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भारत में इस्लामोफोबिया के खेल और कार्यप्रणाली

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जगदीश्वर चतुर्वेदी, प्रोफेसर एवं पूर्व अध्यक्ष हिंदी विभाग, कलकत्ता विश्वविद्यालय, कोलकाता

इस्लामोफोबिया का सबसे पापुलर रुप है इस्लाम और मुसलमानों की नेगेटिव इमेज का अहर्निश प्रचार-प्रसार. कार्य शैली यह है कि इनके प्रति सामाजिक अलगाव, भेदभाव और हाशिए पर डालने की मनगढंत कहानियां बनाओ, भूठे आरोपों और मनगढ़ंत कहानियों के आधार पर चुनावों से पहले उनकी गिरफ़्तारी करो और फिर चुनावों में पुलिस की मनगढ़ंत कहानियों के ज़रिए मीडिया के जरिए आक्रामक नफ़रत भरा प्रचार करो, बहुसंख्यकवाद की राजनीति करो और हिन्दुओं को वोटबैंक बनाओ.

साथ ही यह बात बार बार बताओ कि मुसलिम शासकों ने हज़ारों मंदिरों को तोड़कर मसजिदें बनाईं. एक्शन में मसजिदों को निशाना बनाओ. इस प्रसंग में किसी भी क़ानून और संविधान क़ीमत मानो. नागरिक समाज का विरोध करो, मानवाधिकारों का विरोध करो. पूंजीपतियों, बहुराष्ट्रीय निगमों और समाज के सबसे घटिया तत्वों, अपराधियों और संत-महंतों को गोलबंद करो. यह है इस्लामोफोबिया का भारतीय रुप.

इस प्रौपेगैंडा में सिर्फ़ मीडिया और साइबर समूह ही शामिल नहीं है बल्कि अनेक दक्षिणपंथी संगठन, बुद्धिजीवी, प्रोफेसर, पत्रकार, वकील, डाक्टर, इंजीनियर और व्यक्ति भी शामिल हैं. आए दिन ये लोग इस्लामोफोबिया की थीम पर बयान देते हैं. जुलूस निकालते हैं. कोर्ट केस करते हैं. वाचिक और शारीरिक हिंसा करते हैं. इस पूरी प्रक्रिया में ‘समुदाय’ को ‘धर्म’ से जोड़कर देखा जाता है. ये लोग जब मुसलिम समुदाय को धर्म से जोड़ते हैं तो समाज को मध्यकालीन भावबोध में ले जाते हैं. व्यक्ति और समुदाय की पहचान धर्म से जोड़ते हैं.

इससे मुसलमानों के ख़िलाफ़ भेदभाव और हिंसा करने में सुविधा होती है. आम लोग उस हिंसा और भेदभाव को जायज़ मान लेते हैं. मसलन, राममंदिर आंदोलन के प्रसंग में सौ साल तक आरएसएस ने प्रचार किया कि बाबर ने राममंदिर तोड़कर बाबरी मसजिद बनाई लेकिन सुप्रीम कोर्ट में वे इसके पक्ष में एक भी प्रमाण पेश नहीं कर पाए. उनके पेश किए सभी प्रमाणों को सुप्रीम कोर्ट ने नहीं माना और साफ़ कहा कि इतिहास में इसका कोई प्रमाण नहीं है कि बाबर ने राममंदिर तोड़कर बाबरी मसजिद बनाई थी.

लेकिन यह असत्य प्रचार आम जनता ने मान लिया. जनता को इसके आधार पर वोट बैंक में रूपान्तरित कर दिया गया. जनता को साम्प्रदायिक हिंसा में सक्रिय कर दिया गया. फलतः रथयात्रा के समय बड़ी संख्या में कई दर्जन शहरों में दंगे हुए, मुसलमानों को बड़ी संख्या में जान से हाथ धोना पड़ा. उनकी करोड़ों रूपए की संपत्ति लूट ली गई या आग के हवाले कर दी गई. यह इकतरफ़ा हिंसा थी. इसे साम्प्रदायिक दंगा कहना सही नहीं होगा. इकतरफा हिंसा मूलतःआतंकी कार्यशैली है. यही वह पद्धति है जिसका इस्लामोफोबिया जमकर इस्तेमाल करता रहा है.

