़ा है, या जिनका हिंदू समाज के निचले पायदान में विनियोग कर लिया गया है, या जो पूरी तरह से हिंदू हो चुके हैं. जाहिर है कि इनमें ऐसे आदिवासियों की श्रेणियां भी शामिल हैं जो हिंदू बनने के लिए तैयार नहीं हैं और हिंदू समाज के प्रति नकारात्मक रुख रखते हैं.
इस मानवशास्त्रीय विद्वत्ता की आदिवासी विद्वानों की तरफ़ से आलोचना भी की गयी है. पर यह आलोचना भी मानती है कि ‘सैद्धांतिक रूप से यह सम्भव है कि हिंदू धर्म का एक रूप और उसके संस्कार ग्रहण कर लिए जाएं, और जाति के अर्थों में हिंदू समाज का अंग भी न बना जाए. फिर भी तारकचंद्र दास की स्थापनाओं का वैज्ञानिक अनुपालन और खंडन अभी तक हुआ नहीं लगता है.
द्रौपदी मुर्मूजी ! यह इतिहास पढ़िए
महत्वपूर्ण है कि आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा ने संविधान सभा में 24 अगस्त 1949 को अनुच्छेद 292 पर सार्थक बहस करते हुए याद दिलाया था कि खुद अध्यक्ष डाॅ. राजेन्द्र प्रसाद ने रामगढ़ कांग्रेस की स्वागत समिति के सभापति की हैसियत में कहा था कि इस इलाके के निवासी ज्यादातर वे लोग हैं जो भारत के आदिवासी कहे जाते हैं. उनकी सभ्यता अन्य लोगों की सभ्यता से बहुत अलग भी है. पुरानी वस्तुओं की खोज से यह सिद्ध हुआ है कि यह सभ्यता बहुत प्राचीन है.
आदिवासियों का वंश (आस्ट्रिक) आर्य वंश से अलहदा है. हालांकि जयपाल सिंह ने माना कि भारत के कुछ भागों में अंतरजातीय रक्तसंबंध हुए हैं, नतीजतन कई आदिवासी हिन्दू संप्रदाय में शामिल हो गए हैं लेकिन कुछ भागों में ऐसा नहीं भी हुआ है. पुराने और नये लोगों में संघर्ष भी हुआ है. आर्यों के गिरोह देश में आए तो उनका स्वागत नहीं हुआ. वे हमलावर थे. उन्होंने आदिवासियों को दूर जंगलों में खदेड़ दिया. जयपाल सिंह ने कहा नतीजतन आज भी असम, छत्तीसगढ़, ओडिशा और बिहार से निकाले हुए करीब दस लाख लोग एक जगह से दूसरी जगह भटकते फिर रहे हैं.
जयपाल सिंह को खारिज करते गांधी के चहेते ठक्कर बापा ने कहा कि ओडिशा में ब्राह्मणों का एक वर्ग अपने को आरण्यक अर्थात वन ब्राह्मण कहता है. उन्होंने कहा आदिवासी और गैर-आदिवासी के बीच फर्क करने से पैदा हुई मुसीबतों से मुल्क को बचाया जाना चाहिए. यह भी कि आर्य या वन ब्राह्मण जैसे वर्ग भी यही कोशिश करें कि आदिवासियों में भी उनका शुमार किया जाए.
लक्ष्मीनारायण साहू ने कहा कि पहले भी कई आदिवासी हिन्दू हो गए हैं. एबओरिजिनल्स के कुछ रीति-रिवाज हिन्दुओं में आ गए हैं. हिन्दुओं के कुछ अच्छे रीति-रिवाज आदिवासियों के भीतर आ गए हैं. यह इतिहाससम्मत तथ्य है कि देश में वर्षों से आदिवासी हजारों वर्षों से कथित मुख्यधारा के नागरिक जीवन से कटकर वन क्षेत्रों में अपनी संस्कृति, परंपरा, स्थानिकता, सामूहिकता और पारस्परिकता के साथ जीवनयापन करते रहे हैं. सदियों से चली आ रही आदिवासी जीवन पद्धति की उपेक्षा करते हुए उसमें हस्तक्षेप करने का स्वयमेव अधिकार ले लेना संविधान के मकसदों से मेल नहीं खाता.
हिन्दू विवाह अधिनियम 1955 की धारा 2 के अनुसार अधिनियम इन पर लागू होगा-
(क) किसी व्यक्ति को, जो वीरशैव, लिंगायत, ब्राह्य, प्रार्थना या आर्य-समाज अनुयायियों सहित हिन्दू धर्म के रूपों या विकल्पों में से किसी के नाते धर्म से हिन्दू हैं;
(ख) ऐसे किसी व्यक्ति को जो कि धर्म से बौद्ध, जैन या सिक्ख हैं, और
(2) उप-धारा (1) में किसी भी बात के अन्तर्विष्ट होते हुए भी इस अधिनियम में अन्तर्विष्ट कोई भी बात संविधान के अनुच्छेद 366 के खण्ड (25) के अर्थों के अन्दर किसी अनुसूचित आदिम जाति के सदस्यों को तब तक लागू नहीं होगी जब तक कि केन्द्रीय सरकार राजकीय गजट में, अधिसूचना द्वारा, अन्यथा निर्दिष्ट न करे.
(3) इस अधिनियम के किसी भाग से हिन्दू पद का ऐसे अर्थ लगाया जायगा मानो इसके अन्तर्गत ऐसा व्यक्ति शामिल है जो कि यद्यपि धर्म से हिन्दू नहीं है तथापि ऐसा व्यक्ति है जिसे कि यह अधिनियम इस धारा से अन्तर्विष्ट उपबन्धों के प्रभाव से लागू होता है.
यही कानूनी स्थिति हिन्दू दत्तक तथा भरण-पोषण अधिनियम, 1956, तथा हिन्दू अप्राप्तवयता और संरक्षकता अधिनियम, 1956 और हिन्दू उत्तराधिकार अधिनियम, 1956 के लिए भी है.
