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कांग्रेस प्रवक्ताओं की पार्टी बन गई है

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कांग्रेस प्रवक्ताओं की पार्टी बन गई है

शकील अख्तर

कांग्रेस प्रवक्ताओं की पार्टी बन गई है. अब प्रवक्ताओं से कोई जन समर्थन जुटा सकता है, चुनाव जीत सकता है पता नहीं. राज्यसभा चुनाव में कांग्रेस ने रणदीप सुरजेवाला, राजीव शुक्ला, जयराम रमेश को टिकट दिया तो पवन खेड़ा और रागीनी नायक ने तंज के साथ अपनी दावेदारी रिजेक्ट करने पर ट्वीट कर दिए. भाजपा इस बात को अच्छी तरह समझती है कि प्रवक्ता का कितना और क्या रोल होता है. भाजपा के सबसे प्रभावी प्रवक्ता रविशंकर प्रसाद और प्रकाश जावड़ेकर आज कहां हैं ? भाजपा की आज कोई प्रेस कान्फ्रेंस होती है ?

संसद में उसके चलने के दौरान भाजपा पहले रोज प्रेस कान्प्रेंस करती थी. मगर जब से सरकार में आई है एक नहीं करती. उसे जरुरत ही नहीं है. जो कहना चाहती है मीडिया खुद अपनी तरफ से कह देता है. इधर कांग्रेस रोज प्रेस कान्फ्रेंस करके क्या कहती है, यह लोगों तक पहुंचता ही नहीं है. हां प्रेस कान्फ्रेंस करने वाले कुछ नेता खुद अपना पीआर ((जन सम्पर्क) इसके जरिए कर लेते हैं.

कांग्रेस की यह समस्या पुरानी है. करीब दो दशक से. सोनिया गांधी यह सब देखती नहीं थी और कांग्रेस के कुछ नेता मीडिया का उपयोग सिर्फ अपने लिए करते थे. जब 2004 से 2014 तक सरकार में रहे तब तो खूब किया. मगर बाद में भी जब पार्टी को जरूरत थी तब भी मीडिया में अपने संपर्कों का इस्तेमाल पार्टी के लिए न करके खुद के लिए ही करते रहे.

कांग्रेस के बड़े नेता जिन्हें सब कुछ मिला यह कहते थे कि हमारी तो कोई सुनता ही नहीं है. कांग्रेस के नेता एक दिन भी बिना पद, कुर्सी के नहीं रह सकते. गुलाम नबी आजाद का राज्यसभा से कार्यकाल खत्म हुआ नहीं था और उन्होंने विलाप शुरु कर दिया था.

कांग्रेस ने अभी राज्यसभा की दस सीटों के लिए उम्मीदवार घोषित किए हैं, उनमें से एक अजय माकन को छोड़ दिया जाए तो बाकी कितने ऐसे हैं जो लोकसभा, विधानसभा, कालेज, विश्वविध्यालय में चुनाव जीते हों. माकन 10 चुनाव लड़े. पांच विधान सभा जिनमें तीन जीते, चार लोकसभा जिनमें दो जीते और एक दिल्ली विश्वविध्यलय छात्रसंघ अध्यक्ष का लड़ा और जीता.

कांग्रेस के लिए यह मौका था कि वह आउट आफ बाक्स सोचती. ऐसे लोगों को लाती जो पार्टी के लिए लगातार काम कर रहे हैं. मगर लगता है कि सोनिया और राहुल भी जो लोग उन्हें घेरे रहते हैं, उनसे आगे सोच नहीं पाते. राजीव शुक्ला को टिकट मिला यह महत्वपूर्ण नहीं है बल्कि खास यह है कि वे 6 साल बिना राज्यसभा के रहे कैसे ?