अब नया शगूफा ज्ञानवापी मसजिद और श्रीकृष्ण जन्मभूमि से संबंधित स्थानों को लेकर छोड़ा गया है. ये दोनों मंदिर उनके आगामी पचास-सौ साल के प्रकल्प का अंग हैं. वे जानते हैं अदालतों में जजमेंट जल्दी नहीं होते, अतः अहर्निश रोज़ नए झूठे क़िस्से बनाओ और प्रचारित करो. जनता की चेतना को साम्प्रदायिक बनाओ. वे इस क्रम में भारत के नागरिक की तरह आचरण नहीं कर रहे बल्कि वे आक्रामणकारी शासक समूह के रुप और हिन्दुत्व के आवरण में काम कर रहे हैं. वे भीड़ और मीडिया की राजनीति के ज़रिए आम जनता में अहर्निश मुसलमान और इस्लाम विरोधी नफ़रतभरी असत्य कहानियां प्रचारित-प्रसारित कर रहे हैं.

भगवान राम-कृष्ण मिथ हैं. वे भगवान हैं, अजन्मा हैं. वे कहां और कब पैदा हुए कोई नहीं जानता. ये सब बातें पौराणिक और मिथकीय आख्यानों की देन हैं. चूंकि वे आम जनता में अहर्निश प्रचार करके माहौल और स्वीकृति बनाने में सफल हो जाते हैं तो हमारे सांसद, विधायक, नेता, जज आदि भी उनके दवाब में आकर उनकी मुहिम का प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष समर्थन करने लगते हैं. इस तरह इस्लामोफोबिया सत्ता में अपना प्रभाव विस्तार करने में सफल हो जाता है.

इस्लामोफोबिया के भारत और विश्व स्तर पर जो रुप सामने आए हैं, उनको क़ायदे से समझने और उनका प्रतिवाद करने की ज़रूरत है.इस्लामोफोबिया वस्तुतः फंडामेंटलिज्म और कारपोरेट कल्चर का अत्याघुनिक हिंक-क्रिमिनल फिनोमिना है. इसे विभिन्न रुपों में हम सबके बीच में सम्प्रसारित करके मुसलिम विरोधी माहौल बनाया जा रहा है. कायदे से केन्द्र और राज्य सरकारों को इस्लाम और मुसलमानों के ख़िलाफ़ प्रचार करने वालों का सख़्ती से दमन करना चाहिए, क्योंकि संविधान के अनुसार किसी भी धर्म और समुदाय के ख़िलाफ़ नफ़रत फैलाना अपराध है.

इस अर्थ में इस्लामोफोबिया क्राइम है और इसके प्रचारक क़ानून की नज़र में क्रिमिनल हैं. भारत में इन लोगों ने मीडिया प्रचार, राजनीतिक लामबंदी के साथ क़ानूनी आतंकवाद का सहारा लेना शुरु कर दिया है. अब इस्लामोफोबिया सिर्फ़ प्रचार और हिंसा तक सीमित नहीं है बल्कि उसने एकदम आगे बढ़कर क़ानूनी आतंकवाद की शक्ल ग्रहण कर ली है. क़ानूनी आतंकवाद के ज़रिए उन तमाम लोगों के ख़िलाफ़ झूठे मुक़दमे दायर किए जा रहे हैं, गिरफ्तारियां करके अनियतकालीन तौर पर जेलों में बंद रखा जा रहा है जो लोग इस्लामोफोबिया का विरोध करते हैं. उनके प्रचार और क़ानूनी आतंकवाद के निम्न चार रुप सबसे अधिक प्रचलित हैं –

  1. मुसलमान एक जैसे हैं
  2. मुसलमान हिन्दू विरोधी हैं, मंदिर तोड़ने वाले और आतंकी हैं.
  3. वे सांस्कृतिक-सामाजिक रुप में पिछड़े हैं.
  4. वे पश्चिमीकरण, आधुनिकीकरण, धर्मनिरपेक्षता, लोकतंत्र आदि के विरोधी हैं.

