वे पांच थे
निर्वासन में थे
लेकिन पांडव नहीं थे
उनकी हार भी
चौसर के खेल में हुई थी
भूख की चौसर पर
नारों और आंकड़ों के
मकड़ जाल बिछे थे
और बीच बीच में
खुले मैन होल थे
लैंप पोस्ट की ज़द से दूर
देर रात तक
उनकी झोंपड़ी में
बहस की आवाज़ें आतीं थीं
ख़ाली बर्तनों और
मुखाग्नि के इंतज़ार में पड़ा हुआ
वो ठंढा चूल्हा
मृत्यु के इस डुएट को किसी
ऑस्कर का इंतज़ार है आज भी
वे पाँच थे
लेकिन मुठ्ठी नहीं बन सके
पांडव तो वे थे नहीं
कि बिछड़े हुए राज पाट को
फिर से प्राप्त करने के स्वप्न में
डूब कर भूखे पेट सो जाते
वे पांच थे
जिन्होंने अपने ही शरीर का
भोजन बनाया था
शीत ऋतु में दुबके किसी
जानवर की तरह
लेकिन
चर्बी की एक सतह होती है
और आदमी में वह बहुत पतली होती है
वैसे भी
उन पांचों के लिए
चर्बी बढ़ाने का कोई मौसम नहीं आया था कभी
वैसे उन्होंने भी
बस्ती से दूर बांधा था अपना डेरा
(पकवानों की महक पेट के चूल्हे की मुखाग्नि है)
उनकी डरी हुई आंखों में
सूरज का डूबना
शाम का ढलना
रात का छा जाना
किसी शायरी का जन्मदिन जैसा नहीं था
वे पांच थे
वे मुठ्ठी बन कर भी
नहीं हासिल कर पाते
मुठ्ठी भर अनाज
क्योंकि उनके राजा का निवास
स्वर्ग में था.
- सुब्रतो चटर्जी
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