एक सवाल उत्तेजक और विवादास्पद है. आदिवासी असल में हिन्दू हैं या उनका हिन्दूकरण करने की कोशिशे लंबे अरसे से की जाती रही हैं. समाजशास्त्र, इतिहास और नृतत्वशास्त्र के कई विद्वानों की अकादेमिक मान्यताओं के अलावा सांस्कृतिक राष्ट्रवाद की स्वयंभू संस्थाएं मसलन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसकी आनुषंगिक शाखाएं वर्षों से छोटी बड़ी समाजसेवी और शैक्षणिक संस्थाओं के जरिए आदिवासियों को ‘वनवासी‘ कहतीं उन्हें अपनी गढ़ी परिभाषा की गिरफ्त में लेकर हिन्दू धर्म बल्कि हिन्दुत्व का शामिल शरीक अंग करार दे रही हैं.
अंगरेजी हुकूमत तथा उसके जाने के भी वर्षों पहले तक आदिवासी को हिन्दू धर्म में शामिल करने की इतनी सघन तकरीरें और तदबीरें सामाजिक अवलोकन के सघन फोकस में दिखाई नहीं पड़ती रही. यह भी नहीं है कि आदिवासियों और कबाइली लोगों को लेकर नृतत्वशास्त्रीय गम्भीर अध्ययन की परिपाटी नहीं रही. अंगरेजी शब्द ‘इन्डिजिनस‘ के हिन्दी समानार्थी शब्द ‘आदिवासी‘ की व्याख्या करते दुनिया में विपुल साहित्य और गम्भीर लेखन उपलब्ध है. भारत में आदिवासियों का एक बड़ा धड़ा आज खुद को हिन्दू कहलाने से परहेज करता है. इसके बरक्स कई आदिवासी हिन्दू मान्यताओं, प्रथाओं और परंपराओं में शामिल शरीक होते भी रहे हैं. वे इसे नया जातीय प्रोजेक्षन जैसा मानकर उससे अनुकूल होने का जतन भी करते रहते हैं.
झारखंड की विदुषी रमणिका गुप्ता की याद
इस सिलसिले में आदिवासियों के लिए पूरे जीवन प्रखर, विदुषी, ईमानदार और समाजचेता बुद्धिजीवी झारखंड निवासी रमणिका गुप्ता ने बहुत महत्वपूर्ण प्रतिमान स्थापित किए हैं. उनका कहना है –
‘आज आदिवासी जमात को सबसे बड़ा खतरा है, उसकी पहचान मिटने का. साजिश योजनाबद्ध तरीके से रची जा रही है. किसी भी जमात, जाति, नस्ल, कबीले या देश को मिटाना हो तो उसकी पहचान मिटाने का काम सबसे पहले शुरू किया जाता है. भारत में यह काम आज हिंदुत्ववादियों ने शुरू कर दिया है. ‘आदिवासी‘ की पहचान और नाम छीनकर उसे ‘वनवासी‘ घोषित किया जा रहा है ताकि वह यह बात भूल जाए कि वह इस देश का मूल निवासी यानी आदिवासी है. वह भूल जाए अपनी संस्कृति और अपनी भाषा. आदिवासी का अपना धर्म ‘सरना‘ प्रकृति का धर्म है. वह पेड़ों और अपने पूर्वजों की पूजा करता है…उसके भगवान या देवता की जड़ें धरती में हैं. आदिवासी अपने आपको हिन्दू नहीं कहता और अपनी पहचान अपने धर्म से नहीं बल्कि ‘तुम कौन हो ?’ पूछे जाने पर कहता है ‘मैं आदिवासी हूं.’ … वह औरों की तरह हिन्दू मुसलमान या ईसाई कहकर अपना परिचय नहीं देता. सोची समझी चाल के तहत उसका हिन्दूकरण किया जा रहा है. उसे हिन्दुओं के देवताओं से जोड़ा जा रहा है. उसका रिश्ता राम से जोड़ा जा रहा है तो कहीं शिव से. उसे अपने ही आदिवासी भाइयों के खिलाफ भड़काया जा रहा है, जो बहुसंख्यक वर्चस्ववादी हिन्दुओं के जातीय भेदभाव भरे व्यवहार से तंग आकर धर्म परिवर्तन कर चुके थे.
ओडिशा में यह लगातार जारी है. मध्यप्रदेश और झारखंड में ‘घर वापसी’ के अभियान चलाए जाते हैं, मानो पहले वह हिन्दू रहा हो और बाद में रूठकर आदिवासी सरना या ईसाई बन गया हो और अब फिर हिन्दू बन रहा हो. उसे नहीं बताया जा रहा कि इस ‘घर वापसी‘ के बाद जातियों में विभाजित हिन्दू समाज के सबसे निचले दर्जे पर उसे दाखिला दिया जा रहा है. उसे सेवकों की जाति में रखा जाएगा, शासकों की जाति ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों में नहीं. उसका नाम और मूल धर्म छीनकर, हिन्दू समाज की जमात की सीढ़ी के सबसे निचली पायदान पर बैठाया जा रहा हैै.’ (साभारः युद्धरत आम आदमी, विशेषांक 2002, सम्पादकीय)
अपनी किताब ‘हिन्दू एकता बनाम ज्ञान की राजनीति‘ में समाजचेता‘ वैज्ञानिक वृत्ति के दुर्लभ लेखक और शोधकर्ता अभयकुमार दुबे आदिवासियों के हिन्दूकरण के संबंध में तर्क करते हैं –
‘अनुसूचित जातियों के हिंदुत्व के दायरे में अंतर्वेशन की प्रक्रिया के कुछ पहलुओं पर विचार करने के बाद अनुसूचित जनजातियों या आदिवासियों को हिंदुत्ववादी दायरे में लाने की संघ के प्रयासों की समीक्षा भी आवश्यक है. सवाल यह है कि क्या संघ के लिए यह काम पूर्व-अछूतों को अपने झण्डे तले लाने की कोशिशों से भी अधिक मुश्किल था ?
