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भेड़िया गुर्राता है तुम मशाल जलाओ !

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भेड़िया गुर्राता है तुम मशाल जलाओ !
रेखाचित्र – ट्विटर से साभार

पारंपरिक तय प्रतिमानों से पैदा हुई रिक्ति को हम नवीन विचार बोध, न‌ई मानवीय सौंदर्य दृष्टि से ही भर सकते हैं. जागृत चेतना, जड़बुद्धि विकारों की पराधीनता को अस्वीकार करेगा. जब वह अपने आस-पड़ोस घर-परिवार, रिश्ते-नाते की जिजीविषा के हिस्से आए ऐतिहासिक हार अथवा कि निज सुख-दुःख की सीमाओं को लांघ, बढ़ने लगता है तथा और…आगे के सफर से मुखातिब हो, मुकाबले को तैयार होता है. यह कि कविता भी तब संग साथ के लिए तत्पर तैनात होती है. यक़ीनन तब कविता भी प्रत्येक उस निषेध के विरोध में अपनी प्रस्थान बिंदु को तय करने लगती है.

आखेट की उन शिकारी आंखों को पहचानने लगती है. उन्हें पहचानने लगती है जिन्होंने पीछे दरवाजे से यथा संभव देश से गद्दारी की, देश तोड़ने की कवायद की, और वस्तुत: वे ही देश को मज़बूत राष्ट्र कह, उसमें जाति धर्म और संप्रदाय के ज़हर भरते रहे हैं. फ़रीद खान कि आर चेतन क्रांति मुझे भाते ही इसीलिए हैं कि वे किसी परीसीमन से बंधते नहीं. तमाम दुश्चक्र को तोड़ भीड़, भेड़, अपढ़, कुपढ़, विवेक शून्य विचारहीन लोगों की शिनाख्तगी में कोई कसर नहीं छोड़ते और बकौल सर्वेश्वरदयाल सक्सेना लगातार बताते हैं कि –

भेड़िया गुर्राता है
तुम मशाल जलाओ
उसमें और तुममें
यही बुनियादी फर्क है
भेड़िया मशाल नहीं जला सकता.

मज़बूत राष्ट्र में जो टूट नहीं पाए

– फ़रीद ख़ां

01

राष्ट्र की सबसे मज़बूत सरकार,
अपने क़दमों से जब नापती है एक राष्ट्र की आबादी
तो उसे वैज्ञानिक भाषा में बुलडोज़र कहते हैं.

अब स्मृतियों और सपनों का
एक विशाल मलबा बनेगा एक राष्ट्र
और उस मलबे पर फहराएगा एक मज़बूत ध्वज.

आ रही है हर दिशा से
मज़बूत सरकार के क़दमों की आहट.

02

दारा शिकोह और सरमद के क़त्ल के बाद भी
एक मज़बूत राष्ट्र में कुछ लोग टूट नहीं पाए.

भगत सिंह और महात्मा गांधी के क़त्ल के बाद भी
मज़बूत राष्ट्र में कुछ लोग टूट नहीं पाए.

दाभोलकर, पानसारे, कलबुर्गी,
गौरी लंकेश और चंदू के क़त्ल के बाद भी
सत्ता के विशाल प्रेक्षागृह में जारी
क़त्ल के अतिरंजित मंचन के बाद भी
जिनको सबक़ नहीं मिला.

जो एक वक़्त खाकर भी भूखों नहीं मरे,
जिनकी आस्था का संयम ही हत्यारों को चुभता है.

कानों में गरम और पिघला उकसाने वाला
नारा डाले जाने के बावजूद, जो धैर्य की सांस लेते रहे.

उनके धैर्य को नापने को
उठे हैं मज़बूत राष्ट्र के मज़बूत क़दम.

वे

– आर. चेतन क्रांति

वे सबके काम आते थे
वे मूर्खता का बैंक थे
बदहवासी और बेवकूफी का
कोषागार

जहां भी
जो भी
सबसे कम हुनर से हो सकता था
वह करने के लिए
उनको ही बुलाया जाता

रतजगों में शोर कराने
कीर्तनों में डांस मचाने
चीखदार
पीकदार
चैनलों की
टी आर पी बढ़ाने
सिरकटे एंकरों के
कबंध-नृत्य में
ढोल बजाने
उत्तेजक फिल्मों के टिकट खरीदने
खाली पंडाल भरने
तालियां पीटने धूम मचाने
धर्म का राज्य स्थापित करने

