विष्णु नागर
ईश्वर नहीं है, इसका सबसे बड़ा सबूत मोदी, योगी, अमित शाह वगैरह-वगैरह हैं. अब इसे सिद्ध करने के लिए नास्तिकों को विशेष प्रयत्न करने की जरूरत नहीं. भगतसिंह के मशहूर लेख को उदृत करने की जरूरत नहीं. नास्तिकों की भारतीय परंपरा से तर्क प्रस्तुत करने की आवश्यकता नहीं. ये स्वयं ईश्वर न होने के जीवित मगर निकृष्ट प्रमाण हैं.
इनकी नजर में ईश्वर सचमुच हुआ होता तो ये रात-दिन झूठ बोलते और बुलवाते ? इतनी नफरत फैलाते ? इतने बड़े अत्याचारों को अंजाम देते और उन पर खुश होते ? दंभ से इतने फूले-फूले रहते ?तालियां बजाते, झूमते ? इनकी दृष्टि में ईश्वर और परलोक की धारणा सच्ची होती, पाप-पुण्य का फैसला करनेवाला, दंड देनेवाला कोई हुआ होता, नरक में उबलते तेल के कढ़ाह में पापियों को धकेला जाता है, अगर इस पर इनका विश्वास हुआ होता तो ये ऐसे न हुए होते.
इनके मंदिर बनवाने, मंदिरों में रोज-रोज जाने, पूजापाठ करने, तरह-तरह की रंगीन ड्रेस पहनने, भगवा वस्त्र धारण करने से भ्रम में पड़ने की जरूरत नहीं. ये कोरा राजनीतिक पाखंड है. इनके आस्तिक, ईश्वरविश्वासी होने का रत्तीभर भी सबूत नहीं. इनका होना यह भी बताता है कि जो अपनी राजनीति के लिए धार्मिक ढोंग करता फिरता है, वह न केवल ईश्वर न होने का प्रमाण खुद है बल्कि वह इसका सबूत भी है कि आदमी घटियापन की किन ‘गहराइयों’ में डूब सकता है जबकि एक सच्चा नास्तिक, भगतसिंह और नेहरू की ऊंचाइयों को पा सकता है. एक सच्चा धार्मिक भी अच्छा मनुष्य होने का प्रमाण होता है. वह मानवद्रोही नहीं हो सकता. नफरत का मसीहा नहीं हो सकता.
अपने मोदी जी गजब के गोले हैं. पिछले 74 साल में आपने ऐसे गजब के गोले कम देखे होंगे. देखे भी होंगे तो विदेश में देखे होंगे. जब से विदेश का माल यहां आसानी से उपलब्ध होने लगा है, तब से काफी परिवर्तन आया है. अब जैसे पहले के प्रधानमंत्री चाहते थे कि उनके रहते देश में शांति बनी रहनी चाहिए, गलती हो जाती थी तो कदम फौरन पीछे खींच लेते थे. मोदी जी से अक्ल में शायद वे कम रहे होंगे. मोदी जी चूंकि उनसे ज्यादा अक्लमंद हैं, इसलिए वे नहीं चाहते कि उनके रहते सब शांति से रहें. आग लगती रहना चाहिए. धुआं उठते रहना चाहिए. घर और जिंदगियां बर्बाद होती रहनी चाहिए.
अब देखिए मोदी जी ने प्रधानमंत्री बनने के लिए दो करोड़ रोजगार हर साल देने का वायदा किया था. बहुत अच्छा वायदा था. मैं भी 2014 में युवा बेरोजगार होता तो मोदी जी को ही वोट देता. मेरा सौभाग्य और मोदी जी का दुर्भाग्य कि ऐसा नहीं था. वह मेरे वोट के बगैर जीत गये. जनरली मैंने जिन्हें वोट दिया, वे हारते ही रहे.
तो खैर साहब, युवा भी जल्दी ही समझ गये कि दो करोड़ क्या दो हजार रोजगार भी ये प्रधानमंत्री देनेवाले नहीं. इसके पास एक ही रोजगार है- दंगाफसाद ब्रिगेड का सदस्य बनाना. युवाओं ने सोचा, यह भी बुरा नहीं है. कुछ तो करने के लिए है.
मुसलमान युवाओं को तो इनसे उम्मीद थी नहीं, इसलिए वे निराश भी नहीं हुए. बाकी युवाओं का बड़ा हिस्सा इनके साथ था. उन्होंने मान लिया था कि दो करोड़ रोजगार भी एक जुमला था, भूल जाओ इसे. बीच-बीच में रोजगार के विज्ञापन निकलते रहते थे. युवा एप्लाय कर देते थे. साल भर बाद लिखित परीक्षा होती थी. फिर उसका रिजल्ट छह महीने-सालभर तक लटकता रहता था. फिर इंटरव्यू होता था. फिर से गाड़ी अटका-भटका दी जाती थी. अंततः कुछ होकर भी कुछ नहीं होता था. यह भी न्यू नार्मल हो चुका था.
