Home गेस्ट ब्लॉग पुराने मुल्क में नए औरंगज़ेब

पुराने मुल्क में नए औरंगज़ेब

28 second read
0
0
314

पुराने मुल्क में नए औरंगज़ेब

प्रियदर्शन, एक्ज़ीक्यूटिव एडिटर, NDTV इंडिया

वे कौन लोग हैं जो ज्ञानवापी से लेकर क़ुतुब मीनार के परिसर तक में पूजा करने की इच्छा के मारे हुए हैं ? किन्हें अचानक 800 साल पुरानी इमारतें पुकार रही हैं कि आओ और अपने ईश्वर को यहां खोजो ? क्या यह वाकई किसी ईश्वर की तलाश है, किसी धर्म की पवित्रता का ख़याल है जो उन्हें मस्जिदों से कचहरियों तक दौड़ा रहा है ?

इस सवाल का जवाब कुछ असुविधाजनक है. इस देश में हर किसी को अपनी आस्था के मुताबिक पूजा-अर्चना करने का अधिकार है- इस अधिकार में अपनी आस्था और अपने ईश्वर चुनने और उन्हें बदलने का अधिकार भी शामिल है. लेकिन जो इन पुरानी इमारतों पर नई दावेदारी के लिए निकले हैं, उनके दिल में पूजा नहीं, प्रतिशोध है, हिंदुत्व की शक्ति की तथाकथित प्रतिष्ठा का भाव है. वे नए औरंगज़ेब हैं जो पुराने औरंगज़ेब से बदला लेने चले हैं.

औरंगजेब ने अपने बाप को जेल में डाला, अपने भाई का क़त्ल किया, बादशाहत हासिल की और यह सब करते हुए कई मंदिर भी तोड़े. उसे भी शायद यह इस्लाम की प्रतिष्ठा के लिए ज़रूरी लगा होगा लेकिन इस्लाम हिंदुस्तान में औरंगज़ेब की तलवार से नहीं, उन सूफ़ी कव्वालियों से परवान चढ़ा जो अमीर-गरीब सबको यकसां छूती-जोड़ती रहीं, वह उन मज़ारों और दरगाहों की मार्फ़त लोगों के बीच पहुंचा जहां सभी आस्थाओं के लोग एक सी आस्था के साथ पहुंचते रहे, वह उन शायरों की बदौलत बुलंद हुआ जिन्होंने सबसे ज्यादा मजाक खुदा के नाम पर बरती जाने वाली मज़हबी संकीर्णता का उड़ाया.

वाकई यह अफ़सोस की बात है कि दिल्ली की मशहूर सड़कें उसके बादशाहों के नाम पर हैं, उन महान और हरदिल अज़ीज़ शायरों के नाम पर नहीं, जिन्होंने अवाम के दिलों पर हुकूमत की और कुछ इस शान से की कि आज भी उनकी तूती बोलती है. कितना ही अच्छा होता अगर दिल्ली में ग़ालिब, मीर, ज़ौक़, दाग़ के नाम पर भी रास्ते होते और हमें रास्ता दिखा रहे होते. गोरख पांडेय का एक शेर है- ‘ग़ालिबो-मीर की दिल्ली देखी, देख के हम हैरान हुए, उनका शहर लोहे का है, फूलों से कटता जाए है.’ फौलाद का लगने वाला मगर फूलों से कट जाने वाला ऐसा शहर शायरों की बस्तियों से ही बस सकता है.

मूल विषय पर लौटें. औरंगज़ेब ने मंदिरों को तोड़ कर मस्जिदें तामीर की. क्या अब आप मस्जिदों को तोड़ कर फिर मंदिरों में बदलेंगे ? इसके लिए आपको काफ़ी कुछ बदलना होगा. औरंगज़ेब का दौर लोकतंत्र का दौर नहीं था. उसने तो राजतंत्र की मर्यादा का भी अतिक्रमण किया. बताते हैं कि वह बहुत धार्मिक था. बहुत सादगी से रहता था, फ़कीरों की तरह ओढ़ता-पहनता-खाता था, यह भी बताते हैं कि कई मंदिरों में भी सालाना इंतज़ाम के लिए वह दान दिया करता था. लेकिन इतना कुछ होने के बाद भी औरंगज़ेब हमारी स्मृति में एक ऐसे बादशाह की तरह ही दर्ज है जिसने हिंदू अवाम पर ज़ुल्म ढाए, जिसने मंदिर तोड़े, जिसने अकबर के साथ बननी शुरू हुई साझा तहज़ीब की गंगा-जमना को सबसे ज्यादा सुखाने की कोशिश की.