आखिरकार आदिवासी उस तरह से हिंदू समाज की निकटता में नहीं रहे जिस तरह से अंत्यज समाज छुआछूत की वजह से अलग थलग रहने के बावजूद द्विज और शूद्र समाज की निकटता में रहता रहा है. प्रचलित समझ यह है कि आदिवासी तो ‘हिंदू संस्कृति‘ से अलग थलग पर्वतों और जंगलों में हिंदू देवी देवताओं और कर्मकाण्डों से कटे हुए उस दुनिया में रहते रहे हैं, जो सिंहबोंगा या मरांग बुरू और पवित्र टोटमों का संसार है. आदिवासियों को गोमांस खाने में भी कोई परहेज़ नहीं रहा है.
इसीलिए संघ विरोधी विमर्श में यह दावा बड़े जोश के साथ किया जाता है कि आदिवासी हिंदू नहीं हैं. वे ब्राह्मणवाद के तहत जातिप्रथा को नहीं मानते और उनमें भक्ति तत्व ही नहीं है. इसमें कोई शक नहीं कि इन दावों में बड़ी हद तक सच्चाई भी है, लेकिन ये दावे कुछ इस तरह से किये जाते हैं मानो सदियों से हिंदू समाज और आदिवासी समाज दो अलग अलग खानों में एक दूसरे से अपरिचित बने रहे हों. असल में इस तरह की एकतरफा बातें आदिवासियों के हिन्दू जीवन के साथ अन्योन्यक्रिया की विद्वतापूर्ण समझ से आंख मूंदकर ही की जाती हैं.’
2011 की जनगणना के मुताबिक भारत में आदिवासियों की संख्या 10,42,81,034 अर्थात देश की कुल आबादी का 8.6 प्रतिशत है. सांसद रामदयाल मुंडा ने इसीलिए ‘आदि धर्म’ की वकालत की थी. भारतीय ट्राइबल पार्टी के मुखिया छोटूभाई वासवा कहते हैं –
‘आदिवासियों के लिए आदिवासी धर्म ही कॉलम होना चाहिए. सरना, भील, गोंड या फिर मुंडा नहीं ये भी कहते हैं कि हिंदू नाम का कोई धर्म नहीं है. संघ वाले हिंदू शब्द को स्थापित करना चाहते हैं. यह तो वास्तव में सनातन धर्म है.’ उनके अनुसार ‘जब तक बाहरी लोग आदिवासी क्षेत्र में नहीं आए थे, जन्म से लेकर मृत्यु तक आदिवासी संस्कृति थी. भारत का असली इतिहास तो आदिवासियों से शुरू होता है.
क्या है हिन्दू ? आदिवासी हिन्दू क्यों नहीं हैं ?
आदिवासियों की सांगठनिक तौर पर धर्मांतरण की शुरुआत आरएसएस और ईसाई मिशनरियों से पहले डॉ. राजेंद्र प्रसाद और कांग्रेस के हरिजन सेवक संघ के ठक्कर बापा की एक पहल से हुई थी. लेखक अश्विनी पंकज ने किताब ‘मरंग गोमके जयपाल सिंह मुंडा’ के पेज नंबर 68 में इसका जिक्र किया है. किताब में लिखा है –
‘जयपाल सिंह मुंडा की बनाई आदिवासी महासभा को लाखों आदिवासियों ने अपना समर्थन दिया. 1939 में उन्हें कमजोर करने के लिए ठक्कर बापा ने राजेंद्र प्रसाद के कहने पर आदिम जाति सेवक मंडल बनाया, जिसने आदिवासियों के बीच हिंदूकरण की प्रक्रिया की सांगठनिक और राज्य प्रयोजित शुरुआत की.’
केंद्रीय जनजातीय कार्य मंत्रालय के मुताबिक देश के 30 राज्यों में कुल 705 जनजातियां रहती हैं. झारखंड के पहले मुख्यमंत्री और बाद में बीजेपी में गए बाबूलाल मरांडी कहते हैं –
‘जिसकी जो इच्छा हो वह उस धर्म को माने. संविधान और भारत का विचार दर्शन भी यही कहता है. इसी को हिंदू और हिन्दुत्व विचारधारा कहते हैं. सरना धर्मकोड पर उन्होंने गोल-मोल जवाब देते हुए कहा कि अगर मांग हो रही है तो उस पर विचार होना चाहिए लेकिन इसके लिए क्या-क्या अहर्ताएं होती हैं, मुझे नहीं मालूम.’
देश के सभी आदिवास एकजुट हैं कि 2021 में होने वाली जनगणना से पहले उन्हें सातवें नंबर के कॉलम में अलग धर्म कोड मिलना चाहिए. धर्म कोड विकल्प नहीं होने पर उन्हें हिंदू धर्म चुनने कहा जाता है. आदिवासी रिसर्जेंस के फाउंडर एडिटर और स्वतंत्र शोधकर्ता आकाश पोयाम कहते हैं –
‘ब्रिटिश दौर में हुई जनगणना में आदिवासियों को ‘एनिमिस्ट’ (Animism — जीववाद) की श्रेणी में रखा गया था. 1941 में जनगणना के वक्त नृतत्वशास्त्री वेरियर एलविन, भारत सरकार के सलाहकार थे, उन्होंने बस्तर के मारिया आदिवासियों पर अध्ययन करके सलाह दी कि ये शैववाद के निकट हैं, जो हिंदू धर्म का हिस्सा है इसलिए उन्हें हिंदू धर्म के तहत रखा जाना चाहिए. उसके बाद से आदिवासियों को (जो ईसाई नहीं बने थे) हिंदू धर्म में गिना जाने लगा.’
गोंडवाना महासभा ने 1950 से पहले से ही आदिवासियों के लिए अपने धर्म की मांग शुरू की थी, तभी से गोंडी धर्म की मांग होने लगी थी लेकिन उसे मान्यता नहीं मिली. आरएसएस आदिवासियों को वनवासी कहता है, यह तर्क आदिवासी मानने तैयार नहीं हैं. इसी वजह से हिंदुओं की आबादी में कुछ प्रतिशत की बढ़ोतरी हो गई और वोट बैंक में भी. कई आदिवासी भी खुद को हिंदू बताने लगे हैं क्योंकि उनसे 1950 से लगातार यही कहा जाता रहा है कि हिंदू हो, इस वजह से आज की पीढ़ियां खुद को हिंदू मानने लगी हैं जबकि उनके रीति रिवाजों का हिंदू धर्म से कोई रिश्ता नाता नहीं है.
