हर वर्ष दो करोड़ लोगों को रोजगार देने के वादे के साथ देश की सत्ता पर जमी घोर दक्षिणपंथी फासिस्ट संघी ने आज देश में रोजगार की परिभाषा ही बदल दी है. पकौड़ा तलने और बेचने से निकला रोजगार अब भीख मांगने, चोरी करने, नशाखोरी करने व बेचने, हत्या और बलात्कार करने, यहां तक की वेश्यावृत्ति जैसे कुकृत्य को भी बकायदा सम्मानित रोजगार बना लिया गया है. वहीं, इसके उलट शांति, सद्भाव, आपसी प्रेम, भाईचारा, पढ़ाई करना आदि को अपराध, यहां तक की देशद्रोह के अपराध में गिना जाने लगा है और लोगों पर मुकदमे दर्ज कर जेलों में डाला जाने लगा है.
इन अपराधों पर मुहर लगाई गई है संघी सरकार के मातहत पालतू सुप्रीम कोर्ट ने. हजारों टन अफीम और हेरोइन जैसे मादक पदार्थों की बिक्री देश में सरेआम बकायदा पुलिस और थानों के माध्यम से चलाया जा रहा है, जो कानूनी तौर पर तो वैध बनाने की कोशिश का ही हिस्सा है लेकिन पिछले दिनों सर्वोच्च अदालत ने वेश्यावृति को बकायदा कानूनी दर्जा दे दिया है. इसमें यह जानना बेहद समीचीन होगा कि देश के बड़े बड़े अफसरों, नेताओं (खासकर भाजपा के), करोड़पतियों यहां तक जज तक इन वेश्याओं की सेवाएं लेते रहे हैं.
देश के नियंता बने सुप्रीम कोर्ट के इन व्यभिचारियों ने वेश्यावृत्ति को ही कानूनी और वैध रोजगार बना दिया है ताकि इसके आड़ में देश में बड़े पैमाने पर वेश्यावृत्ति का नेटवर्क खड़ाकर दौलत और औरत दोनों का उपभोग किया जा सके. अब इस देश में यह बहस बेमानी बना दी गई है कि वेश्यावृति सामाजिक बुराई है या नहीं. बहरहाल मानवता पर कलंक बनी यह वेश्यावृत्ति को वैध रोजगार मानने वाला यह सुप्रीम कोर्ट खुद ही मानवता पर कलंक बन गया है.
सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश के बाद भी देश के अंदर यह बहस चलती रहेगी कि वेश्यावृति का ख़ात्मा कैसा किया जाए ? कैसे स्त्रियों का वस्तुकरण खत्म हो ? कैसे स्त्रियों का समाज में सम्मानजनक स्थान कायम हो ? चूंकि अब तक वर्ग समाजों के इतिहास में सिर्फ समाजवादी देश ही हैं जिन्होंने वेश्यावृति के कोढ़ को जड़ से खत्म किया. यह लेख समाजवादी सोवियत यूनियन द्वारा वेश्यावृति के ख़ात्मे की एक झलक दिखाता है, जिसे तजिन्दर ने लिखा था और मुक्ति संग्राम अखबार ने प्रकाशित किया था.
वेश्यावृत्ति का दंश
वेश्यावृत्ति प्राचीन काल से हमारे समाज में मौजूद रही है. इसकी शुरुआत समाज के वर्गों में बंटने और स्त्रियों की दासता के साथ ही हो गयी थी लेकिन पूंजीवाद के साथ ही देह व्यापार का यह धन्धा एक व्यापक और संगठित रूप में अस्तित्व में आया. इसने एक खुली आज़ाद मण्डी पैदा की जिसमें कारख़ानों में पैदा हुए माल से लेकर इंसानी रिश्तों और जिस्मों को भी मुनाफे के लिए खरीदा और बेचा जाने लगा. इसके साथ ही कलकत्ता, दिल्ली और मुंबई जैसे महानगरों से लेकर छोटे शहरों तक में देह व्यापार की मण्डियां और उसके साथ ही दुनियाभर में मानव तस्करी का एक व्यापक कारोबार पैदा हुआ.
