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क्या हम भी वाया स्टीफेन-जेएनयू IAS बनने पर ताली बजाएं ?

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Rangnath singhरंगनाथ सिंह

डीयू-जेएनयू इत्यादि अपने लोकेशन और लैंग्वेज प्रिफरेंस के कारण देश के प्रिविलेज्ड संस्थान रहे हैं. सभी सरकारी संस्थानों की तरह इनमें लगभग मुफ्त शिक्षा दी जाती रही है. कल जब CSE 2021 का परिणाम आया तो जेएनयू-डीयू के पुराछात्रों ने प्रफुल्लित भाव से इसकी तरफ ध्यानाकर्षित किया कि इस बार की टॉपर वाया स्टीफेन-जेएनयू IAS बनी हैं.

जब मैं बनारस में था तो साल-दो साल के लिए जेएनयू मेरा ड्रीमलैण्ड बन गया था. मैंने मैथ-स्टैट से बीए किया था और ह्यूमनिटीज या सोशलसाइंस से एमए करना चाहता था. तब कुछ लोगों ने मुझे जेएनयू से एमए का रास्ता सुझाया क्योंकि वहां बीएचयू जैसे पाषाणकालीन नियम नहीं थे. हालांकि आदत और हालात ऐसे रहे कि कभी जेएनयू का फार्म नहीं भर सका.

दिल्ली आने के बाद डीयू-जेएनयू के लोगों का हस्तगत अनुभव बढ़ने लगा. कुछ साल बाद यह कथित एजुकेटेड तबका मुझे एक खास तरह के रैकेट का अंग लगने लगा, जिन्हें इस रैकेट में एडमिशन मिल जाता है वो चाहते हैं कि उनके परिचित भी उस बस में चढ़ जाएं लेकिन कोई अपरिचित न चढ़ने पाए. अभावों से भरे देश में हर आदमी इस भय से भरा हुआ है कि दूसरा आएगा तो उसका हिस्सा कम हो जाएगा.

अभी कुछ साल पहले एक नवयुवती से करियर सम्बन्धी बातचीत हो रही थी. उसने कहा कि वह इंग्लिश मीडियम से पढ़ी है और विदेश में हिन्दी पढ़ाने जाना चाहती है. मैंने सादादिली में कह दिया कि तब तुम जेएनयू में प्रवेश लो. विदेश में हिन्दी टीचर बनने का रैकेट, वहीं सबसे अच्छा है. उसे रैकेट शब्द पसन्द नहीं आया. जेएनयू जैसे संस्थानों का आभामण्डल ऐसा है कि आदमी उनके नाम के बोझ तले दबकर सोचना भूल जाता है. हम कह सकते हैं कि जेएनयू-स्टीफेन-एलफिंस्टन कलियुग के ब्रह्मा हैं जिनके मुख से कलियुगी ब्राह्मण निकलते हैं.

जब हम बनारस में थे तो सुनते थे कि जेएनयू के चपरासी भी अंग्रेजी बोलते हैं. तब इतनी समझ नहीं थी. हम भी कोलोनियल जुए को ज्ञान का प्रतिमान समझते थे. आज लगता है कि जेएनयू डीपली कोलोनाइज्ड यूनिवर्सिटी रही है. 2011 की जनगणना में दो लाख 68 हजार से कुछ ज्यादा लोगों ने अंग्रेजी को अपनी मातृभाषा या पहली भाषा बताया है. जेएनयू 1969 से बना और तब से यह अंग्रेजपरस्ती के साथ 69 की पोजिशन में है.