आप किस तरह याद रखे जाएंगे ? आपमें तो वह फ़कीरों वाली सादगी भी नहीं. फिर आप मस्जिदों को तोड़ने निकलेंगे तो सबसे पहले उस लोकतंत्र का मंदिर तोड़ना होगा जो आज़ादी की लड़ाई की लंबी तपस्या के बाद बनाया गया है. इसी लोकतंत्र के भीतर यह समझ थी कि अतीत में जो हुआ सो हुआ, लेकिन भविष्य में ऐसा कुछ न हो जिससे भारतीयता का ताना-बाना कमज़ोर पड़े. लेकिन इन दिनों लगातार इस ताने-बाने पर चोट की जा रही है.

लोकतंत्र को अल्पसंख्यकों की सुरक्षा की गारंटी नहीं, बल्कि बहुसंख्यकों के वर्चस्व के औज़ार के तौर पर बदला जा रहा है. संसद से लेकर संविधान और अदालत तक पर चोट की जा रही है. 15 अगस्त 1947 के बाद सभी धर्मस्थलों की धार्मिक हैसियत जस के तस बनाए रखने वाला पूजास्थल क़ानून 1991 अब सवालों से घिरा है.

यह सवाल भी इन्हीं दिनों लोकप्रिय हुआ है कि 15 अगस्त 1947 की तारीख़ से ही हम भारत की व्याख्या क्यों करें ? आखिर भारत सदियों पुराना देश है जिसकी एक अविच्छिन्न परंपरा रही है, उस पूरी परंपरा को भूल कर भारत के इतिहास को 1947 तक लाकर सीमित कर देना इतिहास के साथ भी अन्याय है और भारत के साथ भी.

एक हद तक यह वैध तर्क है. भारत 15 अगस्त 1947 से पहले भी था लेकिन उसके पहले वह या तो उपनिवेश था या फिर मुगलों के अवसान के बाद छोटी-छोटी रियासतों में बंटा एक बड़ा भौगोलिक युग्म था. भारतीयता जिसकी सार्वभौमिक पहचान थी. 15 अगस्त 1947 की तारीख़ इस राजनीतिक इतिहास को बदलती है, वह लोगों को एक आज़ाद मुल्क का नागरिक होने की गारंटी देती है, वह छोटी-छोटी इकाइयों में बंटे भारत को एक साथ जोड़कर एक विराट राजनीतिक इकाई में बदलती है और भारत भर के लोगों को ऐसी नागरिकता देती है जिसमें समानता और न्याय का यक़ीन बद्धमूल है. इस आज़ाद भारत का एक संविधान भी है जिसमें पुरानी असमानताओं को ख़ारिज करने और आगे बढ़ने की प्रतिज्ञा है.

लेकिन जो लोग आज भारत को 15 अगस्त 1947 से पहले देखना और ले जाना चाहते हैं, जो इसकी विपुल परंपराओं का हवाला देते हैं वे इन परंपराओं से अपने लिए क्या चुनते हैं ? दुर्भाग्य से ‘वसुधैव कुटुंबकम’ जैसी कुछ सूक्तियों को दुहराने के अलावा उनका जो वास्तविक चुनाव दिखाई पड़ता है, वह धार्मिक संकीर्णता है, जातिगत भेदभाव है और बहुत आक्रामक क़िस्म का वर्चस्ववाद है. ये भारत का और हिंदुत्व का स्वभाव बदलने निकले लोग हैं. यह भारतीयता के विचार में जो सर्वश्रेष्ठ है, उसका नकार करने की प्रवृत्ति है.

जब ये अतीत में जाते हैं तो सीधे दो हज़ार साल पहले चले जाते हैं और उसके बाद उसके भी पीछे की किन्हीं मिथकीय कथाओं का आसरा लेते हैं. वे उन हज़ार सालों को याद नहीं करते जिसने हिंदुस्तान की परंपरा को कई सांचों में ढाला, यहां के संगीत, नृत्य और यहां की कलाओं को कई रूप दिए. इस हिंदुस्तान को देखने वाली आंख उनके पास नहीं है.

वे तूतीए हिंद के नाम से मशहूर अमीर खुसरो जैसे संगीत-साहित्य मर्मज्ञ को नहीं देखना चाहते जिसने तबला और सितार बनाए और पहेलियां बुझाईं, वे इब्राहिम ख़िलजी को याद रखना चाहते हैं, क्योंकि इससे उनकी घायल स्मृतियों को दलील मिलती है. वे कबीर और जायसी को याद नहीं रखना चाहते क्योंकि उससे उनकी तर्क पद्धति लड़खड़ाती है. वे बीरबल जैसे वाकपटु, तानसेन जैसे संगीतज्ञ, रहीम जैसे कवि और टोडरमल जैसे वित्त व्यवस्थापकों से भरा अकबर का दरबार नहीं देखना चाहते, उनके लिए कहानी बस महाराणा प्रताप की है जिनका एक मिथकीय संस्करण उनकी स्मृति में गढ़ा जा रहा है. इस महाराणा प्रताप के हथियारों का वज़न दो सौ किलो से ऊपर हो जाता है.