अकेले भारत में ही लगभग 30 लाख से ज्यादा वेश्याएं हैं. इनमें 12 से 15 साल तक की करीब 35 प्रतिशत लड़कियां हैं जो इस अमानवीय धन्धे में फंसी हुई हैं. हर साल लाखों औरतों और लड़कियों की एक जगह से दूसरी जगह तस्करी की जाती है और जबरन इस धन्धे में धकेला जाता है. इस व्यवस्था की तरफ से भी इस समस्या से निपटने के लिए कोशिशें की जाती रही हैं और बहुत से एनजीओ और समाजसेवी संस्थाएं भी इसको लेकर काम कर रही हैं. लेकिन इन सबका असली मकसद इस समस्या के बुनियादी कारणों पर पर्दा डालना ही है.
आज इस अमानवीय धन्धे को कानूनी रूप देने की कोशिशें की जा रही हैं जिससे इसके हल का सवाल ही ख़त्म किया जा सके. इस व्यवस्था की जूठन पर पलने वाले तमाम बुद्धिजीवी इसके पक्ष में दलीलें गढ़ रहे हैं और मीडिया द्वारा इन दलीलों को आम राय में बदलने की कोशिशें भी जारी हैं.
बीसवीं सदी के शुरू में अमेरिका व यूरोप के पूंजीवादी देशों में वेश्यावृत्ति के खिलाफ ज़ोरदार मुहिमें चलायी गयी थी. मगर औरतों की हालत सुधारना इन मुहिमों का मकसद नहीं था, क्योंकि इनके पीछे असली कारण था यौन रोगों का बड़े स्तर पर फैलना इसलिए ये मुहिमें वेश्यावृत्ति विरोधी न होकर वेश्याओं की विरोधी थी. इन मुहिमों का विश्लेषण अमेरिकी लेखक डाइसन कार्टर ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘पाप और विज्ञान’ में काफी विस्तार से किया है. इसके साथ ही रूस में अक्तूबर 1917 की क्रान्ति से पहले और बाद में वेश्यावृत्ति की स्थिति का जिक्र भी इस किताब में किया गया है.
रूस में क्रान्ति से पहले वेश्यावृत्ति
रूस में जारशाही के दौर में वेश्यावृत्ति का एक संगठित ढांचा मौजूद था. यह पूरा संगठित ढांचा रूसी बादशाह ज़ार की सरकार की देखरेख में चलाया जाता था, इसे ‘पीले टिकट’ की व्यवस्था कहा जाता था. जो औरतें वेश्यावृत्ति को पेशे के तौर पर अपनाती थीं, उनको एक पीला टिकट दिया जाता था, लेकिन इसके बदले उनको अपने पासपोर्ट (पहचानपत्र) को त्यागना पड़ता था. इसका मतलब था एक नागरिक के तौर पर अपने सभी अधिकारों को गंवाना.
एक बार इस धन्धे में आने के बाद वापसी के सभी दरवाज़े बन्द कर दिये जाते थे. कोई भी औरत वेश्यावृत्ति के अलावा कोई दूसरा काम नहीं कर सकती थी क्योंकि पासपोर्ट के बिना कहीं नौकरी नहीं की जा सकती थी. इसके इलावा इन औरतों की सामाजिक हैसियत भी पूरी तरह ख़त्म कर दी जाती थी. ऐसी औरतों के लिए अलग इलाके बनाये गए थे, जैसे भारत में ‘रेड लाइट एरिया’ हैं. मतलब कि इन औरतों का अस्तित्व निचले दरजे के जीवों के रूप में था. इस प्रबन्ध को कायम रखने पीछे मकसद था सरकार को इससे हो रही आमदनी. वेश्याओं को अपनी आमदनी का एक हिस्सा जिला प्रमुख या दूसरे सरकारी अफसरों को देना पड़ता था.
क्रान्ति से पहले तक अकेले पीटर्सबर्ग शहर में सरकारी लायसेंस प्राप्त औरतों की संख्या 60,000 थी. 10 में से 8 वेश्याएं 21 साल से कम उम्र की थी. आधे से ज़्यादा ऐसीं थीं, जिन्होंने 18 साल से पहले ही इस पेशे को अपना लिया था. रूस में नैतिक पतन का यह कीचड़ जहां एक तरफ आमदनी का स्रोत था, वहीं दूसरी तरफ यह रूस के कुलीन लोगों के लिए विदेशों से आने वाले लोगों के सामने शर्मिन्दगी का कारण भी बनता था. इसलिए इन कुलीन लोगों ने ज़ार सरकार पर दबाव बनाया और ज़ार द्वारा इस मसले पर विचार करने के लिए एक कांग्रेस भी बुलाई गई.