एक युवा शोधकर्ता के अनुसार समाजशास्त्रीय स्थापनाएं दो प्रकार की विपरीत मान्यताओं की हैं. उनका कहना है निर्मल कुमार बोस के अनुसार जनजातियों को अपने जातीय समूह में मिलाने की पद्धति को ‘हिन्दू पद्धति‘ कहते हैं. उनका तर्क है जनजातियों के हिन्दू जातियों से नजदीकी संबंध रहे हैं. जनजातियों का हिन्दू जातियों में बदलाव या शामिल होना होता रहता था. बी. बी. कोसांबी उसे व्यापक भारतीय समाज के प्रसार के रूप में कहते हैं. गोविन्द सदाशिव धुर्वेे जनजातियों को एक जाति प्रकार मानने की बजाय ‘पिछड़े हिन्दुओं’ की संज्ञा देते हैं.
इसके ठीक उलट आदिवासी अकादेमिक वर्जीनियस खाखा मानते हैं कि जनजातियों को हिन्दू नहीं कहा जा सकता. उनका तर्क है जनजातियां प्राकृतिक धर्म मानती थी. भले ही उसके कुछ तत्व हिन्दू धर्म के तत्वों के सामंजस्य में या समानान्तर भी लगें. उनका कहना है आदिवासियों के कई जनजातीय आचरण और व्यवहार अमेरिका और अफ्रीका की जनजातियों के व्यवहारों से काफी मिलते जुलते हैं.
गोविन्द सदाशिव धुर्वे के विचारों से लाभ उठाते दक्षिणपंथियों ने आदिवासियों को हिन्दू धर्म का हिस्सा करार दिया है. खाखा यह आपत्ति भी करते हैं कि गैर-जनजातीय समाजों से तुलना करते हुए आदिवासियों का जातियों के खांचे में ढालकर सामाजिक निर्धारण किया जाता है, वह एक अवैज्ञानिक फाॅर्मूला है.
कई आदिवासी विचारकों ने लगभग एकजुट होकर आदिवासी को हिन्दुत्व के छाते के नीचे खड़े करने का विरोध किया है. संविधान में भी उन्हें आदिवासी के बदले ‘आदिम जनजाति’ या कभी ‘ट्राइबल’, कभी ‘वनवासी’ वगैरह शब्दों से संबोधित किया जाता रहा. इस पर संविधान सभा में आदिवासी सदस्य जयपाल सिंह मुंडा ने आपत्ति भी की थी. उन्होंने चिढ़कर कहा था कि आदिवासियों को ‘जंगली’ तक कहा जाता है. इसके बरक्स कई लोग उन्हें ‘भूमिपुत्र’ या ‘वनपुत्र’ कहना ज्यादा मुनासिब समझते हैं.
न हिन्दू, न ईसाई, हैं हमारे भाई !
कुछ आदिवासियों का कहना है कि प्रसिद्ध आदिवासी चिंतक डॉ. रामदयाल मुंडा ने आदिवासी धर्म और आध्यात्मिकता को वैचारिक आधार देते ‘आदि धर्म’ नाम से एक महत्वपूर्ण किताब लिखी. उनका विचार संघ के ‘एक धर्म हिंदू‘ नामक नारे का जवाब कहा गया. रांची में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सह सरकार्यवाह डॉ. कृष्ण गोपाल ने कहा था आदिवासियों को सरना धर्म कोड की ज़रूरत नहीं है. संघ तो उन्हें हिंदू मानता है. तब आदिवासी समाज में काफी उलट प्रतिक्रिया हुई थी.
संघ बिल्कुल नहीं चाहता कि आदिवासी हिंदुत्व के फ्रेम से बाहर हो जाएं. उन्हें रोकने कोई न कोई वैधानिक रास्ता जरूरी है. जहां जहां भाजपा की सरकारें हैं, वहां वहां धर्मांतरण के खिलाफ अधिनियम पारित कर कठोरता के साथ आदिवासियों के ईसाई बनने पर दबाव बनाया जाएगा. जो आदिवासी ईसाई बन चुके हैं उनकी हिंदू धर्म में वापसी के लिए रास्ता मुहैया करेगा.
भाजपा और संघ का तर्क है कि आदिवासी हिंदू ही हैं इसलिए उन्हें आदिवासी नहीं बल्कि हिंदू मान लेना उनका धर्मांतरण नहीं है. भाजपा को आदिवासी अस्मिता की चिंता हो तो वह तत्काल सरना धर्म कोड को लागू कर दे-ऐसा आदिवासियों का कहना है. हिन्दुत्व समर्थकों को लगता होगा इससे शायद आदिवासियों के ईसाईकरण का खतरा हो जाए. यह तो उनके लिए जोखिम है. कांग्रेस और बाकी पार्टियां भी धर्मकोड के पक्ष में नहीं है. उन्हें केवल आदिवासियों के वोट चाहिए.
ईसाई संगठन चाहते है कि आदिवासी ईसाई बन जाएं. हिंदू संगठन उन्हें अपने पाले में लाने के लिए पुरजोर कोशिश में लगे हैं. राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सर संघचालक मोहन भागवत ने कहा कि आगामी जनगणना में धर्म वाले कॉलम में आदिवासी अपना धर्म हिंदू लिखें, इसके लिए संघ देशभर में अभियान चलाएगा. झारखंड में लंबे समय से आदिवासी अपने लिए सरना धर्म कोड की मांग कर रहे हैं. सरना धर्मगुरु बंधन तिग्गा कहते हैं –
‘मोहन भागवत के कहने भर से हम आदिवासी हिंदू धर्म नहीं अपनाने वाले हैं. बीती दो जनगणना में हमने अपना धर्म सरना लिखा है. झारखंड ही नहीं, कुल 21 राज्यों के आदिवासी ने सरना लिखा है. इस बार भी लिखेंगे.’