6 साल पहले भी उन्होंने पूरी कोशिश की थी और अंतिम क्षणों में शायद गुजरात से टिकट हासिल भी कर लिया था. वहां पहुंचने के लिए प्लेन की भी व्यवस्था कर ली थी. मगर शायद नामांकन नहीं भर पाए थे लेकिन इस बार चूकने का सवाल ही नहीं था. अब पार्टी में उनकी उपयोगिता क्या है, यह वही जानते होंगे या पार्टी. मगर कार्यकर्ताओं में और काम करने वाले दूसरे नेताओं में इससे कोई अच्छा संदेश नहीं जाता है.

लोग प्रमोद तिवारी को भी इसी श्रेणी में रख रहे हैं. तिवारी परिवार के साथ संबंध बनाने में थोड़े ज्यादा सक्रिय जरूर रहते हैं, मगर हैं जनाधार वाले नेता. दस बार विधानसभा जीते हैं जिनमें 9 बार लगातार जीते हैं और फिर सीट बेटी आराधना मिश्रा उर्फ मोना को दे दी तो उसे भी तीन बार से लगातार जीता रहे हैं. इस बार तो यूपी में केवल दो ही सीटें आई हैं और उनमें से एक रामपुर खास से आराधाना जीती हैं. यह क्या कम सफलता है ?

यूपी में अभी भाजपा और उससे पहले सपा, बसपा की जातिगत राजनीति में बयालीस साल से कांग्रेस की सीट बनाए रखना बहुत बड़ी बात है. इसी तरह यूपी से एक और चेहरा कांग्रेस ने अच्छा दिया. दरअसल यह शायद नया मुस्लिम नेतृत्व बनाने की भी कांग्रेस की कोशिश है. वैसे तो देश भर में यह गठजोड़ बनाने की जरुरत है. मगर यूपी में खासतौर से ब्राह्मण, मुस्लिम, दलित गठजोड़ पर ज्यादा काम करने की जरूरत है. कांग्रेस का यही आधार रहा है.

ब्राह्मण प्रमोद तिवारी को लाने के साथ पार्टी के अल्पसंख्यक विभाग के अध्यक्ष इमरान प्रतापगढ़ी को राज्यसभा में लाने का फैसला कांग्रेस का दूरगामी फायदा पहुंचाने वाला हो सकता है. इमरान युवा हैं और पिछले दो साल में जब से वे माइनरटी डिपार्टमेंट के अध्यक्ष बने हैं, बहुत मेहनत की है. कांग्रेस मुख्यालय में अगर कहीं भीड़ दिखती है तो उनके कमरे के बाहर ही दिखती है, नहीं तो अकबर रोड स्थित पार्टी मुख्यलय इतना सूना हो गया है कि वहां चलने वाली केंटिन में पहली बार खाने पीने के आधे आइटम बनना बंद हो गए. केंटिन बड़ी कंपनी सागर रत्ना की है तो वे चला रहे हैं, मगर उन्हें आधा स्टाफ वहां से हटाना पड़ा है. काम ही नहीं है. ऐसे में इमरान की लोकप्रियता से वहां खासी भीड़ जमा रहती है.

कांग्रेस ने उन्हें आगे बढ़ाकर मुसलमानों और यूपी में अच्छा संदेश दिया है लेकिन ब्राह्मण, मुसलमान के साथ यूपी के एक दलित नेता को भी कांग्रेस को राज्यसभा में देनी चाहिए थी. मायावती वहां खत्म हो गई हैं. दलित सपा की तरफ जाता नहीं है. ऐसे में उसके कांग्रेस में वापसी के बहुत अच्छे मौके हैं. कांग्रेस ने मुकुल वासनिक को राजस्थान से फिर मौका दिया है दलित के नाम पर. मगर न दलित उन्हें अपना नेता मानते हैं और न ही दलितों में उनका कोई काम है. दलित यूपी का लाया जाना चाहिए था.