यही सेना में जाने के इच्छुक जवानों के साथ भी होता था. विरोध कहीं-कहीं होता था मगर हिन्दू-मुसलिम में सब दब जाता था. गरीब लोगों के बच्चे खाली मैदानों में दो साल-तीन साल दौड़ लगाते रहते थे. कवायद करते रहते थे. इनके मां बाप इन्हें सैनिक बनाने के लिए अपना पेट काट कर इन्हें दूध मावा मिश्री खिलाते रहते थे. देश जैसे चल रहा था, चल रहा था.
नफरत का खेल हमेशा की तरह आगे बढ़ रहा था. बुलडोजर चल रहा था. जिन्हें जेल में होना चाहिए था, वे बाहर घूम रहे थे.जिन्हें सच और सही बोलने-लिखने की आदत थी, उनमें कुछ जेल में थे. कुछ अभी प्रतीक्षा सूची में रखे गए थे. उधर ईडी-सीबीआई वगैरह का खेल भी चल रहा था. मतलब आग लगी हुई थी मगर इससे सब नाराज भी नहीं थे. वे मानते थे कि आग लगी रहना चाहिए. न्यू नार्मल चल रहा था. देश एक जगह पर कदमताल कर रहा था.
बहुत समय से ऐसा कुछ नहीं हो रहा था कि मोदी जी को मजा लाए. तो मोदी जी ने सोचा चलो रोजगार-रोजगार का खेला खेला जाए. मक्खन पर लकीर बहुत खिंच चुकी, अब पत्थर पर लकीर खींची जाए. खींच दी साहब उन्होंने चार साल के लिए युवाओं को अग्निपथ पर चला अग्निवीर बनाने की लकीर. चार साल बाद 21 साल की उम्र में उन्हें बेरोजगार करने की लकीर. जब ट्रेनें जलीं, आगजनी हुई, ट्रैफिक जाम हुआ, भाजपा का दफ्तर जले, एमएलए का घर तक बख्शा नहीं गया तो मोदी जी को किक मिला. अब कुछ हुआ-सा है. न्यू नार्मल का लेवल बढ़ा-सा है.
अब इन युवाओं के रूप में नये दुश्मन मिले से हैं. मोदी जी की पालिसी ही यह है कि नये-नये दुश्मन बनाओ. इसी तरह नये दोस्त बनाओ. अपना आधार बढ़ाने का यही एक तरीका है तो भक्तों अब तुम इसका मजा लो. दाल रोटी खाओ, मोदी के गुण गाओ. अंत में एक सुझाव देशहित में. मोदी जी आप कह दो कि 21 साल का युवा जब सेना के लिए बूढ़ा है तो मैं 71 साल का बूढ़ा देश के लिए अपने को जवान कैसे मान सकता हूं ! मैं तो अब लकड़दादा की श्रेणी में आ चुका हूं. बीस साल हो गये कुर्सी पर बैठे बैठे, लेटे लेटे, खाते-खाते, खिलाते-खिलाते ! अब मैं कमान छोड़ता हूं. अब आओ देश के युवाओं तुम यह गद्दी संभालो. जय-जय मोदी, हर-हर मोदी का खेल अब खत्म हुआ. अरे भई कहां है मुझ फकीर का झोला ! उसकी धूल झाड़कर लाओ. चूहों ने काट दिया हो तो सूई धागे से सीकर लाओ. जल्दी करो, जाने दो. मोहपाश में मुझे मत बांधो !
कौन साला अब आश्चर्यचकित होता है ?
क्या आपको अभी भी किसी बात पर आश्चर्य होता है ? मुझे आखिरी बार 2014 में हुआ था, जब वर्तमान प्रधानमंत्री ने शपथ ग्रहण समारोह के अवसर पर नवाज शरीफ आदि पड़ोसी देशों के प्रमुखों को बुलाया था. तब मेरी आंखें फटी की फटी रह गई थीं ! इस कारण आंखों में बहुत समय तक तकलीफ़ रही. जल्दी-जल्दी चश्मे का नंबर बदलवाना पड़ा. उसके बाद आश्चर्य होना जो बंद हुआ, सो आज तक बंद है. फिर क्रोध आना शुरू हुआ, दुःख होने लगा. रोना भी आया कभी अपनों के बीच. लगा कि हम तो कहीं गये नहीं मगर बिना गये ये कहां आ गये ?