आदिवासी लेखक और सेंट्रल यूनिवर्सिटी गया में असिस्टेंट प्रोफेसर अनुज लुगुन कहते हैं –
‘आदिवासी हिंदू नहीं हैं. दरअसल, संघ की एक खयाली चिंता है कि हिंदू की आबादी बढ़ाएंगे, इसके लिए दस प्रतिशत आदिवासियों को उसमें शामिल करना चाहते हैं. अगर सच में संघ की चिंता है कि आदिवासी दूसरे धर्मों में न जाएं, तो केंद्र में उसकी सरकार है, उसे सरना धर्म कोड लागू करा देना चाहिए.’ लगातार मांग के बावजूद संसद के भीतर इस विधेयक को अभी तक पेश नहीं किया गया है. ‘अगर बीजेपी ऐसा करेगी तो हिंदुत्व राजनीति नहीं चल पाएगी. कांग्रेस भी नहीं करना चाहती क्योंकि उसके साथ ईसाई आदिवासियों की एक बड़ी संख्या है.’
इस सिलसिले में ए. के. पंकज भारत की मर्दुमशुमारी 1931 के आंकड़ों के आधार पर नई बात कहते हैं. उनका कहना है कि अंग्रेजी राज में आदिवासियों का ईसाईकरण नहीं, उससे ज्यादा हिंदूकरण हुआ. वह कहते हैं आज़ादी के पहले और बाद भले ही हिंदुत्व के लोग झुठलाते रहे कि ईसाई मिशनरियों ने आदिवासियों का अंग्रेजों के वक्त बहुत धर्मांतरण किया, सच्चाई यही है कि आदिवासियों का जितना ईसाईकरण नहीं हुआ, उससे कहीं ज्यादा उनका हिंदूकरण हुआ.
1931 की जनगणना आधारित आंकड़ा कहता है कि तीस लाख आदिवासियों में सोलह लाख हिंदू बन गए, सिर्फ 35 गोंडों ने ईसाई धर्म स्वीकार किया. बीस लाख भीलों में सोलह लाख हिंदू बन गए. आठ हजार ने मुस्लिम धर्म अपनाया और केवल 133 ने ईसाईयत ली. पच्चीस लाख संथालों में दस लाख हिंदू बने जबकि ईसाई धर्म अपनाने वालों की संख्या केवल चैबीस हजार रही है. इसी तरह दस लाख उरांव में से चार लाख हिंदू और दो लाख ईसाई बने. 1920 से 1930 का दशक गांधी के नेतृत्व में राष्ट्रवादी आंदोलन का सबसे सक्रिय दौर रहा है, साथ ही यही वक्त आरएसएस की स्थापना और कट्टर हिंदूवादियों की सक्रियता का भी है.
वाहरू सोनवड़े का कहना है कि आदिवासी लोग बिल्कुल हिन्दू नहीं है और इसीलिए हिन्दू कोड बिल आदिवासियों पर लागू नहीं किया जाता. कारण यह कि आदिवासी समाज में कोई जाति नहीं होती. आदिवासी विद्वान डा. रामदयाल मुंडा ने अपनी पुस्तक में आदिवासियों द्वारा अपने को हिन्दू बताने से होने वाले दूरगामी परिणामों की ओर संकेत करते कहा कि ऐसा होने पर हिन्दू समाज में आदिवासियों का सामाजिक स्वीकार और स्तर अनुसूचित जातियों अर्थात दलितों के समकक्ष बताया जाकर नीचे कर दिया जाता है. उन्होंने आदिवासियों के ‘आदिधर्म‘ की विशिष्टताएं बताते कहा –
‘आदिवासियों का परमेश्वर के साथ पितामह- दौहित्र का संबंध होना, प्रकृति ही परमेश्वर का घर होना, छाया भितार मनुष्य की अमरता का प्रतीक होना, सामाजिकता और असामाजिकता ही स्वर्ग और नरक होना, मध्यस्थता की जरूरत नहीं होना, अन्य जीवों के साथ ऊंच नीच के बढ़ते सहअस्तित्व का संबंध होना और आदिवासियों के लिए किसी मसीहा या पैगम्बर का अनिवार्य न होना.’
आदिवासियों पर धर्म का जुल्म !
आदिवासी के साथ जुल्म आजाद भारत में हो ही रहा है. यह त्रासदी असाधारण और अन्यायपूर्ण है. जल, जंगल और जमीन पर उनका सदियों से एकाधिकार रहा है. उनसे वह अस्तित्व ही छीन लिया गया है. लुटेरे काॅरपोरेटियों, असंवेदनशील सरकारों और नक्सलियों के जबड़ों में फंसे पूरे आदिवास को इतिहास की गुमनामी में डुबाने भाग्य क्या समाज भी अट्टहास कर रहा है. सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले भी आदिवासी के सांस्कृतिक और परंपरागत अहसास को समझते हुए भी उसे ढाढस नहीं बंधा सके हैं.
आर्थिक, सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक और विकास के सभी अन्य पैमानों पर आगे बढ़ते हुए भी आदिवासी को घातक थपेड़ों से बचाया नहीं जा रहा है. हरे भरे जंगलों, पहाड़ों, नदियों, पशु पक्षियों, सांस्कृतिक अनुगूंजों और वन संगीत के तरन्नुम में सदियों से अपनी धड़कनों में जी रहा हिन्दुस्तान का संवेदनशील हिस्सा पंगु होकर लकवाग्रस्त बनाया जाने की कगार पर है.
कैसा संविधान, शासन और कानून है जो आदिवासी की सांस्कृतिक स्वायत्ता को सुरक्षित रखने का वायदा करने के बावजूद उसके अस्तित्व पर ही चोट कर रहा है. फिर उसे समझाता है कि तुम तो महज वोट बैंक की अंकगणितीय इकाई हो. तुम भारत के मूल निवास का अहसास रहे होगे तो भी तुम्हें किसी न किसी मजहब को उस धर्म की आदतों, मान्यताओं, आदेशों और परंपराओं को अपने जीवन में उतारना पड़ेगा. यह जद्दोजहद केवल आदिवासियों की चुनौती नहीं है, यह मानव इतिहास का एक भविष्यमूलक पेचीदा सवाल है.