चूंकि जेएनयू के कर्ता-धर्ता आधुनिक-लिबरल लोग थे तो उन्होंने जिन्हें अंग्रेजी नहीं आती थी उन्हें अंग्रेजी सिखाने की व्यवस्था भी की. जैसे ब्रिटिश ने भारतीयों के लिए ICS में भर्ती होने की व्यवस्था की थी. कार्ल मार्क्स ने कहा है कि भाषा व्यावहारिक चेतना होती है. जेएनयू भारत के मार्क्सवादी विद्वानों का मक्का रहा है तो हम कह सकते हैं कि अंग्रेजी की इस तवाफ का मकसद उन लोगों की ‘व्यावहारिक चेतना’ का रूपांतरण करना था जो इंग्लिश की ‘व्यावहारिक चेतना’ के बिना जेएनयू पहुंच जाते थे. आज तक देश में यह व्यवस्था कमोबेश लागू है कि शीर्ष बाबू, प्रोफेसर, जज इत्यादि की प्राथमिक चेतना ‘इंग्लिश चेतना’ होनी चाहिए.

‘हर संस्थान का उरूज और जवाल आता है. जेएनयू अपवाद नहीं है. फर्क इतना पड़ा है कि जेएनयू पहले अन्दरूनी कारणों से दरक रहा था, अब बाहरी कारण भी उसे दरका रहे हैं. वरना, जेएनयू के पतन का आमुख 1980 के दशक में लिखा जा चुका था. उसके बाद हर दशक में उस पतनशील प्रबन्ध-काव्य में नया अध्याय जुड़ता जा रहा है. इस पतनशील प्रबन्ध-काव्य की कथा IAS वाया स्टीफेन-जेएनयू की बनने की चर्चा किए बिना अधूरी रहेगी.

जब मैं दिल्ली आया तो देखा कि जेएनयू विद्वान बनाने का कम और बाबू बनाने का बड़ा कारखाना बनता जा रहा है. यहां वाया स्टीफेन-डीयू-जेएनयू IAS-IPS बनाए जा रहे हैं. मेरी राय में जेएनयू के बौद्धिक पतन की शुरुआत तब हुई जब वहां के छात्रों में मसूरी जाने का चस्का बढ़ना शुरू हुआ।श.

उस जमाने के जेएनयू के छात्र बताते हैं कि उस दौर में जेएनयू के अध्यापक उन छात्रों को अच्छी नजर से नहीं देखते थे जो IAS बनने का मकसद लेकर वहां प्रवेश लेते थे. उस जमाने के प्रोफेसरों की राय थी कि ऐसे लोग मूलतः जनता के पैसे से चलने वाले संस्थान की सुविधाओं का निजी हित में दुरुपयोग करने आते हैं.

जाहिर है कि कुछ अपवाद भी होंगे जो आर्थिक अभाव के कारण वाया जेएनयू मसूरी जाते होंगे लेकिन जेएनयू पासआउट सीनियरों के अनुसार तब के कुछ प्रोफेसरों की यही सोच थी कि यह जेएनयू का दुरुपयोग है. हालांकि यह भी सच है कि IAS वाया स्टीफेन के कारखाने यानी UPSC में विषय-विशेषज्ञ सप्लाई करने का ठेके में भी जेएनयू के प्रोफेसरों का योगदान रहा है.

पार्थसारथी रॉक से होकर मसूरी जाने वालों का निजी भला भले होता रहा हो लेकिन इससे जेएनयू की स्थापना के मकसद की हानि होती रही है. जेएनयू जैसी पोस्ट-ग्रेजुएट यूनिवर्सिटी की सस्ती सुविधाओं का लाभ लेकर सरकार, कार्पोरेट या एनजीओ में मोटी तनख्वाह की नौकरी पाने वालों में कितनों ने गरीब देश के प्रभुवर्ग में शामिल होने के बाद एक दिन या एक महीने की तनख्वाह जेएनयू इत्यादि सरकारी संस्थानों को प्रतिदान में दिया है ? देंगे कैसे, कुछ दशक पहले तक भूरे बाबुओं के दिमाग में कभी आया ही नहीं कि सस्ती शिक्षा पाकर अमीर बनने वाले पलटकर प्रतिदान भी दे सकते हैं तो वो इसके लिए सुगम व्यवस्था नहीं बना पाए.