कभी लगता है कि जैसे मंदिर के सामने खड़े होकर प्रसाद बंटता है कि जो सामने आ जाए वह ले ले. ऐसे ही कांग्रेस में टिकट और पद बंटते हैं, बिना सोचे हुए. सोनिया जी कई कारणों से डरी हुई थी. इन्दिरा जी, राजीव के बाद बच्चों की सुरक्षा, राजनीति में स्वीकार्यता का सवाल, भाषा कई वजहों से उनके मन में शंकाएं रहती थीं, जिसका फायदा उनके आसपास रहने वाले कांग्रेसी नेताओं ने खूब उठाया. असली वफादरों को दूर किया. अर्जुन सिंह जैसे नेता को चापलूस कहा गया. कांग्रेस की प्रवक्ता से कहलवाया गया. सिर्फ इसी के लिए प्रेस कान्फ्रेंस की गई.

एक वाक्य ‘कांग्रेस को चापलूस पसंद नहीं’ ने अर्जुन सिंह को इतना आहत किया कि उनकी जान चली गई. वायएसआर की विमान दुर्घटना में मृत्यु के बाद उनकी पत्नी और बेटे जगन रेड्डी को लगातार अपमानित किया गया. वायएसआर के बाद जगन को न बनाकर किसे मुख्यमंत्री बनवाया गया, उसका नाम भी आज किसी को याद नहीं है. जगन ने बहुत संघर्ष किए और आज वह मुख्यमंत्री है. मगर न कांग्रेस आंध्र प्रदेश में कहीं है और न ही वे नेता जिन्होंने जमीन से जुड़े जगन को अस्वीकृत करवाया था.

सोनिया गांधी से ऐसे निर्णय बहुत करवाए गए. उनका भलापन, कड़े राजनीतिक निर्णय लेने में उनकी हिचक समझ में आती है, मगर राहुल की क्या मजबूरी है कि वे भी स्वतंत्र निर्णय लेने के बदले दूसरों पर निर्भर हो जाते हैं ? जिन लोगों को राहुल ने अपने नजदीक रखा है, वे राहुल की मदद के लिए हैं या खुद उनसे मदद लेकर मजबूत होने के लिए ?

कांग्रेस के पास सिर्फ दो राज्य हैं और दोनों ही जगह से उसने एक भी स्थानीय व्यक्ति को उम्मीदवार नहीं बनाया. दोनों जगह राजस्थान और छत्तीसगढ़ में अगले साल विधानसभा चुनाव हैं. ये बाहर के गए उम्मीदवार क्या वहां चुनाव जिताएंगे ? राजस्थान में उदयपुर में शिविर करने के बाद राहुल आदिवासियों के सबसे बड़े तीर्थ बेणेश्वर धाम पहुंचे थे, जहां उन्होंने आदिवासियों की बड़ी सभा की. कहा मेले में आउंगा, देखूगां आप क्या करते हैं ! मगर मेला जब लगेगा तब लगेगा अभी एक भी जगह आदिवासी को नहीं ? न राजस्थान में, न छत्तीसगढ़ में कोई आदिवासी नेता नहीं मिला !

इन दोनों जगह ही नहीं मध्य प्रदेश में भी आदिवासी चुनाव में निर्णायक भूमिका में होंगे. आदिवासी आखिरी थे जो कांग्रेस से दूर हुए. सबके जाने के बाद. अब क्यों ? यह इस टिकट वितरण से समझ लीजिए. दस में से एक भी आदिवासी नहीं जबकि पहले गुजरात में फिर इन तीन राज्यों छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्य प्रदेश में होने वाले चुनावों में कांग्रेस आदिवासी वोटरों से बड़ी उम्मीद लगाए बैठी है.

आठ साल हो गए. चिंतन शिविर भी हो गया मगर कांग्रेस ऐसे ही तदर्थवाद पर चल रही है. सोई हुई, अनमनी. कोई फैसला, कोई नव संकल्प उम्मीद नहीं जगा पाता. हलचल नहीं होती और यह उपर की उदसीनता है. शीर्ष से जब तक अधिकार सम्पन्न, शक्तिशाली नेतृत्व नहीं चमकेगा तब तक कुछ नहीं होगा. ढीले ढाले नेतृत्व से केवल आसपास के लोग ही फायदा उठाते रहेंगे.

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