हिन्दुइज़्म में शामिल करने की प्रक्रिया पर गहरी आपत्ति करते लाल सिंह चौहान ने उलट सवाल किया कि आदिवासी तो भारत के मूल निवासी हैं. यह तय हो चुका है कि आर्य बाहर से आए हैं, जो मौजूदा नागर सभ्यता के धारक हैं. आर्यों के आने के पहले जो लोग इस देश में रहते और आर्यों से युद्ध हारने के बाद सुदूर जंगलों की ओर जाकर सदियों से वहां जीवन निर्वाह करते रहे, उनके लिए कौन सी संज्ञा होगी ?
प्राचीन इतिहास में आर्य और अनार्य सभ्यताधारक अलग-अलग संबोधन उपलब्ध भी रहे हैं. आदिवासियों का कोई मूर्तिमान देवता नहीं होता. वे निराकार आराध्य के उपासक हैं. इसके बरक्स आर्यों ने अपने तमाम साकार देवता रच लिए हैं. अलबत्ता कई आदिवासी आर्यों के निकट रहने के कारण उनकी कुछ प्रथाओं में शामिल होते गए हैं. आदिवासियों की भी कई आदतें, हावभाव और प्रथाएं हिन्दुुओं द्वारा स्वीकार कर ली गई हैं.
चौहान का कहना है हिन्दू धर्म ब्राह्मणों की श्रेष्ठता का धर्म रहा है. वहां वर्णाश्रम और वर्ग विभेद के पुरअसर प्रतिबंध भी हैं. ये सब आदिवासी जीवन में नहीं हैं. वे अपनी तल्खी में एकलव्य का रूपक भी परिभाषित करते हैं कि बिना शिक्षा दिए भी सत्ताकुल के लोग उसकी काबिलियत से घबराकर उसकी शक्ति और ज्ञान को आर्यकुल के षासक के पक्ष में जबरिया छीन लेते हैं.
डा. गोविन्द गारे पूरी तौर पर थीसिस खारिज करते हैं कि आदिवासियों को हिन्दू धर्म का अंश माना जाए. हिन्दुओं का मुख्य मकसद आदिवासियों पर हुकूमत करना और उनसे लाभ उठाते अपनी दकियानूस समाज व्यवस्था को लगातार मजबूत और महफूज रखना रहा है. उन्हें सफलता भी मिलती रही है क्योंकि शिक्षा के अभाव के कारण गरीबी और बदनसीबी झेलते कई आदिवासी हिन्दू प्रथाओं में शामिल होते रहे. आदिवासी में वन संस्कृति के लिए पारस्परिकता है. उसका आशय उन सब प्रतीकों से है जो आदिवासी के जीवन के अस्तित्व के लिए आवश्यक और भरोसेमंद तत्व हैं. ये तत्व प्राथमिक पंचभूत भी हैं.
उनका कहना है आदिवासियों की ज़मीनें, जंगल के अधिकार, और भाषाएं भी छीनी जा रही हैं. भाषा छिन जाने से संस्कृति भी नहीं बच पाती. आदिवासी नृत्य भी सीमित होते जा रहे हैं. उन पर नए नए भगवान थोपे जा रहे हैं. उन्हें हिन्दुत्व की विकृतियों और संकीर्णताओं से जोड़ा जा रहा है. हजारों आदिवासी दिल्ली या अन्य राजधानियों में रोजगार के लिए बरसों से रह रहे हैं. उनके आंकड़े भी जनगणना में शामिल नहीं किये जाते, न ही उनके राशनकार्ड बनते हैं, न ही वे कहीं के वोटर होते हैं. इस तरह इन्हें भारतीय नागरिकता से भी वंचित रखा जाता है.
घनश्याम गागराई कहते हैं आज की शिक्षा पद्धति जानबूझकर षड़यंत्रकारी और दूषित है. उसके कारण आदिवासी बच्चों को हिन्दुओं के सभी तीज त्यौहारों की जानकारी और उन्हें मानने की मजबूरियां पैदा की जाती हैं. वे अपने मूल तीज त्यौहार याद नहीं रख पाते हैं. गागराई सूक्ष्म बात कहते हैं कि कई आदिवासियों की संस्कृति शहरी हो रही है और उनकी व्यापक सामुदायिक पहचान भी लेकिन वह कथित जातीय नस्ल की नहीं है.
छद्म आदिवासीकरण की प्रक्रिया डा. हीरालाल शुक्ल के अनुसार –
‘संस्कृतीकरण के सिद्धांत के विपरीत आज एक नया सिद्धांत ‘छद्म आदिवासीकरण’ का है, जिसका प्रवाह उच्च से निम्न की ओर है. इस प्रक्रिया के तहत गैर-आदिवासी कतिपय समानताओं के आधार पर आदिवासी होने का दावा करते हैं. यह गैर आदिवासी अस्मिता का आदिवासी अस्मिता में जुड़ने का भाव है, किन्तु इससे वास्तविक आदिवासियों के हितों पर कुठाराघात हो रहा है. आदिवासियों को प्राप्त आरक्षण की सुविधाओं के कारण ही ऐसा भाव जागा है. आज ऐसे झूठे प्रमाणपत्रों को जुटाने वालों का एक ‘रैकेट’ है, जो इनके माध्यम से चिकित्सा तथा अभियांत्रिकी-महाविद्यालयों में प्रवेश पा चुका है.’
आदिवासी की ईसाइयत – 2
दरअसल संविधान धर्म प्रचार को लेकर बहुत उदार है. अनुच्छेद 25 के अनुसार –
(1) लोक व्यवस्था, सदाचार और स्वास्थ्य या इस भाग के अन्य उपबंधों के अधीन रहते हुए, सभी व्यक्तियों को अंतःकरण की स्वतंत्रता का और धर्म के अबाध रूप से मानने आचरण करने और प्रचार करने का समान हक होगा.