ब्रिटिश सरकार ने कम से कम एक अक्लमंदी जरूर दिखायी है कि IAS बनने की अर्हता स्नातक रखी. आजादी के बाद बनी भारत सरकार में इतनी हिम्मत नहीं थी कि वह योग्यता के ब्रिटिश मापदण्ड पर उंगली उठा सके, तो वह व्यवस्था जारी रही।श. इस बार की टॉपर ने यह दिखा भी दिया है कि IAS बनने के लिए बीए-बीएससी से आगे पढ़ने की जरूरत नहीं होती. इस बार की टॉपर डीयू-स्टीफेन से बीए हैं, जेएनयू से एमए ड्रापआउट हैं और जामिया से यूपीएससी कोचिंग करती थीं.

ऐसा नहीं है कि बाबू बनाने के सारे कारखाने दिल्ली-मुम्बई इत्यादि महानगरों में ही हैं. जब इलाहाबाद अंग्रेजियत के दौर में था तब वहां भी बहुत बाबू बनाए गए।श. ज्यों-ज्यों इलाहाबाद की अंग्रेजियत कम होती गयी त्यों-त्यों वहां से निकलने वाले बाबुओं की संख्या में गिरावट आती गयी. आज भी बाबू बनने की अव्वल योग्यता अच्छी अंग्रेजी है. जो संस्थान जितनी अच्छी अंग्रेजी सिखा लेगा वो उतने बाबू बनाएगा. जीके-जीएस-रिजनिंग का किला फतह करने की बात, उसके बाद आती है.

मौजूदा टॉपर ने भी यह साबित किया है कि CSE को आधुनिक भारत की मनुस्मृति कहा जा सकता है. पण्डित सरनेम देखते ही गालीगलौज करने वाले तंगनजर अतीत को साफ नजरों से देख नहीं पाते. 1949 में हमारे गांव का सबसे सम्मानीय पण्डित भी इलाहाबाद-स्टीफेन-एलफिंस्टन इत्यादि में तैयार किए जा रहे नव-ब्राह्मण के सामने बैल जितनी हैसियत भी नहीं रखता था. कोलोनियल और पोस्ट-कोलोनियल इंडिया में जिन गऊपुत्रों ने गाय माता का दूध छोड़कर ‘शेरनी का दूध’ पीना शुरू कर दिया वह जाति-धर्म के बन्धन तोड़कर कलियुगी ब्राह्मण-क्षत्रिय बन गए.

यहां यह कहना भी जरूरी है कि इलाहाबाद-स्टीफेन-एलफिंस्टन इत्यादि में नव-ब्राह्मण तैयार करने का कारखाना किसी सदाशयता में नहीं शुरू किया गया था. ब्रितानी दौर में एक वक्त ऐसा आया कि ब्रिटिश नौजवानों को लगने लगा कि हिन्दुस्तान में लूटने लिए अब ज्यादा कुछ नहीं है और गुलाम भारत से लूटे गए माल के साथ ब्रिटेन के आजाद समाज में लौटने पर बड़ी बदनामी होती है. आजाद भारत में वह व्यवस्था जारी रही. भारत का धन लूटकर विदेश में बसने की परम्परा भी काफी हद तक जारी है. अंग्रेजी सीखकर भारत के नव-ब्राह्मण बनने की ललक और लालच में भी कोई कमी नहीं आयी है.

स्टीफेन और एलफिंस्टन इत्यादि में तैयार होने वाले नव-ब्राह्मणों के बारे में मैकाले ने कहा था कि जिनकी देह हिन्दुस्तानी होगी लेकिन आत्मा ब्रितानी. इस ब्रितानी आत्मा का ताजा सबूत दो IAS (युगल) ने त्यागराज स्टेडियम में कुत्ता घुमाकर दिया है लेकिन असली विडम्बना यह है कि अब विद्वान भी वाया स्टीफेन नेशनल स्टेडियम में कुत्ता घुमाने का लाइसेंस मिलने पर ताली बजा रहे हैं.