इन चारों रुपों की हम क्रमशः सत्य और तथ्य की रोशनी में पड़ताल करेंगे.

क्या सारे मुसलमान एक जैसे होते हैं ?

जी नहीं. उनमें भी सामाजिक वैविध्य और वैषम्य है. विभिन्न देशों और भारत के विभिन्न राज्यों में उनकी प्रकृति, संस्कृति, संस्कार आदि अलग-अलग हैं. उनके आचार-व्यवहार भी अलग हैं. उन पर देशज संस्कृति और जातीय भाषायी अस्मिता का गहरा असर है.

मसलन, हिन्दी क्षेत्र के मुसलमान और बंगाली मुसलमान में अंतर है. बंगाली मुसलमानों पर बंगला संस्कृति और भाषा के साथ बंगाली जाति का गहरा असर है. वे अपनी अस्मिता को बंगाली अस्मिता के साथ जोड़कर देखते हैं. इसी तरह तमिल मुसलमान, मलयाली मुसलमान, कन्नड मुसलमान की अस्मिता पर जातीय भाषा और जातीय संस्कृति की परंपराओं और राजनीति का गहरा असर है. इसी तरह हिंदी क्षेत्र के मुसलमानों पर गंगा-जमुनी तहज़ीब और साझा संस्कृति की उर्दू-हिंदी परंपरा की साझी विरासत का गहरा असर है.

कहने का अर्थ यह कि मुसलमान एक जैसे नहीं होते. इजिप्ट (मिस्त्र) और तुर्कमेनिस्तान के मुसलमान एक जैसे नहीं हैं. तुर्की और लीबिया के मुसलमान एक जैसे नहीं हैं. ज्योंही आप यह मानते हैं कि मुसलमान एक जैसे हैं, आप इनके अंदर के अंतर्विरोधों और वैभिन्य को अस्वीकार करते हैं.

पेट रिसर्च सेंटर के सन् 2005 में कराए एक सर्वे के अनुसार सारी दुनिया की कुल आबादी में चौबीस फ़ीसदी मुसलमान हैं. यानी कुल 1.8 बिलियन मुसलमान रहते हैं. इनमें वैविध्य है, असमानता है और अंतर हैं. मसलन, शिया, सुन्नी, अरब, एशियन, अश्वेत अफ्रीकी और श्वेत पृष्ठभूमि के साथ अल्जीरियाई मुसलमान, अहमदिया और बोहरा मुसलमान भी रहते हैं.

इसके अलावा शिया समूह में तीन सम्प्रदाय हैं, सुन्नी में चार सम्प्रदाय हैं. इसका आशय यह है कि इस्लाम इकसार नहीं है, उसमें अनेक सम्प्रदाय हैं. उसमें देशज विविधता है लेकिन ज्यों ही मुसलमान कहते हैं हम सबके मन में उनकी इकसार इमेज कौंधती है, वह इमेज सक्रिय होती है जो स्टीरियोटाइप है. मीडिया और कठमुल्लों ने बनायी है. कायदे से मुसलमान पदबंध विविधता का प्रतीक है.

मीडिया, सीआईए-पेंटागन और भारत के दक्षिणपंथी संगठनों और घृणा प्रचारकों के जरिए यह कहा जा रहा है कि मुसलमान आतंकी होते हैं. आतंकी हमलों के लिए वे ही ज़िम्मेदार हैं लेकिन भारत के संदर्भ में सच्चाई यह है नार्थ-ईस्ट में सक्रिय आतंकी गिरोहों में कोई मुसलमान नहीं है. पंजाब के खालिस्तानी आतंकी समूह में कोई मुसलमान नहीं है. श्रीलंका, मारीशस, नेपाल आदि में कोई आतंकी मुसलमान नहीं है.