(2) इस अनुच्छेद की कोई बात किसी ऐसी विद्यमान विधि के प्रवर्तन पर प्रभाव नहीं डालेगी या राज्य को कोई ऐसी विधि बनाने से निवारित नहीं करेगी जो –
(क) धार्मिक आचरण से संबद्ध किसी आर्थिक, वित्तीय, राजनैतिक या अन्य लौकिक क्रियाकलाप का विनियमन या निर्बंधन करती है;
(ख) सामाजिक कल्याण और सुधार के लिए या सार्वजनिक प्रकार की हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं को हिन्दुओं के सभी वर्गों और अनुभागों के लिए खोलने का उपबंध करती है.
स्पष्टीकरण 1-कृपाण धारण करना और लेकर चलना सिक्ख धर्म के मानने का अंग समझा जाएगा.
स्पष्टीकरण 2-खंड (2) के उपखंड (ख) में हिन्दुओं के प्रति निर्देश का यह अर्थ लगाया जाएगा कि उसके अंतर्गत सिक्ख, जैन या बौद्ध धर्म के मानने वाले व्यक्तियों के प्रति निर्देश है और हिन्दुओं की धार्मिक संस्थाओं के प्रति निर्देश का अर्थ तद्नुसार लगाया जाएगा.
होता लेकिन यह है कि धर्म प्रचार करने और धर्म परिवर्तन करने के बीच बस छोटा सा स्पेस है, वह सबको दिखाई तो देता है, लेकिन धर्मांतरण कराने वाले ईसाई मिशनरी उसे जानबूझकर नहीं देखते. उनका मकसद धर्म प्रचार से आगे बढ़कर उसकी आड़ में धर्म परिवर्तन ईसाईयत में करा लेना है इसलिए कई राज्यों ने अब हस्तक्षेप शुरू किया है. वहां धर्मांतरण के खिलाफ अधिनियम पारित हो रहे हैं, खासकर उन राज्यों में जहां धर्मांतरण की ज्यादा शिकायतें आती हैं.
धर्मांतरण के प्रमुख कारणों में पहला तो आदिवासियों की अशिक्षा, गरीबी और सभी तरह के मुनासिब जीवनयापन के साधनों से उनका महरूम होना है. साथ ही उनकी जमीनें छीनी जा रही हैं, उनके पशु पक्षी भी सुरक्षित नहीं हैं. उनकी स्त्रियां और बच्चे भी शारीरिक शोषण से कई बार बच नहीं पाते.
आदिवासी इलाकों में ब्रिटिश हुकूमत के वक्त भी ईसाई मिशनरियों ने शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवनयापन के कई साधनों पर बहुत धन खर्च किया लेकिन सेवा भी की, इस वजह से बेहतर जिन्दगी की उम्मीद लिए गरीब आदिवासी ईसाई धर्म की ओर अपने आप भी आते रहे. उन्हें धीरे-धीरे महसूस होता रहा कि धर्म बदलने से उनका जीवन स्तर सुधरता है. चिंताएं कम हुई हैं. अपने आप अगली पीढ़ियों में ईसाईयत के प्रति लगाव भी पैदा होने लगा जो नकली या गैरवाजिब नहीं कहा जा सकता.
भारत के आदिवासी समुदाय के एकमात्र कार्डिनल आर्चबिशप तिल्सेफर टोप्पो मानते हैं कि जनजातियों के बीच कैथोलिक चर्च अभी भी शिशु अवस्था में है. संकेत साफ है कि चर्च को जनजातियों के बीच आगे बढ़ने की संभावनाएं दिखाई भी दे रही हैं. मिशनरियों की लेकिन इस आधार पर एकांगी आलोचना नहीं हो सकती. सरकारों ने आदिवासियों के जीवन इंडेक्स के लिए बुनियादी सुविधाएं तक मुहैया नहीं कराई हैं.
आज़ादी के पचहत्तर वर्ष बाद भी आदिवासी इलाकों में बदहाली है. वे कर्ज में डूबे हुए हैं. वहां खूब शराबखोरी होती है, जिस्मखोरी का भी वहां पर आलम है. पुलिस, राजस्व, जंगल या उद्योग विभाग सहित सरकारी विभागों के कर्मचारी वहां बादशाहों की तरह आदिवासियों को लाचार समझते उनसे सलूक करते हैं. आदिवासी ज्ञान पर भी डाका डाला जा रहा है. नक्सलवाद खत्म करने के नाम पर सुरक्षा सैनिक बड़ी संख्या में तैनात किए जा रहे हैं. वे शोषक के रूप में भी अपना नया चेहरा भारत के नए इतिहास को दिखाते भी हैं.
संविधान के अनुसार ईसाई धर्म अल्पसंख्यक है. आदिवासी संवैधानिक रूप से घोषित अल्पसंख्यक नहीं हैं. आदिवासी के ईसाइयत में परिवर्तित होने पर उसकी पहचान आदिवासी के रूप में सुरक्षित रहती है. धर्म में तब्दील हो गए आदिवासी लेकिन अब मांग करते हैं कि उन्हें ईसाई समझते अल्पसंख्यक माना जाए. उन्हें संवैधानिक और अन्य तरह की सुरक्षाएं नौकरी, निर्वाचन तथा शिक्षा आदि में भी दी जाएं. वे कहते हैं हम आदिवासी हैं. ईसाइयत में परिवर्तित सभी ईसाई आदिवासी दोहरा चरित्र जीवन जीने और दोहरे लाभ उठाने के लिए मजबूर होते हैं इसलिए भी गैर-ईसाई आदिवासियों और ईसाई आदिवासियों के बीच माहौल देश में गर्म होता रहता है.
आदिवासी की ईसाइयत – 2
यह तर्क ईसाई धर्म के प्रचारकों के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता है कि आदिवासियों को दुनियावी कारणों से ईसाई धर्मों में बलात या प्रलोभन के आधार पर धर्म परिवर्तित कर लिया जाता है लेकिन उसे आदिवासी की मानसिकता का ईसाइयत में अंतरण फिर भी नहीं कहा जा सकता. गोविन्द गारे कहते हैं –
चाहे ईसाई हो या हिन्दू-दोनों ही आदिवासियों की तरक्की और सुधार के नाम पर उनके वजूद के मूल ढांचे पर हमला करते हुए उन्हें अबूझ हालत में धार्मिक कहते हिन्दू या ईसाई बनाते हैं, यह तो आदिवासी की आस्था पर हमला होने से उनसे सांस्कृतिक तादात्मय पैदा नहीं कर सकता.