जेएनयू की स्थापना पोस्ट-ग्रेजुएट यूनिवर्सिटी के तौर पर की गयी थी. पोस्ट-ग्रेजुएट यूनिवर्सिटी अगर उस परीक्षा को पास करने का जरिया बन जाए जिसकी योग्यता बीए हो तो यह चिन्ताजनक होना चाहिए, उत्साहवर्धक नहीं. सोचिए, जेएनयू से एमए करने की भी योग्यता बीए है, IAS की भी. पहला विद्वान बनने का रास्ता है, दूसरा दूखे-भूखे देश का हुक्मरान बनने का. जेएनयू जाकर जो हुक्मरान बनते हैं वो दरअसल कुछ सालों तक विद्वान बनने का अभिनय करते हैं ताकि वहां की सुविधाओं का लाभ ले सकें. कहना न होगा, इसके भी कुछ अपवाद होंगे जो अपनी क्षमता को जांच-परखकर बीच राह से राह बदलते होंगे.

विद्वान साथियों को याद दिलाना चाहूंगा कि 1947 में जिस अंग्रेजी भाषा को जानने वाले देश में 0.5 प्रतिशत भी नहीं थे केवल उसे जानने की वजह से देश के नए हुक्मरान बनाने की व्यवस्था ने आजाद भारत की 99.50 प्रतिशत से ज्यादा भाषाओं में पैदा होने वाली प्रतिभाओं को या तो कुचल दिया या जीवन भर के लिए कुंठित कर दिया. भूरे साहबों की गोरी आत्मा के पांवों तले भारत की जितनी मौलिक प्रतिभाएं कुचली गई हैं उनका हिसाब लगाना नामुमकिन है.

CSE का इस साल परिणाम बता रहा है कि भारत की मौलिक प्रतिभाओं को कुचलने-कुंठित करने वाली यह कोलोनियल मशीन आज भी पूरी रफ्तार से काम कर रही है. इस मशीन के तीखे दांत से जो बच गए वो या तो महामेधावी थे, या खुशकिस्मत या फिर मैनुफैक्चरिंग डिफेक्ट. स्टीफेन और जेएनयू वाले बहुत मेरिट की बात करते हैं. जिस सेवा में नटवर सिंह जैसे सेकेण्ड डिविजनर इंटरव्यू में मौसी जी टाइप महिला को पाकर सेलेक्ट होते रहे हों उसे प्रतिभा परखने वाली परीक्षा कहना भोलापन माना जाएगा.

जिस परीक्षा में दशकों तक इंटरव्यू में कम नम्बर देकर लिखित परीक्षा में अच्छे अंक पाने वालों को छांटने के उदाहरण मौजूद हों उसको प्रतिभा का प्रमाण मानना भोलापन कहा जाएगा. आज भी CSE में सफलता नेचुरल टैलेंट के बजाय जन्मजात प्रिविलेज या किसी संस्था या सरकार द्वारा मिले प्रिविलेज्ड नर्चर की देन है.

फॉर दि सेक ऑफ आर्गूमेंट मान भी लेते हैं कि स्टीफेन-डीयू-जेएनयू ने देश में बहुतेरे बाबू बनाए हैं और यह उन संस्थानों की मेरिट को प्रमाणित करता है लेकिन श्रीमान, एक बार यह तो देखिए कि इन मेरिटोरियस संस्थानों से निकले बाबुओं ने कैसा देश बनाया है ? क्या पूजा सिंघलों से भरे देश में इस प्रश्न पर गम्भीरता से सोचने की जरूरत नहीं है? यदि स्टीफेन-जेएनयू बाबू बना रहे हैं और बाबू देश बना रहे हैं तो क्या आपको नहीं लगता कि बाबू और देश के बीच बनने-बनाने की 100 साल से चली आ रही 69 की मुद्रा में थोड़ा बदलाव आना चाहिए ?

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