इस कांग्रेस में मज़दूर संगठनों द्वारा भी अपने सदस्य भेजे गये. मज़दूर नुमाइंदों द्वारा यह बात पूरे जोर-शोर से उठाई गई कि रूस में वेश्यावृत्ति का मुख्य कारण ज़ारशाही का आर्थिक और राजनैतिक ढांचा है लेकिन ज़ाहिर है कि ऐसे विचारों को दबा दिया गया. पुलिस अधिकारियों का कहना था कि ‘भले घरानों’ की औरतें पर प्रभाव न पड़े, इसलिए ज़रूरी है कि ‘निचली जमात’ की औरतें ज़िन्दगी भर के लिए यह पेशा करती रहें.
अक्तूबर 1917 क्रांति के पश्चात
अकतूबर, 1917 में रूस के मज़दूरों और किसानों ने बोल्शेविक पार्टी के नेतृत्व में ज़ारशाही को पलट कर समाजवादी क्रान्ति कर दी. निजी मालिकाने को ख़त्म करके पैदावार के साधनों का समाजीकरण किया गया. इस क्रान्ति का उद्देश्य सिर्फ आर्थिक गुलामी की बेड़ियों को ही तोड़ना नहीं था बल्कि इसने लूट पर आधारित पुरानी व्यवस्था द्वारा पैदा की गई तमाम सामाजिक बीमारियों (शराबखोरी, वेश्यावृत्ति, औरतों की गुलामी आदि) पर भी चोट की.
सोवियत शासन ने वेश्यावृत्ति के खिलाफ सबसे पहला हमला 1923 में किया. वेश्यावृत्ति की समस्या को पूरी तरह समझने के लिए डाक्टरों, मनोविशेषज्ञों और मजदूर संगठनों के नेताओं द्वारा 1923 में एक प्रश्नावली तैयार की गयी और रूस की हज़ारों औरतों और लड़कियों में बांटा गया.
इस प्रश्नावली का मकसद उन कारणों और स्थितियों का पता लगाना था, जिसमें एक औरत अपना जिस्म तक बेचने के लिए तैयार हो जाती है. हर स्तर और हर उम्र की अलग-अलग स्त्रियों से इन सवालों के उत्तर लिखित और गोपनीय तरीकों से लिये गये.
इस सर्वेक्षण के बाद जो तथ्य सामने आये, वे थे –
- देह व्यापार की सिर्फ वह स्त्री शिकार बनीं, जिनको दूसरे लोगों ने जानबूझ कर बहकाया था. किन लोगों ने ? उन लोगों ने नहीं जिन्होंने पहले-पहले उनके शरीर का सौदा किया था, बल्कि उन पुरुषों-स्त्रियों ने जो वेश्यावृत्ति के व्यापार से लम्बे-चौड़े मुनाफे कमा रहे थे या वे लोग जो व्यभिचार के अड्डे चलाते थे.
- व्यभिचार इसलिए कायम है क्योंकि भारी संख्या में भूखी-नंगी लड़कियां मौजूद हैं, इसलिए कि व्यभिचार का व्यापार करने से करारा मुनाफ़ा हाथ लगता है.
- सोवियत विशेषज्ञों को पता लगा कि ज़्यादातर लड़कियां आम तौर पर इतनी गरीब होतीं कि थोड़ी रकम का लालच भी उनको वेश्यावृत्ति की तरफ घसीट ले जाता है.
- ज़्यादातर औरतों ने कहा कि यदि उनको कोई अच्छा काम मिले तो वह इस धन्धे को छोड़ देंगी.