वे शाहजहां की बनाई यादगार इमारतों, ताजमहल, जामा मस्जिद या लाल किला को नहीं देखना चाहते, उनकी दिलचस्पी ताजमहल की प्रामाणिकता नष्ट करने में है. वे दारा शिकोह को भूल जाना चाहते हैं और औरंगजेब को याद रखते हैं. वे ग़ालिब-मीर, ज़ौक़ और दाग़, और मज़ाज और ज़ोश की बेहद समृद्ध, आधुनिक और तरक्कीपसंद शायरी याद नहीं रखना चाहते, उनके लिए मुसलमान की पहचान दाढ़ी-टोपी, नमाज़-हिजाब, बिरयानी और दंगों तक सिमटी है.

वे मुगलई दौर के लज़ीज़ व्यंजनों का नाम नहीं लेते. वे उस हिंदी से परेशान होते हैं जो बीते तीन सौ साल में बनती रही और एक शीरीं और म़कबूल ज़ुबान की तरह उभरी. या शायद उन्हें इन सबकी जानकारी भी नहीं. अगर होती तो वे ग़ालिब और मीर से आंख मिलाकर शर्मिंदा होते कि हम कहां के बुतपरस्त और बुतशिकन दोनों बने हुए हैं.

लेकिन स्मृतियों का यह चुनाव बताता है कि आप अंततः क्या बनना चाहते हैं- दारा शिकोह या औरंगजेब ? हमारे यहां एक जमात औरंगज़ेब होने पर तुली है- बिना यह समझे कि उसकी एक कमज़ोरी ने न इस्लाम का मान बढ़ाया, न मुग़लों का और न ही अपना. हमारे ये नए औरंगज़ेब भी न राम का मान बढा रहे हैं न कृष्ण का. शिव तो शायद इनकी समझ से परे ही हैं-काशी विश्वनाथ मंदिर में कई छोटी-छोटी शिव प्रतिमाओं और शिवलिंगों को हटा कर उन्होंने जो गलियारा बनाया है, उसे देखने भले दुनिया भर के सैलानी आए, लेकिन शिव नहीं आएंगे. वैसे शायद यह उनका मक़सद भी नहीं.

उन्हें इतिहास से प्रतिशोध लेना है और वर्तमान को अपनी तरह से मोड़ना है लेकिन इनका साथ देने वालों को समझना होगा कि कट्टरता जब बढ़ती है तो वह किसी एक मोड़ पर रुक नहीं जाती- वह लगातार अपनी ही गति से ऊर्जा हासिल करती जाती है और नए इलाक़ों में जा-जाकर नए विचारों को नष्ट करना अपना कर्तव्य समझती है. पड़ोस के पाकिस्तान सहित कई मुल्कों में हम यह होता देख चुके हैं और अब अपने यहां घटता देख रहे हैं.

Read Also –

सरकार से सांठगांठ कर न्यायपालिका का एक हिस्सा संविधान बदलने का माहौल बना रहा है
गुंडे इतिहास तय कर रहे हैं और भारत गौरवशाली महसूस कर रहा है
नाम में क्या रखा है ? नाम में इतिहास रखा है जनाब !
एंटी मुसलिम कॉमनसेंस में जीने वाले लोग संविधान के शासन को नहीं मानते

प्रतिभा एक डायरी स्वतंत्र ब्लाॅग है. इसे नियमित पढ़ने के लिए सब्सक्राईब करें. प्रकाशित ब्लाॅग पर आपकी प्रतिक्रिया अपेक्षित है. प्रतिभा एक डायरी से जुड़े अन्य अपडेट लगातार हासिल करने के लिए हमें फेसबुक और गूगल प्लस पर ज्वॉइन करें, ट्विटर हैण्डल पर फॉलो करे… एवं ‘मोबाईल एप ‘डाऊनलोड करें ]

Donate on
Donate on
Pratibha Ek Diary G Pay
Pratibha Ek Diary G Pay
Load More Related Articles
Load More By ROHIT SHARMA
Load More In गेस्ट ब्लॉग

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Check Also

शातिर हत्यारे

हत्यारे हमारे जीवन में बहुत दूर से नहीं आते हैं हमारे आसपास ही होते हैं आत्महत्या के लिए ज…