आतंकी संवृत्ति का मूल स्रोत मुसलमान या इस्लाम नहीं है बल्कि उसका मूल स्रोत अमेरिकी साम्राज्यवाद, शस्त्र उद्योग और अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्थाएं है. ये एजेंसियां विभिन्न तरीकों से भारतीय उपमहाद्वीप से लेकर दुनिया के विभिन्न हिस्सों में आतंकी संगठनों को तैयार करने में सक्रिय हैं.

एक ज़माने में उत्तर-पूर्व के राज्यों में आतंकियों को चीन मदद पहुंचा रहा था. तमाम आदिवासी समूहों को आतंकी बनाने में बाहरी राजनीतिक ताक़तों की बड़ी भूमिका है. आतंकी हिंसा में सिर्फ़ मुसलमान के भटके हुए या ख़रीदे हुए युवा ही सक्रिय नहीं रहे, अपितु वे लोग भी सक्रिय रहे हैं जिनका ईसाईयत, हिन्दूधर्म, बौद्धधर्म आदि से संबंध रहा है.

कहने का आशय यह कि आतंकवाद गंभीर अपराध है, उसे धर्म के आधार पर वर्गीकृत नहीं करना चाहिए. वह हिंसक राजनीतिक फिनोमिना है, इसका लक्ष्य है राष्ट्र-राज्य की सत्ता को चुनौती देना. शांतिपूर्ण लोकतंत्र में अव्यवस्था पैदा करना. यह आस्था से जुड़ा नहीं है, बल्कि पृथकतावाद और हिंसा की अभिव्यक्ति है. धर्म इसका बोगस आवरण है, असल है उसका आतंकी नज़रिया.

आतंकवाद कभी धर्म के आधार पर सक्रिय नहीं होता बल्कि हिंसा, जातीय विद्वेष और अशांति के आधार पर सक्रिय होता है, जिसे इस्लामिक आतंकवाद कहकर मीडिया प्रचारित करता है, वह असल में मुसलमानों का ही शत्रु है. इसका हिन्दू साम्प्रदायिकता से कोई द्वेष नहीं है. बल्कि वैचारिक तौर पर वे जुड़वां भाई हैं, एक ही सिक्के के दो पहलू हैं. जिस तरह इस्लामिक आतंकवाद मूलतः मुसलिम विरोधी है, उसी तरह हिन्दुत्व हिन्दू विरोधी फिनोमिना है.

उल्लेखनीय है मुसलिम आतंकवाद से सबसे अधिक मुसलिम देश प्रभावित हैं. भारत में मुसलिम बहुल कश्मीर में उसने मुसलमानों को सबसे अधिक नुक़सान पहुंचाया है. इसी तरह मध्यपूर्व के मुसलिम बहुल देशों को सबसे अधिक क्षति पहुंचाई है.

इसी तरह हिन्दुत्ववादी उग्रवाद ने सबसे अधिक हिन्दुस्तान को क्षतिग्रस्त किया है. हिन्दुओं के रोजगार-धंधे ख़त्म किए हैं. हिन्दुओं के हज़ारों छोटे कल-कारखाने बंद कराए हैं. उनकी हिंसक हरकतों के कारण देशी-विदेशी कंपनियां बड़े कारख़ाने खोलने से डर रही हैं. पांच से अधिक ऑटोमोबाइल कंपनियां देश छोड़कर जा चुकी हैं. सारी दुनिया में भारत की छबि ख़राब हुई है. विदेशी निवेश आना बंद हो गया है. अर्थव्यवस्था माइनस 23 फ़ीसदी जीडीपी हो गई है. चालीस करोड़ से अधिक लोगों का काम-धंधा चला गया. यह हिन्दुस्तान में अब तक का सबसे गंभीर आर्थिक-सामाजिक संकट है.

क़ायदे से हमें नागरिक और आतंकी में अंतर करना चाहिए, जिस तरह सब मुसलमान आतंकी नहीं हैं, उसी तरह सभी सिख या हिन्दू आतंकी नहीं हैं. यदि आतंकी और नागरिक की पहचान में अंतर करके देखेंगे तो कम से कम मुश्किलों का सामना करना पड़ेगा. आतंकियों को धार्मिक समुदाय विशेष से जोड़कर देखने से बचना चाहिए.

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