अब तो खैर, रोना-हंसी, दुःख-क्रोध सब स्थगित है. अब तो मोदी जी, शाह जी, योगी जी, अनुराग ठाकुर जी, अलां जी, फलां जी, नुपूर जी, नवीन जिंदल जी, नरसिंहानंद जी, पंडित जी, महाराज जी, गुप्ता जी, सिंह साहब यानी किसी की भी कितनी ही बेढंगी, ओछी, घृणित, झूठी बात पर कुछ नहीं होता.बात तो बात इनके काम पर भी कुछ नहीं होता. भगवाधारी सभी सचमुच के साधु- संत होते हैं और देश का प्रधानमंत्री, सचमुच प्रधानमंत्री ही होता है, यह भ्रम भी टूट चुका है.
अब तो लगता है 80 बनाम 20 की इशारेबाजी का युग भी जा चुका है. अब नरसिंहानंद-नुपूर शर्मा का युग है. खुला खेल फरुर्खाबादी का समय है. अब नरसंहार करने की धमकी देना और उस पर भी कहीं कुछ न होना इतना सामान्य हो चुका है कि यह भी चकित-थकित-व्यथित नहीं करता.
मालूम था कि नुपूर शर्मा की बयानबाजी पर एक पत्ता तक लोककल्याण मार्ग पर भी नहीं हिलेगा. बस केवल यह पता नहीं था कि इससे कुछ इस्लामी देशों में उबाल सा आ जाएगा, लाखों भारतीयों की नौकरी और निर्यात पर बन आएगी. फिर भी सरकार की ओर से कुछ हुआ सा लगता अवश्य है, मगर कुछ हुआ नहीं है.
मुझे तो मंदिर-मंदिर करनेवालों को स्कूल-दर्शन करने की बात कहकर कभी तगड़ा जवाब देने वाले मनीष सिसोदिया ने जब अयोध्या जाकर राममंदिर और हनुमान मंदिर में उत्तर प्रदेश चुनाव में जीत की अर्जी लगाई थी, तब भी आश्चर्य नहीं हुआ था. 2024 में राम मंदिर के उद्घाटन के अवसर पर अरविन्द केजरीवाल जी, अगर मोदी जी का आशीर्वाद लेते पाए जाएं तो भी आश्चर्य नहीं होगा. यहां तक कि कल इनकी पार्टी का भाजपा में या भाजपा का आप में विलय हो जाए तो भी आश्चर्य नहीं होगा.
जब देश की सरेआम बिक्री को अंगीकृत कर लिया, जब मान लिया कि सच्चा राष्ट्रवाद यही है. जब मान लिया कि जनता की सेवा का मतलब अडानी-अंबानी की अनथक सेवा है, तब आश्चर्य करने के लिए बचता क्या है ? बचता यह है कि हर मस्जिद के नीचे एक मंदिर है, इसलिए हर मस्जिद की खुदाई होना जरूरी है, जबकि हर कस्बे, हर शहर में इतनी मूर्तियां-मंदिर उपलब्ध हैं कि कोई ह़िंदू चौबीस घंटे भी पूजा करने का संकल्प करे तो उसे पूरा न पाए. उसे बीमार पड़ कर अस्पताल में भर्ती होना पड़ेगा. मगर मंदिर वहीं बनाएंगे, चल रहा है तो चल ही रहा है. क्या फर्क पड़ता है कि दुनिया हम पर हंसती है ! हम तो मानते हैं कि दुनिया हमारे अंदर विराजमान विश्वगुरु को देख रही है !
बसपा-सपा सब जब यूपी चुनाव के समय ब्राह्मण देवता की पूजा-अर्चना कर रहे थे, तो भी आश्चर्य नहींं हुआ था. मन को तब समझाया था कि हे मूर्ख मन, तुझे इतना भी नहीं पता कि ब्राह्मण देवता अनंत काल से पूजनीय रहे हैं ? तो ये नेता भी अगर उसी परंपरा का निर्वाह कर रहे हैं, तो किम् आश्चर्यम् ? क्यों बसपा-सपा हिंदू परंपरा को भाजपा के भरोसे छोड़ दें ? क्या बसपा-सपावाले भाजपाइयों और आम आदमी पार्टी से कम हिंदू हैं ? बिल्कुल नहीं हैं !
मेडिकल कॉलेज के छात्रों को मध्य प्रदेश सरकार संघ के संस्थापक हेडगेवार के विचार पढ़ाएगी, यह पढ़ा था तो भी आश्चर्य क्यों होता ?अरे जब 2002 के नरसंहार में मुसलमानों के मारे जाने पर जिसने इतना दुःख प्रकट किया था, जितना कार के नीचे कुत्ते का पिल्ला आ जाने से होता है, तब भी आश्चर्य नहीं हुआ था, तो अब क्यों होता ?जब ऐसा मुख्यमंत्री उससे भी अगली सीढ़ी पर दनदनाता हुआ चढ़ जाता है और समस्त भारत को रौंदते हुए बेखटके घूमता है तो फिर किसी भी बात पर आश्चर्य होने पर ही आश्चर्य होना चाहिए.