वेश्यावृत्ति के खिलाफ फौरी अमली कानून
इन तथ्यों की रौशनी में सोवियत सरकार ने सबसे पहले 1925 में वेश्यावृत्ति के ख़िलाफ़ एक कानून पास किया. देश की सभी सरकारी संस्थाओं, ट्रेड यूनियनों और स्थानीय संगठनों को निर्देश दिया गया कि वे फौरन ही नीचे लिखे उपायों को अमल में लायें. (यहां हम ‘पाप और विज्ञान’ किताब से इस कानून सम्बन्धित हवाले दे रहे हैं.) –
- मजदूर संगठनों की मदद से मजदूरों की हथियारबंद सुरक्षा फौज मजदूर स्त्रियों की छंटनी हर हालत में बन्द करे. किसी भी हालत में आत्म-निर्भर, अविवाहित स्त्रियों, गर्भवती स्त्रियों, छोटे बच्चों वाली स्त्रियों और घर से अलग रहने वालों लड़कियों को काम से हटाया नहीं जाये.
- उस समय फैली हुई बेरोज़गारी के आंशिक हल के रूप में स्थानिक सत्ताधारी संस्थाओं को निर्देश दिया गया कि वे सहकारी फैक्टरियां और खेती संगठित करें जिससे बेसहारा भूखी-नंगी स्त्रियों को काम पर लगाया जा सके.
- स्त्रियों को स्कूलों और प्रशिक्षण-केन्द्रों में भरती होने के लिए उत्साहित किया जाये और मजदूर संगठन इस भावना के खि़लाफ़ कारगर संघर्ष चलायें कि स्त्रियों को मिलों-फैक्टरियों आदि में काम नहीं करना चाहिए.
- उन स्त्रियों के लिए जिनके पास रहने की ‘कोई निश्चित जगह नहीं है’, और उन लड़कियों के लिए जो गांव से शहर में आयी हैं, आवास अधिकारी रिहाइश हेतु सहकारी मकान का प्रबंध करें.
- बेघर बच्चों और जवान लड़कियों की सुरक्षा के नियम सख़्ती के साथ लागू किये जायें.
- यौन-रोगों और वेश्यावृत्ति के ख़तरे के ख़िलाफ़ आम लोगों को जागरूक करने के लिए अज्ञानता पर हमला किया जाये. आम लोगों में यह भावना जगायी जाये कि अपने नये जनतंत्र से हम इन रोगों को उखाड़ फेंकें.
ठेकेदारों, वेश्याओं और ग्राहकों के प्रति तीन अलग रवैये
- सोवियत सरकार द्वारा ठेकेदारों और वेश्याघरों के मालिकों (जिन में मकान मालिक और होटलों के मालिक भी शामिल थे) के लिए सख़्त रवैया अपनाने के लिए कहा गया. फौज को हिदायत दी गई कि मनुष्यों का व्यापार करने वालों और वेश्यावृत्ति से लाभ कमाने वाले लोगों को गिरफ्तार कर लिया जाये और कानून मुताबिक सजा दी जाये.
- वेश्यावृत्ति में फंसी औरतों के बारे में लोगों और फौज को चेतावनी दी गयी कि उनके साथ अच्छा बरताव किया जाये. यह भी कहा गया कि छापे के दौरान उनको बराबर को नागरिक समझा जाये. ऐसी भी धारा थी कि इन औरतों को गिरफ्तार न किया जाये. उनको अदालत में सिर्फ ठेकेदारों के खि़लाफ़ गवाही देने के लिए ही लाया जाता था.
- ग्राहकों के प्रति सामाजिक दबाव की पहुंच अपनायी गयी. ग्राहकों को गिरफ्तार नहीं किया जाता था बल्कि उनका नाम-पता और नौकरी की जगह का पता ले लिया जाता था, फिर बाजार में एक तख़्ता लगा दिया जाता, जिस पर ग्राहकों के नाम और पतों के साथ लिखा जाता था – ‘औरतों के शरीर को खरीदने वाला.’ ऐसे नामों की सूची सभी बड़ी-बड़ी इमारतों और मिलों-फैक्टरियां के बाहर लटकती रहती थी.