वे सब करते
पिताओं, अध्यापकों, गुरुओं
और ग्रंथों ने
उन्हें शक्तिशाली पुरुषों
और रहस्यमयी ताक़तों का
हुक्म पालना सिखाया था

किताबें उनके लिए अलग ढंग से छपतीं
मोटे अक्षरों
और छोटे अध्यायों में
जो बस यह बतातीं
कि सुबह उठने से लेकर
रात को जा पड़ने तक
क्या क्या करना है
जो सोचने को कहतीं
या जिनकी छपाई महीन होती
उन्हें वे तुरंत जला देते
जैसे उन लोगों को
जो उन्हें रुकने और सोचने को कहते

सुबह उन्हें किक मारकर छोड़ दिया जाता
और वे देर रात तक
घुड़ घुड़ घों घों करते
शहर भर में भागते रहते
उन्हें रोकना मुश्किल ही नहीं
नामुमकिन हो जाता
वे जो कहते वह तो करते ही
पर जो नहीं कहते उसे जरूर ही करते

पुराने बदरंग जांघिये
और नए कुर्ते पहनकर
वे झुंड में निकलते
मोबाइल पर तिलक
और लैपटॉप पर माला चढ़ाकर
धरती को डंडों से कोंचते
वे हर वह काम करने को तैयार मिलते
जिसकी न देश को जरूरत होती न दुनिया को

उनके मोटे दिमाग को ध्यान में रखकर
स्थायी कार्यक्रम के तौर पर
उन्हें एक सादा कागज दिया गया
जिस पर बीचोंबीच
एक मोटी लकीर खींच दी गई थी
उनका काम उस लकीर के
एक तरफ कूदते रहना था
जिसमें उनको इतना मज़ा आया
कि वे बाकी सब भूल गए

वे अजीब थे
नहीं, शायद बेढंगे
नहीं, डरावने
न, सिर्फ अहमक
नहीं, अनपढ़
नही, पैदायशी हत्यारे
नहीं, भटके हुए थे वे
नहीं, वे बस किसी के शिकार थे
हाँ, शायद किसी के हथियार

वे पहेली हो गए थे
समझ में नहीं आता था
कि वे कब कहां और कैसे बने
क्यों हैं वे कौन हैं, क्या हैं

अरेंज्ड दाम्पत्य की ऊब का विस्फोट ?
वैवाहिक बलात्कारों की जहरीली फसल ?
स्वार्थ को धर्म और धर्म को स्वार्थ बना चुके
पाखंडी समाज का मानव-कचरा?
ऊंच-नीच के लती देश की थू थू था था ?
या असहाय माता-पिता की
लाचारियां, दुश्वारियां, बदकारियां ?

या कुछ भी नहीं
बस मांस-पिंड
जो यूं ही गर्भ से छिटककर
धरती पर आ पड़े
और बस बड़े होते रहे
और फिर कुछ
अतीतजीवी
हास्यास्पद
लेकिन चतुर जनों के हाथ लग गए.

कोई नृप होए हमें का हानि

यह दिमाग से पैदल और विचार से शून्य आदमी की मनोदशा को बताता है. देश और जनता, यह कभी न मानें. अन्यथा परिस्थिति आपको मीलों पैदल चलाएगा ! आप भ्रम में रहेंगे और थक जाएंगे, हांफेंगे जब, कोई पास नहीं आएगा. यह एक अकर्मण्य निष्कृष्टता होगी जिसका वह सिर्फ मजा लेगा. आज जिस तरह से असहमति और विरोध को लेकर जो चुप्पियां चारों ओर व्याप्त है. हम सुनियोजित हत्या के भागीदार हैं, मारे जा रहे हैं. मैं पूरे विश्वास से यदि यह कह रहा हूं तो मैं यह देख पा रहा हूं और शिद्दत से महसूस कर रहा हूं.

संभवतः प्रत्यक्ष में यह सोच अथवा अवधारणा आपके लिए लाभ देने वाली हो, किन्तु क्षणिक लाभ की आकांक्षा में भावी पीढ़ी को हम लालच की इस आग में कहीं होम न कर दें, पुनर्विचार करें. यह देश और समाज आपका है. अतः इसके प्रति नागरिक दायित्व भी आप ही का है. ज़िंदा कौमें सदैव अपने वैचारिक बोध तथा वैज्ञानिक दृष्टि से इसे साकार करते रहे हैं.

  • इन्द्र राठौड़

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