ग्रेस कुजूर इंटरव्यू में अलबत्ता कहती हैं कि –
शहरी सभ्यता के दिन प्रतिदिन व्यापक और सघन संपर्क के कारण आदिवासियों की बोली, रहन-सहन, भाषा और पहनावे में आधुनिकता के नाम पर स्वाभाविक बदलाव हो रहा है. उस पर रोक लगाने की ज़रूरत भी नहीं है. आदिवासी को भी वक्त के साथ चलने का अधिकार है. इन सब ऊपरी तत्वों की आड़ में आधुनिक सभ्यता का हमला आदिवासी जीवन पर इस तरह पड़ रहा है कि वे अपना मूल चरित्र कायम रख पाने में नाकाबिल महसूस कर रहे हैं. बदलाव कुदरत का नियम होगा लेकिन अपनी जड़ों से उखड़ जाना नहीं.
भारतीय आदिवासीजन मंच के अध्यक्ष विवेक मणि लकड़ा के अनुसार आदिवासियों की गुम-सी हुई सरना संस्कृति को बचाने की ज़रूरत है. उनका आरोप है कि आदिवासी समाज बिखर गया है. इससे फायदा उठाते बड़े पैमाने पर आदिवासियों का ईसाईयत में परिवर्तन किया जा रहा है. कुछ देशी विदेशी धर्म-संगठनों के लिए आदिवासी समाज कच्चे माल की तरह महज उपयोग की वस्तु समझा जा रहा है.
भारत में ब्रिटिश हुकूमत के दिनों में आदिवासियों के सांस्कृतिक जीवन में सबसे पहले हस्तक्षेप की प्रक्रिया शुरू हुई थी. उनकी गरीबी का लाभ उठाकर ईसाई मिशनरियों ने उनके धर्मांतरण का कुचक्र चलाया. बड़े पैमाने पर मिशनरियों को सफलता भी मिलती रही. नतीजतन ईसाइयत में तब्दील होती गईं आदिवासियों की सांस्कृतिक आदतों में दिन प्रतिदिन का सामाजिक जीवन में धीरे-धीरे मूल जनजातियों से उनकी दूरी बढ़ती गई. हालात इस तरह होते गए कि ईसाई हो चुके आदिवासियों और गैर-ईसाई आदिवासियों में अविश्वास की खाई लगातार चौड़ी होती रही.
लकड़ा आरोप लगाते हैं कि ईसाई मिशनरी धन की ताकत से आदिवासियों को बांट भी रहे हैं. आदिवासियों के मूल प्रतीकों, परंपराओं, संस्कृति भाषा और बोलियों पर लगातार चोट कर रहे हैं. ईसाई मिशनरी हमलावर जैसे होकर धर्म प्रचार करते अनाप-शनाप धन खर्च करते हैं. गरीब और भोले भाले आदिवासियों पर दबाव इतना बढ़ रहा है कि ईसाई आदिवासियों और मूल आदिवासियों में सीधा सीधा हिंसक टकराव होने लगा है.
ओडिशा, छत्तीसगढ़, झारखंड, मध्यप्रदेश, गुजरात और नागालैंड जैसे कई राज्यों में ईसाई मिशनरियों की गैर-जरूरी गतिविधियों के कारण जनजातियों के आपसी एका में बहुत खतरा बढ़ गया है. विदेशी दौलत के बल पर भारत में गरीब आदिवासियों को ईसाई बनाने कुचक्र बढ़ ही रहे हैं.
इस सचाई को झुठलाया नहीं जा सकता कि झारखंड, महाराष्ट्र, गुजरात, मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़, ओडिशा और पूर्वोत्तर राज्यों में चर्च के मानने वालों की संख्या लगातार बढ़ रही है. पूर्वोत्तर प्रदेशों में तो ईसाई आदिवासियों की बहुतायत ही है. धर्मांतरण को लेकर वहां कैथोलिक और प्रोटेस्टेंट के बीच भी भारी हिंसा होती रहती है.
आरोप लगाए जाते हैं कि ब्रिटिश हुकूमत के दौरान खासकर पूर्वोत्तर में (जहां आदिवासियों की बहुत बड़ी संख्या है और आबादी का घनत्व बाकी भारत के मुकाबले ज़्यादा नहीं है) तरह-तरह की सुविधाएं देने के कारण पूर्वोत्तर क्षेत्र को 1942 में ‘न्यू इंग्लैंड’ कहा जाने लगा था. उसे इंग्लैंड शासित क्षेत्र बनाने की योजना पर काम शुरू किया जाना सोचा भी गया. दूसरे विश्व युद्ध के कारण योजना अमल में नहीं आ पाई.
भारत की आजादी के बाद अमेरिका ने खासकर पूर्वोत्तर क्षेत्र में धर्मांतरण के लिए अपनी पूरी ताकत झोंक दी. वहां रोमन लिपि का भी प्रचार किया गया. बाइबिल को छापने का कार्य भी इसी इलाके में शुरू किया गया. ईसाईयत के तरह-तरह के चिह्न और प्रतीक बांटे गए. अंग्रेजी माध्यम के स्कूल खोले गए. धर्मांतरण तो किया ही गया, धीरे धीरे हिंदू धर्म को मानने वालों को विदेशी कहकर भगाने का षड़यंत्र और हिंसक कार्यक्रम भी शुरू किया गया. उसमें चर्च ने भी सहयोग किया.
कहते हैं हालत यह है कि पूर्वोत्तर प्रदेशों में गैर ईसाई आदिवासी लगभग नहीं हैं. नागालैंड, मिजोरम और मेघालय जैसे राज्य तो ईसाई राज्य ही बन गए हैं. ईसाइयों की आबादी मसलन मेघालय में लगभग 65% है और मुश्किल से हिंदू 15% बचे हैं. नागालैंड में ईसाईयों का प्रतिशत 98% है और हिंदू आबादी केवल 2% रह गई है. मिजोरम में भी यही हालात हैं, वहां 90% ईसाई हैं.
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