सामाजिक पुनर्वास
ऐसी औरतें भी थीं, जिनकी अस्पताल और स्वास्थ्य केन्द्रों में देख-रेख की जा रही थी, जो अपने आप को समाज के अनुकूल नहीं ढाल पा रही थी. इसलिए यह सम्भावना बनी हुई थी कि ऐसी औरतें फिर से देह व्यापार के धन्धे में जा सकतीं हैं. फिर सामाजिक पुनर्वास की एक योजना तैयार की गयी. संक्षेप में में यह योजना इस तरह थी –
- मरीज़ को तब छुट्टी दी जाती जब समाज के एक हिस्से में उसके रहने का पूरा-पूरा बन्दोबस्त कर लिया जाता. यहां उसका अतीत गोपनीय रखा जाता था. इस अतीत के बारे में सिर्फ उन्हीं गिने-चुने लोगों को पता होता था जिनके साथ अस्पताल में रहते हुए अन्तिम कुछ महीनों में मरीज़ ने पत्र-व्यवहार किया था. सामाजिक काम के ये वालंटियर पहले से ही एक ऐसी नौकरी की जगह तजवीज करते रहते थे, जिसके लिए स्त्री-रोगी को खास शिक्षा दी गयी होती थी. ये लोग उसके रहने के लिए किसी परिवार में प्रबन्ध कर देते. इस स्त्री के किसी नये परिवार में आने की हर बारीकी पर बड़ा ध्यान दिया जाता जिससे उसके पिछले जीवन के बारे में किसी को शक न हो सके.
- गिने-चुने देखभाल करने वालों का दल हर स्त्री को लंबे समय तक सहायता की गारंटी करता. हमारे देशों में भी जांच-पड़ताल का समय देने का प्रबंध है लेकिन उससे यह देखभाल बुनियादी तौर पर भिन्न थी. इस देखभाल का आधार था बराबरी के आधार पर व्यक्तिगत दोस्ती. ज़्यादा महत्व इस बात को दिया जाता था कि पुरानी मरीज अपने नये काम धंधे में सफलता प्राप्त करे. कम से कम एक देखभाल करने वाला इस स्त्री के साथ-साथ काम करता था.
- हर जिले के देखभाल करने वालों के अलग-अलग दल मिलकर सहायता समितियां बनाते थे, डाक्टरों, मनो-विशेषज्ञों और फैक्ट्री मैनेजरों से सलाह-मशवरे के लिए इन समितियों की महीने में तीन बार बैठकें होती थी. किसी भी मरीज़ के मामलो में थोड़ी भी गड़बड़ नजर आने पर विशेषज्ञ और अनुभवी सहायकों से फौरन मदद ली जा सकती थी. जैसे-जैसे समय बीता, पूरी तरह ठीक स्त्रियां इन समितियों के काम को और भी अच्छा बनाने के लिए उनमें शामिल होने लगीं.
- विवाह, धंधे, तनख्वाह, किराये वगैरह की किसी तरह की कठिनाई में उलझ जाने पर उनकी ज़्यादा हिफ़ाज़त के लिए समितियों ने खास कानूनी मदद का भी प्रबंध कर दिया था.
- पुरानी मरीजों को इस बात के लिए उत्साहित किया जाता कि जिन स्त्रियों का अब भी अस्पतालों में इलाज हो रहा है उन से निजी पत्र व्यवहार करें. इसका उद्देश्य यह था कि समाज में फिर से दाखिल होने की अस्पताल के मरीजों की इच्छा बढ़े और वह जल्दी ही समाज में फिर से वापस आ सकें.
सोवियत संघ के वेश्यावृत्ति के खिलाफ पंद्रह साल के संघर्ष के बाद
- अभियान के पहले दौर के पांच साल के बाद ही, 1928 में, गैर-पेशेवर वेश्यावृत्ति पूरी तरह खत्म हो गयी. 25,000 से ज्यादा पेशेवर स्त्रियां अस्पतालों से निकल कर सम्मानित नागरिक बन गयी थी. लगभग 3 हजार पेशेवर वेश्याएं अब भी मौजूद थी.
- 80 प्रतिशत से कुछ कम स्त्रियां अस्पताल से निकलकर उद्योग और खेतों में काम करने के लिए पहुंच चुकी थी.
- 40 प्रतिशत से अधिक ‘शॉक ब्रिगेडों’ में काम करने वालों में चली गई या देश के लिए इज्जत वाला काम करके उन्होंने नाम कमाया. ज़्यादातर ने विवाह कर लिया और मांएं बन गयी.
डायसन कार्टर के शब्दों में –
इस तरह व्यभिचार के ख़िलाफ़ संघर्ष – जो अब ‘गुलामों और पीड़ितों’ का संघर्ष बन गया था – सोवियत जीवन से युगों पुराने व्यभिचार के व्यापार को सदा के लिए मिटा देने में सफल रहा. इस संघर्ष ने यौन-रोगों का भी ख़ात्मा कर दिया. रूस की नयी पीढ़ी ने वेश्या को देखा तक नहीं है.