हर संघी-भाजपाई कुछ भी कर ले, कह ले, उसका क्यों कुछ नहीं बिगड़ता, इस पर अब किसी मूर्ख को ही आश्चर्य होता है. अब तो यूक्रेन-रूस युद्ध के कारण हुई बर्बादी की कितनी ही मार्मिक खबर पर न आश्चर्य होता है, न दुःख. किसके पास अब दुःखी होने का समय बचा है ? जो दुःखी हैं, उनके पास रोटी कमाने का ही समय बचा है और जो सुखी हैं, उनके दुःखी होने का कोई कारण नहीं. रोज खबर छपती है, आटा महंगा, प्याज महंगा, टमाटर महंगा. महंगाई ने सारी सीमाएं लांघ ली हैं तो भी किसी को कुछ महसूस नहीं होता. अब तो महंगाई के सपोर्टर भी जनम ले चुके हैं. अब तो क्रांति तलक भगवा होने लगी है. यह सब अब न्यू नार्मल है.
आश्चर्य की हर सीढ़ी मैं लगभग पार कर चुका हूं. दुःख साला कमीना अब भी कभी-कभी होता रहता है, उसी का इलाज करवाना है. इसी प्रकार चलता रहा तो वह दिन भी जल्दी आ जाएगा, जब दर्द ही दवा बन जाएगा. वैसे एक दिन तो इस जिंदगी में नहीं तो इसके परे जाने पर दुःख-सुख, मान-अपमान सबसे आदमी परे हो जाता है. उसकी लाश पर कोई पैर रखे, ठोकर मारे तो लाश का जरूर कुछ बिगड़ता है, उस आदमी का कुछ नहीं बिगड़ता. चेहरे के भाव नहीं बदलते, आंखों की पुतलियां अगर खुली हैं तो खुली, बंद हैं तो बंद रहती हैं. दर्द, तकलीफ़, मान-अपमान, देश और काल से वह परे हो जाता है.
मैं अगर श्री-श्री या रामदेव या उस अंग्रेजीवाल़े बाबा की शरण में अब भी चला जाऊं (आसाराम अभी उपलब्ध नहीं हैं) तो रहा-सहा दुःख होना भी बंद हो जाएगा. आश्चर्य, दुख, तकलीफ़ तो सब छोटी बातें हैं, टट्टी-पेशाब आना तक बंद हो जाएगा. खाओ और गाओ, यह बीज मंत्र हो जाएगा.
आश्चर्य होना वैसे भी अब मूर्खता की निशानी है और दुःख होना महामूर्खता की. मैं स्वीकार करता हूं कि मैं महामूर्ख हूं. सच कहूं, तो मुझे महामूर्ख होने पर कभी-कभी गर्व सा होने लगता है. लगता है, ‘यह गर्व से कहो, हिन्दू हूं.’ की क्रिया की प्रतिक्रिया है. आपको याद होगा नाली से गैस उत्पन्न करनेवाली महान भारतीय प्रतिभा ने 2002 के नरसंहार पर न्यूटन का तीसरा सिद्धांत लागू किया था कि यह क्रिया की प्रतिक्रिया है. मेरे साथ जो हुआ है, गर्व-सिद्धांत की क्रिया की प्रतिक्रिया है.
ये न्यायालय अभी भी कभी-कभी आश्चर्य की ओर ठेल दिया करते हैं. सरकार को फटकार सी लगाने लग जाते हैं मगर जब किसी हाईकोर्ट का जज गाय आक्सीजन लेती और छोड़ती है, जैसी बात कह देता है, तो उस आश्चर्य पर पाला पड़ जाता है. वैसे बोबड़े साहब और उनके तथा उनके भी पूर्ववर्ती साहब काफी मलहम सेवा कर चुके थे मगर ये बाद वाले साहब कभी-कभी आश्चर्य से भर देते हैं.
शायद ये जाएं तो फिर बोबड़े साहब आदि की परंपरा आरंभ हो जाए. आजकल कुछ पता नहीं चलता, कौन क्या है और क्या नहीं है. वैसे इस सरकार का जरूर एक चरित्र है – यह ऐसी कोई बात सुनती नहीं, जो कानों को न सुहाए. फिर ऐसी बोली बोलनेवालों का ‘सूटेबल इंतजाम’ भी समय-समय पर कर देती है. कब, किसका, क्या और कैसा इंतजाम हो जाए, कुछ पता नहीं.
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