वेश्यावृत्ति ही नहीं नशाखोरी के खिलाफ भी चला अभियान
रूस में समाजवादी काल के दौरान नशाख़ोरी और वेश्यावृत्ति जैसी समस्याओं के ख़िलाफ़ संघर्ष छेड़ा गया और इनको को ख़त्म करने में सफलता भी मिली. उस दौर में अपनायी गयी नीतियां सिर्फ इसलिए ही नहीं सफल हुईं कि ज़ारशाही के बाद कोई ईमानदार सरकार आ गयी थी, इन समस्याओं को ख़त्म करने में सफलता मिलने का असली कारण यह था कि इन बुराइयों की जड़ निजी मालिकाने पर आधारित ढांचा रूस की कम्युनिस्ट पार्टी (बोल्शेविक) के नेतृत्व में अक्टूबर, 1917 के क्रान्ति के बाद ख़त्म कर दिया गया था.
पैदावार के साधनों का साझा मालिकाना होने के कारण पैदावार भी पूरे समाज की ज़रूरत को सामने रखकर की जाती थी, न कि कुछ लोगों के मुनाफे के लिए. इसलिए नयी बनी सोवियत सरकार द्वारा बनायी गयी नीतियां भी बहुसंख्यक मेहनतकश जनता को ध्यान में रखकर बनायी जाती थीं न कि मुट्ठीभर लोगों के मुनाफे के लिए.
आज पूंजीवाद ढांचा पहले से ओर भी पतित हो चुका है और नशाख़ोरी, वेश्यावृत्ति जैसी बुराइयां और भी व्यापक रूप धर चुकी हैं. आज जब समाजवादी दौर के सुनहरे इतिहास पर कीचड़ फेंका जा रहा है, तो आज जरूरी है कि समाजवादी दौर की उपलब्धियों का सच आम लोगों तक पहुंचाया जाये, जिससे इस बूढ़ी बीमार व्यवस्था को और भी नंगा किया जा सके. आज रूस और चीन में समाजवादी ढांचा कायम नहीं रहा, लेकिन इस दौर की उपलब्धियां आज भी हमें मौजूदा लूट-आधारित व्यवस्था को ख़त्म करने और नयी समाजवादी व्यवस्था खड़ा करने के लिए प्रेरित करती हैं.
तजिन्दर का लिखा आलेख यहां खत्म हो जाता है.
आखिर भाजपाई सुप्रीम कोर्ट ने वेश्यावृत्ति को वैध रोजगार क्यों बनाया ?
भारतीय हिन्दू संस्कृति का ढ़ोल पीटने वाला संघ-भाजपा और उसके नपुंसक राजदार सुप्रीम कोर्ट यह महसूस कर रही है कि मोदी सरकार ने पिछले.आठ सालों देश की भयानक दुर्गति कर दिया है. करोड़ों बेरोजगार लोग हैं, जिनके अगले दिन का ठिकाना नहीं है. देश के तमाम संसाधनों (रेल, हवाई, तमाम सार्वजनिक उद्योग आदि) अय्याशी में फूंके जा चुके हैं. जिससे इन तथाकथित सरकारी तंत्र को चलाने के लिए भी आवश्यक धन की पूर्ति नहीं हो पायेगी. ऐसे में अंतिम आसरा केवल औरत की देह ही बचता है.
मोदी सरकार की यह आखिरी उम्मीद है कि अब महिलाएं वेश्यावृत्ति कर देश का खजाना भरे ताकि देश में विदेशी पर्यटकों का पदार्पण हो सके और मोदी सरकार का खजाना भरा जा सके. चूंकि मोदी सरकार संसद से यह कानून पारित कर अपने मत्थे यह कलंक नहीं लेना चाहती थी, इसलिए उसने सुप्रीम कोर्ट में जज बने बैठे अपने पालतू कुत्तों के द्वारा मानवता पर कलंक इस वेश्यावृत्ति को खत्म करने की जगह उसे रोजगार ही बना दिया. अब वह दिन दूर नहीं जब भाजपा के टुकड़े पर पलने वाले जजों की बहु-बेटियां भी इस ‘रोजगार’ को अपना ले.
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